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माविपुराण
संस्कृत भाषा से सुसंहत और परिष्कृत भाषा का ही बोध होता है। इस भाषा की संस्कृत संज्ञा अन्वर्थ संज्ञा है। यह भाषा, भाषा-प्रवर्तकों के द्वारा प्रचारित नियम रेखाओं का उल्लंघन न करती हुई हजारों वर्षों से भारतभू-खण्ड पर प्रचलित है। वैदिक काल से लेकर अब तक इस भाषा में जो परिवर्तन हुए हैं वे यद्यपि अल्पतर हैं, फिर भी तात्कालिक ग्रन्थों के पर्यवेक्षण से यह तो मानना ही पड़ता है कि इसका विकास कालक्रम से हुआ है । भाषा के मर्मदर्शी विद्वानों ने संस्कृत भाषा के इतिहास को तीन कालखण्डों में विभक्त किया है । चिन्तामणि विनायक वैद्य ने १.श्रुतिकाल, २. स्मृतिकाल और ३. भाप्यकाल ये तीन कालखण्ड माने हैं। सर भाण्डारकर महाशय ने भाषा-सरणि को प्रधानता देकर १. संहिताकाल, २. मध्य संस्कृतकाल और ३. लौकिक संस्कृतकाल ये तीन कालखण्ड माने हैं। साथ ही इस लौकिक संस्कृत की भी तीन अवस्थाएँ मानी हैं । संस्कृत भाषा के क्रमिक विकास का परिज्ञान प्राप्त करने के लिए उसके निम्नांकित भागों पर दृष्टि देना आवश्यक है :
१. संहिताकाल-इस भाग में वेदों की संहिताओं का समावेश है, जिनमें मन्त्रात्मक अनेक स्तुतियों का संग्रह है । इस भाग की संस्कृत से आज की संस्कृत में बहुत अन्तर पड़ गया है । इस भाषा के शब्दों के उच्चारण में उदात्तादि स्वरों का खासकर ध्यान रखना पड़ता है। इसके शब्दों की सिद्धि करने वाला केवल पाणिनिव्याकरण है।
२. ब्राह्मणकाल-संहिताकाल के बाद ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषदादि ग्रन्थों की भाषा का काल आता है जो कि 'ब्राह्मणकाल' नाम से प्रसिद्ध है। इस काल की भाषा संहिताकाल से बहुत पीछे की है और पाणिनिव्याकरण के नियम प्राय: इसके अनुकूल हैं । इस काल की रचना सरल, संक्षिप्त और क्रिया-बाहुल्य से युक्त हुआ करती थी। संहिताकाल और ब्राह्मणकाल का अन्तर्भाव श्रुतिकाल में हो सकता है ।
३. स्मतिकाल-श्रुतिकाल के बाद से महाभाष्यकार पतंजलि के समय तक का काल स्मृतिकाल कहलाता है । इस काल का प्रारम्भ यास्क और पाणिनि के समय से माना गया है । अनेक सूत्र ग्रन्थ, रामायण तथा महाभारतादि की भाषा इस काल की भाषा है। इस काल की रचना भी श्रुतिकाल की रचना के समान सरल और दीर्घसमासरहित थी। श्रुतिकाल में ऐसे कितने ही क्रियाओं के प्रयोग होते थे जो कि व्याकरण से सिद्ध नहीं हो सकते थे और आर्ष प्रयोग के नाम पर जिनका प्रयोग क्षन्तव्य माना जाता था वे इस काल में धीरे-धीरे कम हो गये थे।
४. भाष्यकाल-इस काल में अनेक दर्शनों के सूत्र-ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गये हैं। सूत्रों की सरल संक्षिप्त रचना को भाष्यकारों द्वारा विस्तृत करने की मानो होड़-सी लग गयी थी। न्याय, व्याकरण, धर्म आदि विविध विषयों के सूत्र-ग्रन्थों पर इस काल में भाष्य लिखे गये हैं। इस काल की भाषा भी सरल, दीर्घ समासरहित तथा जनसाधारणगम्य रही है।
५. पुराणकाल-पुराणों का उल्लेख यद्यपि संहिताओं, उपनिषदों और स्मृति आदि में आता है इसलिए पुराणों का अस्तित्व प्राचीन काल से सिद्ध है परन्तु संहिता या उपनिषद्कालीन पुराण आज उपलब्ध नहीं, अतः उपलब्ध पुराणों की अपेक्षा यह कहा जा सकता है कि भाष्यकाल के आस-पास ही पुराणों की रचना शुरू हुई है, जिसमें रामायण तथा महाभारत की शैली का अनुगमन कर विविध पुराणों और उपपुराणों का निर्माण हुआ है । इनकी भाषा भी दीर्घ-समासरहित तथा अनुष्टुप् छन्द प्रधान रही है। धीरे-धीरे पुराणों की रचना काव्यरचना की ओर अग्रसर होती गयी, जिससे पुराणों में भी केवल कथानक न रहकर कविजनोचित कल्पनाएँ दृष्टिगत होने लगी और अलंकार तथा प्रकरणों के आदि अन्त में विविध छन्दों का प्रवेश होने लगा। इस काल में कुछ नाटकों की भी रचना हुई है।
काव्यकाल-समय के परिवर्तन से भाषा में परिवर्तन हुआ। पुराणकाल के बाद काव्यकाल आया। इस काल में गद्यपद्यात्मक विविध ग्रन्थ नाटक, आख्यान, आख्यायिका आदि की रचना हुई। कवियों की