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प्रस्तावना
पंक्तियां हैं और प्रति पंक्ति में ३५ से ४० तक अक्षर हैं। लिपि सुवाच्य और प्रायः शुद्ध है। यह लिपि किसी कर्णाटक प्रति से की हुई मालूम होती है। अन्तिम पत्रों का नीचे का हिस्सा जीर्ण हो गया है। यह पुस्तक बहुत प्राचीन मालूम होती है। इसके अन्त में निम्नांकित लेख है
"श्रीवीतरागाय नमः । सं० १२२४ वै००७ लिपिरियं विश्वसेन ऋषिणा उदयपुरनगरे श्रीमद्भगवजिन्नालये । शुभं भूयात् श्रीः श्रीः ।"
इसका सांकेतिक नाम 'ख' है ।
११. 'ल' प्रतियह प्रति श्रीमान् पण्डित लालारामजी शास्त्री के हिन्दी अनुवाद सहित है। इसका प्रकाशन उन्हीं की ओर से हुआ है । ऊपर श्लोक देकर नीचे उनका अनुवाद दिया गया है। इसमें कितने ही मल श्लोकों का पाठ परम्परा से अशुद्ध हो गया है। यह संस्करण अब अप्राप्य हो गया है। इस पुस्तक का सांकेतिक नाम 'ल' है।।
१२. 'म' प्रति—यह पुस्तक बहुत पहले मराठी अनुवाद सहित जैनेन्द्र प्रेस कोल्हापुर से प्रकाशित हुई थी। स्व० ५० कल्लप्पा भरमप्पा 'निटवे' उसके मराठी अनुवादक हैं । ग्रन्थाकार में छपने के पहले सम्भवतः यह अनुवाद सेठ हीराचन्द नेमिचन्दजी के जैन बोधक में प्रकाशित होता रहा था। इसमें श्लोक देकर उनके नीचे मराठी भाषा में अनुवाद दिया गया है। मूलपाठ कई जगह अशुद्ध है। पं० लालारामजी ने प्रायः इसी पुस्तक के पाठ अपने अनुवाद में लिये हैं। यह संस्करण भी अब अप्राप्य हो चुका है। इसका सांकेतिक नाम 'म' है।
इस प्रकार १२ प्रतियों के आधार पर इस ग्रन्थ का सम्पादन हुआ है। जहाँ तक हो सका है 'त' प्रति के पाठ ही मैंने मूल में रखे हैं। अन्य प्रतियों के पाठभेद उनके सांकेतिक नामों के अनुसार नीचे टिप्पण में दिये हैं। 'अ' और 'प' प्रति में कितने ही पाठ अत्यन्त अशुद्ध हैं जिन्हें अनावश्यक समझकर छोड़ दिया है। 'ल' और 'म' प्रति के भी कितने ही अशुद्ध पाठों की उपेक्षा की गयी है। जहाँ 'त' प्रति के पाठ की अर्थ संगति नहीं बैठायी जा सकी है वहाँ 'ब' प्रति के पाठ मूल में दिये हैं और 'त' प्रति के पाठ का उल्लेख टिप्पण में किया गया है। परन्तु ऐसे स्थल समग्र ग्रन्थ में दो-चार ही होंगे । 'त' प्रति बहुत शुद्ध है। पं० आशाधरजी ने सागारधर्मामृत में मूलगुणों का वर्णन करते समय जिनसेनाचार्य का निम्न श्लोक उद्धृत किया है :
"हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाश्च बादरभेदात् ।
चूतान्मांसान्मधाद्विरतिर्गहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ॥" परन्तु हमारे द्वारा उपलब्ध प्रतियों में यह श्लोक देखने में नहीं आया। पं० कैलाशचन्द्रजी आदि कुछ विद्धानों ने इस श्लोक के विषय में मुझसे पूछ-ताछ भी की। सम्भव है किसी अन्य प्रति में यह श्लोक हो। कर्णाटक लिपि के सुनने तथा नागरी लिपि में उसे परिवर्तित करने में श्री पं० देवकुमारजी न्यायतीर्थ ने बहुत परिश्रम किया है। श्री गणेश विद्यालय में उस समय अध्ययन करने वाले श्री नमिराज, पद्मराज और रघुराज विद्यार्थियों से भी मुझे कर्णाटक लिपि से नागरी लिपि करने में बहुत सहयोग प्राप्त हुआ है । समग्र ग्रन्थ के पाठभेद लेने में मुझे दो वर्ष का ग्रीष्मावकाश लगाना पड़ा है और दोनों ही वर्ष उक्त महाशयों ने मुझे पर्याप्त सहयोग दिया है इसलिए इस साहित्य-सेवा के अनुष्ठान में मैं उनका आभारी हैं।
संस्कृत
संस्कृत शब्द 'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु को 'क्त' प्रत्यय जोड़ने से बनता है । 'सम्' और 'परि' उपसर्ग से सहित 'कृ' धातु का अर्थ जब भूषण अथवा संघात रहता है तभी उस धातु को सुडागम होता है । इसलिए