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सागर
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वा जप करता है उसके यसको हानि होती है अर्थात् उसको सबा अपकीर्ति बनी रहती है। जो पत्तोंके बने हुए आसनपर बैठकर जप करते हैं उनका चित्त सदा विभ्रमरूप अथवा डाँवाडोल रहता है। अर्थात् उनका चित इधर-उधर फिरता ही रहता है स्थिर नहीं रहता। जो अजिन अर्थात् हिरणके चमड़े मृगछाला बाघके चमड़े आदि आसनोंपर बैठकर जप करते हैं उनके ज्ञानका नाश हो जाता है। जो कंबल बनात, चकमा आदिव उनके बने हुए आसनोंपर बैठकर जय वा पूजा करता है उसका पाप सदा बढ़ता ही रहता । जो नीले रंग के वस्त्रके आसन पर बैठकर पूजा वा अप करता है वह अधिक दुःख भोगता है, हरे वस्त्र आसनपर बैठकर पूजा वा जप करता है उसका सदा मानभंग होता रहता है। इस प्रकार बोषवाले आसन बतलाये । इन दोषवाले आसनोंको छोड़कर पहले लिखे हुए चार आसन हो ग्रहण करना चाहिये । इन चार आसनोंपर बैठकर पूजा वा जप करनेसे शुभ फल होता है, और वह इस प्रकार होता है। सफेद वस्त्र आसनपर बैठकर पूजा का जप करनेसे यशको वृद्धि होती है। हल्बीके रंगे वस्त्र आसनपर बैठकर पूजा वा जप करने से हर्षकी वृद्धि होती है। लाल वस्त्रका आसन सबसे श्रेष्ठ है तथा डाभका आसन सब कार्योंको सिद्धि करनेवाला और सबसे उत्तम है। कहनेका यि यह है कि सब आसनोंमें डाभका आसन सबसे श्रेष्ठ है सो ही धर्मरकि नामक ग्रन्थ में लिखा है
वंशासने दरिद्रः स्यात्पाषाणे व्याधिपीडितः । धरण्यां दुःखसंभूतिर्दोर्भाग्यं दारुकासने ॥ १५ ॥ तृणासने यशोहानिः पल्लवे चित्तविभ्रमः । अजिने ज्ञाननाशः स्यात्कंबले पापवर्द्धनम् ॥ १६ ॥ नीले वस्त्रे परं दुःखं हरिते मानभंगता । श्वेतवस्त्र यशोवृद्धिः हरिद्रे हर्षवर्द्धनम् ॥ १७॥ रक्तवस्त्र' परं श्रेष्ठं प्राणायामविधौ ततः । सर्वेषां धर्मसिद्धयर्थं दर्भासनं तु चोत्तमम् ॥१८॥
इसके सिवाय हरिवंशपुराण में लिखा है कि श्रीकृष्णने समुद्र के किनारे तेला स्थापन कर जाभके आसनपर बैठकर अपने कार्यकी सिद्धि की तथा आदिपुराणमें जो गर्भाम्बय आवि क्रियाएं लिखी हैं उनमें भी के आसनका ही विशेष वर्णन लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि डाभका आसन ही सबसे उत्तम है । १. आजकल चटाई पाटा आदिपर जो जप करते हैं, वे भूलते हैं, आगे लिखे श्लोक देखने चाहिये ।
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