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माविपुराण इस लेख से लेखनकाल स्पष्ट नहीं होता। इसका सांकेतिक नाम 'अ' है।
५.''प्रति—यह प्रति मारवाड़ी मन्दिर शक्कर बाजार इन्दौर के पं० खेमचन्द्र शास्त्री के सौजन्य मे प्राप्त हुई है। कहीं-कहीं पार्श्व में चारों ओर उपयोगी टिप्पण दिये गये हैं। पत्र-संख्या ५००, पंक्ति-संख्या प्रतिपत्र ११ और अक्षर-संख्या प्रति पंक्ति ३५ से ३८ तक है। अक्षर सुवाच्य हैं, दशा अच्छी है, लिखने का संवत् नहीं है, आदि अन्त में कुछ लेख नहीं है। प्रथम पत्र जीर्ण होने के कारण दूसरा लिखकर लगाया गया है । प्रायः शुद्ध है । इन्दौर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'इ' है।----
६. 'स' प्रति-यह प्रति पूज्य बाबा श्री १०५ क्षुल्लक गणेश प्रसादजी वर्णी की सत्कृपा से उन्हीं के सरस्वती भवन से प्राप्त हुई है। लिखावट अत्यन्त प्राचीन है, पड़ी मात्राएँ हैं जिससे आधुनिक वाचकों को अभ्यास किये बिना बाँचने में कठिनाई जाती है। जगह-जगह प्राकरणिक चित्रों से सजी हुई है। उत्तरार्ध में चित्र नहीं बनाये जा सके हैं अतः चित्रों के लिए खाली स्थान छोड़े गये हैं। कितने ही चित्र बड़े सुन्दर हैं । पत्र-संख्या ३६४ है, दशा अच्छी है, आदि-अन्त में कुछ लेख नहीं है। पूज्य वर्णीजी को यह प्रति बनारस में किसी सज्जन द्वारा भेंट की गयी थी ऐसा उनके कहने से मालूम हुआ। सागर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'स' है।
७.''प्रति-यह प्रति पन्नालालजी अग्रवाल दिल्ली की कृपा से प्राप्त हुई। इसमें मूल श्लोकों के साथ ही ललितकीति भट्टारककृत संस्कृत टीका दी हुई है। पत्र-संख्या ८६८ है, प्रति पत्र पंक्तियां १२ और प्रति पंक्ति अक्षर-संख्या ५० से ५२ तक है । लेखनकाल अज्ञात है । अन्त में टीकाकार की प्रशस्ति दी हुई है जिससे टीका-निर्माण का काल विदित होता है। प्रशस्ति इस प्रकार है: "वर्षे सागरनागभोगिकमिते मागेच मासेऽसिते
पने पक्षतिसत्तियो रविदिने टीका कृतेयं बरा। काष्ठासंघवरे च माधुरवरे गच्छे गणे पुष्करे
जेव: श्रीजगदादिकोतिरभवत् ख्यातो जितात्मा महान् । तच्छिष्येण च मन्दतान्त्रितधिया भट्टारकत्वं यता
शुम्भ मलितादिकीर्त्यभिधया ख्यातेन लोके भ्रूवम् । राजश्रीजिनसेनभाषितमहाकाव्यस्य भक्त्या मया
संशोध्यैव सुपठ्यतां बुधजनः शान्ति विधायावरात् ।" दिल्ली से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'द' है।
८. 'प्रति-यह प्रति श्री पं० भुजबली शास्त्री के सौजन्य से मूडबिद्री से प्राप्त हुई थी। इसमें ताड़पत्र पर मूल श्लोकों के नम्बर देकर संस्कृत में टिप्पण दिये गये हैं। प्रकृत ग्रन्थ में श्लोकों के नीचे जो टिप्पण दिये गये हैं वे इसी प्रति से लिये गये हैं। इस टिप्पण में "श्रीमते सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुचे। धर्मचक्रभते भत्रे नमः संसारभीमः" इस आद्य श्लोक के विविध अर्थ किये हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख हिन्दी अनुवाद में किया गया है। इसकी लिपि कर्णाटक लिपि है । इस प्रति का सांकेतिक नाम 'ट' है। टिप्पणकर्ता के नाम का पता नहीं चलता है।
६.'क' प्रति—यह प्रति भी टिप्पण की प्रति है। इसकी प्राप्ति जैन सिद्धान्त भवन आरा से हुई है। ताड़पत्र पर कर्णाटक लिपि में टिप्पण दिये गये हैं। इसमें प्रथम श्लोक का 'ट' प्रति के समान विस्तृत टिप्पण नहीं है। यह 'ट' प्रति की अपेक्षा अधिक सुवाच्य है। बहुत-से टिप्पण 'ट' प्रति के समान हैं, कुछ असमान भी हैं। टिप्पणकार का पता नहीं चलता है । इसका सांकेतिक नाम 'क' है।
१०. 'ख' प्रति—यह टिप्पण की नागरी लिपि की पुस्तक मारवाड़ी मन्दिर शक्कर बाजार इन्दौर से पं० खेमचन्द्रजी शास्त्री के सौजन्य से प्राप्त हुई है। इसमें पत्र-संख्या १७४ है। प्रति पत्र में १० से १२ तक