Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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पहले जिज्ञासा उत्पन्न होती है, फिर ज्ञान होता है; तब क्रिया या आचरण का नम्बर आता है। ____ ऋग्वेद में भी ऐसा उल्लेख मिलता है। ऋषि जब अपने सामने विराट् लोक को फैला हुआ देखता है, तो उसकी वाणी एकाएक मुखरित हो उठती है, 'कुतः आजाता, कुतः इयं विसृष्टिः' आचारांग के प्रस्तुत सूत्र में एवं इस वाक्य में आत्मा एवं लोक के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा समान रूप से है। अन्तर इतना ही है कि आचारांग में व्यष्टि की दृष्टि से वर्णन किया गया है और ऋषि समष्टि की दृष्टि से सोचता है। परन्तु दोनों ओर जिज्ञासा एक ही है-लोक के स्वरूप का परिज्ञान करने की, संसार के रहस्य को जानने की। यह ठीक है कि दोनों की व्यक्तिगत और समष्टिगत दृष्टि एवं चिन्तन के स्तर का अन्तर अवश्य है और वह प्रत्येक व्यक्ति में देखा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्म-ज्ञान के लिए जिज्ञासा पहली आवश्यकता है और यह जिज्ञासा वृत्ति सभी भारतीय आस्तिक दर्शनों में समान रूप से पाई जाती है।
प्रथम उद्देशक में प्रयुक्त 'परिण्णा परिजाणियव्वा, परिणाम' आदि शब्द 'परि' उपसर्ग पूर्वक 'ज्ञा' धातु से निष्पन्न हैं। इसका अर्थ विवेक करना, जानना और पृथक् करना, अर्थात् हिंसा एवं शस्त्रों की भयंकरता के स्वरूप को जानकर उससे विरत होना परिज्ञा है। बौद्ध ग्रन्थों में भी ‘परिज्ञा' शब्द परित्याग के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
इसी प्रकार ‘संज्ञा' शब्द भी अनुभवन और ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अनुभवन-संज्ञा कर्मोदय जन्य है और उसके आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि 16 भेद हैं और ज्ञान-संज्ञा के मतिज्ञान आदि 5 भेद हैं और वह क्षय या क्षयोपशम जन्य है। प्रस्तुत उद्देशक में 'संज्ञा' शब्द का ज्ञान अर्थ में प्रयोग किया गया है। ___प्रथम उद्देशक में सामान्य रूप से जीव का वर्णन करके साधक को जीव हिंसा से निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है। उसे हिंसा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करके उससे निवृत्त होने को कहा है और हिंसा से निवृत्त साधक को ही मुनि कहा गया है।
द्वितीय उद्देशक के प्रारम्भ में बताया गया है कि लोक आर्त है, परिजीर्ण है, दुर्बोध है, बाल है। वह स्वयं व्यथित है, पीड़ित है और अन्य प्राणियों को भी पीड़ित करता है। संताप एवं परिताप देता है। आचारांग में संसार की आर्तता का पुनः पुनः