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गाथा १३ रहता है इन्हे सयोगकेवली कहते है । इनका दूसरा नाम अरहतपरमेष्ठी भी है।
प्रश्न ३५-अयोगकेवली किसे कहते है ?
उत्तर- अरहंतपरमेष्ठीके जब योग नष्ट हो जाता है तबसे जब तक ये शरीरसे मुक्त नही होते इन्हे प्रयोगकेवली कहते है । प्रयोगकेवलीका काल "अ इ उ ऋ लु" इन पांच ह्रस्व अक्षरोके बोलनेमे जितना लगता है उतना ही है । इनके उपान्त्य समयमें ७२ और अन्तमे १३ व यदि तीर्थकर नही है तो १२ प्रकृतियोका क्षय हो जाता है।
प्रश्न ३६-- चौदहवे गुणस्थानके बाद क्या स्थिति होती है ?
उत्तर- अयोगकेवलीके अनन्तर ही शरीरसे भी मुक्त होकर दूसरे समयमे लोकके अग्रभागमे जा विराजमान होते है। इन्हे सिद्धभगवान कहते है।
प्रश्न ३७-- यथाख्यात चारित्र और केवलज्ञान होनेके बाद तुरन्त मोक्ष क्यों नही होता ?
उत्तर-यद्यपि १३३ गुणस्थानके पहिले समयमे रत्नत्रयको पूर्णता हो गई तथापि योगव्यापार १३वे गुणस्थानमे चारित्रमे कुछ मल उत्पन्न करता है अर्थात् परमयथाख्यात चारित्र नही होने देता है । जैसे- किसी पुरुषने चोरीका परित्याग कर दिया है तथापि यदि चोरका संसर्ग हो तो वहा दोष उत्पन्न करता है ।
प्रश्न ३८- सयोगकेवलीके अन्तमें तो योगका भी प्रभाव हो जाता है, फिर १३वें गुणस्थानके बाद ही निर्वाण क्यो नही हो जाता है ?
उत्तर-तेरहवे गुणस्थानके बाद योगका अभाव होनेपर भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अधातियाकर्मोका उदय चारित्रमल उत्पन्न करता है, अतः अघातिया कर्मोका उदयसत्त्व समाप्त होते हो शीघ्र मोक्ष होता है।
प्रश्न ३९- गुणस्थानोमे उत्तरोत्तर बढ़नेका व गुणस्थानातीत होनेका क्या उपाय है ?
उत्तर- सभी प्रात्मोन्नतियोंका व पूर्ण उन्नतिका उपाय एक ही है, उस उपायके पालम्बनकी हीनाधिकता हो, यह अन्य बात है । वह उपाय है अनादि अनन्त अहेतुक चैतन्यस्वभावका आलंबन । इस ही चैतन्यस्वभावका अपर नाम है कारणपरमात्मा या कारणब्रह्म । हमारी भी उन्नति इस निज चैतन्य कारणपरमात्माकी भावना और अवलम्बनसे होगी।
प्रश्न ४०-क्या यह स्वभाव सिद्ध अवस्थामे भी है ?
उत्तर-- यह चैतन्यस्वभाव या कारणपरमात्मा अथवा कारणब्रह्म सिद्ध अवस्था अर्थात् कार्यब्रह्म ब्रह्मकी स्थितिमे भी है, किन्तु वहा कार्यब्रह्म होनेसे कारणब्रह्मकी अप्रधानता है । स्वभाव तो अनादि अनन्त होता है । इस ही स्वभावको कारण रूपसे उपोदान करके केवलज्ञानोपयोगरूप परिणमते रहना होता रहता है ।