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प्रस्तावना
कल्पना-शक्ति में अधिक विकास हुआ जिससे अलंकारों का आविर्भाव हुआ और वह धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। प्रारम्भ में अलंकारों की संख्या चार थी पर अब वह बढ़ते-बढ़ते शतोपरि हो गयी। इस समय की भाषा क्लिष्ट और कल्पना से अनुस्यूत थी। इस काल में संस्कृत भाषा का भाण्डार जितना अधिक भरा गया उतना अन्य कालों में नहीं। संस्कृत भाषामय उपलब्ध जैनग्रन्थों की अधिकांश रचना भाष्यकाल, पुराणकाल और काव्यकाल में हुई है।
प्राकृत
यह ठीक है कि संस्कृत भाषानिबद्ध जैनग्रन्थ भाष्यकाल से पहले के उपलब्ध नहीं हो रहे हैं परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उसके पहले जैनों में ग्रन्थनिर्माण की पद्धति नहीं थी और उनकी निज की कोई भाषा नहीं थी। सदा ही जैनाचार्यों का भाषा के प्रति व्यामोह नहीं रहा है। उन्होंने भाषा को सिर्फ साधन समझा है, साध्य नहीं। यही कारण है कि उन्होंने सदा जनता को जनता की भाषा में ही तत्त्वदेशना दी है। ईसवी संवत् से कई शताब्दियों पूर्व भारतवासियों की जनभाषा प्राकृत भाषा रही है। उस समय जैनाचार्यों: की तत्त्वदेशना प्राकृत में ही हुआ करती थी। बौद्धों ने प्राकृत की एक शाखा मागधी को अपनाया था जो बाद में पालि नाम से प्रसिद्ध हई। बौद्धों के त्रिपिटक ग्रन्थ ईसवी पूर्व की रचना माने जाते हैं । जैनियों के अंगग्रन्थों की भाषा ईसवी पूर्व की है, भले ही उनका वर्तमान संकलन पीछे का हो।
कुछ लोगों की ऐसी धारणा रही कि प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से हुई और उस धारणा में बल देने वाला हुआ प्राकृत व्याकरण का आद्यसूत्र 'प्रकृतिः संस्कृतम्। परन्तु यथार्थ मे बात ऐसी नहीं है। प्राकृत, भारत की प्राचीनतर साधारण बोलचाल की भाषा है। ई०पू० तृतीय शताब्दी के मौर्य सम्राट अशोक के निर्मित जो शिलालेख भारतवर्ष के अनेक प्रान्तों में हैं उनकी भाषा उस समय की प्राकृत भाषा मानी जाती है। इससे यह स्पष्ट है कि महाभाष्यकार के कई शतक पूर्व से ही जनसाधारण की भाषाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की प्राकृत थीं। प्राकृत का अर्थ स्वाभाविक है। जैनियों के आगम ग्रन्थ इसी प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं।
चंकि अशोक के शिलालेखों की भाषा विभिन्न प्रकार की प्राकृत है और महाकवियों के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत भाषाओं में भी विविधता है इसलिए कहा जा सकता है कि ईसा के पूर्व ही प्रान्तभेदसे प्राकृत के अनेक भेद हो गये थे । वररुचिने अपने 'प्राकृतप्रकाश' में प्राकृत सामान्य के अतिरिक्त उसके तीन भेद १ शौरसेनी, २ मागधी और ३ पैशाची बताये हैं । हेमचन्द्र ने अपने 'हैम व्याकरण' में १ शौरसेनी, २ मागधी. ३ पैशाची, ४ चूलिका पैशाची और ५ अपभ्रंश ये पाँच भेद माने हैं। त्रिविक्रम ने अपनी 'प्राकृतसूत्रवृत्ति' में और लक्ष्मीधरने ‘षड्भाषाचन्द्रिका में इन्हीं भेदों का निरूपण किया है। मार्कण्डेय ने 'प्राकृतसर्वस्व' में १ भाषा, २ विभाषा, ३ अपभ्रंश और ४ पैशाची ये चार भेद मानकर उनके निम्नांकित १६ अवान्तर भेद माने हैं, १ महाराष्ट्री, २ शौरसेनी,३ प्राची, ४ आवन्ती, ५ मागधी, ६ शाकारी, ७ चाण्डाली, ८ शाबरी, ६ आभीरिका, १० टाक्की, ११ नागर, १२ ब्राचड, १३ उपनागर, १४ कैकय, १५ शौरसेन और १६ पांचाल । इनमें प्रारम्भ के पांच 'भाषा' प्राकृत के, छह से दस तक 'विभाषा' प्राकृत के, ग्यारह से तेरह तक 'अपभ्रंश' के और चौदह से सोलह तक 'पैशाची' के भाषा भेद माने हैं। रुद्रट ने नाटक में निम्नलिखित ७ भेद स्वीकृत किये हैं : १ मागधी, २ आवन्ती, ३ प्राच्या, ४ शूरसेनी, ५ अर्धमागधी, ६ वालीका और ७ दाक्षिणात्या ।
__ इस प्रकार प्राकृत भाषा-साहित्य का भी अनुपम भाण्डार है जिसमें एक-से-एक बढ़कर ग्रन्थरत्न प्रकाशमान हैं । संस्कृत और प्राकृत के बाद अपभ्रंश भाषा का प्रचार अधिक बढ़ा । अतः उस भाषा में भी जैन ग्रन्थकारों ने विविध साहित्य की रचना की है। महाकवि स्वयम्भू, महाकवि पुष्पदन्त, महाकवि रइधू आदि की अपभ्रंश भाषामय विविध रचनाओं को देखकर हृदय आनन्द से भर जाता है, और ऐसा लगने लगता है कि इस भाषा की श्रीवृद्धि में जैन लेखक ने बहुत अधिक कार्य किया है। यह सब लिखने का तात्पर्य यह है कि