Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम् प्रमाउपासएम (LiUITHUULABILLULLLLL श्री उमास्वातिजी श्री तत्वार्थाधिगम सूत्रम् * तस्योपरि सबोधिका टीका तथा हिन्दी विवेचनामृतम् (भाग-७, ८) *कर्ता* आचार्य विजय सशील सरीश्वर जी म. POHTAKAMANA CHODAI CER Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् सुशील सूरीश्वर जी म. संक्षिप्त जीवन परिचय जन्म - वि. सं. १९७३, भाद्रपद शुक्ला द्वादशी, चाणस्मा (उत्तर गुजरात) २८-९-१९१७ माता श्रीमती चंचलबेन मेहता पिता श्री चतुरभाई मेहता दीक्षा प. पू. आचार्य भगवंत श्री लावण्य सूरीश्वर जी म. सा. की शुभ निश्रा में वि. सं. १९८८, कार्तिक (मार्गशीर्ष कृष्णा २, उदयपुर (राज. मेवाड़) २७११-१९३१ गणि पदवी - वि. सं. २००७, कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्णा ६, वेरावल (गुजरात) १-१२-१९५० पंन्यास पदवी - वि. सं. २००७, वैशाख शुक्ला ३, अक्षय तृतीया, अहमदाबाद (गुजरात) ६-५-१९९१ उपाध्याय पद- वि. सं. २०२१, माघ शुक्ला ३, मुंडारा (राजस्थान) ४-२-१९६५ आचार्य पद वि. सं. २०२१, माघ शुक्ला ५ ( बसन्त पंचमी) मुंडारा ६-२-१९६५ अलंकरण १. साहित्यरत्न, शास्त्राविशारद एवं कविभूषण अलंकरण - श्री चरित्रनायक को मुंडारा में पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयदक्ष सूरीश्वर जी म. सा. के वरदहस्त से अर्पित हैं। २. जैनधर्मदिवाकर- वि. सं. २०२७ में श्री जैसलमेर तीर्थ के प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ३. मरुधरदेशोद्वारक- वि. सं. २०२८ में रानी स्टेशन के प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ४. तीर्थप्रभावक- वि. सं. २०२९ में श्री चंवलेश्वर तीर्थ में संघमाला के भव्य प्रसंग पर श्री केकड़ी संघ द्वारा। ५. राजस्थान- दीपक- वि. सं. २०३१ में पाली नगर में प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ६. शासनरत्न- वि. सं. २०३१ में जोधपुर नगर में प्रतिष्ठाप्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ७. श्री जैनशासन शणगार-वि.स. २०४६ मेडता शहर में श्री अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रसंग पर। ८. प्रतिष्ठा शिरोमणि- वि. सं. २०५० श्री नाकोड़ा तीर्थ में चातुर्मास के प्रसंग पर । 000000 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीनेमि-लावण्य-वक्ष-सुशील-ग्रन्थमालारत्न १०६ वाँ , पूर्वधर-परमर्षि-सुप्रसिद्धश्रीउमास्वातिवाचकप्रवरेण विरचितम् + श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥ [ सप्तमोऽध्यायः+अष्टमोऽध्यायः ] - तस्योपरि - शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवत्ति - तपोगच्छाधिपति - महाप्रभावशालिश्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकतीर्थोद्धारक - परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज - श्रीमद्विजय3 नेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार - साहित्यसम्राट् - व्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद - कविरत्न - सप्ताधिकशतलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक - परमपूज्याचार्यप्रवर - श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर - संयमसम्राटशास्त्रविशारद - कविदिवाकर-व्याकरणरत्न - परमपूज्याचार्यवर्य - श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्धपट्टधर-शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषणेतिपदसमलङ्कृतेन है ___ प्राचार्यश्रीमद्विजयसुशीलसूरिणा - विरचिता - 'सुबोधिका टोका' एवं तस्य सरलहिन्दीभाषायां विवेचनामृतम् ___... प्रकाशक * श्री सुशील साहित्य-प्रकाशन समितिः C/ संघवी श्री गुणदयालचन्द भण्डारी राइकाबाग, मु. जोधपुर (राजस्थान) N Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRNOR * सम्पादक * जैनधर्मदिवाकर-शासनरत्न-तीर्थप्रभावकराजस्थानदीपक-मरुधरदेशोद्धारक परम पूज्याचार्यदेव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरः N RNVINITION * सत्प्रेरक * संयम-वयस्थविर-मधुरभाषी परमपूज्य वाचकप्रवर ... श्रीविनोदविजय जी गणिवर्यः श्रीवीर सं. २५२७ प्रतियाँ १००० विक्रम सं. २०५७ प्रथमावृत्तिः नेमि सं. ५२ मूल्यम्-५५.०० 212KZN2N2KWKWKWKWKWKWKWKWKWKWKZNAK2KX2K2KXKONON ॐ द्रव्यसहायकः ॐ साहित्यमनीषि-कार्यदक्ष-सुमधुरप्रवचनकारक-परमपूज्याचार्य - श्रीमद्विजयजिनोत्तमसूरीश्वराणां सदुपदेशाद् द्रव्यसहायकः श्रीरामा - नगरस्थ श्रीजैनश्वेताम्बरमूर्तिपूजकसंघः श्रीरामानगर (जि. जालोर) राजस्थान-मरुधरः । # সানি-থান সু 292929292021222NN2WZ10901212XN21999 प्राचार्यश्री सुशीलसूरि जैनज्ञानमन्दिर शान्तिनगर, मु. सिरोही-३०७ ००१ (राजस्थान) [ २ ] श्री अष्टापद जैन तीर्थ सुशील-विहार मु. रानी स्टेशन-३०६ ११५ जिला-पाली (राजस्थान) [ ३ ] श्री जैनसंघ पेढ़ी मु. रामानगर जि. जालोर (राजस्थान) * मुद्रक * ताज प्रिन्टर्स, जोधपुर (राज.) SUNWAZAZAZAZAZAZAZAZ ZAZAZAZAZ ZAZAL Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | * प्रकाशकीय-निवेदन * 'श्रीतत्त्वार्थाधिगम-सूत्रम्' नाम से सुप्रसिद्ध महान् ग्रन्थ आज भी श्रीजैनदर्शन के अद्वितीय आगमशास्त्र के सार-रूप श्रेष्ठ है। इसके रचयिता पूर्वधर-परमर्षि सुप्रसिद्ध परम पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति जी महाराज हैं। इस महान् ग्रन्थ पर भाष्य, वृत्ति-टीका तथा विवरणादि विशेष प्रमाण में उपलब्ध हैं एवं विविध भाषामों में भी इस पर विपुल साहित्य रचा गया है। उनमें से कुछ मुद्रित भी है और कुछ प्राज भी प्रमुद्रित है। इस तत्त्वार्थाधिगम सूत्र पर समर्थ विद्वान् पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद्विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा. ने भी सरल संस्कृत भाषा में संक्षिप्त 'सुबोधिका टीका' रची है तथा सरल हिन्दी भाषा में अर्थ युक्त विवेचनामृत अतीव सुन्दर लिखा है । इसके प्रथम और द्वितीय अध्याय का पहला खण्ड, तृतीय और चतुर्थ अध्याय का दूसरा खण्ड तथा पांचवें और छठे अध्याय का तीसरा खण्ड सुबोधिका टीका व तत्त्वार्थविवेचनामृत सहित हमारी समिति की ओर से पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है। अब श्रीतत्त्वार्थाधिगम सूत्र के सातवें और पाठवें अध्याय का चतुर्थ खण्ड प्रकाशित करते हुए हमें अति हर्ष-पानन्द का अनुभव हो रहा है। परमपूज्य प्राचार्य म. श्री को इस ग्रन्थ की सुबोधिका टीका, विवेचनामृत तथा सरलार्थ बनाने की सत्प्रेरणा करने वाले उन्हीं के पट्टधर-शिष्यरत्न पूज्य उपाध्याय श्री विनोद विजय जी गणिवर्य महाराज हैं। हमें इस ग्रन्थरत्न को शीघ्र प्रकाशित करने की सत्प्रेरणा देने वाले भी पू. उपाध्याय जी म. हैं। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना हिन्दी भाषा में सुन्दर लिखने वाले पण्डितप्रवर श्री नरेन्द्र भाई कोरड़ीया, वरिष्ठ अध्यापक श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ ज्ञानशाला, नाकोड़ा तीर्थ (मेवानगर) वाले हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ के स्वच्छ, शुद्ध एवं निर्दोष प्रकाशन का कार्य डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी की देख-रेख में सम्पन्न हुमा है। ग्रन्थ-प्रकाशन में अर्थ-व्यवस्था का सम्पूर्ण लाभ सुकृत के सहयोगी श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, रामानगर, जालोर द्वारा लिया गया है । इन सभी का हम हार्दिक धन्यवाद पूर्वक प्राभार मानते हैं। यह ग्रन्थ चतुर्विध संघ के समस्त तत्त्वानुरागी महानुभावों के लिए तथा श्री जैनधर्म में रुचि रखने वाले अन्य तत्त्वप्रेमियों के लिए भी प्रति उपयोगी सिद्ध होगा। इसी प्राशा के साथ यह ग्रन्थ स्वाध्यायार्थ प्रापके हाथों में प्रस्तुत है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M (21212 221 222 222 22222 22232ZS 16 TML PRO anell dlc2 1422 336 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दन हो जिन चरणे श्री रामा नगर मंडण- महाचमत्कारिक श्री सुमतिनाथ भगवान ASHश्री तुंबरू यक्ष श्री महाकाली यक्षिणी सारिarundaliftaar श्री नाकोडा भैरव देव पल भगवती माँ पद्मावती Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृत के सहयोगी क श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम् (सप्तमो अध्यायः + अष्टमो अध्यायः) ७ ८ ग्रन्थ के प्रकाशन में श्री रामा नगर शणगार श्री सुमतिनाथ जिनालय की महा मंगलकारी प्रतिष्ठा निमित्त प्रतिष्ठा : वि. सं. २०५६ माघ शुक्ल १४ शुक्रवार १८ फरवरी २००० श्री जैन संघ, श्री सुमतिनाथ जिनालय रामानगर रामा नगर (जि. जालोर - राजस्थान ) ने सुन्दर आर्थिक सहयोग प्रदान किया है। श्रुतभक्ति के महानलाभ की हार्दिक अनुमोदना के साथ सकल श्री संघ व कार्यकर्त्तागण को हार्दिक धन्यवाद साभार श्री सुशील - साहित्य प्रकाशन समिति Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रगुरुदेवस्य शताब्दिवर्षे समर्पण साहित्यसम्राट - व्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद - कविरत्न - पदविभूषितानां प्रगुरुदेवानां परमपूज्यानां आचार्यप्रवराणां श्रीमद - विजय - लावण्य - सूरीश्वराणां शताब्दिवर्षे श्रद्धावनतभावेन प्रगुरुदेव-गुणनिर्जितदासानुदासेन विजयसुशीलसूरिणा सादरं समयत प्रस्तुत-श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य सप्तम-अष्टमो ध्यायग्रन्थः । श्रीमत्तपोगच्छ - विभूषणाय, लावण्य - विख्यात-सुधीश्ववाय। शताब्दिवर्षे सुसमते च भक्त्या महाग्रन्थ प्रसूनमेतत् ॥ -विजयसुशीलसूचि सादर समर्पण Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन सम्राट नमामि सादरं नेमिसूरीशं साहित्य सम्राट नमामि सादरं लावण्यसूरीशं संयम सम्राट नमामि सादरं दक्षसूरीशं Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा शिरोमणि श्री अष्टापद जैन तीर्थ के संस्थापक सुमधुर प्रवचनकार ॥ नमामि सादरं सुशील सूरीशं ॥ ॥ नमामि सादरं जिनोत्तम सूरीशं Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन * प्रथम खण्ड से उद्धृत * * वन्दना * जैनागमरहस्यज्ञं, पूर्वधरं महर्षिणम् ।। वन्देऽहं श्रीउमास्वाति, वाचकप्रवरं शुभम् ॥ १ ॥ अनादि और अनन्तकालीन इस विश्व में जैनशासन सदा विजयवन्त है । विश्ववन्द्य विश्वविभु देवाधिदेव श्रमण भगवान महावीर परमात्मा के वर्तमानकालीन जैनशासन में परमशासनप्रभावक अनेक पूज्य प्राचार्य भगवन्त प्रादि भूतकाल में हुए हैं । उन प्राचार्य भगवन्तों की परम्परा में सुप्रसिद्ध पूर्वधर महर्षि-वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति महाराज का अतिविशिष्ट स्थान है। आपश्री संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। जन आगमशास्त्रों के और उनके रहस्य के असाधारण ज्ञाता थे। पञ्चशत [५००] ग्रन्थों के अनुपम प्रणेता थे, सुसंयमी और पंचमहाव्रतधारी थे एवं बहुश्रुतज्ञानवन्त तथा गीतार्थ महापुरुष थे । श्री जैन श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को सदा सम्माननीय, वन्दनीय एवं पूजनीय थे और आज भी दोनों द्वारा पूजनीय हैं। ग्रन्थकर्ता का काल : पूर्वधर महर्षि-वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज के समय का निर्णय निश्चित नहीं है, तो भी श्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्य की प्रशस्ति के पांच श्लोकों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार यह जाना जाता है कि शिवश्री वाचक के प्रशिष्य और घोषनन्दी श्रमण के शिष्य उच्चनागरी शाखा में हुए उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम' शास्त्र रचा। वे वाचनागुरु की अपेक्षा क्षमाश्रमण मुण्डपाद के प्रशिष्य और मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य थे। उनका जन्म न्यग्रोधिका में हुमा था। विहार करते-करते कुसुमपुर (पाटलिपुत्र-पटना) नाम के नगर में यह Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' नामक ग्रन्थ रचा । नाम उमा था । ( ६ ) आपके पिता का नाम स्वाति और माता का श्री उमास्वाति महाराज कृत 'जम्बूद्वीपसमासप्रकरण' के वृत्तिकार श्री विजयसिंह सूरीश्वर जी म. ने अपनी वृत्ति टीका के प्रादि में कहा है कि उमा माता और स्वाति पिता के सम्बन्ध से उनका नाम 'उमास्वाति' रखा गया । यानी वाचक श्री पन्नवणा सूत्र की वृत्ति में कहा है कि 'वाचकाः पूर्वविदः ।' का अर्थ पूर्वघर है । इस विषय में 'जैन परम्परा का इतिहास' भाग १ में भी कहा है कि "श्री कल्पसूत्र " के उल्लेख से जान सकते हैं कि प्रार्य दिन्नसूरि के मुख्य शिष्य श्रार्यशान्ति श्रेणिक से उच्चनागर शाखा निकली है । इस उच्चनागर शाखा में पूर्वज्ञान के धारक और विख्यात ऐसे वाचनाचार्य शिवश्री हुए थे । उनके घोषनन्दी श्रमण नाम के पट्टधर थे, जो पूर्वधर नहीं थे, किन्तु ग्यारह अंग के जानकार थे । पण्डित उमास्वाति ने घोषनन्दी के पास में दीक्षा लेकर ग्यारह अंग का अध्ययन किया । उनकी बुद्धि तेज थी। वे पूर्व का ज्ञान पढ़ सकें ऐसी योग्यता वाले थे । इसलिए उन्होंने गुरुप्राज्ञा से वाचनाचार्य श्रीमूल, जो महावाचनाचार्य श्रीमुण्डपाद क्षमाश्रमरण के पट्टधर थे, उनके पास जाकर पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया । श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्य में 'उमास्वाति महाराज उच्चनागरी शाखा के थे', ऐसा उल्लेख है । उच्च नागरी शाखा श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा के पाठे प्राये हुए प्रार्यदिन के शिष्य श्रार्य शान्ति श्रेणिक के समय में निकली है । अतः ऐसा लगता है कि वाचकप्रवर श्री उमास्वाति जी महाराज विक्रम की पहली से चौथी शताब्दी पर्यन्त में हुए हैं । इस अनुमान के अतिरिक्त उनका निश्चित समय अद्यावधि उपलब्ध नहीं है । श्रीतत्त्वार्थसूत्र की भाष्यप्रशस्ति में श्रागत उच्चनागरी शाखा के उल्लेख से श्रीउमास्वातिजी की गुरुपरम्परा श्वेताम्बराचार्य श्रार्यश्री सुहस्तिसूरीश्वरजी महाराज की परम्परा में सिद्ध होती है । प्रभावक आचार्यों की परम्परा में वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज एक ऐसी विशिष्ट श्रेणी के महापुरुष थे, जिनको श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों समान भाव से सम्मान देते हैं और अपनी-अपनी परम्परा में Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानने में भी गौरव का अनुभव करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' नाम से ही प्रसिद्धि है तथा दिगम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' और 'उमास्वामी' इन दोनों नामों से प्रसिद्धि है। विशेषताएँ : जनतत्त्वों के अद्वितीय संग्राहक, पांच सौ ग्रन्थों के रचयिता तथा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र ग्रन्थ के प्रणेता पूर्वधर महर्षि-वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ऐसे युग में जन्मे जिस समय जैनशासन में संस्कृतज्ञ, समर्थ, दिग्गज विद्वानों की आवश्यकता थी। उनका जीवन अनेक विशेषतामों से परिपूर्ण था। उनका जन्म जैनजाति-जैनकुल में नहीं हुमा था, किन्तु विप्रकुल में हुआ था। विप्र-ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण प्रारम्भ से ही उन्हें संस्कृत भाषा का विशेष ज्ञान था। श्री जैनआगम-सिद्धान्त-शास्त्र का प्रतिनिधि रूप महान् ग्रन्थ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र उनके पागम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान को प्रगट करता है। इतना ही नहीं, किन्तु भारतीय षट्दर्शनों के गम्भीर ज्ञानाध्ययन की सुन्दर सूचना देता है। उनके वाचक पद को देखकर श्री जैन श्वेताम्बर परम्परा उनको पूर्वविद् अर्थात् पूर्वो के ज्ञाता रूप में सम्मानित करती रही है तथा दिगम्बर परम्परा भी उनको श्रुतकेवली तुल्य सम्मान दे रही है। जैन साहित्य के इतिहास में प्राज भी जैनतत्त्वों के संग्राहक रूप में उनका नाम सुवर्णाक्षरों में अंकित है । कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय हेमचन्द्रसूरीश्वर जी म. सा. ने अपने 'श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' नामक महाव्याकरण ग्रन्थ में "उत्कृष्टे अनूपेन" सूत्र में "उपोमास्वाति संग्रहीतारः" कहकर अद्वितीय अञ्जलि समर्पित की है तथा अन्य बहुश्रुत और सर्वमान्य समर्थ प्राचार्य भगवन्त भी उमास्वाति प्राचार्य को वाचकमुख्य अथवा वाचकश्रेष्ठ कहकर स्वीकारते हैं । ___* श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता * जैनागमरहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयमजीवन के काल में पञ्चशत [५००] ग्रन्थों की अनुपम रचना की है। वर्तमान काल में इन पञ्चशत [५००] ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण, इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। पूर्वधर-वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल भाकाशमण्डल में चन्द्रमा की भांति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है। इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है। पूर्वधर-वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज जैनमागम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक शास्त्रों का प्रवगाहन करके जीवाजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के सिए प्रतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी प्रति सुन्दर रचना की है। यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्र रूप से रचित सबसे पहला प्रत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ, महान् ग्रन्थरत्न है । यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को, साधु-महात्मानों को, विद्वद्वर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल प्रात्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है पौर महर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को 'अर्हत् प्रवचन संग्रह' रूप में भी जाना है। ग्रन्थ परिचय : यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैनसाहित्य का संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रथम सूत्रग्रन्थरत्न है। इसमें दस अध्याय हैं। दस अध्यायों की कुल सूत्र संख्या ३४४ है तथा इसके मूल सूत्र मात्र २२५ श्लोक प्रमाण हैं। इसमें मुख्यपने द्रव्यानुयोग की विचारणा के साथ गणितानुयोग और चरणकरणानुयोग की भी प्रति सुन्दर विचारणा की गई है। इस ग्रन्थरत्न के प्रारम्भ में वाचक श्री उमास्वाति महाराज विरचित स्वोपज्ञभाष्यगत सम्बन्धकारिका प्रस्तावना रूप में संस्कृत भाषा के पद्यमय ३१ श्लोक हैं, जो मनन करने योग्य हैं। पश्चात् [१] पहले अध्याय में-३५ सूत्र हैं। शास्त्र की प्रधानता, सम्यग्दर्शन का लक्षण, सम्यक्त्व की उत्पत्ति, तत्त्वों के नाम, निक्षेपों के नाम, तत्त्वों की विचारणा करने के द्वारा ज्ञान का स्वरूप तथा सप्त नय का स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है। [२] दूसरे अध्याय में-५२ सूत्र हैं। इसमें जीवों के लक्षण, प्रौपशमिक आदि भावों के ५३ भेद, जीव के भेद, इन्द्रिय, गति, शरीर, प्रायुष्य की स्थिति इत्यादि का वर्णन किया गया है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ε ) [३] तीसरे अध्याय में - १८ सूत्र हैं । इसमें सात पृथ्वियों, नरक के जीवों की वेदना तथा आयुष्य, मनुष्य क्षेत्र का वर्णन, तियंच जीवों के भेद तथा स्थिति प्रादि का निरूपण किया गया है । इसमें देवलोक, देवों की ऋद्धि श्रौर [४] चौथे श्रध्याय में - ५३ सूत्र हैं । उनके जघन्योत्कृष्ट श्रायुष्य इत्यादि का वर्णन है । [५] पांचवें अध्याय में -४४ सूत्र हैं । इसमें धर्मास्तिकायादि अजीव तत्त्व का निरूपण है तथा षट् द्रव्य का भी वर्णन है । पदार्थों के विषय में जैनदर्शन भौर जैनेतर दर्शनों की मान्यता भिन्न स्वरूप वाली है । नैयायिक १६ पदार्थ मानते हैं, वैशेषिक ६-७ पदार्थ मानते हैं, बौद्ध चार पदार्थ मानते हैं, मीमांसक ५ पदार्थ मानते हैं, तथा वेदान्ती एक प्रद्वतवादी हैं । जैनदर्शन ने छह पदार्थ अर्थात् छह द्रव्य माने हैं । उनमें एक जीव द्रव्य है और शेष पाँच प्रजीव द्रव्य हैं । इन सभी का वर्णन इस पाँचवें अध्याय में है । [६] छठे अध्याय में - २६ सूत्र हैं । इसमें श्रास्रव तत्त्व के कारणों का स्पष्टीकरण किया गया है । इसकी उत्पत्ति योगों की प्रवृत्ति से होती है । योग पुण्य और पाप के बन्धक होते हैं । इसलिए पुण्य और पाप को पृथक् न कहकर भाव में ही पुण्य-पाप का समावेश किया गया है । [७] सातवें अध्याय में - ३४ सूत्र हैं । इसमें देशविरति और सर्वविरति के व्रतों का तथा उनमें लगने वाले प्रतिचारों का वर्णन किया गया है । [८] आठवें अध्याय में - २६ सूत्र हैं । इसमें मिथ्यात्वादि हेतु से होते हुए बन्ध तत्त्व का निरूपण है । [2] नौवें अध्याय में - ४६ सूत्र हैं । निरूपण किया गया है । [१०] दसवें अध्याय में - ७ सूत्र हैं । इसमें संवर तत्त्व तथा निर्जरा तत्त्व का इसमें मोक्षतत्त्व का वर्णन है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) उपसंहार में (३२ श्लोक प्रमाण) अन्तिम कारिका में सिद्ध भगवन्त के स्वरूप इत्यादि का सुन्दर वर्णन किया है। प्रान्ते ग्रन्थकार ने भाष्यगत प्रशस्ति ६ श्लोकों में देकर ग्रन्थ की समाप्ति की है। * श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध अन्य ग्रन्थ * श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर वर्तमान काल में लभ्य-मुद्रित अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं। (१) श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर स्वयं वाचक श्री उमास्वाति महाराज की 'श्रीतत्त्वार्थाधिगम भाष्य' स्वोपज्ञ रचना है, जो २२०० श्लोक प्रमाण है। (२) श्रीसिद्धसेन गणि महाराज कृत भाष्यानुसारिणी टीका १८२०२ श्लोक प्रमाण की है। यह सबसे बड़ी टीका कहलाती है। (३) श्रीतत्त्वार्थभाष्य पर १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज कृत लघु टीका ११००० श्लोक प्रमाण की है। उन्होंने यह टीका साढ़े पांच (५॥) अध्याय तक की है। शेष टीका प्राचार्य श्री यशोभद्रसूरिजी ने पूर्ण की है। (४) इस ग्रन्थ पर श्री चिरन्तन नाम के मुनिराज ने 'तत्त्वार्थ टिप्पण' लिखा है। (५) इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय पर न्यायविशारद न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजीमहाराज कृत भाष्यतर्कानुसारिणी 'टीका' है। (६) प्रागमोद्धारक श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी म. श्री ने 'तत्त्वार्थकर्तृत्वतन्मतनिर्णय' नाम का ग्रन्थ लिखा है। (७) भाष्यतर्कानुसारिणी टीका पर पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के प्रधान पट्टधर न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारद पू. प्राचार्यप्रवर श्रीमद् विजय दर्शन सूरीश्वरजी महाराज ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर के विवरण को समझाने के लिये 'गूढार्थदीपिका' नाम की विशद वृत्ति रची है । सिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशारद पू. प्रा. श्रीमद् विजयोदयसूरीश्वरजी म. सा. ने भी वृत्ति रची है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के दिव्य पट्टालंकार व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद-कविरत्न-साहित्यसम्राट् पूज्य प्राचार्यवर्य श्रीमद लावण्यसूरीश्वरजी महाराज ने श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्' (२६), 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' (३०), 'अर्पितानर्पित सिद्धेः' (३१) इन तीन सूत्रों पर 'तत्त्वार्थ त्रिसूत्री प्रकाशिका' नाम की विशद टीका ४२०० श्लोक प्रमाण रची है। __(8) सम्बन्धकारिका और अन्तिमकारिका पर श्री सिद्धसेन गणि कृत टीका है। (१०) सम्बन्धकारिका पर प्राचार्य श्री देवगुप्तसूरि कृत टीका है। * (११) प्राचार्य श्री मलयगिरिसूरि म. ने भी श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर टीका की है । (१२) मैंने [मा. श्री विजय सुशीलसूरि ने] भी तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर तथा उसकी 'सम्बन्धकारिका' और 'अन्तिमकारिका' पर संक्षिप्त लघु टीका सुबोधिका, हिन्दी भाषा में विवेचनाऽमृत तथा हिन्दी में पद्यानुवाद की रचना की है। (१३) पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टधर शास्त्रविशारद-कविरत्न पूज्य प्राचार्य श्रीमद् विजयामृतसूरीश्वरजी म. सा. के प्रधान पट्टधरद्रव्यानुयोगज्ञाता पू. प्राचार्य श्रीमद् विजय रामसूरीश्वरजी म. श्री ने इस तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का, सम्बन्धकारिका का तथा अन्तिमकारिका का गुर्जर भाषा में पद्यानुवाद किया है। (१४) तीर्थप्रभावक-स्वर्गीय प्राचार्य श्रीमद् विजय विक्रमसूरीश्वरजी म. श्री ने गुजराती विवरण लिखा है । (१५) श्री तत्त्वार्थ सूत्र पर श्री यशोविजयजी गणि महाराज का गुजराती टबा है। (१६) कर्मसाहित्यनिष्णात प्राचार्य श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. के समुदाय के मुनिराज श्री राजशेखरविजयजी ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का गुर्जर भाषा में विवेचन किया है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) (१७) पण्डित खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ने सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र का 'हिन्दी भाषानुवाद' किया है । (१८) पण्डित श्री सुखलालजी ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का गुर्जर भाषा में विवेचन किया है । ( ११ ) पण्डित श्री प्रभुदास बेचरदास ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर गुर्जर भाषा में विवेचन किया है । (२०) श्री मेघराज मुणोत ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है । जैसे श्री जैन श्वेताम्बर श्राम्नाय में 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' नामक ग्रन्थ विशेष रूप में प्रचलित है, वैसे ही श्री दिगम्बर श्राम्नाय में भी यह ग्रन्थ मौलिक रूपे प्रतिप्रचलित है । इस महान् ग्रन्थ पर दिगम्बर श्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि, प्राचार्य अकलंकदेव ने राजवात्तिक टीका तथा आचार्य विद्यानन्दी ने श्लोकवात्तिक टीका की रचना की है । इस ग्रन्थ पर एक श्रुतसागरी टीका भी है । इस प्रकार इस ग्रन्थ पर प्राज संस्कृत भाषा में अनेक टीकाएँ तथा हिन्दी व गुजराती भाषा में अनेक अनुवाद विवेचनादि उपलब्ध हैं । इस प्रकार इस ग्रन्थ की महत्ता निर्विवाद है । * प्रस्तुत प्रकाशन का प्रसंग * उत्तर गुजरात के सुप्रसिद्ध श्री शंखेश्वर महातीर्थ के समीपवर्ती राधनपुर नगर में विक्रम संवत् १९६८ की साल में तपोगच्छाधिपति शासनसम्राट् - परमगुरुदेव- परमपूज्य श्राचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के दिव्यपट्टालंकारसाहित्यसम्राट् गुरुदेव पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी म. सा. का श्रीसंघ की साग्रह विनंति से सागरगच्छ के जैन उपाश्रय में चातुर्मास था । उस चातुर्मास में पूज्यपाद प्राचार्यदेव के पास पूज्य गुरुदेव श्री दक्षविजयजी महाराज ( वर्तमान में पू. प्रा. श्रीमद् विजय दक्षसूरीश्वरजी महाराज ), मैं सुशील विजय Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) ( वर्तमान में भा. सुशीलसूरि ) तथा मुनि श्री महिमाप्रभ विजयजी ( वर्त्तमान में प्राचार्य श्रीमद् विजय महिमाप्रभसूरिजी म. ) प्रादि प्रकरण, कर्मग्रन्थ तथा तत्त्वार्थसूत्र आदि का ( टीका युक्त वांचना रूपे) अध्ययन कर रहे थे । मैं प्रतिदिन प्रातः काल में "नवस्मरण प्रादि सूत्रों का व एक हजार श्लोकों का स्वाध्याय करता था । उसमें पूर्वधरवाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज विरचित 'श्रीतत्त्वार्थसूत्र' भी सम्मिलित रहता था । इस महान् ग्रन्थ पर पूज्यपाद प्रगुरुदेवकृत 'तत्त्वार्थ त्रिसूत्री प्रकाशिका' टीका का अवलोकन करने के साथ-साथ 'श्रीतत्त्वार्थ सूत्र भाष्य' का भी विशेष रूप में अवलोकन किया था । प्रति गहन विषय होते हुए भी प्रत्यन्त श्रानन्द प्राया । अपने हृदय में इस ग्रन्थ पर संक्षिप्त लघु टीका संस्कृत में भौर सरल विवेचन हिन्दी में लिखने की स्वाभाविक भावना भी प्रगटी । परमाराध्य श्रीदेव- गुरु-धर्मं के पसाय से और अपने परमोपकारी पूज्यपाद परमगुरुदेव एवं प्रगुरुदेव आदि महापुरुषों की प्रसीम कृपादृष्टि और अदृष्ट आशीर्वाद से तथा मेरे दोनों शिष्यरत्न वाचकप्रवर श्री विनोद विजयजी गणिवर एवं पंन्यास श्री जिनोत्तमविजयजी गणि की जावाल [ सिरोही समीपवर्ती ] में पंन्यास पदवी प्रसंग के महोत्सव पर की हुई विज्ञप्ति से इस कार्य को शीघ्र प्रारम्भ करने हेतु मेरे उत्साह और मानन्द में अभिवृद्धि हुई । श्रीवीर सं. २५१६, विक्रम सं. २०४६ तथा नेमि सं. ४१ की साल का मेरा चातुर्मास श्री जैनसंघ, धनला की साग्रह विनंति से श्री धनला गाँव में हुआ । इस चातुर्मास में इस ग्रन्थ की टीका और विवेचन का शुभारम्भ किया है । इस ग्रन्थ की लघु टीका तथा विवेचनादियुक्त यह प्रथम - पहला प्रध्याय है । इस कार्य हेतु मैंने श्रागमशास्त्र के अवलोकन के साथ-साथ इस ग्रन्थ पर उपलब्ध समस्त संस्कृत, गुजराती, हिन्दी साहित्य का भी अध्ययन किया है और इस अध्ययन के आधार पर संस्कृत में सुबोधिका लघु टीका तथा हिन्दी विवेचनामृत की रचना की है । इस रचना-लेख में मेरी मतिमन्दता एवं अन्य कारणों से मेरे द्वारा मेरे जानते Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) या प्रजानते श्रीजिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिए मन-वचनकाया से मैं 'मिच्छा मि दुक्कडं' देता हूँ। श्रीवीर सं. २५१७ विक्रम सं. २०४७ नेमि सं. ४२ कार्तिक सुद ५ [ज्ञान पंचमी] बुधवार दिनांक २४-११-६० 555 लेखकप्राचार्य विजय सुशीलसूरि स्थल-श्रीमारिणभद्र भवन -जैन उपाश्रय मु. पो. धनला-३०६ ०२५ वाया-मारवाड़ जंक्शन, जिला-पाली (राजस्थान) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीनाकोड़ापार्श्वनाथाय नमः ॥ . * नमो नाणस्स * ! दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवैः ।। 'दश अध्याय से युक्त तत्त्वार्थ सूत्र का पाठ करने से एक उपवास का फल प्राप्त होता है।' ऐसा श्रेष्ठ मुनिवरों ने कहा है । जैन दर्शन का सर्वमान्य ग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में विशेष प्रसिद्ध है। समस्त जैन साहित्य में संस्कृत भाषा में सूत्रात्मकशैली में लिखित यह ग्रन्थ सर्वोपरि है। इस ग्रन्थ में श्री जैनागम के सर्वाधिक पदार्थों का संग्रह किया गया है । यह ग्रन्थ परम पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. द्वारा रचित है, जो स्वसिद्धान्त के साथ-साथ परसिद्धान्त के भी ज्ञाता थे। कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. भी उनको सर्वोत्कृष्ट संग्रहकार मानते थे। परम्परा के अनुसार उनको पूर्वविद् एवं श्रुतकेवली जैसे विशेषण भी दिये गये हैं। ऐसे तत्त्वार्थसूत्र को पूर्व महापुरुषों ने "अहत्प्रवचन-संग्रह" के रूप में पहचाना है। इस ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के सम्बन्ध में पारम्परिक जैन विद्वानों में तीव्र मतभेद प्रवर्तमान है। इस विषय में बहुत कुछ लिखा गया है। प्रसंगवश यहाँ पर कुछ विषयों पर संक्षेप में विमर्श किया जाता है * ग्रन्थ नामार्थ * तत्त्वार्थः-तत्त्व के द्वारा अर्थ का निर्णय करना । अधिगमः-ज्ञान या विशेष-ज्ञान । सूत्रः-अल्प शब्दों में गम्भीर एवं विस्तृत भाव दर्शानेवाला शास्त्र-वाक्य सूत्र है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः-तत्त्वार्थ के वर्ण्य विषय को श्री उमास्वातिजी म. सा. ने दश अध्यायों में इस प्रकार से विभाजित किया है । प्रथम अध्याय में ज्ञान की, द्वितीय से पंचम तक इन चार अध्यायों में ज्ञेय की, छठे से दसवें तक इन पांच अध्यायों में चारित्र की मीमांसा की गई है। यहाँ उक्त तीनों मीमांसानों की सारभूत बातें दे रहे हैं ज्ञानमीमांसाः-१. नय और प्रमाण से ज्ञान का विभाजन । २. पाँच ज्ञान का प्रत्यक्ष व परोक्ष दो प्रमाणों में विभाजन । ३. मतिज्ञान की उत्पत्ति के साधन । ४. श्रुतज्ञान का वर्णन । ५. अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष और उनके भेद, प्रभेदों का वर्णन । ६. पाँचों ज्ञानों का तारतम्य बतलाते हुए उनका विशेष वर्णन । ७. ज्ञान की यथार्थता व अयथार्थता के कारण। ८. नय के भेद-प्रभेद । ज्ञेयमीमांसाः-ज्ञेयमीमांसा में जगत् के मूलभूत जीव और अजीव इन दो तत्त्वों का विशेष वर्णन है। जिसमें जीव तत्त्व की चर्चा द्वितीय से चतुर्थ तक तीन प्रध्यायों में है। १. जिसमें जीव तत्त्व का सामान्य स्वरूप द्वितीय अध्याय में बताया है । २. संसारी जीवों के अनेक भेद-प्रभेद। ३. एवं उनसे सम्बन्धित इन्द्रिय, जन्म, मृत्यु शरीर, आयुष्य का निर्देश है। ४. तृतीय अध्याय में अधोलोकवासी नारकों, मध्य लोकवासी मनुष्यों व तिर्यंचों का वर्णन होने से नरकभूमि व मनुष्य लोक का सम्पूर्ण भूगोल पा जाता है। ५. चतुर्थ अध्याय में देवसृष्टि का वर्णन होने से खगोल का सम्पूर्ण वर्णन है। ६. पंचम अध्याय में प्रत्येक द्रव्य के गुणधर्म का सामान्य स्वरूप बताकर साधर्म्य-वैधर्म्य द्वारा द्रव्य मात्र की विस्तृत चर्चा की गई है । चारित्रमीमांसाः-जीवन में कौनसी प्रवृत्तियाँ हेय हैं, हेय प्रवृत्ति का सेवन करने से जीवन का क्या परिणाम होता है-हेय प्रवृत्ति का त्याग किन-किन उपायों से संभव है व कौनसी प्रवृत्ति अंगीकार करने से उनका जीवन में क्रमशः और अन्त में क्या परिणाम प्राता है, यह सब छठे से दसवें अध्याय तक की चारित्र मीमांसा में प्राता है । अर्थात् छठे अध्याय में प्रास्रव व उनके भेद-प्रभेद, सातवें अध्याय में व्रत, व्रती का स्वरूप-हिंसा प्रादि दोषों का निरूपण व दान का स्वरूप; पाठवें अध्याय में कर्मबंधकर्म प्रकृति का स्वरूप, नौवें अध्याय में संवर-निर्जरा के भेद-प्रभेद का स्वरूप व दसवें अध्याय में केवलज्ञान के हेतु व मोक्ष का स्वरूप बताया गया है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) तत्त्वार्थ के अन्त में वाचकप्रवर श्री उमास्वाति म. सा कहते हैं कि मुक्त हुए जीव हर एक प्रकार के शरीर से छूटकर ऊर्ध्वगमन होकर अन्त में लोक के अग्रभाग में स्थिर होते हैं। और सदा काल वहीं रहते हैं। इस तरह दश अध्यायों में जैन दर्शन के दार्शनिक व सैद्धान्तिक विषयों का वर्णन किया गया है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इसमें कुल ३४४ सूत्र हैं जबकि दिगम्बर परम्परा इसमें ३५७ सूत्र स्वीकृत करती है । ग्रन्थकर्ता का परिचयः-इस महान् ग्रन्थ के कर्ता वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. हैं। उनके जीवन से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण विगत प्रशस्ति के प्राधार से निम्न प्रकार से है १. प्रापके दीक्षा गुरु ग्यारह अंग के धारक घोषनन्दी श्रमण थे । २. 'प्रगुरु' अर्थात् गुरु के गुरु वाचक मुख्य 'शिवश्री' थे। ३. विद्याग्रहण की दृष्टि से विद्यागुरु मूल नामक वाचकाचार्य थे । ४. विद्यागुरु के गुरु महावाचक मुण्डपाद थे । ५. गौत्र से प्राप कोभीषणी थे । ६. पाप 'स्वाति' पिता व वात्सी (उपनाम) 'उमा' माता के पुत्ररत्न थे । ७. जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था और 'उच्चनागर' शाखा के थे । ८. इस तत्त्वार्थ सूत्र की रचना कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) में की थी। उक्त परिचय प्रशस्ति के आधार से दिया गया है। यह प्रशस्ति इस समय भाष्य के अन्त में उपलब्ध होती है । डॉ. हर्मन जैकोबी भी इस प्रशस्ति को श्री उमास्वातिजी म. सा. की ही मानते हैं। और यह उन्हीं के जर्मन अनुवाद की भूमिका से स्पष्ट है अतः इसमें जिस घटना का उल्लेख है उसे ही यथार्थ मानकर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति म. सा. विषयक दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा में चली पाई मान्यता का स्पष्टीकरण करना इस समय राजमार्ग है । समयः-वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. के समय के सम्बन्ध में उक्त प्रशस्ति में कुछ भी निर्देश नहीं है । समय का सत्य रूप से निर्धारण करने वाला दूसरा भी कोई साधन अब तक नहीं मिला, फिर भी इस विषय में चर्चा करना आवश्यक है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) वाचकवर्य का समय निर्धारण करने हेतु जैनधर्म की दोनों परम्परामों में प्रयास हुए हैं। पं. सुखलालजी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में अन्य दार्शनिक ग्रन्थों की तुलना के आधार पर इनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी के बाद और विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के पूर्व तक का सूचित किया है। प्रो. श्री हीरालाल कापड़िया भी इस समय को निःशंक स्वीकार करते हैं। प्रो. श्री नगीन भाई ईसा की प्रथम शताब्दी से तृतीय शताब्दी की समयावधि में होने की बात करते हैं। इतिहासविद् प्रो. मधुसूदन ढांकी के मतानुसार सिद्धसेन दिवाकर सूरीश्वरजी म.सा. की द्वात्रिंशिका में तत्त्वार्थाधिगम सूत्र का उपयोग होने से श्री उमास्वाति म.सा. का समय विक्रम की तृतीय से चतुर्थ शताब्दी के मध्य का निर्धारित कर सकते हैं। प्रतः इतना निश्चित कह सकते हैं कि वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. विक्रम की चतुर्थ शताब्दी के पूर्व हुए हैं। श्री उमास्वातिजी म. सा. की योग्यता-श्री उमास्वातिजी म. सा. ने यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में रचा है। जैन इतिहास कहता है कि जैनाचार्यों में श्री उमास्वातिजी म. सा. ही संस्कृत भाषा के प्रथम लेखक हैं। उनके ग्रन्थों की प्रसन्न, संक्षिप्त और शुद्ध शैली संस्कृत भाषा पर उनके प्रभुत्व की साक्षी है। जैनागम में प्रसिद्ध ज्ञान-ज्ञेयचारित्र-भूगोल-खगोल आदि विविध बातों को संक्षेप में जो संग्रह उन्होंने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में किया है, वह उनके वाचक वंश में होने का और वाचक पद की यथार्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इनकी प्रसिद्धि पांच सौ (५००) ग्रन्थों के रचयिता के रूप में है और साम्प्रत काल में इनकी कृति रूप कुछ ग्रन्थ प्रसिद्ध भी हैं, प्रार्हत् श्रुत के सभी पदार्थों का संग्रह तत्त्वार्थ सूत्र में किया है, एक भी बात बिना कथन किये नहीं छोड़ी इसी कारण कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. भी संग्रहकार के रूप में श्री उमास्वाति म. सा. का स्थान सर्वोत्कृष्ट प्राँकते हैं। श्री उमास्वातिजी म. सा. की परम्परा-दिगम्बर सम्प्रदाय श्री उमास्वातिजी म. सा. को अपनी परम्परा का मानकर केवल तत्त्वार्थसूत्र को ही इनकी रचना स्वीकार करता है। जबकि श्वेताम्बर इन्हें अपनी परम्परा का मानते हैं और तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त भाष्य को भी इनकी कृति स्वीकार करते हैं। इस विषय में विद्वानों में तीव्र Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) मतभेद प्रवर्तमान है। वे श्वेताम्बर परम्परा के हैं। इस मत के पुरस्कर्ता प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी, प्राचार्य श्री सागरानंद सूरिजी, पं. सुखलाल संघवी, पं. दलसुख मालवणिया मादि हैं । जबकि दिगम्बर परम्परा के ऐसे पक्षकार हैं पं. फूलचन्द शास्त्री, पं. कैलाशचन्द शास्त्री, डॉ. दरबारीलाल कोठिया, पं. श्री जुगलकिशोर मुख्तार । उक्त सभी विद्वानों ने अपने-अपने मत को स्थापित करने हेतु प्रयास किया है। "दशाष्टपञ्च द्वादश विकल्पाः कल्पोपपन्न पर्यन्ताः" [४/३] __ एकादश जिने [९/११] उक्त सूत्र एवं इनका भाष्य स्पष्ट रूप से श्वेताम्बरीय परम्परा के अनुसार होने से ग्रन्थ-ग्रन्थकार श्वेताम्बर है यह सिद्ध होता है। दूसरी बात-परिषह [8/६] के विवरण में नग्नता को परिषह के रूप में बताया है। यदि नग्नता परिषह प्राचार ही है तो फिर परिषह में नग्नता का समावेश करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हो सकता है। वस्त्र धारण करने वाले के लिए ही नग्नता परिषह हो सकती है। दिगम्बरों ने नग्नता को परिषह के रूप में माना है। इस तर्क के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थकर्ताश्वेताम्बर परम्परा के हो सकते हैं। __ प्रशमरति-जंबुद्वीपसमास-पूजा प्रकरण-सावयपज्जत्ति आदि ग्रन्थ पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी म. सा. द्वारा रचित हैं जो आज भी उपलब्ध हैं। तत्त्वार्थ पर विवरण-यह ग्रन्थ श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में मान्य होने से इस पर अनेक विवरण व टीकाएँ रची गई हैं। श्वेताम्बर परम्परा में निम्नानुसार रचनायें हुई हैंवाचकवर्य श्री उमास्वाति म. सा. कृत-स्वोपज्ञ भाष्य १. पू. श्री सिद्धसेन गणिकृत-भाष्यानुसारिणी विस्तृत टीका २. पू. श्री हरिभद्र सूरि कृत-भाष्यानुसारिणी ।। अध्याय तक टीका ३. पू. श्री यशोभद्र सूरि कृत-हरिभद्रीय टीका में शेष अध्यायों की टीका ४. पू. श्री यशोविजयजी कृत-प्रथम अध्याय पर भाष्यतर्कानुसारिणी टीका ५. पू. श्री दर्शन सूरि कृत-अति विस्तृत टीका ६. पू. श्री देवगुप्त सूरि कृत-मात्र कारिका टीका इस तरह जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में इस कृति पर अधिकाधिक टीकाएँ रची गई हैं। इनके अतिरिक्त तत्त्वार्थ सूत्र पर अन्य टोकायें भी उपलब्ध हैं। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) हर्ष की बात यह है कि प. पू. प्राचार्य देवेश सुशील सूरीश्वरजी म. सा. ने भी तत्त्वार्थ सूत्र पर सम्बन्ध कारिका व अन्तिम कारिका पर संक्षिप्त लघु टीका, सुबोधिका, हिन्दी भाषा में विवेचनामृत तथा हिन्दी में पद्यानुवाद की रचना की है। इस जिल्द में तत्त्वार्थ सूत्र के सप्तम एवं अष्टम अध्याय पर सुबोधिका टीका एवं हिन्दी विवेचनामृत प्रकाशित हो रहा है। परम पूज्य सुशील सूरीश्वरजी म. सा. द्वारा रचित सुबोधिका टीका एवं विवेचनामृत विद्वद्भोग्य एवं बालभोग्य बनेगा। पाप श्री का प्रयास प्रशंसनीय व स्तुत्य है। क्योंकि वर्तमान में इस संसार में गुमराह हुए आत्मामों के लिए निश्चित रूप से यह कृति लाभदायी बनेगी। सर्वज्ञ विभु श्री परमात्मा महावीर स्वामी द्वारा प्ररूपित ज्ञान अगर अाज तक विद्यमान रहा है तो उसका श्रेय आप जैसे प्राचार्यप्रवरश्री को देना चाहिए । आपने साहित्य-सर्जन एवं साहित्य-चर्चा में विशेष रूप से समय का सदुपयोग किया है । प्रतिगहन विषय होते हुए भी विवेचनामृत के माध्यम से आपश्री ने सरल विषय बनाकर भव्य प्रात्मानों पर एक विशेष उपकार किया है। ग्रन्थ समस्त जैन अनुयायियों को स्वीकृत है इसलिए आपश्री का चयन भी सर्वश्रेष्ठ है। प्रापश्री के द्वारा इस अवस्था में भी द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका पर लेखन कार्य शुरू है । परमात्मा आपको सुन्दर स्वास्थ्य प्रदान करे व दीर्घायु दे ताकि आपके द्वारा सरल सुबोध साहित्य का सर्जन होता रहे। आपश्री के द्वारा प्रस्तुत यह टीका एवं हिन्दी अनुवाद तत्त्वजिज्ञासुओं के लिए निश्चित व निःशंक रूप से उपयोगी बनेगा। परम पूज्य मधुरभाषी-कार्यदक्ष-शासनप्रभावक प्राचार्यदेव श्री जिनोत्तम सूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा से यह ग्रन्थ शीघ्र प्रकाशित हुआ। तत्त्वजिज्ञासु सदैव आपके भी प्राभारी रहेंगे। आपश्री के पावन आदेश से इस प्रस्तावना-लेखन का कार्य मुझे प्राप्त हुमा, मैं आपका सदैव ऋणी रहूँगा। अन्त में, यह प्रकाशित ग्रन्थ निःशंक भव्य जीवों को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कराये गा व परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति करायेगा। यही शुभाभिलाषा । श्री नाकोड़ा तीर्थ (मेवानगर) नरेन्द्र भाई कोरडीया वरिष्ठ अध्यापक श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन ज्ञानशाला Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकम् (प्रथम खण्ड से उद्धृत) संसारोऽयं जन्ममरणस्वरूप-संसरणभवान्तरभ्रमणायाः विन्ध्याटवीव घनतमिस्रावृत्तादर्शनतत्वा भ्रमणाटवी। कर्मक्लेशकर्दमानुविद्धेऽस्मिन् जगतीच्छन्ति सर्वे कर्मक्लेशकर्दमैः पारं मोक्षायाहनिशम् गन्तुम् । कथं निवृत्तिः दुखैः ? कथं प्रवृत्तिः सुखेषु च ? जिज्ञासयानया तत्त्वदशिनः मथ्नन्ति दर्शनागमसागरं तत्त्वामृतप्राप्तये त्रिविष्टपरिवात्र। श्रीजैनश्वेताम्बर-दिगम्बरसम्प्रदाये श्रीमदुमास्वातिरपि प्रजायत महान् वाचकप्रवरः येन तत्त्वचिन्तने कृत्वा भगीरथश्रमञ्चाविष्कृतममृतं, भव्यदेवानां कृते मोक्षायात्र । उमास्वातिस्तत्त्वार्थाधिगम-सूत्राणां रचयितासीत् । यो हि वाचकमुख्यशिवश्रीनां प्रशिष्यः शिष्यश्च घोषनन्दिश्रमणस्य। एवञ्च वाचनापेक्षया शिष्यो बभूव मूलनामकवाचकाचार्याणाम् । मूलनामकवाचकाचार्यः महावाचकश्रमणश्रीमुण्डपादस्य शिष्यः प्रासीत् । न्यग्रोधिकानगरमपि धन्यं बभूव वाचकश्रीउमास्वातेः जन्मना। स्वातिः नाम्नः पितापि उमास्वातिः सदृशं पुत्ररत्नं प्राप्य स्वपूर्वपुण्यफलमवापेह। धन्या जाता वात्सीजननी। उमास्वातिः स्वजन्मनाऽलंचकार कौभीषणीगोत्रम् नागरवाचकशाखाञ्च । स्थाने-स्थाने विहरतोऽयं महापुरुषः कृतगुरुक्रमागतागमाभ्यासः कुसुमपुरनगरे रचयामास ग्रन्थोऽयं तत्त्वार्थाधिगमभाष्यः। ग्रन्थोऽयं रचितवान् स्वान्तसुखाय प्राणिमोक्षाय कल्याणाय च ।। तेन महाभागेन तत्त्वार्थाधिगमसूत्रेषु स्पष्टीकृतं यज्जीवाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपूर्वकं वैराग्यं यावन्नवाधिगच्छन्ति संसारशरीरभोगाभ्यां तावन्मोक्षसिद्धिः दुर्लभा । सम्यग्दर्शनाभावे ज्ञानवैराग्येऽपि दुष्प्राप्ये । जीवानां जगति क्लेशाः कर्मोदयप्रतिफलानि जायन्ते । जीवानां कृत्स्नं जन्म जगति कर्मक्लेशैरनुविद्धः । भवेच्चानुबन्धपरंपरेति तत्त्वार्थाधिगमे विश्लेषितमस्ति । कर्मक्लेशाभ्यामपरामष्टावस्था एव सत्स्वरूपं सुखस्य । पातञ्जलयोगदर्शनेऽपि “क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषः विशेषः ईश्वरः" जैनदर्शने तु इदमप्येकान्तिकम् यत् पातञ्जलिना पुरुषजीवं ज्ञानस्वरूपं वा सुखस्वरूपं नवामन्यत । किन्तु जैनदर्शने तु जीव: ज्ञानस्वरूपश्च सुखस्वरूपश्चापि क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टावस्थायाः धारको विद्यते । निर्दोषमेतदेव सत्यमुपादेयञ्च । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) तत्त्वार्थाधिगमे दशाध्यायाः सन्ति येषु विशदीकृतं व्याख्यातञ्च जैनतत्त्वदर्शनम् । तत्त्वार्थाधिगमस्य संस्कृतहिन्दीभाषायां व्याख्यायितोऽयं ग्रन्थः विद्वमूर्धन्याचार्यः श्रीविजयसुशीलसूरीश्वर - महोदयः प्रतीवोपादेयत्वं धार्यते। जैनदर्शनसाहित्ये शताधिकग्रन्थानां रचयिता श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरः दर्शनशास्त्राणां प्रतीवमेधावी विद्वान् वर्तते । उर्वरीक्रियतेऽनेन भवमरुधराऽखिलमण्डलम् । जिनशासनश्च स्वतपतेज-व्याख्यानलेखन-पीयूषधारा जीमूतमिव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरेण प्रथमेऽध्याये मोक्षपुरुषार्थसिद्धये निर्दोषप्रवृत्तिश्च तस्या जघन्यमध्यमोत्तरस्वरूपं विशदीकृतमस्ति (१) देवपूजनस्यावश्यकता तस्य फलसिद्धिः । (२) सम्यग्दर्शनस्य स्वरूपं तथा तत्त्वानां व्यवहारलक्षणानि । (३) प्रमाणनयस्वरूपस्य वर्णनम् । (४) जिनवचनश्रोतृणां व्याख्यातृणाञ्च फल प्राप्तिः । (५) ग्रंथव्याख्यानप्रोत्साहनम् । (६) श्रेयमार्गस्योपदेशः सरलसुबोधटीकया विवक्षितः । अस्य ग्रंथस्य टीका प्राचार्यप्रवरेण समयानुकूल-मनोवैज्ञानिक-विश्लेषणेन महती प्रभावोत्पादका कृता। प्राचार्यदेवेन तत्त्वार्थाधिगमसूत्रसदृशः क्लिष्टविषयोऽपि सरलरीत्या प्रबोधितः । जनसामान्यबुद्धिरपि जनः तत्त्वविषयं प्रात्मसात्कर्तुं शक्नोति । अस्मिन् भौतिकयुगे सर्वेऽपि भौतिकैषणाग्रस्ता मिथ्यासुखतृष्णायां व्याकुलाः मृगो जलमिव भ्रमन्ति प्रात्मशान्तये। प्रात्मशान्तिस्तु भौतिकसुखेषु असम्भवा । भवाम्भोधिपोतरिवायं ग्रन्थः मोक्षमार्गस्य पाथेयमिव सर्वेषां तत्त्वदर्शनस्य रुचि प्रवर्धयति । प्रात्मशान्तिस्तु तत्त्वदर्शनाध्ययनेनैव वर्तते न तु भौतिकशिक्षया । एतादृशी सांसारिकोविभीषिकायां प्राचार्यमहोदयस्यायं ग्रन्थः संजीवनीवोपयोगित्वं धार्यते संसारिणाम् । ज्ञानजिज्ञासुनां कृते ग्रन्थोऽयं शाश्वतसुखस्य पुण्यपद्धतिरिव मोक्षमार्ग प्रशस्तिकरोति । माशासेऽधिगत्य ग्रन्थोऽयं पाठकाः स्वजीवनं ज्ञानदर्शनचारित्रमयं कृत्वाऽनुभविष्यन्ति अपूर्वशान्तिमिति शुभम् । फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा -पं. हीरालाल शास्त्री, एम.ए. जालोर (राजस्थान) संस्कृतव्याख्याता Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARNAL पुरो-वचः (प्रथम खण्ड से उद्धृत) भारतीय-वाङ्मयता, निखिलागम-पारावार-निसर्ग-निष्णात-पुनीतानां ज्ञेयमहर्षीणां विद्याविभूति-विभव-विशेषज्ञानां सूत्रकाराणां महती सम्पदामयी-सारगर्भिताप्रशस्तिर्वरीवर्तते । भारतीय वाङ्मयता तपःपूत-महर्षीणां विद्या-विभूतिः श्रीः सुवरीवर्तते । स्वाध्यायनिष्णात-निपुणानां सन्निधिः अस्ति। काले-कालेऽस्मिन् वाङ्मये सूत्रकाराः समभवन् । ये सूत्रकारत्वेन वाङ्मयसेवां कुर्वन्तः स्वयं कृतज्ञाः सुजाताः । सूत्रयुगस्य शुभारम्भो वैदिकवाङ्मयेषु, श्रमणवाङ्मयेषु, बौद्ध वाङ्मयेषु परिष्कृतश्व वर्तते । ___ निर्ग्रन्थनिगमागमविद् वाचकवरेण्यः श्रीउमास्वातिः स्वनामधन्यः सूत्रकारत्वेन संप्रसिद्धः समभूत् । पाटलीपुत्रपृथिव्यां श्रामण्यभावेन स्वयं समलंकृतवान् । तत्रव "तत्त्वार्थसूत्र" रचितवान् । सूत्रमेतत् श्रामण्यपरिभाषां परिष्कतु पर्याप्तम् । अस्य सूत्रस्य निर्ग्रन्थमहाभागः श्लाघनीया श्लाघा प्रस्तुता। यद्यपि सूत्रकारः स्वयं श्वेताम्बरत्वेन परिचयं स्वोपज्ञभाष्ये दत्तवान् । श्वेताम्बर-निर्ग्रन्थनिगमागमाम्नाये देववाण्यां सूत्रकारत्वेन सर्वप्रथम संबभूव वाचकाग्रणीः प्रमुखः श्रीउमास्वाति महाभागः । अयमेव महाभागः श्रीउमास्वातिः प्रायः दिगम्बरपरम्परायां श्रीकुन्दकुन्दमहाशयस्य शिष्यत्वेन श्रीउमास्वामीत्याख्यया प्रचलितः अस्यैव महाविदुषः "श्रीतत्त्वार्थसूत्र" सर्वप्रशस्तिपात्रं वर्तते । तत्त्वार्थसूत्रस्य प्राद्यः सर्वार्थसिद्धिटीकाकारः श्रीपूज्यपाददेवनन्दी महामतिः संजातः। तदनन्तरं तत्त्वार्थस्य तारतम्यदर्शी श्रीप्रकलंकः प्रमेयविद्याविलक्षणः दिगम्बर-श्रमणशाखासु राजवार्तिककारत्वेन संप्रसिद्धः सुधीः प्रतिष्ठितः। दशम्यां Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) शताब्द्यां विद्याचणः श्रीविद्यानन्दी श्लोकवार्तिककारत्वेन तत्त्वार्थसूत्रस्य व्याख्याता जातः । अनेनैव महाशयेन महामीमांसकस्य श्रीकुमारिलमहाभागस्य वैदुष्यं प्राईद्विद्या-विमर्शदार्शनिक-तुलासु तोलितम् । पुनः श्रुतसागराख्यः निर्वसननिर्ग्रन्थः प्रज्ञापुरुषः श्रीतत्त्वार्थसूत्रस्य वृत्तिकारः समयश्रेण्यां जातः । - इत्थं दिगम्बरवृन्देषु विबुधसेन-योगीन्द्र-लक्ष्मीदेव-योगदेवाभयनन्दि-प्रमुखाः सुधयः श्रीतत्त्वार्थसूत्रस्य तलस्पशिनः संजाताः । श्वेताम्बर-वाङ्मये तत्त्वार्थसूत्रमनुसृत्य विविधास्टीकाः विद्यन्ते । अस्यैव सूत्रस्योपरि महामान्य-श्रीउमास्वातिमहाशयस्य स्वोपज्ञं भाष्यं वर्तते । तस्मिन् भाष्यग्रन्थे प्रात्मपरिचयं प्रदत्तवान् स्वयंश्रीवाचकवरेण्यः । __ श्रीतत्त्वार्थकारः सुतश्चासीत् वात्सीमातुः । स्वातिजनकस्य पुत्रश्च । उच्चनागरीयशाखायाः श्रमणः न्यग्रोधिकायां समुत्पन्नः । गोत्रेण कोभीषणिश्चासीत् । पाटलीपुत्रनगरे रचितवान् सूत्रमिमं । श्रामण्यव्रतदाता घोषनन्दी, प्रज्ञापारदर्शी श्रुतशास्त्रे-एकादशाङ्गविदासीत् । विद्यादातृणां गुरुवराणां वाचकविशेषानां मूलशिवश्रीमुण्डपादप्रमुखानां श्लाघनीया परम्परा विद्यते। पुरातनकाले विद्यावंशस्य सौष्ठवं समीचीनं दृश्यते । तत्त्वार्थकारः श्रीउमास्वाति विद्यावंशविशिष्टविज्ञपुरुषः प्रतिभाति । तत्त्वार्थस्य टीकाकारः श्रीसिद्धसेनगणि “गन्धहस्ती” इत्याख्यया प्रसिद्धिमलभत् । अयमेव सिद्धसेनगणि मल्लवादिनः नयचक्रग्रन्थस्य टीकाकारस्य श्रीसिद्धसूरिमहोदयस्यान्वयेऽभूत् । अपरश्च टीकाकारः श्रीयाकिनीसूनुः श्रीहरिभद्र-महाभागः, अयमेव हरिभद्रसूरिः तत्त्वार्थस्य लघुवृत्तिटीका पूर्णां न चकार । यशोभद्रेण पूर्णा कृता। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) उपांगटोकाकारेण श्रीमलयगिरिणा " प्रज्ञापनावृत्तौ” चोक्तम्- तच्चाप्राप्तकारित्वं तत्त्वार्थटीकादौ सविस्तरेण प्रसाधितमिति ततोऽवधारणीयं । सम्प्रति मलयगिरिमहाशयस्य टीका न समुपलभ्यते । महामहोपाध्यायेन श्रीयशोविजयवाचकेन तत्त्वार्थ-भाष्यस्य टीका रचितासीत् । सा टीकापि स्खलिता वर्तते । तत्त्वार्थस्य रचनाशैली रम्या हृदयंगमा च अस्यैव ग्रन्थस्य सौम्यस्वरूपेण तपस्विना श्रीसुशीलसूरिमहाभागेन टीका नवीना रचिता । श्रयमेव सूरिमहोदयः स्वाध्यायनिष्ठः सुज्ञः सर्वथा तपसि ज्ञाने च नितरां निमग्नः वर्तते । सूरिपु 'गवानां श्रुतशास्त्रीयां भक्ति पुरस्कृत्य मया किमपि लिखितमस्ति । नितरां शास्त्ररसस्नातनिष्णाताः भूत्वा भूयोभूयः स्वाध्यायसमुत्कर्षं समुन्नतं कर्तुं लेखनीं च श्रात्मलेखनालोकोत्तर हितैषिणीं विदधातु विधिज्ञाः सूरिवराः सुतरां भूयासुः । चात्मले खिनो स्वात्महस्तगता सुशोभते सर्वथा सर्वेषां । इदं तत्त्वार्थ सूत्रं श्रुतसिद्धान्तनिष्पन्नं, संसारक्षयकारणं, मुमुक्षूणां चात्मपथपाथेयं सदार्हत्पादपीयूषं ज्ञानदर्शनचारित्रलालिते स्वाध्याय- तपः समाधिविभूषितं, प्रमेयप्रकाशपु ंजं पुरातनी पावनी - देववाणी-दुन्दुभिरूपं, शब्दब्रह्मपांचजन्यं, गुरुसेवासमुपलब्धसौष्ठवतन्यं, यः कश्चित् समुचितां श्रमण संस्कृतिं ज्ञातु कामः सः शुद्धचेतसा च सुमेधया सततं पठेत् - पाठयेत् चैनं सूत्रं । सूत्रमेतत् शास्त्रज्ञनिष्ठानां नियामकं, निर्ग्रन्थसिद्धान्तसारकलितं निगमागमन्यायनिर्मथितम् । विद्याविवेक-शौर्य-धैर्य-धनम् । नित्यं सेव्यं ध्येयं परिशीलनीयं च । अजस्रमभ्यासमुपेयुषा विद्यावता सूत्रकारेण श्रात्मन: स्मृतिपटलात् पटीयांसं शिक्षासंस्कारसमभिरूढं गोत्रगौरवं न त्यक्तं । यद्यपि जातिकुलवित्तमदरहितं श्रामण्यं स्वीकृतं । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) सूत्रकारस्य महतीसूक्ष्मेक्षिका वर्तते-यथा-'निःशल्यो व्रती' या व्रतत्ववृत्तिता सा निःशल्यतायुक्ता स्यात् । यस्य शल्यत्वं छिन्न तस्य श्रामण्यं संसिद्धं । इत्थमनेकः सूत्रः स्वात्मनः सुधीत्वं साधितं ख्यापितं च । इति निवेदयति महाशिवरात्रि, २ मार्च, १९६२ हरजी श्रीविद्यासाधकः पं. गोविन्दरामः व्यासः हरजी-वास्तव्यः Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थभूमिका को (पांचवें-छठे भाग से उद्धृत) वैदिकपरम्परायां यत्स्थानं वेदानाम्, बौद्धपरम्परायां यत्स्थानं त्रिपिटकानाम्, ईसाईपरम्परायां यत्स्थानं 'बाईबिल'-ग्रन्थस्य, इस्लामपरम्परायां यत्स्थानं कुरानस्य तदेव स्थानं, जैन-परम्परायाम् आगमानां अस्ति । सर्वेषामागमसिद्धान्तानां प्रामाणिकसारांश-सुधासंपृक्त सर्वाङ्गपूर्ण ग्रन्थरत्नं समुल्लसति 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । प्रस्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र-ग्रन्थरत्नस्य प्रणेता पदवाक्यपारावारीणो महर्षिः वाचकप्रवरः श्रीउमास्वातिमहाराजः प्रासीत् । अस्य कालनिर्णयस्तु सम्यक्तया नावधारयितु शक्यते विदुषां विसंवादात् किन्तु श्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्यप्रशस्ती प्राप्तेषु पञ्चसु श्लोकेषु महर्षेः परिचयः प्राप्यते वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दि - श्रमणस्यैकादशाङ्ग - विदः ।। वाचनया च महावाचक-श्रमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्य-मूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ।। न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कोभीषणिना स्वाति-तनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् । अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुखातं च दुरागम-विहतमति लोकमवलोक्य ।। इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ।। यस्तत्त्वाधिगमाख्यं,ज्ञास्यति चकरिष्यतेचतत्रोक्तम् । सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ।। तत्त्वार्थाधिगमप्रणेतुर्मातुर्नाम वात्सी, पितुश्च नाम स्वातिरासीत् । एष महर्षिः शिवश्रियः प्रशिष्यः घोषनन्दिनः शिष्योऽभूत् । वाचनागुरोरपेक्षयाऽयं क्षमाश्रमणस्य मुण्डपादस्य प्रशिष्यो, मूलनामकवाचकाचार्यस्य शिष्यः प्रासीत् । अस्य जन्म न्यग्रोधिकायामभवत् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) उमास्वातिविरचित-'जम्बूद्वीपसमासप्रकरणस्य वृत्ती विजयसिंहसूरीश्वरेणास्य महर्षेर्मातुर्नाम 'उमा' लिखितम् । एतावता मातृपितृसम्बन्धात् 'उमास्वाति' नाम प्रसिद्धम् । तत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य भाष्ये सुस्पष्टमुल्लेखः प्राप्यते यत् उमास्वातिमहाराजः उच्चनागरीशाखायाः आसीत् । उच्चनागरीशाखा भगवतो महावीरस्य पट्टपरम्परायां समागतस्य आर्यदिन्नस्य शिष्यात् पार्यशान्ति-श्रेणिक-समयात् प्रारब्धा। प्रतः वाचकमहर्षिः उमास्वातिमहाराजः विक्रमस्य प्रथमशताब्दीतः प्रारभ्य चतुर्थशताब्दी यावत् कालक्रमे समुत्पन्नः । अर्थात् विक्रमस्य प्रथमचतुर्थशताब्योर्मध्ये तस्य स्थितिकालोऽनुमीयते। विषयेऽस्मिन् निश्चप्रचत्वे किमपि वक्तु लिखितुच न शक्यते । तत्त्वार्थाधिगमस्य महत्ता : जैनागमस्य सकलं प्रामाणिकं सौरस्यं समादाय सन्दब्धमिदं ग्रन्थरत्नं श्वेताम्बरदिगम्बर-परम्परायां समानरूपेण सादरं प्रशंसापदवी प्राप्य विराजतेतराम् । अस्य ग्रन्थस्य दशाध्यायाः सन्ति । तेषु ३४४ सूत्राणि समुल्लसन्ति जैनागमसिद्धान्त सौरभमादाय । सकलेषु सूत्रेषु सूत्रलक्षणं सुदृढतया समुपजृम्भते। सूत्रस्य लक्षणं तावत् अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्यञ्च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥ सूत्रस्य प्रामाणिकमिदं लक्षणं तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे प्रतिपन्नमास्ते। अल्पाक्षरता, असंदिग्धता, व्यापकता, सारवत्ता, प्रस्तोभत्वं, पवित्रता च सर्वत्र विराजते-अतो विशुद्धोऽयं सूत्रग्रन्थः । परिष्कृता भाषायोजना स्फुटसंकेतसमन्विताः-सम्प्रेषणशैली विदुषां मनांसि सहसवावर्जयति । अस्य ग्रन्थरत्नस्य प्रथमेऽध्याये पञ्चत्रिंशत् (३५) सूत्राणि सन्ति । तत्र शास्त्रस्य प्राधान्यं, सम्यग्दर्शनलक्षणम् सम्यक्त्वोत्पत्तिः, तत्त्वनामानि, तत्त्वविवेचना, ज्ञानस्वरूपं सप्तनयस्वरूपादीनां वर्णनानि सन्ति । द्वितीयेऽध्याये द्विपञ्चाशत् (५२) सूत्राणि सन्ति । अस्मिन् अध्याये जीवलक्षणम् प्रौपशमिकादिभावानां ५३ भेदाः, जीवभेदाः, इन्द्रिय-गति-शरीरायुष्यस्थितीत्यादीनां वर्णनमस्ति । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तृतीयेऽध्याये श्रष्टादशसूत्राणि (१८) सन्ति । अस्मिन् सप्त पृथ्वीनां नरकजीवानां वेदना, प्रायुष्यम्, मनुष्यक्षेत्रवर्णनं तिर्यञ्च जीवभेदस्थित्यादीनां प्रतिपादनमस्ति । चतुर्थेऽध्याये त्रिपञ्चाशत् (५३) सूत्राणि सन्ति । अत्र देवलोकस्य, देवर्द्धनां तथा तेषां जघन्योत्कृष्टायुष्यवर्णनम् अस्ति । पञ्चमेऽध्याये चतुश्चत्वारिंशत् (४४) सूत्राणि सन्ति । अत्र धर्मास्तिकायादीनाम् प्रजीवतत्त्वनिरूपणम्, षड्द्रव्यवर्णनम् अस्ति । जैनदर्शने षद्रव्यारिण स्वीकृतानि तेषु एकं जीवद्रव्यं शेषाणि पञ्चाजीवद्रव्याणि सन्ति । odsध्याये षड्विंशति (२६) सूत्राणि सन्ति । अत्र प्रस्रवतत्त्वस्य कारणानां विशदीकरणं स्पष्टरीत्या वर्तते । अस्य प्रवृत्तिः योगानां प्रवृत्त्या भवति । योगाः पुण्यपापयोर्बन्धकाः भवन्ति । अतएव प्रास्रवे पुण्यपापयोः समावेश-कृतो दृश्यते । सप्तमेऽध्याये चतुस्त्रिशत् सूत्राणि (३४) सन्ति । अस्मिन् देशविरति-सर्वविरतिव्रतानां तेषामतिचाराणां वर्णनं समुल्लसति । श्रष्टमेऽध्याये षड्विंशति सूत्राणि सन्ति । अस्मिन् मिथ्यात्वनिरूपणपुरस्सरं बन्धतत्त्वनिरूपणमस्ति । नवमेऽध्याये नवचत्वारिंशत्-सूत्राणि सन्ति । अस्मिन् संवर- निर्जरातत्त्व निरूपणमस्ति । दशमेऽध्याये सप्तसूत्राणि ( ७ ) सन्ति । अस्मिन् मोक्षतत्त्ववर्णनमस्ति । उपसंहारे द्वात्रिंशत् [३२] श्लोकाः सिद्धस्वरूपस्य सुललितं वर्णनम्, प्रान्ते प्रशस्तिश्लोका: ( ६ ) सन्ति । तैः सार्धमेव ग्रन्थपरिसमाप्तिः कृता । तत्त्वार्थ सूत्रस्य भाष्य - टीकाग्रन्थाः महनीयस्यास्य ग्रन्थरत्नस्य सम्प्रति मुद्रिता अनेके ग्रन्थाः सन्ति । तेषां नामानीत्थम् - ( १ ) श्रोतत्त्वार्थाधिगमभाष्यम् - उमास्वातिमहाराजविरचिता स्वोपज्ञ रचना । ( २ ) श्री सिद्धसेन गरिण विरचिता भाष्यानुसारिणी टीका । विशदरूपेण विराजते । एषा टीका प्रतीव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) श्रीतत्त्वार्थभाष्योपरि श्रीहरिभद्रसूरीश्वराणां लघुटीका सार्द्धपञ्चाध्यायं यावत्, शेष टीका तु यशोभद्रसूरिणा पूरिता । ( ४ ) तत्त्वार्थटिप्पणम्-चिरन्तनमुनिविरचितम् । ( ५ ) भाष्यतर्कानुसारिणी टीका-महोपाध्याय यशोविजय विरचिता। ( ६ ) गूढार्थदीपिका-विजयदर्शनसूरीश्वरविरचिता। (७) तत्त्वार्थत्रिसूत्री प्रकाशिका-श्रीमल्लावण्यसूरीश्वरविरचिता। (८) सुबोधिका हिन्दीविवेचनामृतम्-प्राचार्यप्रवरश्री सुशीलसूरीश्वर विरचितम् । ( ६ ) गुर्जरभाषा विवेचनम्-मुनिश्रीराजशेखरविरचितम् । (१०) पण्डितश्रीसुखलालेनापि तत्त्वार्थस्य गुर्जरभाषायां विशदं विवेचनं कृतम् । (११) दिगम्बराचार्यपूज्यपादविरचिता-सर्वार्थसिद्धिः टीका । (१२) अकलंकदेवाचार्यविरचिता-राजवात्तिकटीका। (१३) श्लोकवातिकटीका-विद्यानन्दिविरचिता। (१४) तत्त्वार्थस्य एका टीका 'श्रुतसागरी' अपि अस्ति । प्राचार्यश्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरः अष्टोत्तरशतमहनीथग्रन्थलेखकाः संस्कृत-प्राकृतमर्मज्ञाः स्वनामधन्या प्राचार्यप्रवरा श्रीमद्विजयसुशील-सूरीश्वराः साम्प्रतं वृद्धावस्थायामपि सत्साहित्यसर्जनेऽनवरतं तल्लीनाः विराजन्ते । भवतां जन्म गुर्जरप्रान्तस्य 'चाणस्मा'-नामके ग्रामे वि.सं. १९७३ तमे वर्षेऽभवत् । मातु म चञ्चलदेवी पितुर्नाम चतुरभाईताराचन्द मेहता अस्ति । एष दशवर्षस्य लघुवयसि संयममार्गमनुसरितु प्रबल-भावुकोऽभवत् । पञ्चदश-वर्षस्यावस्थायां वि.सं. १९८८ तमे वर्षे श्रीमद्विजयलावण्यमुनीश्वरेण दीक्षितः । वि.सं. १९८८ तमे वर्षे एवास्य वृहतो दीक्षा शासनसम्राट्-श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वर-करकमलाभ्यां सम्पन्ना । वि.सं. २००७ तमे वर्षे गरिण-पंन्यास-पदवीभ्यामलङ्कृतोऽभवत् । वि.सं. २०२१ तमे वर्षे मुण्डाराग्रामे उपाध्यायाचार्यपदवीभ्यां महिमामण्डितोऽभवत् । शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषण-पदवीभिरपि समलङ्कृतोऽभवदेष सिद्धहस्तलेखकः । जैसलमेरतोर्ये श्रासंवेन जैनदिवाकरोपाधिनापि सभाजितोऽयम् । तीर्थप्रभावकाचार्योऽयं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाचक्रवर्ती। स्थान-स्थाने श्रीजिनमन्दिराणां प्रतिष्ठा-अंजनशलाका-जीर्णोद्धारादि महनीयेषु कार्येषु प्रेरणास्रोतत्वात् जनैः 'प्रतिष्ठाशिरोमरिण'-उपाधिना सम्मानितः । विविधोपाधि-विभूषितोऽप्यमतीवसरलः, विनीतः, सतत साहित्यसेवासु संलग्नो विराजते । अस्य श्रीतीर्थङ्करचरित - षड्दर्शनदर्पण-शीलदूतटीका-हेमशब्दानुशासनसुधा-छन्दोरत्नमाला - साहित्यरत्नमञ्जूषा - गणधरवाद-मूर्तिपूजासार्द्धशतक - स्याद्वादबोधिनी-लावण्यसूरिमहाकाव्यादि महनीयग्रन्थाः विख्याताः सन्ति । सम्प्रति उमास्वातिविरचितस्य श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य सुबोधिका-संस्कृतटीका-हिन्दीविवेचनामृतेण सह श्रीमतां करकमलेषु सुशोभते । श्रीतत्त्वार्थाधिगम-'सुबोधिका'-वैशिष्टयम् : __ 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्' सूत्रात्मकशैल्यां विरचितं वर्तते । यद्यपि महर्षिणोमास्वातिमहोदयेन स्फुटशैली स्वीकृता किन्तु सूत्रशैली निश्चप्रचत्वेन व्याख्यां-भाष्यं चापेक्षते। इति मनसि निधाय पूर्वसूरिभिरपि भाष्य-व्याख्या-टीकादिग्रन्था रचिताः श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य । श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरेणापि मागमानां रहस्यभूतस्यास्य ग्रन्थ रत्नस्य 'सुबोधिका' नाम्नी टीका विरचिता सुकुमाराणां तत्त्वजिज्ञासूनां झटित्यर्थावगमाय स्वान्तः सुखाय च। सरलैः शब्देस्तत्त्वार्थस्य स्पष्टीकरणम्, सरलीकरणं च सूत्रकारस्य मनोभावानां तत्तज्जैनसिद्धान्तानाम् अनुसंधानं च जैनागमेषु प्रोक्तानां तत्त्वार्थानाम् अस्ति वैशिष्टयम् सुबोधिकाटीकायाः। 'हिन्दीविवेचनामृतम्' विलिख्य राष्ट्रभाषारसिकानां मनःप्रसूनानि सहसैव विकचीकृतानि । सरलतया तत्त्वार्थावगमाय भूरिशः प्रयासः कृतोऽनेनाचार्यप्रवरेण हिन्दी-पद्यानुवादादिभिः । एतेन श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रं प्रति सूरीश्वरस्य श्रद्धा-भक्तिनिष्ठा सहसव स्फुटतामुपैति । सम्प्रति तत्रभवतां भवतां तत्त्वजिज्ञासूनां करकङ्गेषु विलसतितराम् अजीवास्रवविवेचनस्वरूपम् । अस्मिन् भागे तत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य द्वौ अध्यायौ पञ्चमषष्ठौ सुबोधिका-विवेचनामृताभ्यां सह हिन्दीपद्यानुवादसंवलितो ललितौ विलसतः । ___ चैतन्यरहितोऽजीवः। स च अकर्ता, अभोक्ता किन्तु अनाद्यनन्तः शाश्वतश्चेति । अस्य पञ्चभेदाः (१) धर्मास्तिकायः, (२) अधर्मास्तिकायः, (३) प्राकाशास्तिकायः, (४) कालः, (५) पुद्गलास्तिकायः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषु पञ्चसु चत्वारोऽरूपिणोऽजीवाः । पुद्गलास्तिकायो रूपिद्रव्यम् । वर्णरस-गन्ध-स्पर्शयुक्तत्वात्' ये केचनापि निर्जीवपदार्थाः दृष्टिगोचरा भवन्ति ते सर्वेऽपि पुद्गलात्मकाः । तत्त्वार्थसूत्रस्य टीकायां पुद्गल विषये तत्त्वार्थस्य सिद्धसेनव्याख्यायां व्युत्पत्तिः प्रदर्शिता-"पूरणात् गलनाच्च पुद्गलाः"। अस्तिकायधर्मविषये जैनाचार्याणां प्रायः सर्वमान्य-व्युत्पत्तिलभ्या परिभाषास्ति'प्रस्तयः-प्रदेशाः तेषां कायो-राशि रस्तिकायः, धर्मो-गतिपर्याये जीवपुद्गलयोर्धारणादित्यस्तिकायधर्मः । इति विषयः तत्त्वार्थस्य पञ्चमेऽध्याये वरिणतः तथा सुबोधिकायां टीकायां सम्यग् स्फुटीकत्तु प्रयतितमाचार्यप्रवरेण । यया क्रियया जीवे कर्मणां स्रावः-प्रागमनं भवति तदेव प्रास्रवतत्त्वम् । प्रास्रवः कर्मणां प्रवेशद्वारः। महर्षिणोमास्वातिमहोदयेन षष्ठेऽध्याये प्रास्रवविषये आगमसिद्धान्तपूतानि सूत्राणि विरचितानि । कायवाङ्मनःकर्मयोगः स प्रास्रवः । स कषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः । अस्मिन् प्रसङ्ग सुबोधिकाटीकायां श्रीमद्विजय सुशीलसूरीश्वरेण साधुरीत्या स्फुटीकृत्य विषयः प्रतिपादितः । पञ्चमषष्ठाध्याययोः सुबोधिकायां भेदप्रभेदसहितम् अजीवास्रवतत्त्वयोः सद्यः सुबोधकारिणी व्याख्याशैली समादृता सूरीश्वरेणेति साधुवादार्हाः । एषा रचना मननीया सर्वथोपादेया च जिज्ञासुभिः बालमुनिभिः शोधार्थिभिश्चेति मन्तव्यम् । शिवमस्तु सर्वजगतः । विदुषां वशंवदः कृष्ण जन्माष्टमी, १५-८-६८ शम्भुदयालपाण्डेयः कुलवन्तीकुञ्जम् संस्कृतव्याख्याता १०/४३० नन्दनवनम् जोधपुरम् । (क) स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः । तत्त्वार्थ ५/२३ (ख) सदं धयार-उज्जोओ, पहा छायातवे इ वा । ___ वण्णगंधरसाफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।।-उत्तराध्ययन २८/२१ २. स्थानांग, १० स्थानवृत्तिः। ३. तत्त्वार्थ. अ. ६, सू. १। ४. तत्त्वार्थ. अ. ६, सू.५। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं नमः ॥ * पूर्वधर - परमर्षि-सुप्रसिद्ध श्रीउमास्वातिवाचक - प्रवरेण विरचितम् 5 श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् 5 सप्तमोऽध्यायः 5 मूलसूत्रम् — तस्योपरि श्राचार्य श्रीमद्विजय सुशीलसूरिणा * विरचिता 'सुबोधिका टीका' एवं सरलहिन्दीभाषायां विवेचनामृतम् * व्रत स्वरूपम् हिंसा नृत- स्तेया-ब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥ ७१ ॥ * सुबोधिका टीका * यस्मिन् विषये प्रज्ञानं वर्त्तते तस्य त्यागोऽपि दुष्करः । अप्राप्तस्य त्यागोऽपि असम्भवः अतः यद्ज्ञानं तस्य त्यागो व्रतेति । हिंसाया प्रनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहाच्च कायवाङ्मनोभिविरतिव्रतम् । विरतिर्नाम ज्ञात्वाभ्युपेत्याकरणम् । प्रकरणं निवृत्तिरुपरमो विरतिरित्यनर्थान्तरम् ।। ७-१ ।। * सूत्रार्थ - हिंसा, अनृतवचन- मिथ्याभाषण, स्तेय- चोरी, प्रब्रह्म - कुशील और परिग्रह से विरति को व्रत कहते हैं ।। ७-१ ।। विवेचनामृत छठे अध्याय के तेरहवं सूत्र में व्रती अनुकम्पा और दान ये दो गुण, सातावेदनीय कर्मबन्ध के प्रास्रव बताये गये हैं । व्रत से व्रती शब्द बना है । अर्थात् व्रत और व्रती का ज्ञान कराना Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१ अति आवश्यक है। इस सातवें अध्याय में व्रत की व्याख्या, साधु के तथा श्रावक के व्रतों का स्वरूप तथा व्रती की व्याख्या प्रादि कहने में आये हैं। जीवादिक सात तत्त्वों की अपेक्षा इस सातवें अध्याय में प्रास्रव तत्त्व का वर्णन है। श्री जैनधर्म में व्रत की क्या महत्ता है और इसको ग्रहण करने वाले कौन हैं तथा दान एवं व्रत का विशेष रूप क्या है, इन सबका वर्णन इस अध्याय में आयेगा। हिंसा, अनृत (असत्य), स्तेय (चोरी), अब्रह्म (मैथुन) तथा परिग्रह इन पांचों से निवृत्त होने को व्रत कहते हैं। ___ समस्त व्रतों में अहिंसा ही मुख्य व्रत है, इसलिए उसका स्थान भी पहला है। अन्य व्रत इसी अहिंसा की रक्षा के लिए हैं। जिस तरह पाक (खेत) की रक्षा के लिए बाड़ की आवश्यकता रहती है, इसी तरह अहिंसा (दया) की रक्षा के लिए अन्य व्रतों की आवश्यकता रहती है। निवृत्ति तथा प्रवृत्ति रूप दोनों विधियों से ही व्रत की परिपूर्णता होती है। व्रत की व्याख्या में व्रत को निवृत्तिरूप बताया है, किन्तु अर्थापत्ति से व्रत निवृत्ति और प्रवृत्ति उभय स्वरूप है। जीव-आत्मा, हिंसा आदि से निवृत्ति होते ही शास्त्रविहित क्रिया में प्रवृत्ति करता है। यहाँ पर निवृत्ति की मुख्यता से व्रत को निवृत्ति रूप बताने में आया है। अनादिकालीन इस संसार में चौरासी लाख जीवायोनी हैं। उसमें परिभ्रमण करने वाला जीव भी अनादिकाल से वर्त रहा है। उसके साथ कर्म का सम्बन्ध पड़ा है। इस सम्बन्ध को सर्वथा दूर करने के लिए मुख्य साधन सद्धर्म ही है। समस्त साधना का ध्येय राग-द्वेषादि दूर करके शाश्वत सुख पाना है। राग-द्वेषादिक से पापवृत्ति होती है। पापप्रवृत्ति से कर्म का बन्ध होता है। कर्मबन्ध से इस संसार में परिभ्रमण होता है और संसारपरिभ्रमण में केवल दुःख का ही अनुभव होता है। इस तरह दुःख का मूल राग-द्वेष कषाय ही हैं। इसलिए व्रती (व्रतधारी) को राग-द्वेष कषाय नहीं करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। अर्थात् उसका नियम अवश्य ही लेना चाहिए। पापप्रवृत्ति बन्द करने में आ जाय तो राग-द्वेष कषाय दीर्घ समय तक नहीं रह सकते । इसलिए साधक को सबसे पहले हिंसा आदि पाप के त्यागपूर्वक शुभ अनुष्ठानों का सेवन अवश्य ही करना चाहिए। ये ही आत्महितकारी हैं। सर्वप्रथम हिंसादि पाँच पापों के त्याग करने का विधान है। कर्मबन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कारण हैं। इस दृष्टि से भी प्रथम मिथ्यात्व के त्यागपूर्वक अविरति का अर्थात् पापप्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए। अविरतित्याग के बाद ही राग-द्वेषादि कषायों का त्याग हो सकता है। बाद में योग का त्याग भी हो सकता है। इस तरह हिंसादिक न करने के नियम से राग-द्वेषादि निर्बल हो जाते हैं, फिर ये अपना कार्य नहीं कर सकने से अकिञ्चित्कर बन जाते हैं। सामायिक उच्चरने के लिए 'करेमि भंते सूत्र' का पाठ बोलने में आता है। उसमें सामायिक यानी समता। समता यानी कषायों का अभाव। यहाँ पर सर्वथा कषायों का प्रभाव प्रशक्य है। इसलिए उस-उस कक्षा के साधक को अप्रत्याख्यान अथवा प्रत्याख्यानावरणरूप कषायों का अर्थात् राग-द्वेष के त्याग का नियम लेने में आता ही है। विशेष-निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप दो विधियों से व्रत की पूर्णता होती है। जैसे–सत्कार्यों में प्रवृत्तमान होने के लिए पहले विरोधी असत् कार्यों से स्वयमेव निवृत्ति भाव को प्राप्त होता Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] सप्तमोऽध्यायः है और जब असत् कार्यों की निवृत्ति होती है, तब स्वयमेव सत्कार्यों में प्रवृत्ति हो जाती है। किन्तु यहाँ पर तो स्पष्ट रीति से दोषों की निवृत्ति को ही व्रत माना है, तो भी उसमें सत्प्रवृत्ति का अंश तो आ ही जाता है। इससे मात्र निष्क्रियता नहीं जाननी चाहिए। * प्रश्न-रात्रिभोजन-विरमण भी प्रसिद्धरूप से व्रत के समान माना है तो उसको वाचकप्रवरश्री सूत्रकार ने क्यों नहीं कहा ? . उत्तर-रात्रिभोजन-विरमण पृथक् रूप से मूलव्रत नहीं है, केवल मूलव्रत निष्पन्न एक आवश्यक व्रत है। प्रस्तुत सूत्रकार का ध्येय केवल मूलव्रत निरूपण विषयक है। इसलिए अवान्तर व्रत मूलव्रतों में अन्तनिहित हैं ।। ७-१ ॥ * व्रतानां भेदाः * 卐 मूलसूत्रम् देश-सर्वतोऽणु-महती॥ ७-२॥ * सुबोधिका टीका * एकेन्द्रियाणां स्थावराणाञ्च सानामकारणहिंसात्यागः, अथवा सूक्ष्मभेदान् विहाय स्थूलभेदानां परित्यागोऽणुव्रतः । गृहस्थश्रावकायेदम्, एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिः अणुव्रतं सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति, गृहनिवृत्तं मुनीनां भवति ॥ ७-२ ।। * सूत्रार्थ-उक्त हिंसादि पाँच पापों का एकदेश अर्थात् कुछ अंश से त्याग करना अणुव्रत और सर्वथा त्याग करना महाव्रत कहा जाता है ।। ७-२ ॥ ॐ विवेचनामृत अल्पांश विरति को अणुव्रत कहते हैं, और सर्वांश विरति को महाव्रत कहते हैं। अर्थात्हिंसादिक पापों से एकदेश से (आंशिक अथवा स्थल) निवृत्ति, वह अणुव्रत और सर्वथा (सूक्ष्म से) निवृत्ति वह महाव्रत है। दोषों से निवृत्त होना वह त्यागबुद्धि वालों का ध्येय है, तो भी त्यागवृत्ति एकसी होती नहीं है। वह उनके विकासक्रम की स्वाधीनता पर निर्भर है। यहाँ तो सूत्रकार का उद्देश्य हिंसादिक प्रवृत्तियों से न्यूनाधिक रूप में भी निवृत्ति होने वालों को विरति मानकर के उनके दो विभाग किए हैं-- महाव्रत और अणुव्रत । [१] पाँच महावत उपर्युक्त हिंसा-असत्यादि पांच दोषों यानी पापों को मन-वचन-काय से सर्वथा न करना, न कराना और न करने की अनुमति देना। इनको 'महावत' कहते हैं। महाव्रत के पाँच प्रकार हैं, जिनके नाम क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।२ (१) प्राणातिपात विरमण व्रत-समस्त प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग। यह प्राणातिपात विरमण व्रत है। (२) मृषावाद विरमण व्रत-समस्त प्रकार के असत्य का त्याग। यह मृषावाद विरमण व्रत है। (३) प्रदत्तादान विरमण व्रत-समस्त प्रकार की चोरी का त्याग । यह प्रदत्तादान विरमण व्रत है। (४) मैथुन विरमण व्रत-समस्त प्रकार के मैथुन का (विषयों का) त्याग। यह मैथुन विरमण व्रत है। (५) समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग। यह परिग्रह विरमण व्रत है । [२] पाँच अणुव्रत उक्त हिंसादिक पापों से किसी एक अंशमात्र में निवृत्त होना, उसे अणुव्रत कहते हैं । उन अणुव्रतों के भी पाँच प्रकार हैं जिनके नाम क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं(१) स्थूलप्राणातिपात विरमण व्रत यह पहला व्रत है। निष्कारण, निरपराध त्रस जीवों की संकल्प पूर्वक की जाने वाली हिंसा का त्याग करना, सो स्थूलप्राणातिपात विरमण व्रत है। * १. इस व्रत में त्रस और स्थावर इन दो प्रकार के जीवों में से केवल त्रस जीवों की ही हिंसा का त्याग करने में आता है। क्योंकि गृहस्थ-जीवन में स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग अशक्य है। * २. इसमें भी संकल्प से अर्थात् मारने की बुद्धि से, हिंसा का त्याग करने में आता है। अपनी मारने की बुद्धि नहीं होने पर भी खेती तथा रसोई आदि की प्रवृत्ति में अजानते अथवा आकस्मिक कारणों से त्रस जीवों की हिंसा हो जाए तो उस आरम्भजन्य हिंसा का त्याग नहीं होता है। * ३. इसमें भी फिर निरपराध जीवों की ही हिंसा का त्याग करने में आता है। कारण कि-कोई निर्लज्ज बदमाश व्यक्ति स्त्री की लाज लेते हो, कोई चोर चोरी करने के लिए घर में आए हों, श्वान-कुत्ता करड़ने के लिए आए हों, कोई हिंसक प्राणी अपने पर या अन्य पर हिंसा करने के लिए हमला करते हों, तथा कोई नृपति-राजा इत्यादि हो तो शत्रु के साथ लड़ना पड़े, इत्यादि प्रसंगों में भी अपराधी को यथायोग्य शिक्षा करते हुए अपने से स्थूलहिंसा हो जाती है। अपराध किए हुए अपराधी को ताड़ना करनी पड़े या मारना भी पड़े तो इसमें होने वाली हिंसा का त्याग नहीं होता है। * ४. इसमें भी निष्कारण हिंसा का त्याग है। निरपराध होते हुए भी सकारण प्रमादी ऐसे पुत्रादिक को, बराबर काम नहीं करने वाले नौकर-चाकर इत्यादिक को, तथा उपलक्षण से वृषभ-बैल आदि को भी मारने का प्रसंग पा जाए, तो भी इसका नियम नही है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] सप्तमोऽध्यायः * हिंसा के प्रकारों का कोष्ठक * हिंसा स्थावर (सूक्ष्म) अस (स्थल) संकल्प जन्य प्रारम्भ जन्य निरपराध सापराध निष्कारण सकारण महाव्रतों की अपेक्षा अणुव्रतों में अहिंसा का एकदेश-प्रांशिक पालन होता है । इस व्रत के पालन से हिंसा सम्बन्धी क्रूर परिणामों के पाप से जीव बच जाता है। अनुपम जीवदया का विशेष पालन होता है। (२) स्थूलमृषावाद विरमण- यह दूसरा व्रत है। कन्या-अलीक, गो-अलीक, भूमिअलीक, न्यास-अपहार और कूटसाक्षी, इन पाँच प्रकार के असत्य का त्याग है। इनका वर्णन क्रमशः नीचे प्रमाणे है (१) कन्या-अलीक - सगपणादिक प्रसंगे कन्या सम्बन्धी अलीक यानी प्रसत्य-झूठ बोलना। जैसे-कन्या रूपाली नहीं होते हुए भी उसे रूपाली बताना। यहाँ पर कन्या तो उपलक्षण मात्र है । इसीलिए इसमें द्विपदप्राणी अर्थात् दो पाँव वाले प्राणी सम्बन्धी सर्व प्रकार के असत्य का कन्याअलीक में समावेश होता है। दास-दासी आदि सम्बन्धी असत्य का भी कन्या-अलीक में समावेश हो जाता है। गो-अलीक-यानी गौ सम्बन्धी असत्य बोलना। गाय के अंग में अमुक प्रकार का रोग होते हुए भी उसको रोग रहित कहकर के अन्य को ठगने का प्रयत्न करना इत्यादि । , यहाँ गौ-गाय के उपलक्षण से चतुष्पद यानी चार पाँव वाले गाय, भैंस, इत्यादि समस्त पशुओं के सम्बन्ध में असत्य का गो-अलीक में समावेश होता है। (३) भूमि अलीक-भूमि-जमीन सम्बन्धी असत्य बोलना। भूमि फलद्रूप नहीं होने पर भी उसे फलद्रूप कहकर के अन्य दूसरे को ठगने का प्रयत्न करना इत्यादि । यहाँ पर भूमि के उपलक्षण से सर्व प्रकार के सम्पत्ति सम्बन्धी असत्य का भूमि-अलीक में समावेश होता है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७२ (४) न्यास-अपहार-न्यास यानी ठापण पूर्वे न्यास-थापण रूपे रखे हुए धन-पैसा आदि जब लेने को प्रा जावे, तब 'हमको नहीं दिये हैं' ऐसा कहकर के थापणा का अपहार करना यानी अस्वीकार करना। वह न्यास अपहार है। यह चोरी का ही एक प्रकार होते हुए भी यह चोरी असत्य बोल करके की गई होने से, इसमें असत्य की मुख्यता होने से उसका असत्य में ही समावेश किया है। (५) कट-साक्षी–कोर्ट आदि के प्रसंग में किसी व्यक्ति की असत्य-झठी साक्षी पूरनी। असत्य साक्षी से अन्य-दूसरे के पाप को भी पुष्टि मिलती होने से कूटसाक्षी असत्य को उपचार के चार असत्य से पृथग् गिना है । असत्य के अनेक प्रकार हैं। उनमें इन पाँच प्रकार के असत्य से प्राध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से अधिक ही नुकसान होता है। इसलिए गृहस्थ को इन स्थल पाँच असत्य का अवश्य ही त्याग करना चाहिए । ___ इन पाँचों असत्यों से कितनी ही बार अपने और पर के प्राण जाने का भी प्रसंग उपस्थित हो जाय, परस्पर वैमनस्य पैदा हो जाय, तथा लोक में भी अपने प्रति अविश्वास पैदा हो जाय, तो अनेक नुकसान हो जाने से परिणाम में व्यवहार बिगड़ता है। तथा इसी से अपने धर्म को भी हानि पहुंचती है। किसी का जीव बचाने के लिये कभी असत्य बोलना पड़े तो उसका इस नियम में समावेश नहीं होता है। कारण कि वह वास्तविक असत्य नहीं है। फल-इससे जनता-लोकों को भी अपने प्रति विश्वास पैदा होता है तथा असत्य के योग से होते हुए क्लेश-कंकास, मारामारी एवं दुश्मनावट-शत्रुतादिक अनेक अनर्थों से बच जाते हैं । (३) स्थूलप्रवत्तादान विरमण- यह तीसरा व्रत है, जिसको व्यवहार में चोरी कहने में आता है। जैसे खीसा कापना, दाणचोरी इत्यादि स्थल चोरी का त्याग करना। (चलते हुए या बैठे हुए रास्ते में से पत्थर पाषाण तथा तृण-घास आदि लेना पड़े इत्यादि सूक्ष्म चोरी का त्याग होता नहीं है)। फल-चोरी करने वाला व्यक्ति भले बाहर से जैसे-तैसे वर्तता हो तो भी अन्तर में फफड़ता है, अति दुःखी है। इसलिए यह व्रत स्वीकारने वाला और पालन करने वाला निर्भय रहता है तथा लोकापवाद, अपकोत्ति तथा राजदंड इत्यादि अनेक अनर्थों से बच जाता है एवं सुरक्षित रहता है । (४) स्थूलमैथुनविरमरण-स्व-पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्त्री के साथ अथवा परस्त्री (कुमारिका, विधवा, वेश्या आदि) के साथ मैथुन का त्याग करना। फल- इस व्रत से अपना जीवन सदाचारी बनता है। परस्त्रीगमन के महान् पाप से और इससे उत्पन्न होते हुए लोकापवाद तथा प्राणनाशभय इत्यादि अनेक अनर्थों से बच जाते हैं । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२ ] सप्तमोऽध्यायः (५) स्थलपरिग्रह विरमण-घन-रोकड़ नाणां, सोना-रूपा आदि के दागीना, गह-घर, दुकान तथा राच-राचीला इत्यादि प्रत्येक का अमुक-अमुक प्रमाण से अधिक का त्याग, या रोकड़ नाणां इत्यादि सभी भेली करके अमुक मिल्कियत से अधिक मिल्कियत का त्याग करना। फल-इस त्याग से प्रात्मा में सन्तोष आता है तथा अपना जीवन स्वस्थ बनता है। मन भी चिन्तामों से मुक्त हो जाता है । * महावत-अणुव्रत में अन्य विशेषता महाव्रत में तथा अणुव्रत में अन्य विशेषताएँ नीचे प्रमाणे हैं (१) पांचों प्राणातिपातादि विरमण महावत साधु को साथ में क्रमशः स्वीकार करने का होता है जबकि गृहस्थ तो अणुव्रतों में अपनी अनुकूलता प्रमाणे एक, दो इत्यादि अणुव्रत भी स्वीकार कर सकते हैं। (२) पंचमहाव्रतों में मन, वचन और काया से करना, कराना और अनुमोदना इन तीन कोटियों से पाप का त्याग करने में आता है। हिंसा इत्यादि मन से करना नहीं, वचन से करना नहीं तथा काया से भी करना नहीं। इस तरह मन इत्यादिक तीन से कराना भी नहीं, अन्य करता हो तो उनकी अनुमोदना भी करना नहीं। आम किसी प्रकार के अपवाद बिना पंच महाव्रतों का स्वीकार होता है। अणुव्रतों में तो पापों को मन, वचन और काया से करने का और कराने का त्याग होता है किन्तु अनुमोदना का त्याग होता नहीं। इसमें भी गृहस्थ को संक्षेप करना हो अर्थात् छूट लेनी हो तो ले भी सकते हैं। किन्तु साधुओं को तो पंचमहाव्रत में किसी प्रकार की छूट मिल सकती नहीं। कारण कि --त्रिविधे प्रतिज्ञा का परिपालन करना पड़ता ही है। * हिंसादि पापों को एकदेश निवृत्ति अणुव्रत कैसे है ? इसके कारण नीचे प्रमाणे हैं (१) अणु यानी छोटा व्रत, वह अणुव्रत है। महाव्रतों की अपेक्षा छोटे होने से उन्हें अणुव्रत कहा जाता है। (२) गुणों की अपेक्षा भी साधुओं से गृहस्थ अणु यानी छोटे हैं। इसलिए भी उनके व्रत अणुव्रत हैं। (३) धर्मोपदेश में महाव्रतों के उपदेश के बाद अणुव्रत का उपदेश देने में आता है। इसलिए महाव्रतों के बाद उपदिष्ट होने के कारण भी वे व्रत अणुव्रत हैं । तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत भी अर्थ की दृष्टि से अणुव्रत हैं। आगम में प्रथम के पांच व्रतों के लिए ही अणुव्रत शब्द का प्रयोग पाता है अतः अणुव्रत शब्द से प्रथम के हिंसादिक पाँच व्रत ही जानना ॥ (७-२) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्याधिगमसूत्रे [ ७३ * व्रतानां भावना * 卐 मूलसूत्रम् तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥ ७-३॥ * सुबोधिका टीका * __ ईर्यासमिति-मनोगुप्ति - एषणासमिति-प्रादाननिक्षेपणसमिति-भालोकितपानभोजनानि एतानि पञ्च अहिंसाव्रतस्य भावना। तस्य पञ्चविधस्य स्थैर्यार्थमेकैकस्य पञ्च-पञ्च भावना भवन्ति । तद्यथा च अहिंसायास्तावदीर्यासमित्यादयः पूर्वमेव उक्ता। सत्यवचनस्यानुवीचिभाषणं, क्रोधप्रत्याख्यानं लोभप्रत्याख्यानं अभीरुत्वं हास्यप्रत्याख्यानमिति । अस्तेयस्यानुवीच्यवग्रहयाचनमभीक्ष्णावग्रहयाचनमेतावदित्यवग्रहावधारणं समानधार्मिकेभ्यः अवग्रहयाचनं अनुज्ञापितपान-भोजनमिति । ब्रह्मचर्यस्य स्त्रीपशुषण्डकसंशक्तशयनासनवर्जनं, रागसंयुक्तस्त्रीकथावर्जनं, स्त्रीणां मनोहरेन्द्रियावलोकनवर्जनं, पूर्वरतानुस्मरणवर्जनं प्रणीतरसभोजनवर्जनमिति । प्राविञ्चनस्य पञ्चानामिन्द्रियार्थानां स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णशब्दानां मनोज्ञानां प्राप्ती गादर्यवर्जनममनोज्ञानां प्राप्तौ द्वषवर्जनमिति ।। ७-३ ।। सूत्रार्थ-पांच व्रतों की स्थिरता के लिए प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनाएँ हैं ।। ७-३॥ + विवेचनामृत उक्त व्रतों की स्थिरता के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनायें हैं। अर्थात्-उक्त हिंसादि पाँच महाव्रतों की स्थिरता (दृढ़ता) के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पांच भावनायें होती हैं । जैसे-व्याधिग्रस्त-रोगी जीव को औषध-दवा के अतिरिक्त पथ्य भी अति ही आवश्यक होता है, वैसे ही विरति को भावनायें अनुकरणीय कही गई हैं। व्रत की अनुकूलता के अनुसार स्थूलदृष्टि द्वारा जो मुख्य-मुख्य प्रवृत्तियाँ कही हैं वे सभी भावना के नाम से विख्यात हैं। उनमें प्रयत्नशीलवंत व्यक्ति विरति की उत्तमता तथा व्रत के यथेष्ट परिणामी होते हैं। [१] प्रथम-पहले महाव्रत की पाँच भावनाएं : (१) ईर्यासमिति, (२) मनोगुप्ति, (३) एषणा समिति, (४) आदान निक्षेपणा समिति तथा (५) आलोकितपानभोजन। ये पांच भावनायें प्रथम-पहले महाव्रत (अहिंसाव्रत) की हैं। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।३ ] सप्तमोऽध्यायः विशेषरूप से वर्णन क्रमशः नीचे प्रमाणे है (१) स्व, पर को क्लेश या कष्ट न हो, इस तरह यत्नपूर्वक जो गमनागमन करना; वह ईर्यासमिति कहलाती है। अर्थात् –लोकों का गमनागमन होता हो और सूर्य का प्रकाश पड़ता हो, ऐसे मार्ग-रास्ते पर जीवरक्षा के लिए युग' प्रमाणदृष्टि रख करके चलना, वह ईर्यासमिति है। (२) मनोगुप्ति-मन को अशुभध्यान से रोककर शुभध्यान में लगाना, वह मनोगुप्ति कहलाती है। अर्थात्-प्रार्तध्यान का और रौद्रध्यान का त्याग करके धर्मध्यान में मन का उपयोग रखना, वह मनोगुप्ति कहलाती है। (३) एषणा समिति-वस्तु की गवेषणा, ग्रहणेषणा और ग्रासैषणा, इन तीन प्रकार की एषणा में उपयोग पूर्वक वर्तना, वह एषणा समिति' कहलाती है। (४) प्रादाननिक्षेपणा समिति-वस्तु को उठाते समय और रखते समय यत्नपूर्वक अवलोकन करना, वह पादाननिक्षेपणा समिति कहलाती है। अर्थात्-प्रादान यानी लेना और निक्षेपण यानी मूकना-रखना। जब चीज-वस्तु लेने की हो तब उसका दृष्टि से निरीक्षण करके तथा रजोहरणादिक से प्रमार्जन करके लेना तथा चीज-वस्तु मूकने-रखने की हो तो जमीन-भूमि को दृष्टि से निरीक्षण करके तथा रजोहरणादिक से प्रमार्जन करने के बाद मूकनी-रखनी। (५) पालोकित पानभोजन-अन्न-पानादि भोजन सामग्री का यत्नपूर्वक अवलोकन करने के बाद भोगोपभोग करना, वह पालोकित पानभोजन कहलाता है। अर्थात्-आहार में उत्पन्न १. युग यानी गाड़ी में जोते हुए वृषभ-बैल के स्कन्ध रही हुई धांसरी जाननी। वह प्रायः ३।।-४ हस्त-हाथ की होती है। २. श्रमण-श्रमणियों को देह-शरीर टिकाने के लिए जरूरत पड़े तो गृहस्थ के गृह-घर पर जाकर किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगे उसी माफिक एषरणा यानी तपास करके ही पाहार लेने का होता है। आहार लाने के बाद गृद्धि प्रादि दोष रहित उसको वापरना होता है। आहार लाने में किन-किन दोषों की सम्भावना है? यह बताते हए शास्त्र में मुख्यपने बैंतालीस (४२) दोष कहे हैं। उनमें गवेष बत्तीस (३२) और ग्रहणषणा के दस (१०) ऐसे कुल बैतालीस (४२) दोष आहार लाने में सम्भवते हैं। गवेषणा के जो बत्तीस दोष हैं, उसके दो विभाग हैं। एक विभाग सोलह उद्गम दोषों का तथा दूसरा विभाग सोलह उत्पादन दोषों का है। उद्गम अर्थात् पाहार की उत्पत्ति में होते हुए दोष । ये दोष गृहस्थ से उत्पन्न होते हैं। उत्पादन अर्थात् उत्पन्न करना। गृहस्थ के गृह-घर में आहार की उत्पत्ति में कोई दोष नहीं लगा हो तथा साधु ने भी कोई दोष नहीं लगाया हो किन्तु आहार ग्रहण करते समय जो दोष उत्पन्न होते हैं; वे ग्रहणैषणा के दोष कहलाते हैं। गवेषणा के और ग्रहणषणा के इन दोषों से रहित आहार-मिक्षा लाने के बाद भी प्राहार-भिक्षा वापरते समय जो दोष लगते हैं वे प्रासंषणा दोष कहलाते हैं । ये दोष पांच हैं। इन दोषों का विशेष वर्णन पिण्डनियुक्ति प्रादि शास्त्र-ग्रन्थों से जानना चाहिए । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७३ हुए अथवा आगन्तुक जीवों की रक्षा के लिए प्रत्येक घर से पात्र में लिया हुआ पाहार उपयोगपूर्वक जोहना, उपाश्रय में आने के बाद पुनः प्रकाशवाले स्थान में वह आहार जोहना-देखना। बाद में प्रकाशवाले स्थान में जयणापूर्वक बैठकर भोजन करना । [२] द्वितीय-दूसरे महावत की भावनाएँ (१) अनुवीचिभाषण, (२) क्रोधप्रत्याख्यान, (३) लोभप्रत्याख्यान, (४) भयप्रत्याख्यान, तथा (५) हास्यप्रत्याख्यान । ये पाँच भावनाएँ द्वितीय-दूसरे महाव्रत-सत्यव्रत की हैं। विशेष वर्णन क्रमशः नीचे प्रमाणे है (१) अनुवीचि भाषण-अनुवीचि = यानी विचार। अनिंद्य भाषण। अर्थात् विचार पूर्वक बोलना वह अनुवीचि भाषण कहा जाता है । (२) क्रोधप्रत्याख्यान-क्रोध का त्याग करना, वह क्रोधप्रत्याख्यान कहलाता है। (३) लोभप्रत्याख्यान-लोभ का त्याग करना, वह लोभप्रत्याख्यान कहा जाता है । (४) भयप्रत्याख्यान-भय का त्याग करना, वह भयप्रत्याख्यान कहलाता है ।* (५) हास्यप्रत्याख्यान-हास्य का त्याग करना, वह हास्य प्रत्याख्यान कहा जाता है । विचार किए बिना बोलना इत्यादि पाँच प्रसत्य के कारण हैं, इसलिए इन पाँचों का त्याग करना चाहिए। [३] तृतीय-तीसरे महाव्रत की भावनाएँ तीसरे महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं- १. अनुवीचि-अवग्रह याचना, २. अभीक्षण अवग्रह याचना, ३. अवग्रह अवधारण याचना, ४. समानधर्मी-धार्मिक अवग्रह याचना, एवं ५. अनुज्ञापित पान भोजन याचना । इन पाँचों भावनाओं का क्रमशः वर्णन इस प्रकार है (१) अनुवीचि अवग्रह याचना-अनुवीचि अर्थात् विचार । अवग्रह अर्थात् रहने के लिए स्थान-जगह। याचना अर्थात् मांगना । श्रमरण-साधुओं को जिस स्थान-जगह में वास करना हो, उस स्थान का जो मालिक हो. उसको कितने स्थान की जरूरत है इत्यादि विचार पूर्वक अनुमतिआज्ञा लेकर ही उस स्थान-जगह में वास करना चाहिए। अन्यथा अदत्तादान का दोष लगता है। इन्द्र, चक्रवर्ती, मांडलिक राजा, गृहस्वामी और सार्मिक पूर्वे-पहले वहाँ रह रहे श्रमण-साधु इस तरह पाँच प्रकार के स्वामी हैं। भय सात प्रकार के हैं। (१) इहलोक (मनुष्य से) भय, (२) परलोक (तिर्यंच से) मय, (३) प्रादान (कोई ले जायेगा ऐसा) मय, (४) अकस्मात् (बिजली आदि का) भय, (५) प्राजीविका (जीवन निर्वाह का) मय, (६) मृत्यु-मरण भय, तथा (७) अपकीत्ति भय। इन सात प्रकार के भयों का त्याग करना। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः [ ११ स्पष्टीकरण -- जरूरत के माफिक कोई भी चीज वस्तु उपयोग सहित मंगाकर लेना या मकान-पाट-पाटलादि प्रत्येक चीज वस्तु के मालिक - स्वामी यदि भिन्न-भिन्न हों तो सबसे यथोचित याचना करके चीज वस्तु ग्रहण करनी, यह 'अनुवीचि श्रवग्रह याचना' है । ७।३ ] (२) प्रभीक्ष्ण श्रवग्रह याचना - अभीक्ष्ण अर्थात् बारम्बार । यदि रोगादि के कारण या अन्य किसी भी कारण विशेष से आवश्यकता हो तो वस्तु पुनः पुनः -- बारम्बार मांगकर लेनी, किन्तु यह अवश्य ही ध्यान रखना चाहिए कि उसके स्वामी मालिक को किसी भी प्रकार का दुःख-क्लेशादिक तो उत्पन्न नहीं होता है । अर्थात् - सामान्य से अवग्रह की याचना करने पर भी रोगादिक की अवस्था में भिन्न-भिन्न स्थान - जगह का भिन्न-भिन्नपने उपयोग करना पड़े तो जब-जब जिस-जिस स्थान-जगह का जंसा-जैसा उपयोग करने का हो वैसा-वैसा उपयोग करने के लिए उस-उस स्थानजगह की याचना करनी चाहिए । यही अभीक्ष्ण श्रवग्रह याचना है । (३) अवग्रह अवधारण - याचना करते समय चीज वस्तु की मर्यादा या यथोचित नियम प्रकाशित करके ग्रहण करना, इसे अवग्रह अवधारण कहा जाता है । अर्थात् - प्रवग्रह की याचना करते समय कितने स्थान- जगह की जरूरत उसका निर्णय करके जरूरत जितनी जगह - स्थान मांगकर उतने ही स्थान का उपयोग करना । यह 'अवग्रह - श्रवधारण' है यानी नियमपूर्वक ग्रहण है । (४) समान धार्मिक प्रवग्रह याचना - अपने समान धर्मवालों ने किसी से कोई चीज वस्तु याचना करके लो, हो और उसको आवश्यकता- जरूरत पड़े तो समान धर्मवालों से याचना करके लेनी। जैसे -- श्रमण साधुत्रों के समान धार्मिक श्रमण साधु हैं । जिस स्थान - जगह में पूर्वे - पहिले आए हुए श्रमण-साधु उतरे हुए हों, उस स्थान- जगह में उतरने का हो तो पूर्वे-पहिले उतरे हुए साधुनों की अनुमति श्रनुज्ञा अवश्य लेनी चाहिए । यही समान धार्मिक अवग्रह याचना कहलाती है । (५) अनुज्ञापित पान - भोजन - विधिपूर्वक ग्रहण किये हुए अन्न-पानादि को गुरुमहाराज के समक्ष रखकर उनकी अनुज्ञा से उपयोग करना, यह श्रनुज्ञापित पान-भोजन कहा जाता है । अर्थात् - गुरुमहाराज की आज्ञा लेकर के अन्न-पानी लेने के लिए जाना चाहिए। शास्त्रोक्त विधिपूर्वक भोजन-पानी लाने के बाद तथा गुरुमहाराज को बताने के बाद, उनकी अनुज्ञा पाकर भोजन-पानी वापरना चाहिए अन्यथा गुरुप्रदत्त दान इत्यादि का दोष लगता है । इस तरह तीसरे महाव्रत की पाँच भावनाएँ जाननी । [४] चतुर्थ- चौथे महाव्रत की भावनाएँ (१) स्त्री-पशु-पंडक संस्तववसति वर्जन, (२) रागसंयुक्त स्त्रीकथा वर्जन, (३) मनोहर इन्द्रिय अवलोकन वर्जन, (४) पूर्व क्रीड़ास्मरण वर्जन, तथा ( ५ ) प्रणीत रस भोजन वर्जन । इनका विशेष वर्णन ये पाँच भावनाएँ चतुर्थ - चौथे महाव्रत ( मैथुन विरमरण व्रत ) की हैं । इस प्रकार है Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७३ १. स्त्री-पशु-पंडक संस्तववसतिवर्जन-जहाँ स्त्रियों का गमनागमन (जाना-पाना) विशेष होता हो, जहाँ पशु अधिक प्रमाण में हों तथा जहाँ नपुंसक रहते हों; ऐसे स्थान का और वसतिका का त्याग करना चाहिए। इसे स्त्री-पशु-पंडक संस्तववसतिवर्जन-भावना जाननी । २. रागसंयुक्त स्त्रीकथावर्जन- राग से स्त्रियों की कथा नहीं करनी चाहिए। जैसेअमुक देश की स्त्रियाँ अति रूपाली हैं, इत्यादि । अर्थात्-कामवर्धक कथाओं का त्याग करना। ३. मनोहर इन्द्रिय अवलोकन वर्जन-कामोद्दीपक अंगोपांग-अवलोकन का त्याग । अर्थात्-राग से स्त्रियों के अंगोपांगों की तरफ दृष्टि भी नहीं करनी चाहिए। कदाचित्-अकस्मात् दृष्टि पड़ जाए तो भी तत्काल ही पीछे खींच लेनी चाहिए। इसे मनोहर इन्द्रिय अवलोकन वर्जन भावना जानना। ४. पूर्वक्रीड़ास्मरणवर्जन-पूर्वे सेवन किये हुए रति विलासादि भोगों के स्मरण का त्याग । अर्थात्-पहले गृहस्थ अवस्था में की हुई कामक्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करना चाहिए । इसे पूर्वक्रीड़ा स्मरणवर्जन भावना जानना। ५. प्रणीत रस भोजन वर्जन--प्रणीत रसवाले आहार का त्याग करना। दूध, दही, घी, मक्खन इत्यादि स्निग्ध और मधुर रसवाला आहार प्रणीत आहार है। उसका त्याग करना चाहिए। इसे प्रणीत रस भोजनवर्जन भावना जानना । उक्त पाँचों भावनाएँ चतुर्थ-चौथे महाव्रत (मैथुन विरमण व्रत) की जाननी । [५] पंचम-पांचवें महाव्रत की भावनाएं पाँचों इन्द्रियों को इष्ट, मनोज्ञ वा अभिलषित स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण तथा शब्दादिक वस्तुपदार्थ की प्राप्ति समय राग वा लोलुपता तथा अप्राप्ति समय द्वेषादिक भावना का त्याग करना चाहिए। अर्थात्- स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द इन पाँचों विषयों में मनोज्ञ (इष्ट) होने पर राग नहीं करना चाहिए तथा अमनोज्ञ (अनिष्ट) हों तो द्वेष नहीं करना चाहिए। स्पर्श आदि प्रत्येक की एक-एक भावना होने से पाँच विषयों की पाँच भावनायें हैं । विशेष-त्यागधर्म के विषय में श्रीजैनसंघ के महाव्रतधारी श्रमरण-साधुओं का स्थान सबसे प्रथम-पहला और उच्च कोटि का है। इसी उद्देश्य को आगे रखकर इन प्रस्तुत भावनाओं का वर्णन किया गया है। तथापि व्रतधारी अपनी मर्यादा के अनुसार अथवा देशकाल, परिस्थिति या आन्तरिक योग्यता की तरफ ध्यान रखता हुआ सिर्फ व्रत की स्थिरता या व्रत की शुद्धि के लिए इन भावनाओं का संकोच-विकास अथवा इनको न्यूनाधिक रूप में नव पल्लवित कर सकता है । यहाँ पाँचों महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ बताने में आई हैं। उनका यथार्थ पालन करने से पंच महाव्रतों का पालन शुद्ध निरतिचारपने होता है अन्यथा अतिचार लगने से महाव्रत भंग होते हैं और उनको धारण करने वाले दोषों के भागी बनते हैं । (७-३) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।४ ] 5 मूलसूत्रम् सप्तमोऽध्यायः 5 अन्यभावना 5 * [ सर्वसामान्या प्रथमभावना ] [ १३ हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् । ७-४ ॥ * सुबोधिका टीका * हिंसादिपंचपापकर्माणि यानि आस्रवरूपाणि वर्णितानि तेषां विषयेषु हिंसादिषु पंचस्वास्रवेषु इहामुत्र चापायदर्शनमनवद्यदर्शनं च भावयेत् । तद्यथा - हिंसायास्तावत् हिंस्रो हि नित्योद्वेजनीयो नित्यानुबद्धवैरञ्च । इहैव वधबन्धपरिक्लेशादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्यपुरमः श्रेयान् । तथानृतवाद्यश्रद्धेो भवति । इहैव जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते मिथ्याभ्याख्यान- दुःखितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यस्तदधिकान् दुःखहेतून् प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभां गति गर्हितश्च भवतीति । मनृतवचनात् व्युपरमः श्रेयान् । तथा स्तेनः परद्रव्यहररणप्रसक्तमतिः सर्वस्योद्व ेजनीयो भवतीति । इहैव चाभिघातवधबन्धनहस्तपादकर्णनासोत्तरौष्ठच्छेदन भेदन - सर्वस्वहरणबध्ययातनमारणादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति स्तेयाद् व्युपरमः श्रेयान् । तथाऽब्रह्मचारी विभ्रमोद्भ्रान्तचित्तः विप्रकीर्णेन्द्रियो मदान्धोगज इव निरङ्क ुशः शर्म नो लभते । मोहाभिभूतश्च कार्याकार्यानभिज्ञो न किञ्चिदशुभं नारभते । परदाराभिगमनकृतांश्च इहैव वैरानुबन्धलिङ्गच्छेदनवधबन्धन- द्रव्यापहारादीन् प्रतिलभतेऽपायान् प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीत्यब्रह्मणो व्युपरमः श्रेयान् । तथा परिग्रहवान् शकुनिरिव मांसपेशीहस्तोऽन्येषां क्रव्यादशकुनानामिहैव चौरतस्करा - दीनां गम्यो भवति । अर्जनरक्षणक्षयकृतांच दोषान् प्राप्नोति । न चास्य तृप्ति - र्भवति इन्धनैरिवाग्नेर्लोभाभिभूतत्वाच्च कार्या - कार्यानपेक्षोभवति । प्रेत्य चाशुभां गति प्राप्नोति, लुब्धोऽयमिति च गर्हितो भवतीति परिग्रहाद् व्युपरमः श्रेयान् । एवं सततचिन्तनेन अहिंसादिव्रताः स्थिराः भवन्ति । अतः नित्यं चिन्तनीयमेतद् ।। ७-४ ।। * श्लोकार्थ - हिंसादि पाँचों पापकर्म इस लोक में और परलोक में भी अपाय तथा प्रवद्य के कारण हैं, इस तरह का विचार करना चाहिए ।। ७-४ ।। 5 विवेचनामृत 5 हिंसादि पांचों को इस लोक में तथा परलोक में निरन्तर अपाय ( श्रेयस्कर कार्यों के विनाश का प्रयोग ) और अवद्य ( निंदाकारक) का कारण समझो। इसे 'दर्शनभावना' कहते हैं । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७२४ अर्थात् - 'हिंसादिक पापों से इस लोक में अपाय की ( अनर्थ की ) परम्परा और परलोक में अवद्य का (पाप का करुण विपाक भोगना पड़ता है ।' ऐसी विचारणा करनी चाहिए । इस लोक में पाय जिस वस्तु पदार्थ का त्याग किया जाय, उसके दोषों का दिग्दर्शन वास्तविकपने जब हो तब वह त्यागवृत्ति अवस्थित रूप से रह सकती है। इसलिए अहिंसादिक व्रतों की स्थिरता के लिए हिंसादि दोषों को जानना समझना अति आवश्यक है । सूत्रकार भी दो प्रकार से व्याख्या करके इसे समझाते हैं । (१) एक है ऐहिक दर्शन और ( २ ) दूसरा है पारलौकिक दर्शन । हिंसा असत्यादिक का सेवन करने से इहलोक में जो स्व तथा पर विषयक आपत्ति - विपत्तियाँ अनुभव में प्राती हैं, उसकी तरफ सर्वदा लक्ष्य रखना उसे 'ऐहिक दर्शन' कहते हैं तथा मृत्यु पाकर नरक और तिर्यंच आदि के अनिष्ट दुःखों की प्राप्ति की सम्भावना करनी, उसको 'पारलौकिक दर्शन' कहते हैं । सारांश यह है कि यह जीव हिंसादिक दुष्कर्मों के समारम्भ से उभय (स्व, पर) लोक में निन्दित तथा दुःखी होता है । इस तरह की दृष्टि को सदैव सन्मुख रखने वाला अहिंसादिक व्रतों का यथोचित परिपालन कर सकता है । इतना ही नहीं किन्तु वह अपने नियमों पर अर्थात् प्रतिज्ञा पर अटल रह सकता है। व्रतों की स्थिरता के लिए उक्त भावनायें अति उपयोगी होती हैं । प्रथम भावना का विशेष वर्णन नीचे प्रमाणे है ( १ ) हिंसा में निमग्न- प्रवृत्त प्राणी सर्वदा स्वयं उद्विग्न रहता है तथा अन्य-दूसरे को उद्वेग कराता है । इससे अन्य प्राणी के प्रति वैरभाव की परम्परा खड़ी हो जाती है । वध, बन्धन इत्यादि अनेक प्रकार के क्लेश पाता है । इसे शीत-धूप इत्यादि के कष्ट सहन करने पड़ते हैं । (२) असत्यवादी अर्थात् झूठ बोलने वाला व्यक्ति अविश्वसनीय और अप्रिय बनता है । वह जिह्वाछेद इत्यादि कष्ट पाता है। जिसके पास असत्य - झूठ बोलता है, उसके साथ वैरभाव - दुश्मनावट होती है । इसे अवसर - समय पर किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलती है । (३) चोरी करने वाली श्रात्मा अनेक जीवों को दुःखी - उद्विग्न करती है । इतना ही नहीं किन्तु उसे स्वयं भी सदा भयभीत रहना पड़ता है। चोरी से लाई हुई चीज वस्तुओं के रक्षण के लिए अनेक प्रकार के कष्ट - दुःख सहन करने पड़ते हैं । नित्य मन भयभीत होने से भोग-उपभोग भी शान्ति से नहीं कर सकता है । कर्मसंयोगे पुलिस प्रमुख के हाथ से पकड़े जाने पर तो जेल - कैदखाना तथा अपकीर्ति आदि दुःख पाता है । ( ४ ) ब्रह्म में अर्थात् मैथुन सेवन में कामासक्ति में रत जीव आत्मवीर्य का क्षय, अशक्ति तथा परस्त्री की मित्रता-सोहबत करने से अपकीर्ति पाता है । तथा उसे प्राणों का विनाश आदि अनेक दुःख प्राप्त होते हैं । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः [ १५ (५) वित्त धन प्राप्ति के लिए शीत-उष्ण तथा भूख-प्यास इत्यादि अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। शारीरिक अनेक कष्ट सहन करने पर भी जो नहीं मिले तो मानसिक चिंता इत्यादि दुःख उत्पन्न होता है । कदाचित् मिल भी जाय तो उसके रक्षण के लिए फिर अनेक कष्ट सहन करने पड़ते । चोर इत्यादि नहीं ले जाय उसकी चिन्ता तथा भयादिक मानसिक दुःख भी सर्वदा रहा करते हैं । वित्त धन मिलने पर भी उसकी तृप्ति होती नहीं है । इसलिए नित्य मन अतृप्त रहता है । अतृप्त मानस कभी शान्ति नहीं पा सकता है । ७४ ] धन-दौलत का विनाश हो जाने पर कितने ही जीवों के है। कितनेक जीवों को अतिसार, संग्रहणी तथा क्षय इत्यादि पर्यन्त मानसिक परिताप रहा करता है । जो लोभी होता है वह वित्त धन प्राप्त करने की लालसा में विवेक को भी भूल जाता है । मैं कौन हूँ ? और कौनसे स्थान में रहा हूँ ? अमुक स्थान में रहे हुए मुझे अब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? इत्यादि भूल जाता है । इसे इस लोक में अनेक प्राणियों के साथ क्लेश-कंकास तथा वैमनस्यादिक होने से यह लोक में अप्रिय बन जाता है । इतना ही नहीं किन्तु श्रागे बढ़कर के विवेक को भी भूलकर माता- पितादि को मारने पर्यन्त की प्रवृत्ति करता है । इससे इस लोक में अपकीति आदि प्राप्त करता है । हृदय की धड़कन बन्द हो जाती रोग हो जाते हैं या मृत्यु-मरण इस तरह परिग्रही लोभी जीव-प्रारणी शारीरिक तथा मानसिक अनेक प्रकार के दुःख-कष्ट प्राप्त करता है । * परलोक में करुण विपाक इस लोक में अपाय का दिग्दर्शन कराने के बाद अब परलोक में करुरण विपाक का दिग्दर्शन भी नीचे प्रमाणे है - पापानुबन्धी पुण्य के उदय वाले किसी जीव को हिंसादिक पापों से कदाचित् इस लोक में उपर्युक्त कहे हुए दुःख अल्प हों कि न हों, तो भी परलोक में तो अवश्य इन पापों के करुण विपाक भोगने ही पड़ते हैं । परलोक में उसके लिए अशुभ गति तैयार होती है । वहाँ शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं । तिर्यंचगति में शीत-उष्ण तथा पराधीनता प्रमुख दुःख कष्ट सहन करने पड़ते हैं । नरकगति तो केवल प्रसह्य दुःख भोगने के लिए ही है । वहाँ पर तो एक क्षण मात्र भी सुख नहीं है, केवल श्री तीर्थंकर परमात्मा के जन्मकल्याणकादि समयक्षरण मात्र बिजली की चमक के माफिक सुख नारक को होता है, शेष समय नहीं । वहाँ असह्य दुःख से कंटाल कर मृत्यु-मरण की इच्छा हो जाय तो भी मृत्यु पाता नहीं है । सम्पूर्ण आयुष्य पूर्ण करने के बाद में ही मृत्यु पाता है ।। ( ७-४) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७५ * सर्वसामान्या द्वितीया भावना * ॐ मूलसूत्रम् दुःखमेव वा ॥ ७-५॥ * सुबोधिका टीका * यथा हिंसादिषु विषयेषु दुःखमेव भावयेत् तथैव तेषां हेतु विषयेऽपि नैव दुःखरूपत्वेऽपि चिन्तनीयम् । यथा ममाप्रियं दुःखमेवं सर्वसत्त्वानामिति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् । यथा मम मिथ्याभ्याख्येनाभ्याख्यातस्य तीव्र दुःखं भूतपूर्वं भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति अनृतवचनाद् व्युपरमः श्रेयान् । यथा ममेष्टद्रव्य वियोगे दुःखं भूतपूर्वं भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति स्तेयाद् व्युपरम: तथा रागद्वेषात्मकत्वात् मैथुनं दुःखमेव । स्यादेतत् स्पर्शनसुखमिति तच्च न। कुतः ? व्याधिप्रतिकारत्वात् कण्डूपरिगतवच्चाब्रह्मव्याधिप्रतिकारत्वात् सुखे ह्यस्मिन् सुखाभिमानो मूढस्य । तद्यथा तीव्रया त्वक् शोणितमांसानुगतया कण्ड्वा परिगतात्मा काष्ठशकललोष्ठशर्करानखशुक्तिभिर्विच्छिन्नगात्रो रुधिराः कण्डूयमानो दुःखमेव सुखमिति मन्यते । तद्वत् मैथुनोपसेवी अपि इति, अतः मैथुनाद् व्युपरमः श्रेयान् । तथा परिग्रहवानप्राप्तप्राप्तनष्टेषु कांक्षारक्षणशोकोद्भवं दुःखमेव प्राप्नोति इति परिग्रहाद् व्युपरमः इति श्रेयान् भवति । एवं हिंसादिकपञ्चसु कर्मषु सततं दुःखमनुभवतो भावयतो व्रती व्रते स्थैर्यमनुभवति ।। ७-५॥ * सूत्रार्थ-उक्त पांचों ही पाप इस लोक और परलोक दोनों ही जगह दुःख के कारण हैं ।। ७-५॥ की विवेचनामृत 'हिंसादि पाप दुःखरूप ही हैं' इस तरह विचारना। अर्थात्-हिंसादिक प्रवृत्ति से दुःख ही दुःख समझना चाहिए। जैसे-अपने पर किये हुए हिंसा तथा असत्यादि दुष्ट प्रयोगों से दु:ख क्लेशादि उत्पन्न होता है, वैसे ही समस्त प्राणियों को दुःखरूप जानकरके हिंसादिक प्रवृत्ति का त्याग करें। * प्रश्न-हिंसा प्रादि के समान मैथुन इन्द्रियों को दुःखदायी नहीं है ? उसके द्वारा इन्द्रियों को सुख होता है ? उत्तर-इस तरह सोचना उचित नहीं है अर्थात् अनुचित है। कारण कि, जैसे-दाद या खुजली की खुजलाहट को खुजलाते समय रोग वाले रोगी को अच्छा लगता है, किन्तु अन्त में Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।६ ] सप्तमोऽध्यायः परिणाम उसका दुःखरूप होता है। इसी माफिक मैथुन भी राग-द्वेष रूप व्याधि-रोग को बढ़ाने वाला होता है। इन्द्रियलोलुपी देहधारी जीव-प्रात्मा उसे सुखरूप मानते हैं, किन्तु वास्तविकपणे तो वह दुःखरूप ही है । विशेष—इस सम्बन्ध में विशेष रूप में कहा जाता है कि-हिंसादिक से केवल अपने को ही दुःख होता है, इतना ही नहीं किन्तु अन्य जीवों को भी दुःख होता ही है। इसे साधक को दीर्घदृष्टि पूर्वक दिल से विचारना चाहिए कि, जैसे मुझे दु:ख प्रिय नहीं है वैसे अन्य-दूसरे जीवों को भी दु:ख प्रिय नहीं है। जैसा मैं हूँ वैसा ही अन्य-दूसरे जीव-प्राणी भी हैं। जैसे मेरा कोई वध करे तो मुझे अति दुःख होता है, वैसे अन्य-दूसरे जीव का वध करने से अर्थात् उसकी हिंसा करने से उसको भी अति दुःख होता है। कोई व्यक्ति असत्य-झूठ बोलकर मुझे ठगे तो जैसा मुझे दुःख होता है वैसे क्या अन्य-दूसरे को दुःख नहीं होता? इस तरह चोरी आदि से भी अन्य जीवों को दुःख होता है इसलिए इन चोरी आदि पापों का भी त्याग करना हितावह है। मैथुन सेवन करने में प्राप्त सुख भी खुजवलखुजली आदि व्याधि के क्षणिक प्रतिकार तुल्य होने से दुःख ही है। इस तरह परिग्रह भी तृष्णारूप व्याधिग्रस्त होने से त्याज्य ही है। अर्थात्-अप्राप्त वित्तधन की अभिलाषा-इच्छा का सन्ताप तथा प्राप्त वित्त-धन के भी संरक्षण की चिन्ता, उसके उपभोग में भी अतृप्ति एवं उसके विनाश होते ही शोकादिक का दुःख ही है। ___ इस तरह हिंसादि पाप वर्तमान में भी स्व-पर के दुःख के कारण होने से तथा भविष्य में भी दुःख देने वाले कर्मबन्ध के कारण होने से दुःख रूप ही हैं। इस प्रकार दुःख ही दुःख की भावना करने से व्रती की व्रत में स्थिरता रहती है। चतुर्थ सूत्र 'हिंसादिष्विहामुत्र०' की भावना में 'हिंसादि दःख के कारण हैं। यही विचारणा करने में पाई थी। अब इस पंचम सूत्र 'दुःखमेव वा' की भावना में 'हिंसादि पाप स्वयं दुःखरूप ही हैं। इस तरह विचारणा करने में आई है ।। ७-५॥ * मैत्र्यादि चत्वारभावनाः * ॐ मूलसूत्रम्मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विनेयेषु ॥ ७-६ ॥ * सुबोधिका टीका * अनादिकर्मबन्धनवशात् सीदन्ति इति सत्त्वाः । सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः। प्रसवेद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्यमानाः, तीव्रमोहिनो गुणशून्याः दुष्टपरिणामाः । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ६ सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयादि चत्वारः जीवाः चतुर्विधभावयुक्ताः भवन्ति । प्रमोदो नाम विनयप्रयोगो वन्दनस्तुतिवर्णवादवैयावृत्यकरणादिभिः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोऽधिकेषु साधुषु परात्मोभयकृतपूजाजनितः सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनः प्रहर्ष इति । कारुण्यं क्लिश्यमानेषु अर्थात् कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रहेति । तन्महामोहाभिभूतेषु मति-श्रुत-विभङ्गाज्ञानपरिगतेषु विषयतृषाग्निना प्रदह्यमानमानसेषु हिताहितप्राप्तिपरिहार-विपरीतप्रवृत्तिषु नानाक्लेशादितेषु दारिद्रययुक्तकृपणानाश्रितबालमोमुहवृद्धेषु प्राणिषु प्रभावयेत् । तथा च प्रभावयन् हितोपदेशादिभिस्तान् अनुगृह्णातीति । अविनीतेषु माध्यस्थ्यम्, अविनेया नाम मृत्-पिण्ड-काष्ठकुड्यभूता ग्रहणधारणविज्ञानोहापोहवियुक्ता महामोहाभिभूता दुष्टावग्राहिताश्च । तेषु अपि प्रौदासीन्यं माध्यस्थ्यं वा भावयेत् । अर्थात्-न केनाऽपि वैरभावेन प्रवर्तनं मैत्रीभावम् । क्षमेऽहं सर्वसत्त्वानां, क्षमयेऽहं सर्वसत्त्वान् । मैत्री मे सर्वसत्त्वेषु, न वैरं मम केनचित् ।। ७-६ ।। * सूत्रार्थ-प्राणिमात्र के विषय में मैत्री, गुणाधिकों के विषय में प्रमोद, दुःखों से पीड़ित के प्रति कारुण्य तथा प्रविनयी जीवों के प्रति माध्यस्थ्य भावना रखनी चाहिए ॥ ७-६ ।। 卐 विवेचनामृत मैत्री तथा प्रमोदादि चार भावनायें सद्गुणों की वृद्धि के लिए अति उपयोगी हैं। इस हेतुकारण हिंसादि व्रतों की स्थिरता के लिए अति आवश्यक होने से इनका पृथक्-भिन्न रूप से वर्णन किया है। वे व्रत के सहायक रूप हैं। अर्थात्-महाव्रतों को स्थिर रखने के लिए समस्त जीवों-प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, गुणाधिक जीवों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवों-प्राणियों पर करुणाभाव और अविनीत जीवों पर माध्यस्थ्य (उपेक्षा) भाव रखना चाहिए। [१] मैत्री भावना मैत्री यानी विश्व के समस्त जीवों-प्राणियों पर हार्दिक स्नेह का परिणाम । अर्थात्-किसी भी प्रकार के स्वार्थ बिना और किसी भी प्रकार के भेदभाव बिना विश्व के समस्त जीवों पर प्रीति करनी वह मैत्री कही जाती है। इसलिए साधक को छोटे-बड़े, उच्च-नीच, स्व-पर, तथा गरीब-श्रीमन्त इत्यादि किसी भी प्रकार के भेदभाव बिना जगत् के समस्त जीवों-प्राणियों पर प्रीति-प्रेमभाव रखना चाहिए। अपने को दुःखी करने वाले जीव-पात्मा पर भी प्रेमभाव रखना चाहिए। इसलिए कहा है कि-'प्रात्मवत् सर्वभूतेषु०' समस्त प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि रखनी चाहिए। ऐसा करने से ही समस्त जीवों-प्राणियों पर मैत्रीभावना आती है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।६ ] सप्तमोऽध्यायः [ १९ मैत्रीभावना से भावित अन्तःकरण-हृदयवाला साधक ही हिंसादिक पापों से विराम पाता है अर्थात् -अटक जाता है। सच्चे मित्र के चित्त में अपने मित्र की हिंसा-वध करने की, असत्यझूठ बोलकर उसको ठगने की, तथा चोरी करके उसका वित्त-धन इत्यादि ले लेने को भावना नहीं होती है। मैत्रीभावनायुक्त साधक विश्व के समस्त जीवों को अपना मित्र मानता है। अर्थात् उसके हृदय में जगत् के सकल जीवों के हित की ही भावना होती है। * इस दृष्टि से षोड़शक ग्रन्थ में १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता पूज्याचार्यदेव श्रीमद् हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज श्री ने कहा है कि "परहितचिन्ता मैत्री" पर के हित की चिन्ता को अर्थात् भावना को मैत्री कहते हैं। * श्रीयोगशास्त्र ग्रन्थ में कलिकालसर्वज्ञ पूज्याचार्य श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वर जी महाराज ने भी मैत्री भावना के सम्बन्ध में कहा है कि मा कार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत् कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा, मतिमंत्री निगद्यते ॥१॥ कोई भी जीव-प्राणी पाप नहीं करे, कोई भी जीव-प्राणी दुःखी न होवे, तथा सम्पूर्ण विश्व दुःख से मुक्त हो; ऐसी भावना मैत्री है । * बृहद्शान्ति स्तोत्र में भी कहा है शिवमस्तु सर्वजगतः, परहित-निरताः भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ॥ २ ॥ अखिल विश्व का कल्याण हो, प्राणी-समूह परोपकार में तत्पर बनें, व्याधि-दुःख-वैमनस्य आदि विनष्ट हों और सर्वत्र सारा लोक सुखी बने। अहिंसा-दया आदि के पालन के लिए ऐसी मैत्री भावना अनिवार्य है। समस्त जीवों-प्राणियों पर ऐसी मैत्री भावना रखने से ही उक्त महाव्रतों-व्रतों में कुशलतापूर्वक वास्तविक रीति से रह सकता है । [२] प्रमोद भावना प्रमोद यानी मानसिक हर्ष। अपने से अधिक गुणवान का सत्कार या गुणानुवाद करना ही प्रमोद भावना है। उनकी ईर्ष्या करने से व्रत का विनाश होता है, और आदर-सत्कार करने से अपने गुणों की वृद्धि होती है। इसलिए व्रती को उक्त भावना आदरणीय है। यह भावना व्रत का पोषण करने वाली है। - विशेष - सम्यक्त्व-समकित, ज्ञान, चारित्र तथा तप इत्यादिक से सम्पन्न महान् (उत्तम) आत्मानों को वन्दन, स्तुति, प्रशंसा, वैयावच्च इत्यादि करने से प्रमोद की, मानसिक हर्ष की अभिव्यक्ति होती है। प्रमोद भावनायुक्त जोव-प्रात्मा ज्ञानादिक गुणों से सम्पन्न उत्तम गुणीजनों को देखकर प्रानन्द-हर्ष पाते हैं, तथा अपने इस अानन्द को शक्ति के संयोग-प्रमाणे यथायोग्य वन्दनादिक द्वारा व्यक्त करते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७/६ अपने से गुणाधिकको महान् को देखकर या श्रवण करके आनन्द-हर्ष न हो तथा यथायोग्य वन्दनादिक करने का मन न हो तो समझना चाहिए कि अभी अपने में प्रमोद भावना श्राई नहीं है । २० ] प्रमोदभावना के अभाव में अन्य-दूसरे के गुणों के दर्शन से अथवा श्रवरण से साधक का चित्त हृदय ईर्ष्या-प्रसूया मात्सर्य रूप अग्नि से जल उठता है । परिणाम में हिंसा तथा असत्य आदि अनेक पाप भी उत्पन्न होने की सम्भावना है । अतः साधक को अपने हृदय को प्रमोदभावना से पूर्ण रखना चाहिए। कारण कि प्रमोदभावना जीव आत्मा में रहे हुए गुरणों को प्रगट कराने के लिए अमोघ उपाय है । साधक में गुण भले कम-न्यून हों तो भी चल सकता है, किन्तु प्रमोद भावना के बिना नहीं चल सकता । प्रमोदभावना के बिना अपने में रहे हुए गुणों की भी कोई कीमत नहीं है । [३] करुणाभावना - करुणा यानी दुःखी जीव को देखकर, उसके प्रति दया का परिणाम । करुणा, दया, अनुकम्पा, कृपा तथा अनुग्रह इत्यादि शब्दों का समान ही अर्थ है । क्लिश्यमान दुःखीजनों पर अनुकम्पा, दया एवं हितबुद्धि रखना, उसको करुणा भावना कहते हैं । दुःखीजनों पर अनुग्रह करने से व्रत उज्ज्वल होता है । करुणा के योग्य जीव दो प्रकार के होने से करुणा के भी दो प्रकार हैं । द्रव्यकरुरणा और भाव करुणा । रोग इत्यादि बाह्य दु:खों से घिरे हुए जीवों-प्राणियों को देखकर उत्पन्न होती करुणा, सो द्रव्यकरुणा है । तथा अज्ञानता इत्यादि आभ्यन्तर दुःखों से घिरे हुए जीवों-प्राणियों को देखकर उत्पन्न होती करुणा भावकरुरणा है । भाव करुरणा के योग्य जीवों को योग्यता प्रमाणे मोक्षादिक का सदुपदेश देकर के, तथा द्रव्यकरुणा के योग्य जीवों को श्रौषध एवं अन्नपानादि देकर के, उभय प्रकार की करुणा के योग्य जीवों को सदुपदेश तथा औषघादिक दोनों देकर के अपनी शक्ति के अनुसार उन दुखी जीवों पर करुणा करनी चाहिए । अथवा अन्य रीति से भी द्रव्य और भाव दो प्रकार की करुणा है । दुःखी जीव को देखकर उत्पन्न होने वाली दया भावकरुणा है । तथा उसका दुःख दूर करने के लिए योग्य प्रयत्न करना, वह द्रव्यकरुरणा है । यहाँ पर साधुनों के लिए तो मुख्यतया भावकरुरणा का विधान है। गृहस्थों को यथायोग्य दोनों प्रकार की करुणा करनी चाहिए । शक्ति और संयोग होते हुए भी केवल भावकरुणा करने वाले गृहस्थ की भावकरुरणा व्यर्थ है । [४] माध्यस्थ्य भावना माध्यस्थ्य, उपेक्षा, समभाव इत्यादि शब्दों का एक अर्थ है । उपदेश ग्रहण के लिए विनीत बने जीव प्राणी के प्रति समभाव अर्थात् राग-द्वेष के त्यागपूर्वक, उसको समझाने के, सुधारने के लिए उपदेश देने का त्याग करना, यह 'माध्यस्थ्य भावना' कही जाती है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ ] सप्तमोऽध्यायः [ २१ प्रत्येक समय केवल प्रवृत्त्यात्मक (ईर्यासमिति से यावत् करुणा) भावनायें साधक रूप नहीं हो सकतीं, अहिंसादिक व्रतों को स्थिर रखने के लिए किसी समय माध्यस्थ भावना भी उपयोगी है । अविनीत, अयोग्यपात्र, या जड़ संस्कार जिनमें सद्वस्तु ग्रहण करने की योग्यता नहीं हैं, ऐसे पात्रों में माध्यस्थ भावना है। क्योंकि, सर्वथा शून्य हृदयवाला काष्ठ अथवा चित्र के तुल्य, उपदेशादिक ग्रहण-धारण करने में असमर्थ है। ऐसे जीव-यात्मानों को उपदेश देने से वक्ता के हितोपदेश को सफलता नहीं मिलती, इसलिए उन पर उदासीनता, मध्यस्थता या तटस्थ बुद्धि रखना ही श्रेष्ठ है। इस माध्यस्थ भावना के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-जो प्राणी अविनीत होने से हितोपदेश का श्रवण नहीं करे, कदाचित् श्रवण करे तो भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देवे, अपने से शक्य होते हुए भी उपदेश को अंशमात्र भी अमल में नहीं लावे । ऐसे जीव-प्राणी के प्रति उपेक्षा भावना भानी, अर्थात् उसके प्रति द्वेषभाव किए बिना ही उपदेश देना छोड़ देना चाहिए। क्योंकि, जो ऐसे जीव-प्राणी के प्रति माध्यस्थ्य भावना नहीं रखने में आ जाए तो साधक के हितोपदेश का प्रयत्न निष्फल बन जाता है, तथा साधक के मन में कदाचित् उसके प्रति द्वेषभाव जगे, ऐसी भी सम्भावना लगती है। और आगे बढ़ करके एक-दूसरे को क्लेश-कंकाश और वैमनस्य भी उत्पन्न होता है। अतः साधक को दीर्घ विचार करके उपेक्षा भावना के योग्य जीवों पर उपेक्षा भावना का प्रयोग अवश्य ही करना चाहिए। अन्यथा दोनों को आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से नुकसान होना सम्भव है। इस भावना से अविनीत इत्यादि के प्रति द्वेषभाव नहीं होता है, यह उत्तम लाभ है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य ये चारों भावनाएँ शुभ हैं। अर्थात्-'उपेक्षा भावना' भी शुभ है। योग्य स्थान पर उपेक्षा भावना के प्रयोग से नुकसान नहीं, किन्तु लाभ है। जैसे-नूतन कर्मबन्ध नहीं होता है तथा निर्जरा आदि का लाभ होता है। तदुपरान्त यह जीव उपेक्षा भावना के योग्य है कि नहीं? यह भी बदष्टि से विचार करना चाहिए। अन्यथा उपेक्षा भावना के अयोग्य जीव-प्राणी पर उपेक्षा भावना करने से अपने को आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से अति नुकसान होता है ।। ७-६ ।। * महाव्रतानां स्थिरताकृते अन्यविचारणा के 卐 मूलसूत्रम्जगत् काय-स्वभावौ च संवेग-वैराग्यार्थम् ॥ ७-७॥ * सुबोधिका टीका * संवेगवैराग्यार्थम् जगत्कायस्वभावी भावयेच्च । तत्र जगत्स्वभावो द्रव्याणामनाद्यादिमत्परिणामयुक्ताः प्रादुर्भावतिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशाः । कायस्वभावोऽनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारताऽशुचित्वमिति । एवं हि भावयतस्तस्य संवेगो वैराग्यं च भवति । तत्र च संवेगः जगभीरुत्वमारम्भ-परिग्रहेषु Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ ७७ दोषदर्शनादरतिधर्मे बहुमानो धार्मिकेषु च धर्मश्रवणे धार्मिकदर्शने च मनःप्रसाद उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तौ च श्रद्धेति । वैराग्यं नाम शरीरभोगसंसारनिर्वेदोपशान्तस्य बाह्याभ्यन्तरेषु उपाधिषु अनभिष्वङ्ग इति । संसारस्वरूपं ज्ञात्वा तं पुनः पुनः जन्ममरणादिदुःखाकीर्ण भयसागरोऽयं संसार इति विज्ञाय बिभेति जनः । तञ्च पुनः पुनः विचिन्त्य वैराग्यं प्राप्नोति ।। ७-७ ।। . * सूत्रार्थ-संवेग और वैराग्य को सिद्ध करने के लिए जगत्-लोक तथा देह-शरीर के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए ।। ७-७ ।। ॐ विवेचनामृत ॥ संवेग और वैराग्य की पुष्टि के लिए संसार तथा काया का स्वरूप विचारना चाहिए । संवेग अर्थात् संसार का भय-संसार पर कंटाला।* वैराग्य अर्थात् अनासक्ति । संसार के स्वरूप की विचारणा से संवेग की तथा काया के स्वरूप की विचारणा से वैराग्य की पुष्टि होती है। संवेग और वैराग्य ही अहिंसादिक व्रतों की भूमिका है। जैसे-चित्र भूमिका की योग्यता के अनुसार चित्रित किये जाते हैं तथा उसी योग्यता के अनुसार वे अवस्थित भी रहते हैं। इसी भाँति अहिंसादि व्रतों की स्थिरता संवेग और वैराग्य की योग्यता पर निर्भर है। संसार में भीरुता, प्रारंभ-परिग्रहादिक में अरुचि, धर्म से बहुमान या 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्' इत्यादि जानना संवेग है। अर्थात्-जगत्-विश्वस्वभाव की भावना संवेग है, तथा देह-शरीर स्वभाव की भावना वैराग्य है। शरीर को विनाशवान समझकर के उनके भोगों से शान्त होकर अभ्यन्तर क्रोधादि विषयों के परित्याग को वैराग्य कहते हैं। विशेष-पंचमहाव्रतों का पालन एक 'महान् प्राध्यात्मिक साधना' है। यह साधना संसार का विनाश करने के लिए है। इसीलिए संसार का विनाश ही उसका फल है। भव-संसार पर उद्विग्नता कंटाला पाए बिना उसका विनाश-प्रयत्न शक्य नहीं है। इसलिए उसकी साधना में संवेग पहली आवश्यकता है। जितने अंश में संवेग तीव्र बनता है उतने अंशों में साधना भी प्रबल बनती है। संवेग को तीव्र बनाने के लिए संसार के स्वरूप का विचार करने की आवश्यकता है। विश्व-संसार के स्वरूप को विचारते हुए विश्व-संसार दुःखस्वरूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धी लगता है। विश्व-संसार के भौतिक सुख के साधन अनित्य, क्षणभङ्गुर और अशरण भासते हैं। विश्व-संसार के सुख भी दुःख रूप दिखाते हैं। इससे विश्व-संसार पर उद्विग्नता सामान्य से संवेग का अर्थ मोक्षामिलाषा तथा निर्वेद का अर्थ संसारमय विशेष प्रसिद्ध है। ऐसा होते हुए भी इससे विपरीत संवेग का संसारमय तथा निर्वेद का मोक्षामिलाषा अर्थ किसी-किसी ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।७ ] सप्तमोऽध्यायः [ २३ आती है, अर्थात् कंटाला आता है, तथा स्वसंसार के विनाश करने की इच्छा होती है । इससे संसार कारणों की तरफ दृष्टि जाती है । संसार के कारणों का विनाश किए बिना संसार का विनाश करना शक्य ही है । संसार के कारण हिंसा आदि हैं। इससे साधक को हिंसा इत्यादि पर भी रति उत्पन्न होती है । इसीलिए संवेग के सम्बन्ध में कहा है कि, संसार और संसार के कारणों पर होती अरति, उसका ही नाम संवेग है । यहाँ संवेग को पुष्ट बनाने के लिए ही संसार के स्वरूप का विचार करने का उपदेश दिया है । विश्व-संसार पर अरति होते हुए धर्म और धार्मिक पुरुषों के प्रति अवश्य बहुमान जगता है । धर्म तथा धार्मिक पुरुषों के प्रति जो बहुमान होता है, वह संवेग को जानने के लिए उत्तम चिह्न अर्थात् मापक यन्त्र है । धर्म का श्रवण, धार्मिक पुरुषों के दर्शन से होता आनन्द तथा अधिक साधना की इच्छा यही संवेग का लक्षण - चिह्न है । वैराग्य की पुष्टि - काया के स्वरूप की विचारणा से वैराग्य की पुष्टि होती है । साधना में किसी भी प्रकार की आसक्ति बाधक होती है। पंचमहाव्रतों के सम्यक् परिपालन करने वाले श्रमण साधक ने संसार के समस्त पदार्थों का त्याग कर दिया है । केवल उनके पास पंचमहाव्रतों की साधना में जरूरी मर्यादित उपकरण होते हैं । उनका देह शरीर भी उपकरण रूप ही होता है । उपकरण यानी संयम की साधना में सहायक वस्तु, शरीर और वस्त्र इत्यादिक चारित्र - संयम की साधना में सहायक बनते होने से श्रमरण - साधु उनका रक्षण करते हैं, किन्तु अनासक्त भाव से । उसमें जो आसक्तिभाव आ जाए तो वे सभी उपकरण बनने के अधिकरण बन जाते हैं । इसलिए साधक को बिन उपयोगी, बिन जरूरी कोई भी चीज वस्तु रखने की नहीं है । तथा आवश्यक जरूरी चीज वस्तु का उपयोग भी प्रासक्ति बिना करने का है । उसमें भी देह शरीर पर आसक्ति नहीं रहे, इसके लिए प्रति ही जाग्रत सावधान रहने की प्रतिश्रावश्यकता है । सामान्य से प्रत्येक जीव प्राणी को अन्य वस्तु-पदार्थ की अपेक्षा अपने देह- शरीर पर अधिक आसक्ति होती है । अन्य चीज-पदार्थ पर से प्रासक्ति दूर होने के बाद भी काया पर की श्रासक्ति दूर होनी अति कठिन है । इसलिए जो सावधान रहने में नहीं भावे तो काया की आसक्ति अन्य पदार्थों पर भी आसक्ति कराती है । अर्थात् काया पर आसक्ति भाव न हो, और हुआ हो तो दूर हो जाए । इसलिए साधक को संसार के स्वरूप की विचारणा के साथ काया के स्वरूप की विचारणा भी करनी चाहिए । इस काया - देह शरीर की विचारणा से यह देह शरीर देती है । इससे काया - देह शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रहती है । अशुचिमय तथा अनित्य दिखाई देह - शरीर के प्रति आसक्तिभाव नहीं होने से केवल काया के पोषरण के लिए जरूरी वस्त्र, पात्र, वसति तथा प्रहार- पानी इत्यादि जिस किसी भी चीज वस्तु का उपयोग करते हैं वह अनासक्त भाव से करते हैं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७८ पंच महाव्रतों के पालन के लिए काया के स्वरूप का चिन्तन अतिनावश्यक है। अन्यथा तो काया और अन्य उपकरण, उपकरण के बदले अधिकरण बन जाए तो साधना निष्फल जाती है ।। ७-७॥ * हिंसायाः स्वरूपम् के 卐 मूलसूत्रम्प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ ७-८ ॥ * सुबोधिका टोका * असावधानता प्रमादः । यः कोऽपि जीवः प्रमादयुक्तो काय-वाङ्-मनोयोगः प्राणव्यपरोपणं करोति सा हिंसा। हिंसा मारणं प्राणातिपातः प्राणवध: शरीरान्तरसङ्क्रमणं प्राणव्यपरोपणं इति पर्यायाः। यदि कोऽपि प्रमादी भूत्वा हिसां करोति प्राणव्यपरोपणे प्रवर्तयति सः हिंसकः ॥ ७-८ ।। * सूत्रार्थ-प्रमत्तयोग से होने वाले प्राणों के वध को हिंसा कहते हैं। अर्थात्-प्रमाद के वश से किसी भी जीव के प्राणों का विनाश करना हिंसा' है ।। ७-८ ॥ ॐ विवेचनामृत अहिंसादिक पांच महाव्रतों का निरूपण पूर्व में कर पाए हैं। उन महाव्रतों का प्रतिपालन जब तक हम हिंसा के स्वरूप को वास्तविक रीति से नहीं समझ लें तब तक होना अति क्लिष्टकठिन है। इसलिए उन महाव्रतों के प्रतिपक्षी हिंसा तथा असत्यादि दोषों को क्रमशः नीचे प्रमाणे कहते हैं। प्रमाद के वश से प्राणों का वियोग हिंसा है। स्पर्शेन्द्रियादि पाँच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, और कायबल ए तीन बल, श्वासोश्वास तथा आयुष्य ये दस प्रकार के द्रव्यप्राण हैं। इन प्राणों का वियोग करना वह हिंसा' कहलाती है। * हिंसा और भावहिंसा * हिंसा की व्याख्या कारण-कार्य रूप दोय अंश-विभाग से करते हैं। प्रमत्तयोग-राग द्वेष या असावधान प्रवृत्ति कारण है तथा हिंसा कार्य रूप है। सारांश यह है कि प्रमत्तयोग से होने वाले प्राणवध को हिंसा कहते हैं । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ ] सप्तमोऽध्यायः [ २५ * प्रश्न-जीवों को, प्राणियों को दुःख देना कष्ट पहुँचाना या उनका वध करना यह हिंसा का अर्थ स्पष्ट रूप से सुप्रसिद्ध है, तो फिर उसमें प्रमत्तयोग का प्रक्षेप क्यों किया? उत्तर-जगत् में जब तक मनुष्य-समाज के संस्कार, विचार और वर्तन ये तीनों उच्च कोटि के नहीं होते, तब तक पशु तथा पक्षी इत्यादि अन्य प्राणियों में और मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं है । वे हिंसा के स्वरूप को बिना समझे-विचारे हिंसा को हिंसा नहीं मान करके उस प्रवृत्ति में तत्पर मग्नलीन रहते हैं। यह मनुष्य समाज की प्रारम्भिक प्राथमिक दशा है जब उत्तरावस्था के सन्मुख होके विचार श्रेणो में प्रारूढ़ होता है, उस समय वह अपने विचारों का मन्थन करता हुआ पूर्व संस्कार और अहिंसा की नूतन भावना से टकराता है। अर्थात् एक तरफ हिंसावृत्ति तथा दूसरी तरफ हिंसा निषेध विषयक अनेक प्रकार के प्रश्न उठते हैं। * प्रश्न-पाँच इन्द्रियादि दश प्रकार के द्रव्य प्रारण हैं। ये प्राण प्रात्मा से भिन्न-जुदे हैं। __ इन प्राणों के वियोग से जोव-यात्मा का विनाश नहीं होता है। तो फिर प्राणों के वियोग में अधर्म-पाप क्यों लगता है ? उत्तर-प्राणों के वियोग से जीव-आत्मा का विनाश नहीं होता है, किन्तु जीव-प्रात्मा को दुःख अवश्य होता है। इसलिए ही प्राणों के वियोग से आत्मा को अधर्म-पाप लगता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्राण-वियोग अधर्म-पाप अथवा हिंसा है ऐसा नहीं, किन्तु अन्य को दुःख देना भी अधर्म-हिंसा है। ____ मुख्य हिंसा भी यही है। शास्त्रीय भाषा में जो कहें तो अन्य-दूसरे को दुःख देना यह निश्चय हिसा है और प्राणवियोग यह व्यवहार हिसा है। व्यवहार हिंसा निश्चय हिंसा का कारण है, इसलिए उससे पाप लगता है। इसे ही अन्य शब्दों में कहें तो दुःख देना यह भाव हिंसा है और प्राणों का वियोग यह द्रव्यहिंसा है। * अन्य अपेक्षा द्रव्य-भाव हिंसा नीचे प्रमाणे हैं आत्मा के अनन्तज्ञानादि गुण भावप्राण हैं। विषय और कषाय इत्यादि प्रमाद से आत्मा के गुणों का घात भी हिंसा है। आत्मा के गुणों का घात भावहिंसा है। आत्मा के गुणों के घात रूप भावहिंसा की अपेक्षा द्रव्यगुणों का घात सो द्रव्यहिंसा है। यहाँ पर भावहिंसा मुख्य है। इन दोनों प्रकार की हिंसा के स्वभावहिंसा और परभावहिंसा ऐसे दो भेद हैं। अपनी आत्मा के गुणों का घात यह स्वभावहिंसा है और पर की आत्मा के गुणों के घात में निमित्त बनना यह परभावहिंसा है। विष-जहर इत्यादिक से अपने द्रव्य प्राणों का घात यह स्वद्रयहिंसा है तथा पर के द्रव्य प्राणों का घात करना यह परद्रयहिंसा है। ॐ परद्रव्य हिंसा के तीन भेद नीचे प्रमाणे हैं अन्य-दूसरे के द्रव्य प्राणों के घातरूप हिंसा को अन्य रीति से विचार करते हुए हिंसा के द्रव्य, भाव तथा द्रव्य-भाव ऐसे तीन भेद हैं (१) केवल प्राणव्यपरोपण-प्राणवध यह द्रव्यहिंसा है । (२) केवल प्रमत्तयोग-असावधानी यह भावहिंसा है। (३) प्रमाद और प्राणवियोग इन दोनों का समयोग यह द्रव्यभाव हिंसा है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७८ जहाँ पर प्रमाद के योग से प्राणवियोग होता है वहाँ पर द्रव्य और भाव, उभयस्वरूप हिंसा है। जहाँ प्रमाद नहीं है तो भी प्राणवियोग हो जाता है, वहाँ पर केवल द्रव्यहिंसा है। जहाँ पर प्राणवियोग नहीं है किन्तु प्रमाद है, वहाँ पर केवल भावहिंसा है। प्रमाद-असावधानी यह भावहिंसा है। अतः अहिंसा के पालन के लिए साधक को सदा अप्रमत्त अर्थात् सावधान रहना चाहिए । ॐ प्रश्न-उपर्युक्त तीन प्रकार की हिंसा में कौनसे-कौनसे जीवों को कौनसी-कौनसी हिंसा सम्भवती है ? उत्तर-जब कोई जीव प्राणवध करने का प्रयत्न करें, किन्तु उसमें निष्फल हो जाय तब मात्र भावहिंसा होती है। जैसे कोई शिकारी मृग-हरिण को ताक करके बाण मारता है किन्तु मृग-हरिण को बाण नहीं लगने से वह बच जाता है। इसलिए यहाँ द्रव्यप्राण का वियोग नहीं होने से द्रव्यहिंसा नहीं है, किन्तु प्रमाद-जीव रक्षा के परिणाम का अभाव होने से भाव हिंसा है । इस तरह अन्धेरे में रज्जु-रस्सी को सर्प मान मारने का प्रयत्न करने में मात्र भाव हिंसा होती है। इन दोनों दृष्टान्तों में हिंसा के लिए काया से प्रयत्न किया, परन्तु निष्फलता मिलने से, विचारने से मात्र भाव हिंसा हुई। जब कोई क्रोधावेश में प्राकर अन्य-दूसरे को चुभे ऐसे हिंसात्मक वचन बोलते हैं, मृत्यु-मरण के लिए शाप देते हैं, तब भी भाव हिंसा होती है। अब भी आगे बढ़कर विचार करें तो ज्ञात होगा कि हिंसा के लिए कायिक प्रयत्न और वचन प्रयोग बिना केवल मन में हिंसा के विचार से भाव हिंसा होती है। जैसे कि तंदुल मत्स्य। यह मत्स्य तंदुल (चोखा का) दाणा जितना होता है, इसलिए उसे तंदुल मत्स्य कहने में आता है। वह महामत्स्य के आँख की पाँपण में उत्पन्न होता है। जब महामच्छ कितनेक मत्स्यों को निगल जाता है, तब उसके साथ अल्प पानी भी उसके मुख में आ जाता है। इस जल-पानी को अपने मुख में से वह बाहर निकालता है तब पानी के साथ दांतों की पोलाण में रहे हुए कितनेक छोटे-छोटे मत्स्य भी बाहर निकल जाते हैं। यह देखकर तन्दुल मत्स्य विचार करता है कि-जो मैं महामत्स्य होऊँ तो एक भी मत्स्य को इस तरह मुख में से निकलने न दूं। इतना ही नहीं किन्तु सभी मत्स्यों का भक्षण कर जाऊँ। हिंसा के ऐसे अति भयंकर अध्यवसाय से वह सतत भावहिंसा किया करता है, तथा सिर्फ अन्तर्मुहूर्त जितने आयुष्य काल में सातवीं नरकभूमि का आयुष्य बाँधता है। हिंसा के लिए काया से प्रयत्न नहीं करे, वचन से नहीं बोले तथा मन में विचारणा नहीं करे, तो भी जो जीव-आत्मा में जीवरक्षा के परिणाम नहीं हो तो भी भावहिंसा होती है। जीवरक्षा के परिणामरहित समस्त जीव सदा भावहिंसा का पाप बाँधते हैं । (२) जीवरक्षा के परिणाम से रहित जब जीव-आत्मा प्राणियों का वध करता है, तब वह द्रव्य-भाव हिंसा करता है। गृहस्थावास में रहा हुआ साधक हिंसा की सूक्ष्म व्याख्या को समझता है और हिंसा से सर्वथा निवृत्त हो जाने की तीव्र इच्छा रखता है, तो भी सयोगों के विपरीतपने से हिंसा से सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकता। जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य हिंसा द्रव्यहिंसा है । इस तरह संसार में रहे हुए मनुष्यों में तीन प्रकार की हिंसा सम्भवती है। (३) संसार का त्याग करके जिसने पारमेश्वरी-भागवती प्रव्रज्या-दीक्षा प्राप्त की है, ऐसे अप्रमत्त मुनिराज से संयोगवशात् हो जाती हिंसा वह द्रव्यहिंसा है। जैसे-अप्रमत्त भाव से युगप्रमाण दृष्टि रखकर विहार कर रहे मुनिराज के पांव नीचे अकस्मात् कोई जीव आ जाए और Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] सप्तमोऽध्यायः [ २७ मृत्यु पा जाए तो यह द्रव्यहिंसा है। क्योंकि मुनिराजश्री अप्रमत्त हैं। उनके मन में जीवों को बचाने का ही लक्ष्य है। ऐसा होते हुए भी संयोग ऐसा बन गया है कि अन्य जीव को बचा सकता नहीं। इसी प्रकार से रोगादिक प्रबल कारणों के उपस्थित होते हुए सर्वज्ञ कथित शास्त्रोक्त विधि पूर्वक दवा-औषध सेवनादिक में होती हुई हिंसा भी द्रव्याहिंसा है। संसारत्यागी ऐसे मुनि भी जो प्रमाद करे अर्थात् जीवरक्षा की तरफ लक्ष्य न रखे तो प्राणवियोग रूप भले द्रव्यहिंसा नहीं होते हुए भी भावहिंसा अवश्य होती है। तथा जब प्रमाद के साथ प्राणवियोग भी होता है, तब द्रव्यभाव हिंसा दोनों होती हैं। आम अपेक्षा से गृहस्थावास के त्यागी ऐसे मुनियों में भी तीन प्रकार की हिंसा सम्भवित है। सारांश-उक्त हिंसा के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर रूप में नीचे प्रमाणे कहते हैं। * प्रश्न-प्रमत्त के बिना यदि प्राणवध होता है, तो वह हिंसा दोष रूप है या नहीं? और यदि प्राणवध नहीं भी होता है, तो भी वह प्रमत्तयोग में प्रवर्तमान है तो उससे क्या हिंसा का दोष लग सकता है ? । उत्तर--जैनदर्शन प्रत्येक वस्तु को स्याद्वादरूप अनेकान्त दृष्टि से देखता है। इसलिए जैन शास्त्रकारों ने हिंसा के मुख्य दो भेद प्रतिपादित किये हैं। एक द्रव्य हिंसा जिसको व्यवहार हिंसा भी कहते हैं। अन्य-दूसरी भाव हिंसा जिसको निश्चय हिंसा कहते हैं । प्राणवध करना यह स्थूलदृष्टि से हिंसा तो है, किन्तु उसमें प्रमत्तयोग सूक्ष्मदृष्टि अदृश्यरूपेण लगी हुई है। हिंसा के दोषादोष का आधार एकान्तरूप से सिर्फ दृश्यमान हिंसा पर अवलम्बित नहीं है, किन्तु वह हिंसक की भावना की स्वाधीनता पर है। इसलिए अनिष्ट भावना द्वारा की हुई हिंसा दोषरूप है। उसी को शास्त्रीय परिभाषा में द्रव्यहिंसा और भावहिंसा, या व्यवहार हिंसा तथा निश्चय हिंसा कहते हैं। जिसमें हिंसा का दोष अबाधित अर्थात् निश्चय रूप न हो उसको द्रव्याहिंसा कहते हैं। और इस द्रव्यहिंसा से विपरीत अर्थात् निश्चयात्मक दोष लगता हो उसे भावहिंसा कहते हैं। तथा वह दोषरूप है राग-द्वेष व असावधान प्रवृत्ति को ही शास्त्रीय परिभाषा में प्रमत्तयोग कहा है। एवं हिंसा के दोष का आधार भी उसी पर रहता है। जैसे-किसी व्यक्ति का प्राणनाश नहीं हुआ हो, दुःख भी नहीं पहुँचा हो। यदि उस अनिष्ट प्रयोग से भले सुख की प्राप्ति भी हो गई हो, तो भी उस हिंसा करने वाले व्यक्ति की अशुभ भावना के कारण शास्त्रकार महर्षि उसको भावहिंसा कहते हैं । यह प्रमत्तयोगजनित प्राणवघरूप हिंसा को कोटि में सम्मिलित है, सिर्फ प्राणविनाशरूप हिंसा इस कोटि में नहीं आ सकती है। भावहिंसा का अर्थ यही है कि, जिसमें दोष का स्वाधीनरूप हो। यह तीनों कालों में अबाधित रहती है, क्योंकि श्री प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने ध्यानस्थ अवस्था में प्रमत्तयोग से ही सातवीं नरक भूमि के दलिये 'कर्मों के पुद्गल' इकट्ठ कर लिये थे। किन्तु उन्हीं ने उसी श्रमण अवस्था में उसी स्थल पर खड़े-खड़े चार घाती कर्म का क्षय करके पंचम केवलज्ञान भी प्राप्त कर लिया था। यहाँ तीनों काल के कहने का तात्पर्य यह है कि काल की सूक्ष्म अवस्था एक समय की है। और जो Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] श्रीतत्त्वार्याधिगमसूत्रे [ ७८ कर्म, वर्तमान प्रथम समय बँधता है वह यदि तीन समय भी अबाधित रूप से रहे तो वह त्रिकालवर्ती कहा जा सकता है, तथा प्रमत्तयोग से बँधे हुए कर्म की स्थिति कम से कम असंख्यात समय की है। इस अपेक्षा से उसे त्रैकालिक भी कह सकते हैं। श्री केवली भगवन्तों को प्रमत्तयोग नहीं होता है, इसलिए वे अप्रमत्त हैं। बिना प्रमत्तयोग केवली भगवन्त से हुई हिंसा, हिंसा रूप नहीं मानी है। उनको कर्मों का बन्ध है, वह मात्र एक समय की स्थिति का है। इसलिए वह तीनों कालों में अबाधित नहीं रहता है। * प्रश्न -हिंसा के दोषों का मूल यदि प्रमत्तयोग ही है, तो उसके साथ "प्राणव्यपरोपणम्" अर्थात् प्राण का विनाश यह शब्द क्यों रखा गया है ? उत्तर-वास्तविकपणे तो प्रमत्तयोग ही हिंसा कही जाती है। किन्तु सर्व साधारण के लिए उसकी त्यागवृत्ति ही अशक्य होती है। इस हेतु से अहिंसा विकासक्रम के लिए स्थूल प्राणविनाश का त्याग प्रथम स्थान माना गया है। तत्पश्चात् यथाक्रम प्रमत्तयोग का त्याग जनसमुदाय में संभावित है। प्रमत्तयोग का त्याग नहीं होते हुए भी यदि प्राणविनाशवृत्तिकम-न्यून हो तो भी उससे जीवन शान्तिमय होता है, इतना ही नहीं किन्तु और समाज के लिए वह इष्ट तथा हितावह है। मुख्यपणे अध्यात्मविकास के साधकों को प्रमत्त योगरूप हिंसा का ही त्याग इष्ट है तो भी सामुदायिक जीवन-दष्टि से प्राणविनाशक रूप हिंसा के त्याग को अहिंसा की कोटि में रखा गया है। प्रमत्तयोग वा प्राणवध ये दोनों भिन्न-भिन्न कर दिये जाय तो उन दोषों का तारतम्यत्व भाव उपर्युक्त कथन से ही स्पष्ट है । * प्रश्न-हिंसा से निवृत्त होना ही अहिंसा है। अहिंसा व्रतधारी को जीवन के विकास के लिए कौनसे-कौनसे कर्तव्य करने चाहिये ? उत्तर-प्रारम्भ तथा परिग्रह को कम करते हुए अपना जीवन शान्तिमय रखें तथा ज्ञानाभ्यास के लिए पुरुषार्थ के अनुसार सर्वदा तत्पर रहें एवं सरलला पूर्वक राग, द्वेष, तृष्णा तथा कार्य-अकार्य की विचारणा करके उसका सुधार करने के लिए अवश्य प्रयत्न करें। * प्रश्न-हिंसा के दोष से आत्मा पर क्या असर होता है ? उत्तर-चित्त से कोमलता विनष्ट होकर क्रूरता बढ़ती है तथा स्वभाव से हृदय क्रूर हो जाता है। __अब यहाँ पर सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने में आ जाय तो देखा जाएगा कि, जैसे विशेष भाग के गृहस्थों में सदा भावहिंसा होती है, तिम साधुनों में सर्वदा द्रव्य हिंसा होती है। क्योंकि, श्वासोच्छ्वास तथा हाथ-पांव प्रसारण आदि से सूक्ष्म वायुकाय के जीवों की हिंसा हो रही है। स्वयं भले अप्रमत्त होते हुए भी इस हिंसा का परिहार अशक्य है। इस प्रकार की द्रयहिंसा तेरहवें गुणस्थानक पर्यन्त होती है एवं चौदहवें गुणस्थानक में रहे हुए जीव तथा सिद्धि स्थान में रहे हुए जीव द्रव्य मोर भाव दोनों प्रकार की हिंसा से रहित हैं । (७-८) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।६ ] सप्तमोऽध्यायः [ २६ * असत्यस्य स्वरूपम * 5 मूलसूत्रम् असदभिधानमनृतम् ॥ ७-६॥ * सुबोधिका टोका * अत्रासद् शब्दस्यत्रयार्थाः । सद्भाव-प्रतिषेधोऽर्थान्तरं गर्दा च । तत्र सद्भावप्रतिषेधो नाम सद्भूतनिह्नवोऽभूतोद्भावनं च । यथा नास्त्यात्मा, नास्ति च परलोकः इत्यादि भूतनिह्नवः । श्यामाकतण्डुलमात्रोऽयमात्माऽङ्ग ष्ठपर्वप्रमाणोऽयं आत्मा आदित्यवर्णो निःक्रियइत्येवमाद्यमभूतोद्भावनम् । अर्थान्तरं यो गां ब्रवीत्यश्वमश्वं च गौरिति । गति हिंसापारुष्यपैशुन्यादियुक्त वचः सत्यमपि गर्हितमनृतमेव भवति इति । विद्यमान प्रशंसेति सत्यस्य द्वयाथौं । अतः अत्र असत् शब्देनापि अविद्यमानताऽप्रशस्तता च द्वौ अपि प्रथौं ग्राह्यौ ।। ७-६ ।। * सूत्रार्थ-सद्भाव का प्रतिषेध करने वाले, भिन्न अर्थ को सूचित करने वाले तथा निन्द्यवचनों को असत्य समझना चाहिए। अर्थात्-प्रसत्य बोलने को अनृत कहते हैं ।। ७-६ ।। ॐ विवेचनामृत प्रमाद से असत् अर्थात् अयथार्थ-झूठ बोलना, वह 'असत्य' कहा जाता है। असत् पद सद्भाव निषेधक है। इसलिए सूत्रकार ने भी असत्य कथन को ही असत्य कहा है। तो भी उसमें असत्य चिन्तवन, असत्य कथन, असत्य आचरण इत्यादि असत्य दोषों का समावेश होता है। प्रमत्तयोग वालों को ही असत्य दोष सम्भवित है। अप्रमत्त योगी को असत्य दोष का स्पर्श भी नहीं है। असत्य दोष को मुख्यतः दो विभागों में विभाजित किया जाता है (१) अस्तित्व अर्थात् सद्भाव रूप होते हुए भी वस्तु-पदार्थ का निषेध करना या उसकी अन्यथा रूप से प्ररूपणा करना । (२) सत्य बोलते हुए भी यदि किसी को दुःख या दुर्भाव होता हो तो वह भी असत्य ही है। असत्य के त्यागी अर्थात् सत्य व्रतधारी को ऐसा होना चाहिए कि वे (१) प्रमत्त योग का त्याग करें। (२) मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को एकता रूप से साधे । (३) सत्य भी यदि दुर्भावपूर्ण और अप्रियजनक हो तो उसका कथन तथा चिन्तवन नहीं करें। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७६ असत्य के सम्बन्ध में शास्त्र में आते हुए तीन भेदों का संक्षिप्त दिग्दर्शन नीचे प्रमाणे हैंअसत्य के तीन भेद हैं -(१) सद्भाव प्रतिषेध, (२) अर्थान्तर और (३) गरे । सद्भाव प्रतिषेध के दो भेद हैं-(१) भूतनिह्नव तथा (२) अभूतोद्भावन । (१) भूतनिह्नव-भूत यानी बना हुआ और निह्नव यानी छुपा हुआ। अर्थात् हो चुकी वस्तुस्थिति का अपलाप करना वह 'भूतनिह नव रूप असत्य' कहा जाता है। जैसे किसी ने अपनी अमुक रकम अल्प समय के लिए दी हो, मुद्दत पूर्ण होते ही वह लेने के लिए जब आ जाय तब नहीं दी है ऐसा इस तरह कहना, अथवा अपने पास रुपये-पैसे होते हुए भी मांगनार को अभी मेरे पास नहीं हैं ऐसा कहना, वह 'भूतनिह्नव रूप असत्य' है । (२) अभूतोद्भावन-अभूत यानी नहीं बना हुआ। उद्भावन यानी उत्पन्न करना। नहीं बनी हुई वस्तुस्थिति को उत्पन्न करना, वह 'प्रभूतोदभावन रूप असत्य' कहा जाता है। जैसे—अन्य किसी व्यक्ति ने अपने पास से अमुक वस्तु नहीं ली हो, तो भी उस व्यक्ति को तुमने मेरे पास से अमुक वस्तु ली है, ऐसा कहना, वह 'अभूतोद्भावन असत्य है। (२) अर्थान्तर-अर्थान्तर यानी फेरफार। वस्तु जिस स्वरूप में हो, उस स्वरूप से प्रथगभिन्न स्वरूपे फेरफार करके कहना वह 'अर्थान्तर असत्य' कहा जाता है। जैसे-* अन्य-दूसरे को एक हजार (१०००) रुपये दिये हों, किन्तु अल्प समय के बाद मैंने बारह सौ (१२००) रुपये दिये थे, ऐसा कहना। * नकली वस्तु को असली कहना और असली वस्तु को नकली कहना । * पुराने माल को नया माल कहना तथा नये माल को जूना माल कहना। इत्यादि । आम इस तरह अल्प फेरफार के बाद जो बोलने में आता है, वह 'अर्थान्तर असत्य' है । (३) गर्दा-सत्य बोलते हुए भी हिंसा, कठोरतादिक से युक्त वचन बोलना, वह 'गर्हारूप असत्य' है। * हिंसा के कारणभूत सत्यवचन भी असत्य हैं। पांच व्रतों में अहिंसा मुख्य व्रत है। अन्य व्रत जो हैं, वे उसके रक्षण के लिए हैं। अर्थात् असत्य आदि व्रतों का बाह्य दृष्टि से पालन होते हुए भी जो उससे अहिंसा व्रत का पालन नहीं होता हो तो वह वास्तविक पालन नहीं कहा जाता। अतः बाह्य दृष्टि द्वारा वचन सत्य होते हुए भी जो उससे हिंसा होती हो तो वह वचन वास्तविक रीत्या असत्य ही है। विहार करते हुए साधु ने रास्ते में मृग-हरिण को जाते हुए देखा। कोई शिकारी सामने मिल गया, उसने हरिण कौनसी दिशा में गया है ? ऐसा पूछा। साधु ने हरिण के जाने की दिशा दिखाई। यहाँ पर बाह्य दृष्टि से साधु का वचन असत्य नहीं है। किन्तु उस वचन से Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१० ] सप्तमोऽध्यायः [ ३१ शिकारी उस दिशा में जाकर हरिण का शिकार करे, इससे परिणामे हिंसा उत्पन्न होती है। इसलिए यह वचन असत्य है। इस तरह काणे को काणा कहना तथा मूर्ख को मूर्ख कहना एवं पंगु को पंगु कहना इत्यादि सत्य वचन भी असत्य ही है क्योंकि इनसे प्राणवियोग रूप हिंसा नहीं होते हुए भी दुःखानुभव रूप हिंसा अवश्य होती है। वास्तविक हिंसा भी यही है। कठोरता, पैशून्य तथा गाली प्रादि से युक्त वचन किसी को श्रवण करना-सुनना रुचता नहीं होने से श्रवण से दुःख होता है ।। (७-६) * चौर्यस्य स्वरूपम् * 卐 मूलसूत्रम् प्रदत्तादानं स्तेयम् ॥ ७-१०॥ * सुबोधिका टीका * परैरदत्तस्य परिगृहीतस्य स्तेयबुद्ध्या तृणादेव्यजातस्यादानं स्तेयम् । अस्मिन् सूत्रेऽपि प्रमत्तयोगस्य सम्बन्धः । अतः प्रमादपूर्वकं यदि कस्यापि प्रदत्तस्य ग्रहणं करोति तत् स्तेयम् । अन्यथा राजमार्गपरिभ्रमणेन नद-नदी जलग्रहणेन वा भस्म-मृत्तिकादिग्रहणेनाऽपि स्तेयदोषः मुनीनां भविष्यति ।। ७-१० ॥ * सूत्रार्थ-बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण को स्तेय अर्थात् चोरी कहते हैं। अर्थात् स्तेय बुद्धि से स्वामी की बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण करना वह 'चोरी' है ।। ७-१० ॥ 卐 विवेचनामृत 卐 । प्रमाद से अन्य की नहीं दी हुई चीज-वस्तु को ग्रहण करना वह 'स्तेय' अर्थात् 'चोरी' है । अदत्त यानी नहीं दी हुई। प्रादान यानी ग्रहण करना। अदत्तादान चोरी है। अदत्तादान के चार भेद हैं-(१) स्वामी अदत्त, (२) जीव अदत्त, (३) तीर्थंकर अदत्त तथा (४) गुरु अदत्त । साधक यदि स्वामी आदि चारों की आज्ञा-रजा बिना कोई भी चीज-वस्तु ग्रहण करे तो तीसरे अदत्तादान महाव्रत में स्खलना होती है। जैसेतृण मात्र तुच्छ चीज-वस्तु भी मालिक से बिना मांगे ग्रहण करना चोरी है। इस व्रत के ग्रहण करने वाले को लालसावत्ति दूर करके इच्छित चीज-वस्तु न्याय-विधिपूर्वक ग्रहण करनी चाहिए। अन्य-दूसरे की चोज-वस्तु आज्ञा बिना उठाने का विचार तक भी नहीं करना चाहिए। अदत्तादान के 'स्वामी अदत्तादि' चार भेदों का दिग्दर्शन नीचे प्रमाणे हैं (१) स्वामी अदत्त-जिस चीज-वस्तु का मालिक है वही उसका स्वामी है। उसकी रजा बिना चोज-वस्तु लें तो 'स्वामी प्रदत्त' नाम का दोष लगता है। इसलिए महाव्रत के साधक Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७११ को तृण-घास जैसी भी चीज-वस्तु ग्रहण करने से पूर्व उसके मालिक की अनुमति अवश्य लेनी चाहिए । (२) जीव अदत्त-मालिक ने रजा दी हो तो भी यदि वस्तु सचित्त हो अर्थात् जीव युक्त हो तो उसे ग्रहण नहीं कर सकते। कारण कि उस वस्तु का मालिक उसमें रहा हा जीव है। वह वस्तु उसमें रहे हुए जोव की काया है। किसी भी जीव को काया की पीड़ा नहीं गमती अर्थात् देह-शरीर का दुःख गमता नहीं है। सचित्त वस्तु ग्रहण करने से जीव को पीड़ा तथा उसकी काया-शरीर का विनाश आदि होता है। इस वस्तु में रहे हुए जीव ने अपनी वस्तु भोगने का अधिकार अन्य किसी को नहीं दिया है। इसलिए पंच महाव्रत के साधक को मालिक ने अनुमतिरजा दी है तो भी सचित्त चीज-वस्तु का ग्रहण करना उचित नहीं है, अन्यथा गृहीता को अदत्त दोष लगता है। (३) तीर्थकर अदत्त--भले चीज-वस्तु अचित्त हो और मालिक ने रजा दी हो, तो भी साधक को विचार करना चाहिए कि, यह चीज-वस्तु लेने के लिए श्री तीर्थंकर भगवन्त की (शास्त्र की) आज्ञा है कि नहीं? श्री तीर्थंकर भगवन्त की आज्ञा न हो और अचित्त चीज-वस्तु ग्रहण करे तो तीर्थंकर प्रदत्त दोष लगे। जैसे कि, श्रमण-साधु के लिए आहार-पानी ग्रहण । दाता भक्ति से साधु को आहार-पानी देता हो, वह आहार-पानी भले अचित्त हो तो भी साधु के निमित्त से बनाया हुआ हो तो वह साधु (निष्कारण) नहीं लिया जाता है, जिससे कि तीर्थंकर प्रदत्त दोष लगे। कारण कि श्री तीर्थकर भगवन्तों ने साधु निमित्त तैयार किये हुए आहार-पानी को (निष्कारण) लेने का निषेध किया है। (४) गुरु प्रदत्त-स्वामी की अनुज्ञा हो, वस्तु आदि अचित्त हो, श्री तीर्थंकर परमात्मा की अनुज्ञा हो, तो भी गुरु महाराज की अनुज्ञा लिये बिना वह आहार-पानी आदि ग्रहण करे तो उसे गुरुप्रदत्त दोष लगता है। निर्दोष आहार पानी का निर्दोष ग्रहण करने से पहले गुरु महाराज की अनुज्ञा अवश्य लेनी चाहिए। दाता भक्ति से देते हैं इसलिए स्वामी अदत्त नहीं है। निर्दोष अर्थात् दोष रहित आहार-पानी होने से जीव अदत्त अथवा तीर्थंकर अदत्त भी नहीं है, तो भी यदि गुरु की अनुज्ञा बिना आहार-पानी लाये हो तो उसमें गुरु प्रदत्त दोष लगता है। इसलिए जो वस्तु लेने की हो, उसे लेने के लिए भी गुरु की अनुज्ञा-प्राज्ञा अवश्य ही लेनी चाहिए। इस प्रकार अस्तेयअदत्त महाव्रत के पालन के लिए प्रदत्त वस्तु का त्याग करना चाहिए ॥ (७-१०) * अब्रह्मचर्यस्वरूपम् * 卐 मूलसूत्रम् मैथुनमब्रह्म ॥७-११॥ * सुबोधिका टीका * स्त्री-पुसयोः मिथुनभावः मैथुनं तदब्रह्म। मिथुननाम युगलस्य । प्रकृतौ स्त्री-पुसयोः युगलं ग्रहीतम् । द्वयोः सम्भोगभावः विशेषः, संभोगः मैथुनं एवाब्रह्म । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।११ ] सप्तमोऽध्यायः प्रमत्तयोगेन याऽपि क्रिया भवति तदब्रह्म। प्रमादं त्यक्त्वा याऽपि क्रिया भवति यथा वात्सल्यभावेन पिता-भ्रातापितृव्यादिभिः पुत्रीषु स्निह्यन्ते । तदब्रह्म नैव भवति ।। ७-११ ॥ सूत्रार्थ-मैथुन ही अब्रह्म है। अर्थात्-मैथुन वृत्ति को अब्रह्म कहते हैं ।। ७-११ ।। विवेचनामृत ॥ मिथुन कर्म प्रब्रह्म है। मिथुन शब्द पर से मैथुन शब्द बना हुआ है। मिथुन यानी जोड़ला। मिथुन की अर्थात् जोड़ला की जो क्रिया वह मैथुन ऐसा शब्दार्थ है, किन्तु यहाँ पर शब्दार्थ नहीं, अपितु उसका भावार्थ लेने का है। वेदोदय से पुरुष के संयोग से होने वाली कामचेष्टा-विषयसेवन मैथुन है। पुरुष-स्त्री दोनों मिलकर जो संभोग क्रिया करते हैं, उसको मैथुन कहते हैं । 'मैथुन ही अब्रह्म' है। जैसे पुरुष तथा स्त्री के संयोग से होने वाली कामचेष्टा-विषयसेवन से सुख का अनुभव होता है, वैसे ही पुरुष को अन्य-दूसरे पुरुष के हस्तादिक के संयोग से होने वाली कामचेष्टा से स्पर्श सुख का अनुभव होता है। अर्थात् मैथुन का फलितार्थ कामचेष्टा है। किसी भी प्रकार की कामचेष्टा मैथुन है। इसी तरह स्त्री को भी हस्तादिक के संयोग से कामचेष्टा द्वारा स्पर्श सुख का अनुभव होता है। अर्थात् मैथुन शब्द का फलितार्थ कामचेष्टा-विषयसेवन है। किसी भी प्रकार की कामचेष्टा मैथुन कही जाती है। जिसमें स्त्री-पुरुष की अभिलाषा, पुरुष-स्त्री की अभिलाषा, पुरुष, पुरुष; या स्त्री, स्त्री वह भी सजातीय (मनुष्य, मनुष्य जाति) विजातीय (मनुष्य पशु जाति) से कामराग के आवेश से मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति को मैथुन कहते हैं या किसी जड़, वस्तु तथा स्वहस्तादिक अवयवों से किये हुए मिथ्याचरण यानी कुचेष्टा भी अब्रह्मचर्य मैथुन प्रवृत्ति के अनुसरण से सद्गुणों का विनाश और असद्गुणों की सहज अभिवृद्धि होती है। इसीलिए इसको अब्रह्म कहते हैं । इस सूत्र का फलितार्थ यह है कि-जिसके पालन से अहिंसादिक आध्यात्मिक गुणों की वृद्धि हो वह ब्रह्म है तथा जिसके सेवन से अहिंसादिक आध्यात्मिक गुणों का ह्रास अथवा विनाश होता है वह अब्रह्म है। किसी भी प्रकार की काम चेष्टा, मैथुन के सेवन से अहिंसादि गुणों का विनाश होता है इसलिए कामचेष्टा अब्रह्म है। मैथुन की निवृत्ति यह ब्रह्म है तथा ब्रह्म का पालन ब्रह्मचर्य है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।१२ ब्रह्मचर्य के पालन से प्राध्यात्मिक दृष्टि से तो लाभ ही है। विशेष- लौकिक दृष्टि से भी अधिक लाभ है। ब्रह्मचर्य से वीर्यरक्षा, देह-शरीर बल, रोग का अभाव, कान्ति, प्रताप इत्यादि अनेक लाभ प्राप्त होते हैं अर्थात् मिलते हैं ।* ।। ७-११ ॥ * परिग्रहस्य स्वरूपम् * ॐ मूलसूत्रम् मूर्छा परिग्रहः ॥ ७-१२ ॥ * सुबोधिका टीका * अत्र प्रमत्तयोगशब्दस्य सम्बन्धेन यानि रत्नत्रयसाधनानि सन्ति तेषां ग्रहणे परिग्रहतायाः महत्त्वं नैव भवति । चेतनावत् स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः । इच्छा प्रार्थना कामोभिलाषः काङ्क्षा गाद्धयं मूर्छत्यनर्थान्तरम् । स्त्री-पुत्र-दास-दासी-ग्राम-गृह-क्षेत्र-धन-धान्यानि बाह्यपरिग्रहाः ।। ७-१२ ।। * सूत्रार्थ-सचित्त तथा प्रचित्त पदार्थों के प्रति मूर्छा ही परिग्रह है। अर्थात् जड़ अथवा चेतन वस्तु पर मूर्छा-आसक्ति रखनी, उसे परिग्रह कहा जाता है ।। ७-१२ ॥ + विवेचनामृत मूर्छा ही परिग्रह है। अर्थात् मूर्छा को परिग्रह कहते हैं। मूर्छा का अर्थ प्रासक्ति है। सामान्य से परिग्रह का अर्थ 'स्वीकार' होता है। केवल स्वीकार अर्थ नहीं है, किन्तु जिससे प्रात्मा संसार में जकड़ाता है, वह परिग्रह है, ऐसा अर्थ होता है। प्रात्मा आसक्ति-मूर्छा से संसार में जकड़ाता है। इसलिए आसक्ति परिग्रह है। वस्तु का स्वीकार करने पर भी उसकी आसक्ति नहीं * यहाँ पर वेद के उदय से होने वाली कामचेष्टा को मैथुन कहा गया है। यह स्थल दृष्टि है। सूक्ष्मदृष्टि से शब्दादिक किसी भी विषय के सुख की क्रिया मैथुन है। कारण कि प्रात्मा, 'ब्रह्मरिण चरणम् = ब्रह्मचर्यम्'। ब्रह्म में आत्मरमणता करनी सो ब्रह्मचर्य है। इस दृष्टि से राग-द्वेष से पांचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन भी अब्रह्म है। इसलिए ही श्रमण-साधुत्रों के पाक्षिक सूत्र में कहा है कि सद्दा रुवा रसा गंधा, फासाणं पवियारणा। मेहुणस्त वेरमणे, एस वृत्ते अइक्कमे ॥ राग-द्वेष पूर्वक शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का सेवन मैथुन विरमण व्रत में दोष रूप है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७/१२ ] सप्तमोऽध्यायः [ ३५ हो तो वस्तु का स्वोकार परिग्रह रूप नहीं है । वस्तु का स्वीकार नहीं करने पर भी जो उसमें जो इस प्रकार न हो तो इस रीति से भी निष्परिग्रही अर्थात् आसक्ति हो तो वह परिग्रह है । परिग्रह रहित कहना चाहिए । श्रासक्ति बिना यानी इच्छा के बिना वस्तु का स्वीकार सो परिग्रह नहीं है । इच्छा हो तो नहीं मिलने पर भी नहीं भोगने पर भी परिग्रह है । तथा आसक्ति वस्तु छोटी या बड़ी, जड़ या चैतन्य, बाह्य, अभ्यन्तर किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष रूप से हो या न भी हो, किन्तु उसकी ओर आसक्त होकर के विवेक शून्य होना ही परिग्रह है । इच्छा, प्रार्थना, काम, अभिलाषा, परिग्रह तथा मूर्च्छा ये समानार्थक शब्द हैं । * प्रश्न - हिंसा से परिग्रह पर्यन्त पाँचों दोषों का स्वरूप बाह्यदृष्टि से भिन्न रूप है, किन्तु वास्तविकपने अभ्यन्तर दृष्टि से विचारपूर्वक गवेषणा की जाए तो किसी प्रकार की विशिष्टता-विशेषता नहीं जान पड़ती। कारण कि उक्त पाँचों व्रतों के दोषों का आधार मात्र राग है, द्वेष है और मोह है । यही विष की बेल है, राग-द्वेष ही दोष है, इतना ही कहना उचित था ? यह नहीं कह करके हिंसादि दोषों की संख्या पाँच या न्यूनाधिकपणे जो कही गई है, उसका क्या कारण है ? उत्तर - राग और द्वेष ही मुख्य दोष हैं । इससे विराम अथवा विमुख होना ही एक यथार्थ व्रत है। तो भी जब त्यागवृत्ति का सदुपदेश देना हो, उस समय उन राग और द्वेषादिक से होने वाली प्रवृत्तियों को समझाने से ही उनका त्याग हो सकता है । राग-द्वेष से होने वाली प्रवृत्तियाँ अनेक हैं । तथापि उनमें हिंसादिक प्रवृत्तियाँ मुख्यरूप होने से उक्त भेदों का वर्णन किया है । उसमें भी मुख्यपने राग-द्वेष का त्याग ही सूचित किया है । हिंसा दोष की व्याख्या में ही शेष असत्यादि दोषों का भी समावेश हो जाता है । इसी माफिक सत्यादि किसी एक दोष की व्याख्या में शेष दोषों का भी समावेश होता है । इस तरह अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य तथा सन्तोषादि किसी एक धर्म को ही मानने वाले अपने हुए धर्म में शेष दोषों को घटा सकते हैं । माने विशेष - पंच महाव्रतधारी श्रमरण - साधुओं के पाँच महाव्रतों के पालन के लिए अपनी कक्षा प्रमाणे वस्त्रादिक स्वीकार करने में अंश मात्र भी दोष नहीं है किन्तु नहीं स्वीकार करने में अनेक दोष हैं । जैसे— (१) पात्र के अभाव में कर हाथ में प्राहारादि भोजन करते समय जो नीचे पड़े तो कीड़ी आदि जीव एकत्र हो जाँय और पाँव आदि से मर जाए । (२) बाल, ग्लान, वृद्ध और लाभान्तराय कर्म के उदय वाले श्रमरण - साधु आदि की भक्ति नहीं कर सके। इससे वे संयम-दीक्षा में सिदाय । (३) कम्बल - कम्बली आदि नहीं रखने से काल के समय में तथा बरसात के समय में अकाय के जीवों की रक्षा न हो सके । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।१३ (४) सर्दी की ऋतु में ठण्डी सहन नहीं होने से तृण-घास तथा अग्नि आदि की अपेक्षा रहे। वे नहीं मिले तो प्रायः असमाधि भी हो। परिणामस्वरूप कदाचित् व्रतों का भंग भी हो। (५) चोलपट्टा आदि नहीं रखने से लोक में श्री जैनशासन-जैनधर्म की निन्दा-हीलना हो। इससे अज्ञान जीवों को बोधि दुर्लभ हो जाय। इसमें निमित्त श्रमरण-साधु बनने से साधु को अशुभ कर्म का बन्ध हो। आम अपनी कक्षा मुजब पात्रादिक नहीं रखने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । (७-१२) * व्रती-व्याख्या * के मूलसूत्रम् निःशल्यो व्रती ॥७-१३ ॥ * सुबोधिका टीका * शल्यशब्दस्यार्थः कण्टक: भवति । तथा च कण्टकमिव हृदये शण्णाति तत्शल्यम् । माया निदान मिथ्यादर्शनशल्य स्त्रिभिर्वियुक्तो निःशल्यो व्रती भवति । व्रतान्यस्य सन्तीति व्रती। तदेवं निःशल्यो व्रतवान् व्रती भवतीति ।। ७-१३ ॥ * सूत्रार्थ-मायाशल्य, निदान शल्य तथा मिथ्यादर्शन शल्य से जो रहित है, वही 'व्रती' है। अर्थात् शल्य से जो रहित हो वह व्रती कहा जाता है ।। ७-१३ ।। 5 विवेचनामृत शल्य से रहित तथा अहिंसादि व्रत सहित जो हो, वह व्रती है। यद्यपि व्रती शब्द से ही व्रत जिसके हो वह व्रती कहा जाता है। इस तरह समझ सकते हैं, किन्तु यहाँ पर व्रती की व्याख्या के लिए विशिष्ट सूत्र की रचना इसलिए की है कि केवल व्रत होने मात्र से व्रती नहीं कह सकते हैं, किन्तु शल्य रहित भी होना चाहिए। अहिंसा तथा सत्यादिक व्रत ग्रहणमात्र से ही व्रती नहीं हो सकता। व्रती होने की योग्यता के लिए सबसे पहली बात कौनसी है उसी को प्रस्तुत सूत्र द्वारा ग्रन्थकार प्रकाशित करते हैं "निःशल्यो वती" यहाँ पर व्रती की व्याख्या में अङ्गाङ्गी भाव समाया हुआ है। व्रती अङ्गी है, तथा निःशल्यता अङ्ग है। जैसे अङ्ग-अवयव बिना अङ्गी अवयवी नहीं हो सकता, उसी प्रकार निःशल्यता बिना व्रती नहीं हो सकता। . यहाँ निःशल्यता की अर्थात् शल्य के अभाव की मुख्यता है। व्रतयुक्त होते हुए भी निःशल्यता न हो तो व्रती नहीं कहा जाता है। मायाशल्यादि तीनों प्रकार के शल्यों से जो रहित है, वही यथार्थ रूप से व्रतों का पालन कर सकता है। शल्य रहते हुए व्रत के पालन में एकाग्र नहीं हो सकता है। क्रमशः दोनों के दृष्टान्त नीचे प्रमाणे हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१४ ] सप्तमोऽध्यायः [ ३७ जैसे-(१) किसी के पास गाय-भैंस हैं, किन्तु वे दूध नहीं देती हों तो वह वास्तविकपणे गाय-भैंस वाला नहीं कहलाता है। क्योंकि दूध बिना गाय-भैंस की कोई कीमत नहीं होती है। (२) देह-शरीर के किसी एक भाग में कण्टक-काँटा चुभ जाने से वह देह-शरीर तथा मन को अस्वस्थ करके आत्मा को एकाग्र नहीं होने देता है। इसी माफिक शल्य मन को स्थिर नहीं होने देता। व्रती को शल्य (तीनों) का त्याग करना ही उचित है । * प्रश्न-क्रोधादिक चारों कषाय आत्मा को अस्वस्थ बनाते हैं, तथा आत्मा की प्रगति को रोकते हैं। इसलिए आत्मा को शल्य रूप ही हैं, तो फिर केवल माया को ही ___ शल्य क्यों कहा जाता है ? उत्तर-शल्य की जो व्याख्या की है, वह माया में ही सम्पूर्ण रूपे लागू पड़ती है, क्रोधादिक में सम्पूर्णपने लागू नहीं पड़ती है। जो गुप्तपणे विकार पैदा करे वह 'शल्य' है। जैसे-कण्टककाँटादिक शल्य गुप्त रह करके अस्वस्थतादिक विकार करते हैं। माया भी गुप्त रह करके प्रात्मा में विकार करती है। जब आत्मा में द्वेष उत्पन्न होता है तब देह-शरीर की आकृति इत्यादिक से वह प्रकट हो जाता है, किन्तु माया अव्यक्त रहती है। क्रोधादिक भी गुप्त रह सकते हैं, लेकिन उसके लिए यत्न करना पड़ता है। माया तो जब-जब होती है तब-तब यत्न बिना भी गुप्त ही रहती है। इसलिए उनको शल्यरूप नहीं कहते, माया को ही शल्यरूप कहते हैं ।। ७-१३ ।। * वती-भेदः * 卐 मूलसूत्रम् अगार्यनगारश्च ॥ ७-१४ ॥ * सुबोधिका टीका * उपर्युक्तः स एष व्रती द्विविधो भवति । अगारी अनगारश्च । अगारं गृहं तदस्ति यस्यासौ अगारी गृहीत्यर्थः । न अगारं गृहं यस्य सः गृहविरतो यतिरित्यर्थः श्रावकः प्रश्रमणश्चेत्यर्थः ।। ७-१४ ।। * सूत्रार्थ-व्रती के दो भेद हैं। [१] अगारी-श्रावक [२] अरणगारसाधु ।। ७-१४ ।। 卐 विवेचनामृत व्रती के अगारी और अनगार इस तरह मुख्य दो भेद हैं। अगार यानी घर-संसार अर्थात् जो घर में-संसार में रह करके (अणु) व्रतों का पालन करता है, वह अगारी व्रती कहा जाता है । तथा जो घर का संसार का त्याग हा) व्रतों का पालन करता है, वह प्रनगार व्रती कहा जाता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७.१५ अगारी व्रती को श्रावक कहते हैं, श्रमणोपासक कहते हैं, तथा देशविरति श्रावक इत्यादिक शब्दों से सम्बोधन में आते हैं। तथा अनगार व्रती को श्रमण के नाम से, भिक्षुक के नाम से, साधु के नाम से तथा मुनि आदि के नाम से सम्बोधित करते हैं। विशेष–उक्त बात का कथन करते हुए कहा है कि-व्रत स्वीकार करने वाले की योग्यता एक समान नहीं होती है। इसलिए योग्यता की तारतम्यता-भिन्नता के अनुसार इस व्रत के मुख्य दो भेद कहे गये हैं। अगारी और अनगारी। अगारी का अर्थ है गृहस्थ, जिसका गृह-घर के साथ सम्बन्ध हो उसको अगारी कहते हैं । तथा जिसका गृह-घर के साथ सम्बन्ध नहीं होता है वह अनगारी त्यागी, श्रमण, मुनि अादि कहलाता है। किन्तु यहाँ पर इसका अर्थ यह लिया गया है कि जो विषय तृष्णा सहित हो वह अगारी है, तथा जो विषय तृष्णा से रहित हो वह अनगारी है। इससे फलितार्थ यह होता है कि गृह-घर सम्बन्ध रखते हुए भी यदि विषय तृष्णा से विमुख है तो वह अनगारी ही है। तथा जंगल-वन में निवास करते हुए भी यदि विषय तृष्णा युक्त है तो वह अगारी ही है। अगारी तथा अनगारी शब्द का वास्तविक स्वरूप यही समझना। * प्रश्न-विषय तृष्णा होने से यदि अगारी है तो फिर उसे व्रती कैसे कहते हैं ? उत्तर-स्थूलदृष्टि से मनुष्य अपने गृह-घर में रहता है या किसी नियत स्थान में रहता है, किन्तु किसी प्रकार की अपेक्षा से वह अमुक शहर-नगर में रहता है। ऐसे भी व्यवहार किया जाता है, इसी माफिक विषय तृष्णा होते हुए भी अल्पांश व्रत से सम्बन्ध रखता है। इसीलिए उसको व्रती भी कहते हैं ॥ ७-१४ ।। * अगारीव्रतो-वर्णनम् के 5 मूलसूत्रम् अणुव्रतोऽगारी ॥७-१५॥ * सुबोधिका टीका * ___ यस्य अणुरूपेण व्रतानि भवन्ति सः अणुव्रती। तदेवमणुव्रतधरः श्रावकोऽगारव्रती भवति ।। ७-१५ ॥ * सूत्रार्थ-अणु-लघु प्रमाण वाले व्रतों को धारण करने वाला 'अगारी' कहा जाता है। अर्थात्-अणुव्रतधारी को अगारी कहते हैं ।। ७-१५ ।। _ विवेचनामृत जो अहिंसादिक व्रतों को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने में असमर्थ है, तो भी त्यागवत की भावना वाले गृहस्थ मर्यादा में रहते हुए व्रतों को अल्पांश स्वीकार कर सकते हैं। वे गृहस्थ अणुव्रतधारी (श्रावक) कहलाते हैं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ३६ जिस व्रती को अणुव्रत (एक, दो इत्यादि) होते हैं वह अगारी है। अर्थात् अगारी व्रती के पांच अणुव्रत होते हैं। अगारी की इस तरह की व्याख्या से अर्थापत्ति द्वारा यह सिद्ध होता है कि जिसने पंच महाव्रत स्वीकार किये हों वह 'अनगार व्रती' है। व्रतों के अणु और महान् इस भेद को लेकर व्रती के दो भेद होते हैं। अणुव्रतधारी साधक 'प्रगारी' है, और महाव्रतधारी साधक 'अनगार' है । गृहस्थावस्था में व्यक्ति पंचमहाव्रतों का पालन करने में असमर्थ होने से अणुव्रतों का पालन करते हैं। अहिंसादिक पाँच अणुव्रतों का स्वरूप-वर्णन सातवें अध्याय के द्वितीय सूत्र में किया गया है ।। ७-१५ ।। गुणव्रतानां शिक्षावतानां च निदेश: * + मूलसूत्रम् दिग्-देशा-निर्थदण्डविरति-सामायिक-पौषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमारणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥७-१६ ॥ * सुबोधिका टीका * दिग्विरति-देशविरति-अनर्थदण्डविरति-सामायिक -पौषधोपवास-उपभोग-परिभोगपरिमाण-अतिथिसंविभाग-व्रतानि सप्तोत्तर व्रतानि । एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरव्रतः सम्पन्नोऽगारीव्रती भवति । तत्र दिग्वतं नाम तिर्यग् ऊर्ध्वमधो वा दशानां दिशां यथाशक्तिगमन-परिमारणाभिग्रहः। तत्परतश्च समस्तप्राणिषु अर्थतोऽनर्थतश्च सावद्ययोगनिक्षेपः । देशव्रतं नामापवरकगृहग्रामसीमादिषु यथाशक्तिप्रविचाराय परिमारणाभिग्रहश्च । तत्परतश्च सर्वभूतेषु अर्थतोऽनर्थतश्च सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः । अनर्थदण्डो नामोपभोगपरिभोगावस्यागारिणो वतिनः अर्थः । तद्भिन्नोऽनर्थश्च । तदर्थोदण्डोऽनर्थदण्डः। तद्विरतिः व्रतम् । सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोग-योगनिक्षेपः । पौषधोपवासो नाम पौषधे उपवासः पौषधोपवासः । पौषधः पर्वेत्यनर्थान्तरम् । सः पञ्चमी अष्टमी एकादशी चतुर्दशी पञ्चदशीमन्यतमां वा तिथिमभिगृह्य चतुर्थाद्युपवासिना व्यपगतस्नानालेपनगन्धमाल्यालङ्कारेण न्यस्तसर्वसावद्ययोगेन कुशसंस्तर फलका Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।१६ दीनामन्यतमं संस्तरमास्तीर्यस्थानं वीरासननिषद्यानां वाऽन्यतममास्थाय धर्मजागरिका परेणानुष्ठेयो भवति । उपभोग - परिभोगवतं नामाशन-पान-खाद्य-स्वाद्य-गन्ध-माल्यादीनामाच्छादनप्रावरणालङ्कार-शयनासनगृहयानवाहनादीनां च बहुसावद्यानां वर्जनम् । अल्पसावद्यानां अपि परिमाणकरणमिति । अतिथिसंविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानां अन्नपानादीनां द्रव्याणां देशकाल-श्रद्धा-सत्कारक्रमोपेतां परयात्मानुग्रहबुद्धया संयतेभ्यो दानमिति । उपर्युक्तानि अहिंसादिकपंचव्रतानि यानि सन्ति तानि मूलव्रतानि । तेषां पोषकाः निर्मलतादिगुणोत्पादकाः दिग्वताः उत्तरव्रताः। ते-ते च सप्तः ।। ७-१६ ।। * सूत्रार्थ-प्रगारी-श्रावक दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्ड विरमण व्रत, सामायिक, पौषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमारण और अतिथिसंविभाग व्रत से भी युक्त होता है ।। ७-१६ ।। ॐ विवेचनामृत ॥ यद्यपि अहिंसादिक व्रतों को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने में असमर्थ है, तथापि त्यागवत्ति की भावनावाले गृहस्थी की मर्यादा में रहते हुए भी अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्रतों को अल्पांश में स्वीकार कर सकते हैं। वे गृहस्थ अणुव्रतधारी (श्रावक) कहलाते हैं । * पाँच अणुव्रतों के नाम * गृहस्थ जीवन में मन, वचन, काय से सर्वथा हिंसा का त्याग नहीं हो सकता है। इसलिए अपनी त्यागवृत्ति की योग्यता के अनुसार मर्यादापूर्वक हिंसा का त्याग करे, वह अहिंसा अणुव्रत है । इसी तरह असत्यादि परिग्रह पर्यन्त (२-५) व्रतों का अपनी परिस्थिति के अनुसार मर्यादित रूप से त्याग करना ही अणुव्रत है। * तीन गुणव्रत के (६) अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार चारों दिशाओं के परिमाण की मर्यादा करे। इससे मर्यादा के बाहरी क्षेत्रों में समस्त प्रकार के अधर्म से निवृत्ति होती है, इसे विगवत कहते हैं । (७) दिशि का मान अहर्निश के लिए किया हुआ है तथापि उसमें प्रयोजन के अनुसार प्रतिदिन क्षेत्र की मर्यादा करे, उसे देशव्रत कहते हैं। (८) अपनी आवश्यकता-जरूरत के बिना निरर्थक प्रवृत्ति करनी वह अनर्थदंड है। उससे निवृत्त होना, उसे अनर्थदंड कहते हैं । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४१ * चार शिक्षाक्त * (8) काल-समय की मर्यादा करके अधर्म प्रवृत्ति से निवृत्त होकर उतने समय तक धर्मप्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करे उसको सामायिक व्रत कहते हैं । (१०) अष्टमी तथा चतुर्दशी इत्यादि पर्व तिथियों में उपवास करके धर्म जागरण करे, इसको पौषषोपवास व्रत कहते हैं । (११) जिसमें बहुत अधर्म अथवा प्रारम्भ-समारम्भ ऐसे आहार-विहार अर्थात् भोगोपभोग की वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग करके न्यूनारंभ वस्तुओं की जो मर्यादा करे, उसे भोगोपभोगपरिमाण व्रत कहते हैं। (१२) शुद्धभावपूर्वक तथा शक्ति अनुसार सुपात्र को दान देना उसे प्रतिथि संविभाग व्रत कहते हैं। * अगारी व्रती के लिए इन पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत कुल मिलाकर बारह अणुव्रत का निर्देश किया। दिग्विरति आदि सात व्रतों का स्वरूप तथा फल संक्षेप में नीचे प्रमाणे है (६) दिगविरति गुणवत-पूर्वादि चार दिशा, चार विदिशा, ऊर्ध्व और अधो दिशा मिलाकर कुल दस दिशायें हैं। पूर्वादिक दश दिशाओं में अमुक हद तक जाना, उसके बाहर न जाना। इस तरह सब दिशाओं में गमन परिमारण का नियम करना, वह दिगविरति है । जैसे-किसी भी दिशा में दस किलोमीटर से दूर नहीं जाना, या अमुक-अमुक दिशा में अमुक-अमुक देश से बाहर नहीं जाना। आम इच्छा प्रमाणे दिशा सम्बन्धी विरति करनी वह दिग्विरति है। इस व्रत में दिशा का परिमाण निश्चित हो जाने से इस व्रत को दिक्परिमाण व्रत भी कहने में पाता है। इस व्रत का फल-दिग्विरति व्रत के अनेक फल हैं। उनमें मुख्य दो फल हैं (१) अपनी धारी हुई दिशा के बाहर होने वाली समस्त प्रकार की हिंसा का त्याग होता है। स्वयं नहीं जाय, स्वयं हिंसा नहीं करे, तथा स्वयं किसी को प्रेरणा नहीं करे तो भी जो दिशा की मर्यादा का नियम नहीं किया हो तो वहाँ पर होने वाली समस्त प्रकार की हिंसा का पाप लगता है, क्योंकि नियम नहीं करने से वहाँ हिंसा का अनुमोदन रहा हुआ है । (२) लोभ मर्यादित बनता है। मर्यादा-हद का नियमन होने के बाद, उस मर्यादित-हद के बाहर चाहे जितना लाभ होने वाला हो तो भी वहाँ जा सकते नहीं। नियमन के बाद उसका बराबर पालन करने से ही लोभ धीरे-धीरे अवश्य घट जाता है। अनेक प्रकार के प्रलोभनों के सामने टिकने का सात्त्विक बल मिल जाता है। (७) देशविरति (देशावगाशिक) गुणवत-दिग्विरति व्रत में गमन की जो मर्यादा-हद निश्चित की हो, उसमें भी प्रतिदिन यथायोग्य अमुक देश को (विभाग को) संक्षेप करना, वह देशविरति है। अर्थात्-देश (अमुक विभाग) सम्बन्धी जो विरति वह देशविरति कही जाती Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१६ जाती है। जैसे-एक हजार किलोमीटर से दूर नहीं जाना। इस तरह दिग्विरति व्रत में नियम किया है, तो इस व्रत में अहर्निश जहाँ-जहाँ जाने की जरूरत हो, कि सम्भावना हो; इतना ही देश छटा रख करके शेष देश का नियम करना। संयोगवशात् शारीरिक कारणोंवश या अन्य कोई भी मांदगी होय तो आज गह-घर के या होस्पिटल के बाहर नहीं जाना। ऐसा इस प्रकार का नियम करना। आज शहर, कि ग्राम से बाहर नहीं जाना, ऐसा भी नियम धार सकते हैं। इस व्रत का फल-उक्त नियम से दिविरति में जो मर्यादा-हद छूट गई हो, उसका भी संकोच हो जाता है। इससे दिग्विरति व्रत में जो लाभ होता है वह लाभ इस व्रत में हो जाता है, किन्तु दिग्विरति व्रत की अपेक्षा इस व्रत में अधिक लाभ होता है। __यहाँ पर दिविरति व्रत का संक्षेप यह उपलक्षण होने से व्रतों को (पाँच अणुव्रत, भोगोपभोग परिमाण, अनर्थदण्ड विरति इन सात व्रतों का) संकोच भी करवाने का विधान करने में पाया है। उपभोग-परिभोग परिमारण व्रत में घारे हए चौदह नियमों का भी हमेशा यथाशक्य संक्षेप करना चाहिए। उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत में चौदह नियम धारने का विधान है तथा इस व्रत में भी धारे हुए चौदह नियमों का हमेशा संक्षेप करने का विधान है। इसलिए चौदह नियमों में दिशा का नियम भी पा जाने से चौदह नियमों के संक्षेप में दिशा का संक्षेप भी आ जाता है। इस व्रत को देशावगासिक व्रत भी कहने में आता है। वर्तमान काल में देशावगासिक के देशविरति व्रत में कम से कम एकासणा के तप के साथ दस सामायिक करने का रिवाज है। सुबह और शाम के प्रतिक्रमण में दो सामायिक तथा अन्य पाठ सामायिक इस तरह दस सामायिक होती है। यह व्रत ग्रहण करते समय 'मैं वर्ष में अमुक (पाँच-दश इत्यादि) देशावगासिक करूंगा।' ऐसा नियम करने में आता है। जिस तरह पूर्व में कहा, उस तरह एक दिन दश सामायिक करने से एक देशावगासिक व्रत होता है । इस नियम में जितने देशावगासिक धारे हों, उतने दिवस दस-दस सामायिक करने से इस व्रत का पालन होता है। (८) अनर्थदण्डविरति गुणवत–अर्थ यानी प्रयोजन। जिससे आत्मा दण्डित हो अर्थात् दुःख पाये वह दण्ड है। पापसेवन से आत्मा दण्डाता है अर्थात् दुःख पाता है। इसलिए दण्ड यानी पापसेवन । प्रयोजनवशात् अर्थात् सकारण पाप का सेवन वह ही अर्थदंड है। "प्रयोजन के बिना, निष्कारण पाप का सेवन वह अनर्थदंड कहा जाता है।" गृहस्थ को अपने गृहस्थ जीवन में स्वयं का तथा स्वजनादिक का निर्वाह करना पड़ता है। अतः गृहस्थ अपने लिए तथा स्वजनादि के निर्वाह के लिए जो पापसेवन करता है वह सप्रयोजन (सकारण) होने से अर्थदंड है। जिसमें स्वयं के या स्वजनादिक के निर्वाह का प्रश्न ही न हो, ऐसा पापसेवन अनर्थदण्ड है। अर्थात्-जिसके बिना गृहस्थावास चल सके वह पापसेवन अनर्थदण्ड कहा जाता है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ४३ अनर्थदण्ड के मुख्य चार भेद हैं (१) अपध्यान-यानी दुर्ध्यान-अशुभ विचार । जैसे-शत्रु मर जाए तो अच्छा, अमुक नृपति-राजा ने अमुक राजा को जीत लिया वह अच्छा हुआ, अमुक देश के लोग मारने योग्य ही हैं इत्यादि प्रात्मा के अशुभ विचार अपध्यान हैं। ऐसे अशुभ विचारों से अपने कार्य की कोई सिद्धि नहीं हो सकती है। ऐसे विचारों से निरर्थक पाप का बन्ध होता है। इसलिए अपध्यान नहीं करना चाहिए। (२) पापकर्मोपदेश-संग्राम यानी लड़ाई करनी चाहिए, हिंसादिक कार्यों-कतलखाना तथा मत्स्योद्योग इत्यादिक का फैलावा होना चाहिए, वस्त्र-कपड़ा आदि की मिलें चलनी चाहिए, अनेक प्रकार के कारखाने सर्वत्र होने चाहिए, एरोप्लेन-स्टीमर-रेलगाड़ियाँ, मोटर प्रादि साधनों में अभिवृद्धि होनी चाहिए, बिजली उत्पन्न करनी चाहिए, खेती करनी तथा करानी चाहिए, सांसारिक समस्त प्रारम्भ-समारम्भादिक प्रवृत्तियों में भाग लेना चाहिए तथा अठारह पापस्थानों को भी सेवना चाहिए; इत्यादि पाप कार्यों का उपदेश यह पापकर्म का उपदेश कहा जाता है । (३) हिंसकार्पण-जो वस्तु पर को देने से हिंसा होती है वह वस्तु अन्य को दूसरे को देनी वह हिंसकार्पण है। जैसे-हथियार, विष (जहर) तथा अग्नि इत्यादि । [दाक्षिण्य के कारण पापकर्म का उपदेश करने का प्रसंग आ जाए और हिंसा भी हो जाए ऐसी वस्तु देनी पड़े, इसलिए नियम में इस पूरती छूट रखनी पड़ती हो तो भी बने वहाँ तक उस छूट का उपयोग नहीं करना पड़े, इसलिए उसका ध्यान रखना चाहिए।] (४) प्रमादाचरण-नृत्य, नाटक तथा सिनेमा का निरीक्षण करना, कुतूहल से गीत-गान सुनना, कामशास्त्र का वांचन करना, स्त्रीकथा-भक्तकथा-देशकथा-राजकथा इन चार की विकथाएँ करनी, तालाब आदि में स्नान करना, वृक्ष की शाखा के हिंडोला इत्यादि पर झूलना, कुत्ताकूकड़ादिक प्राणियों को परस्पर लड़ाना, वनस्पति को खोदना तथा उस पर चलना, कारण बिना वृक्ष के पत्र, पुष्प-फूल तथा डाली आदि छेदना, अन्य मार्ग-रास्ता होते हुए भी वनस्पति वा निगोद राशि पर चलना, दूध-दही-घत-तेल इत्यादिक के भाजन-वासणों को उघाड़ा रखना, कीडी-मक्खीमच्छर-मांकड़ तथा देड़का इत्यादिक मारना, कार्य हो जाने पर भी सिगड़ी-चूल्हा-बत्ती-नल तथा पंखा आदि चालू रखना, जोये बिना छाणां-लाकड़ा-कोलसा-धान्य-अनाज तथा पानी प्रादि का उपयोग करना, निष्ठुर और मर्मवचन बोलना, खड़खड़ाट पेट भरके हँसना, निंदा करनी, द्यूतादि सप्त' व्यसन सेवना, बॉक्सिग-(मल्लयुद्ध) इत्यादि रम्मतें रमनी-देखनी, कोमेन्ट्री सुननी, इत्यादि प्रमादाचरण हैं। तदुपरान्त प्राज के रेडियो, अखबार-छापा, नोवेल, नाटक, सिनेमा, क्लब तथा होटल ए भी व्यसन आत्मा को दुर्गति के मार्ग पर ले जाते हैं । १. द्यूतं च मांसं च सुराच वेश्या, पापद्धिः चोरी परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके, घोतिघोर नरकं नयन्ति ॥१॥ अर्थ -जुगार, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री-सेवन, ये सप्त व्यसन दारुण नरक में ले जाते हैं । (१) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १६ फल-इस अनर्थदण्डविरति से अनेक प्रकार के पापों से बच जाते हैं, तथा स्व जीवन संस्कारित बनता है। तामस और राजस वृत्ति दूर होती है, एवं सात्त्विक वृत्ति प्रगटती है । (९) सामायिक (प्रथम शिक्षावत) सम यानी शान्ति, आय यानी लाभ। जिससे समता गुण-शान्ति प्राप्त हो, वह सामायिक है । समस्त सावद्ययोगों का अर्थात् पाप व्यापारों का त्याग किये बिना शान्ति मिलती नहीं है, इसलिए इस व्रत में सर्व सावद्ययोगों का त्याग करने में आता है। अमुक काल पर्यन्त (धारणा प्रमाणे, जैसे कि-जहाँ तक मैं साधु महाराज पासे रहूँ वहाँ तक आदि) द्विविध-त्रिविध से (मन, वचन और काया द्वारा त्रिविध से, पाप नहीं किया और नहीं कराया ए द्विविध से) समस्त सावद्ययोगों का त्याग, वह सामायिक कहा जाता है। वर्तमान काल में इस व्रत में दो घड़ी (अड़तालीस मिनट पर्यन्त) द्विविध-त्रिविधे सर्व सावद्ययोगों का त्याग, उसे सामायिक जानना। इस व्रत का स्वीकार करने वाले को हमेशा कम से कम एक सामायिक करना, ऐसा नियम अवश्य लेना चाहिए । अहर्निश नहीं हो सके तो वर्ष में अमुक सामायिक करना, इस तरह भी नियम करना चाहिए। फल-इस व्रत से मुक्ति-मोक्ष सुख की बानगी रूप शान्ति-समता का अनुभव होता है । तथा मोक्षमार्ग के दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप त्रिवेणी संगम की आराधना होती है। संसार में गृहस्थ होते हुए भी मुनि-साधु जैसा जीवन हो जाता है। अनेक प्रकार के पूर्वसंचित पापों का विनाश होता है। (१०) पौषधोपवास (शिक्षावत दूसरा)-पौषध यानी पर्वतिथि/अष्टमी आदि पर्वतिथि में उपवास करना, वह पौषधोपवास है । इसके चार भेद नीचे प्रमाणे हैं (१) आहार, (२) शरीरसत्कार,' (३) अब्रह्म, तथा (४) सावध कर्म । इन चारों का त्याग वह पौषधोपवास वा पौषध व्रत कहा जाता है । यह व्रत केवल दिन-दिवस पूरता, केवल रात्रि पूरता, या केवल दिन-रात्रिपूरता ही लेने में आता है। आहार त्याग, तीन प्रकार का त्याग सर्वथा करने में आता है। त्याग सर्वथा या शक्ति के अभाव में देश से करने में आता है। स्नान करना, तेल चोलना, सुगन्धित पदार्थों का विलेपन करना, केश-वाल अोलना इत्यादिक देह-शरीर की विभूषा करनी, वह शरीर सत्कार है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ४५ यदि चौविहार उपवास करने में आये तो सर्वथा त्याग तथा तिविहार उपवास, प्रायम्बिल इत्यादि करने में आ जाए तो वह देश से त्याग होता है। पौषध ग्रहण करने वाले को अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्वतिथि में पौषध का नियम ग्रहण करना चाहिए । प्रत्येक पर्वतिथि में पौषध नहीं हो सके तो एक वर्ष में अमुक पाँच-दश-वीश पौषध करने का नियम अवश्य करना चाहिए। फल-इस पौषधोपवास व्रत से श्रमण-मुनि-साधु व्रत का अभ्यास होता है व करने की शक्ति पाती है. देह-शरीर पर का ममत्व भाव कम होता है, तथा प्रात्मा में पौषध से शा होती है। (११) उपभोग-परिभोग परिमाण (शिक्षाव्रत तीसरा)- एक ही बार भोगने में आए ऐसी वस्तु का उपयोग वह उपभोग है। जैसे कि, पुण्य वगैरह। या जिस वस्तु का देह-शरीर के अन्दर उपयोग वह उपभोग है। जैसे कि, आहारादिक। बारम्बार भोगने में आए देह-शरीर के बाहर भोग सके ऐसी वस्तु का उपयोग वह उपभोग है। जैसे कि, वस्त्रादिक । अर्थात्-जिसमें उपभोग और परिभोग व्रत का उपयोग करने में आ जाए, वह उपभोग-परिभोग परिमारण व्रत कहने में आता है। यह शब्द का शब्दार्थ है। इसका भावार्थ नीचे प्रमाणे है अतिसावद्य वस्तुओं का त्याग तथा अल्प सावद्य वस्तुप्रों का उपभोग परिमाण से जो करना, वह उपभोग-परिभोग परिमारण है । इस व्रत का नियम दो प्रकार से करने में आता है। एक आहार-भोजन सम्बन्धी तथा दूसरा धंधा-व्यापार सम्बन्धी है। पाहार में-बावीस प्रकार के अभक्ष्य, बत्तीस प्रकार के अनन्तकाय, रात्रिभोजन, चलित रस, तथा सचित्त वस्तुओं का त्याग होना चाहिए। क्योंकि इन वस्तुओं के उपयोग से अतिदोषअति पाप लगता है। इन वस्तुओं का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता हो, तो सकारण जिसका उपयोग करना पड़ता हो, उसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का अवश्य त्याग करना चाहिए। तथा इसके सिवाय अल्पवाली वस्तुओं में भी जिनका उपयोग नहीं करने का हो उनका तो अवश्य ही त्याग करना चाहिए, जिससे निरर्थक पाप-दोष से बच जाते हैं । 'सच्चित्त-दव्व-विगइ०' इन चौदह नियमों को ग्रहण करने से बिना उपयोग की वस्तुओं का त्याग और अमुक वस्तुओं का भी परिमारण सरलता से हो सकता है । इन नियमों के पालन से निरर्थक पापों से बचने के साथ-साथ अभ्यन्तर दृष्टि से कैसा सुन्दर जीवन बनता है, इससे आध्यात्मिक तथा शारीरिक कसे लाभ आदि मिलते हैं, यह तो उक्त नियमों का पालन करने वाला ही समझ सकता है-अनुभव कर सकता है । __व्यापार-धंधे में पन्द्रह प्रकार के कर्मादान का त्याग करना चाहिए। समस्त का त्याग नहीं हो सके तो प्रमुक जो जरूरी नहीं है, उनका तो अवश्य त्याग करना चाहिए। फल-इस उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत से जीवन में सादगी और त्याग पाता है। इस व्रत से आध्यात्मिक दृष्टि से लाभ के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक इत्यादि दृष्टि से भी लाभ होता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१६ (१२) अतिथि संविभाग (शिक्षाव्रत चौथा)-तिथि तथा पर्व इत्यादि व्यवहार का व्यवहार जिन्होंने त्याग दिया है, ऐसे श्रमण-भिक्षु हैं। प्रस्तुत में श्रावक धर्म का अधिकार होने से विशिष्ट रूप में श्रीवीतराग प्रणीत चारित्र धर्म की आराधना करने वाला समझना चाहिए। अतिथि का यानी साधुओं का संविभाग अर्थात् उनको संयम में आवश्यक आहार, पानी तथा वस्त्र, पात्र इत्यादि भक्ति से प्रदान करना। साधु-साध्वियों को न्याय से प्राप्त की हुई वस्तु का दान करना चाहिए, वह भी विधिपूर्वक ; देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और कल्पनीय के उपयोगपूर्वक अवश्य करना चाहिए। (१) देश-इस देश में अमुक वस्तु सुलभ है कि नहीं? इत्यादिक विचार करके दुर्लभ वस्तु अधिक प्रमाण में लेनी इत्यादि । (२) सुकाल है कि दुष्काल है ? इत्यादि विचार करना। दुष्काल हो और अपने को सुलभ हो तो अपने अधिक प्रमाण में वहोराने का लाभ लेना। कौनसे काल में कैसी वस्तु की अधिक आवश्यकता है ? वर्तमान काल में कौनसी वस्तु सुलभ वा दुर्लभ है, इत्यादि विचार करके उसी प्रमाण में वहोराना चाहिए । (३) श्रद्धा-विशुद्ध अध्यवसाय से वस्तु देनी। देना पड़ता है, इसलिए देता हूँ ऐसी बुद्धि नहीं रखनी, किन्तु वस्तु देना यही मेरा कर्तव्य है, उनका अपने पर महान् उपकार है। यही मार्ग-रास्ते जाने का है, उनको देने से अपन भी उसी मार्गे-रास्ते जाने के लिए समर्थ बन सकेंगे, इतना ही नहीं किन्तु अपने अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि विशुद्ध भावना से अपनी आत्मा पवित्र होती है। (४) सत्कार-प्रादर भाव से देना, निमन्त्रण करना, अचानक अपने गृह-घर में पधारें तो खबर पड़ते ही सामने जाना, वहोराने के बाद अल्य-पर्यन्त पीछे जाना, इत्यादि सत्कारपूर्वक दान देना-वहोराना। (५) क्रम-कल्पनीय सर्वोत्तम-श्रेष्ठ वस्तु पहले देनी, पीछे सामान्य वस्तु देनी अथवा दुर्लभ वस्तु के लिए जरूरी प्रथम निमन्त्रण करना। पीछे अन्य-दूसरी वस्तुओं का निमन्त्रण करना। या जिस देश में जो क्रम होता है उस क्रमपूर्वक वहोराने का लाभ लेना। (६) कल्पनीय-आधाकर्म इत्यादि दोषों से रहित तथा उपकार इत्यादि गुणों से युक्त वस्तु कल्पनीय है। वर्तमान काल में चौविहार या तिविहार उपवास से दिवस का पौषध करके, दूसरे दिन एकासणा करना। श्रमण-मुनि जो वस्तु वहोरे वह वस्तु वापरनी, वह 'अतिथिसंविभाग व्रत' कहने में आता है। इस प्रकार का नियम लेना। वर्ष में दो तीन-चार यों जितने दिन अतिथि संविभाग व्रत करना हो, उतने दिन की संख्या नक्की कर लेनी चाहिए । फल-इस व्रत के सेवन से दानधर्म की आराधना होती है। श्रमण-श्रमणी (साधु-साध्वी) के प्रति प्रम-बहुमान तथा भक्ति में अभिवृद्धि होती है। साधु-साध्वियों को दान देकर के चारित्रसंयम की अनुमोदना द्वारा संयम धर्म का फल पाता है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१७ ] सप्तमोऽध्यायः * उक्त सात व्रतों के गुणव्रत और शिक्षाव्रत इस प्रकार दो विभाग हैं दिविरति, उपभोग-परिभोग परिमारण व्रत और अनर्थदंड विरमण ये तीन गुणवत हैं । क्योंकि ये पांच अणुव्रतों में गुण-लाभ करते हैं। इन तीन गुणवतों से पाँच अणुव्रतों का परिपालन सरल बनता है। देशविरति, सामायिक, पौषधोपवास तथा अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। इनका पालन करने से चारित्र-संयमधर्म की शिक्षा यानी अभ्यास होता है। * यहां पर उक्त सात व्रतों का जो क्रम है, उससे आगमसूत्र में भिन्न-पृथग् क्रम आता है। ___ जैसे-आगम में दिग्विरति, उपभोग-परिभोग परिमाण, अनर्थदंड विरति, सामायिक, देशविरति (-देशावगासिक), पौषधोपवास तथा अतिथि संविभाग यह क्रम' बताया है । देशविरति, उपभोग-परिभोग परिमाण और पौषधोपवास इन तीनों के लिए पागम ग्रन्थों में क्रमश: देशावगासिक. भोगोपभोग परिमारण तथा पौषधोपवास' नाम हैं।। ७-१६ ।। * संलेखनायाः विधानम् के ॐ मूलसूत्रम्मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता ॥ ७-१७॥ * सुबोधिका टीका * मूलवतोत्तरव्रतमेव सल्लेखनाव्रतम् । कालसंहननदौर्बल्योपसर्गदोषाद् धर्मावश्यकपरिहारिण वाभितो ज्ञात्वावमौदर्य-चतुर्थषष्ठाष्टमभक्तादिभिः प्रात्मानं संलिख्य संयम प्रतिपद्योत्तमव्रतसम्पन्नश्चतुर्विधाहारं प्रत्याख्याय यावज्जीवं भावनानुप्रेक्षापर: स्मृतिसमाधिबहुलो मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता उत्तमार्थस्याराधको भवतीति । १ पहले तीन गुणवत आते हैं, बाद में चार शिक्षाव्रत। इस दृष्टि से पागम ग्रन्थ में यह क्रम रखने में पाया हो, ऐसा लगता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में दिग्विरति के बाद देशविरति (देशावगासिक) व्रत का ग्रहण क्यों किया? इस सम्बन्ध में लगता है कि-पागमसूत्र ग्रन्थों में देशावगासिक व्रत में दिविरति व्रत के उपलक्षण से समस्त व्रतों का संक्षेप कथन करने का विधान है। अतः यह व्रत दिविरति के संक्षेप रूप होने से दिविरति के बाद उसका क्रम आ जाय यह उचित समझा होगा, इस दृष्टि से दिविरति के पश्चात् देशविरति यानी देशावगासिक व्रत का क्रम रखा हो। २ देश में-दिगविरति में रखे हुए दिशा के प्रमाण से कम देश में अवकाश में रहना, वह देशावकाश है दिग्विरति में रखे हुए दिशा के प्रमाण का संक्षेप करने में आवे वह देशावगासिक है। एक वस्तु एक बार ही भोग सके वह मोग तथा बारंबार मोग सके वह उपभोग है। जिसमें भोग तथा उपभोग दोनों का परिमाण करने में माता है, इसलिए वह मोगोपभोग परिमारण कहा जाता है। जो धर्म की पुष्टि करता है, वह पौषष है। देशावगासिक प्रादि तीन का शब्दार्थ सामान्य है। भावार्थ तो पूर्व के अनुसार ही है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१७ संलेखनाव्रते समाधेः प्रधानता। अतः अस्य नाम समाधिमरणमेव । व्रतोऽयं सम्पूर्णव्रतानां फलस्वरूपं भवति । प्रतः पाराधनीयम् । सूत्रकारेणास्य कृते जोषिता शब्दस्य प्रयोगः कृतः। अर्थात् अयं व्रतः प्रीतिपूर्वकं सेवनीयम् । मरणकाले दुष्काले वा कालदोषेन शरीस्वीयं क्षीणं भवति तदा आत्मनः संल्लेखनं कृत्वा सविधि समाधिपूर्वकं वा श्रीअरिहन्तादिपञ्चपरमेष्ठिगुणान् स्मृत्वा प्राणान् त्यजेत् । इदमेव समाधिमरणं भवति । अत्र पृथक्त्वेन निर्देशानाक्षयं यदस्य वैशिष्टयौं प्रकाशितं भवेत् । तथा च समाधिमरणं अगारीश्रावकाः एव नैव कुर्वन्ति अपि तु अनगारिणः अपि कुर्वन्तीति ।। ७-१७ ।। * सूत्रार्थ-श्रावक मारणान्तिकी संलेखना करने वाला होता है ।। ७-१७ ।। ॐ विवेचनामृत 5 व्रती (गृहस्थ या साधु) मरण के अन्त में संलेखना करते हैं। संलेखना यानी देह-शरीर और कषायों को कृश करने वाला तपविशेष । कषायों का अन्त करने के लिए देह-शरीर के पौष्टिक कारणों को दूर करता हुआ केवल उसके निर्वाह हेतु अल्पोदन (अल्पाहार) या काल, संगठन की दुर्बलता तथा उपसर्गादिक दोष जानकर अल्प आहार या चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम भक्त इत्यादि द्वारा आत्मा को नियम में लेकर के संयम में प्राप्त हो तथा उत्तम व्रत सम्पन्न हो, उसको 'संलेखना व्रत' कहते हैं। यह व्रत देह-शरीर के अन्त समय तक ग्रहण करने योग्य होने से इसको मारणान्तिकी संलेखना भी कहते हैं। प्रशन-पान-खादिम-स्वादिम रूप चारों आहारों को त्याग कर जीवनपर्यन्त भावना तथा अनुप्रेक्षा में तत्पर ऐसे संलेखना सेवी उत्तम अर्थ के आराधक होते हैं। इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-दुष्काल, देह-शरीर निर्बलता, रोग तथा उपसर्ग प्रादि के कारण सद्धर्म का पालन नहीं हो सके तो, अथवा मृत्यु-मरण नजदीक हो तो, तब व्रती को ऊनोदरी, उपवास, छठ तथा अट्ठम आदि तप द्वारा काया और कषायों को कृश करके (गृहस्थ श्रावक हो तो पंच महाव्रतों को स्वीकार करने पूर्वक) जीवन-पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग अवश्य करना चाहिए। इस तरह जीवन के अन्तिम समय तक मन में मैत्री इत्यादि अनित्यादिक भावनाएँ भानी चाहिए। स्वीकारे हए व्रतों का स्मरण करना चाहिए। प्रार्तध्यान तथा रौद्रध्यान का त्याग करके अपने मन को स्वस्थ-समाधियुक्त रखना चाहिए। इस तरह करने से व्रती अन्तिम समय में अति सुन्दर ऐसे मोक्ष की आराधना कर लेते हैं। * प्रश्न संलेखनाव्रती अनशनादि द्वारा शरीर का अन्त करता है, इसलिए वह आत्मघात हुआ है, यह स्वहिंसा है इसलिए इसे त्यागधर्म (व्रत) कैसे कह सकते हैं ? Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१८ ] सप्तमोऽध्यायः । [ ४६ उत्तर-केवलमात्र बाह्य दृष्टि से दु:ख या प्राणों का विनाश रूप हिंसा, हिंसा की कोटि में नहीं आती है। हिंसा का वास्तविक स्वरूप राग, द्वेष और मोह की वृत्ति पर अवलम्बित है। संलेखना व्रत में प्राणों का विनाश है, तो भी वह राग-द्वेष तथा मोहजनित नहीं होने से हिंसा की कोटि में सम्मिलित नहीं होता, किन्तु उस संलेखनाव्रत का जन्म निर्मोह तथा वीतराग भाव की भावना से है। और व्रत की पूर्णता भी उक्त भावना की सिद्धि के लिए यत्न से होती है। इसलिए वह शुभ या शुद्ध ध्यान की श्रेणी में सम्मिलित होती है। * प्रश्न-कमलपूजा, भैरव जप, जलसमाधि इत्यादि अनेक प्रकार से होने वाली हिंसा ___को धर्म-धर्मरूप मानने वालों की प्रथा में तथा संलेखना की प्रथा में क्या अन्तर भिन्नता है ? उत्तर–प्राणों के विनाश की स्थूल दृष्टि से तो दोनों समान हैं, किन्तु भावना की तरफ दृष्टिपात करने से तारतम्य भाव स्पष्टरूप से प्रगट हो जाता है। कहाँ आत्म-संशोधन की भावना और कहाँ भौतिक आशाओं के कारण या अन्य किसी प्रकार के प्रलोभन के आवेश से की हुई क्रियावृत्ति ? तत्त्वज्ञान की दृष्टि से दोनों उपासकों की भावनाएं पृथक्-भिन्न रूप होने से वह हिंसा तुलनात्मक नहीं हो सकती। जैन उपासना का ध्येय तात्त्विक दृष्टि से केवल आत्मशोधन ही है। किन्तु परार्पण या पर-प्रसन्नता की भोर किंचित् मात्र भी उनका दृष्टिपात नहीं है। किसी भी प्रकार का दुर्ध्यान उपस्थित नहीं हो, इस प्रकार की अवस्था में ही यह व्रत विधेयरूप अर्थात् ग्राह्यरूप माना गया है ।। ७-१७ ।। * सम्यग्दर्शनस्यातिचाराः ॐ 卐 मूलसूत्रम्शङ्का-काङ्क्षा-विचिकित्सा-ऽन्यदृष्टिप्रशंसा-संस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥ ७-१८ ॥ * सुबोधिका टोका * अतिचारो व्यतिक्रमः स्खलनमित्यनर्थान्तरम् । शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवः इत्येते पञ्च सम्यग्दृष्टेरतीचाराः भवन्ति । अधिगतजीवाजीवादितत्त्वस्यापि भगवतः शासनं भावतोऽभिप्रपन्नस्यासंहार्यमतेः सम्यग्दृष्टेरहत्प्रोक्त षु अत्यन्त-सूक्ष्मेषु प्रतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्य षु यः सन्देहो भवति एवं स्यादेवं न स्यादिति निरन्तरमनसि शङ्का जायते सा शङ्का । ऐहलौकिकेषु पारलौकिकेषु विषयेषु माशंसा काङ्क्षा कथ्यते । सोऽतिचारः सम्यग्दृष्टेः कुतः ? काङ्कितो ह्यविचारितगुणदोषः समयमतिक्रामति । विचिकित्सा नाम इदमपि अस्ति इदमपि प्रस्ति मतिसंशयः वा मतिविप्लवनम् । अन्यदृष्टिरित्यहच्छासनव्यतिरिक्तां दृष्टिमाह । सा द्विविधा। एका अभिगृहीता अन्याऽन्यभिगृहीता च । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१८ तद्युक्तानां क्रियावादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकानां च प्रशंसासंस्तवौ सम्यग्दृष्टेरतिचार इति । प्रवाह-प्रशंसा-संस्तवयोः कः प्रति विशेष इति । अत्रोच्यते-ज्ञानदर्शनगुणप्रकर्षोद्भावनं भावतः प्रशंसा संस्तवस्तु सोपधं निरुपधं भूताभूतगुणवचनम् । दिगम्बरसम्प्रदाये तु विचिकित्सायाऽर्थः ग्लानिः । साधूनां धूलिमलीमसं बाह्य शरीरं दृष्ट्वा रोगादियुक्त वा दृष्ट्वा तेषां पात्मिकगुणेषु अपि ग्लानिः विचिकित्सानामकः अतिचारः । अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिर्व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः देशस्य भंगोह्यतिचार उक्तः, भङ्गो ह्यनाचार इह व्रतानाम् ॥ ७-१८ ॥ * सूत्रार्थ-शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा तथा अन्यदृष्टि संस्तव ये पांच सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं ।। ७-१८ ।। ॐ विवेचनामृत उक्त व्रतों को स्वीकार करने के बाद, उसमें दूषण अर्थात् अतिचार नहीं लगे उसकी सावधानी रखनी चाहिए। इसलिए कौनसे-कौनसे अतिचार लगने सम्भव हैं ? यह साधक को अवश्य जानना चाहिए। इस हेतु से अब ग्रन्थकार स्वयं सम्यग्दर्शन में, बारह व्रतों में तथा संलेखना में सम्भवित मुख्य-मुख्य अतिचारों का संक्षिप्त वर्णन प्रारम्भ करते हैं ___ सम्यग्दृष्टि के पांच अतिचार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा और अन्यदृष्टि की संस्तवना। अतिचार के अर्थ-स्वीकार किये हुए व्रतों-गुणों में मलिनता उत्पन्न हो या धीरे-धीरे वे ह्रास अवस्था को प्राप्त हों, ऐसे दोषों को 'अतिचार' कहते हैं । अतिचार, स्खलना, दूषण इत्यादि शब्दों का एक अर्थ है जिससे व्रतों में दूषण लगे, वह अतिचार है। चारित्र का मुख्य आधार 'सम्यक्त्व' है। इसकी विशुद्धता पर चारित्र की शुद्धि अवलम्बित है। इसलिए सम्यक्त्व-समकित की शुद्धि में जिससे बाधा पहुंचती हो या सम्भव हो ऐसे अतिचार (दोष) मुख्यतया पाँच बताए हैं (१) शङ्का-सम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा श्रीपरिहन्त-तीर्थंकर भगवन्त कथित अतिसूक्ष्म, प्रतीन्द्रिय तथा केवलज्ञान या प्रागमप्रमाण से ग्राह्य पदार्थों अतिचार कहते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१८ ] सप्तमोऽध्यायः [ ५१ श्रोजेनसिद्धान्त-पागमशास्त्रों में शंका-संशय और तत्पूर्वक परीक्षा, इसके लिए पूर्णतया स्थान है तो भो यहाँ शंका-संशय को अतिचार कहा है। जिसका कारण यह है कि तर्कवाद की कसौटो पर कसने योग्य पदार्थों को तर्क को दृष्टि से यत्न नहीं करने से, वह श्रद्धागम्य वस्तुओं को यथार्थ बुद्धिगम्य नहीं कर सकता तथा यथार्थ बुद्धिगम्य किये बिना किसी भी समय वह विकार भाव को प्राप्त हो जाए, ऐसा जो शंका दोष वह प्रतिचार रूप से त्याज्य है। अर्थात अपनी मतिमन्दता से श्रीजैनसिद्धान्त-पागमोक्त पदार्थों को नहीं समझ सकने से अमूक वस्तु अमुक स्वरूप से होगी कि नहीं ? इत्यादि शंका रखनी या संशय रखना। इस शंका के दो भेद हैं -एक सर्व शंका और दूसरी देश शंका। उसमें १. सर्व शंका-मूल वस्तु को ही शंका वह सर्व शंका है जैसे-धर्म होगा कि नहीं ?, सर्वज्ञ होगा कि नहीं ?, तथा जोव-यात्मा होगा कि नहीं? एवं जिनधर्म भी सच्चा-सत्य होगा कि नहीं ? इत्यादि। २. देशशंका-उसमें मूल वस्तु की शंका नहीं हो, किन्तु वस्तु-पदार्थ अमुक रूप में होगा कि नहीं? इस तरह वस्तु-पदार्थ के देश को शंका वह देश शंका है। जैसे -जीव-आत्मा तो है, किन्तु वह देह-शरीर प्रमाण होगा कि नहीं ? वह देह-शरीर प्रमाण है कि लोकव्यापी है ?, पृथ्वोकायादिक जीव होंगे कि नहीं ?, तथा निगोद-अनन्त जीव भी होंगे कि नहीं?, एवं आत्मा के असंख्य प्रदेश होंगे कि नहीं? इत्यादि । (२) कांक्षा-कांक्षा यानी इच्छा। ऐहिक तथा पारलौकिक विषयों की अभिलाषा को कांक्षा कहते हैं। साधक अभिलाषी होने से गुण-दोषों का विचार नहीं कर सकता है। इसलिए वह अपने सिद्धान्त-विचार पर भी अवस्थित नहीं रह सकता, इसलिए कांक्षा प्रतिचार दोष रूप है। ___ इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप में कहा है कि- इस लोक के या परलोक के सुख की इच्छा रखनी। भव-संसार का समस्त सुख, दु:ख रूप होने से सर्वज्ञ विभु श्री जिनेश्वर भगवन्तों द्वारा हेय यानी त्याग रूप कहा है। इसलिए धर्म भी केवल मोक्ष को उद्देश्य करके ही करने की अनुमतिआज्ञा है। इस धर्म के फलरूप में इस लोक के अथवा परलोक के सुख की इच्छा रखने वाला व्यक्ति देवाधिदेव सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करता है। अनमतिप्राज्ञा का उल्लंघन सम्यक्त्व-समकित को मलिन-दुषित बनाता है। इहलोक के, परलोक के सुख के लिए धर्म करना-धर्म की आराधना करना यह अतिचार है। अथवा देवाधिदेव सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वर भगवंत भाषित धर्म-दर्शन के सिवाय अन्य धर्म-दर्शन की इच्छा वह कांक्षा है। उसके सर्वकांक्षा और देशकांक्षा ऐसे दो भेद हैं। विश्व में सर्वदर्शन समान हैं, समस्त दर्शन मोक्षमार्ग दिखाते-बताते हैं, सभी दर्शन अच्छे हैं। इस तरह समस्त दर्शनों की इच्छा वह सर्वकांक्षा है । किसी एक या किन्हीं दो-तीन दर्शन की इच्छा रखनी, वह देशकांक्षा है। जैसे कि न श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें कष्ट सहन किये बिना धर्म करने का उपदेश दिया है, तथा स्नानादिक की भी छूट दी है....इत्यादि । कांक्षा से श्रोवोतराग प्रणोत दर्शन में अविश्वास-प्रश्रद्धा पैदा होना सम्भव है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] श्रीतस्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१८ (३) विचिकित्सा - विचिकित्सा यानी सन्देह संशय । जहाँ मतिभेद या विचारभेद का प्रसंग उपस्थित हो, वहाँ पर स्वमति से निर्णय किये बिना ही समस्त के वचनों को यथार्थ - वास्तविक रूप से मान लेना । जैसे- श्रमरण भगवान महावीर ने कहा वह भी ठीक है, और कपिलादिक का कथन भी ठीक है । इस प्रकार की मंदबुद्धि को विचिकित्सा प्रतिचार कहते हैं । सारांश यह है कि-धर्म के फल का सन्देह - संशय रखना । मेरी की हुई तपादिक साधना का फल मुझे मिलेगा कि नहीं ? जैसे लोक में खेती आदि की हुई क्रियायें अनेक बार सफल होती हैं और अनेक बार सफल नहीं भी होती हैं, वैसे इस जैन धर्म के पालन से ( दानादिक के सेवन से ) इसका फल मुझे मिलेगा कि नहीं ? इस तरह सन्देह - संशय रखना । * शंका और विचिकित्सा में भिन्नता - शंका तथा विचिकित्सा इन दोनों में शंका तो है, परन्तु शंका का विषय भिन्न-भिन्न है । शंका अतिचार में शंका का विषय-पदार्थों का धर्म है, परन्तु विचिकित्सा प्रतिचार में शंका का विषय धर्म का फल है । अर्थात् - शंका रूप अतिचार में पदार्थ की तथा धर्म की शंका होती है, और विचिकित्सा में धर्म के फल की शंका होती है । अथवा विचिकित्सा यानी जुगुप्सा । श्रमरणश्रमणी के यानी साधु-साध्वी के मलिन शरीर तथा मलिन वस्त्रादिक को देखकर दुगंछा करमी, कि ये लोग जल-पानी से स्नान भी नहीं करते हैं । सचित्त जल- पानी में भले दोष लगता हो, किन्तु अचित्त जल - पानी से स्नान करे तथा वस्त्रप्रक्षालन भी करे तो क्या बाधा आती है ? इस तरह साधु-साध्वी की निन्दा करनी वह विचिकित्सा प्रतिचार है । (४) अन्यदृष्टि प्रशंसा - सर्वज्ञविभु श्रीजिनेश्वर तीर्थंकर भगवन्त भाषित दर्शन को छोड़कर अन्य बौद्ध आदि दर्शन की प्रशंसा करनी। जैसे कि वे पुण्यवान हैं। उनका जन्म सफल है, तथा उनका धर्म श्रेष्ठ है । उनमें दाक्षिण्यादिक गुण रहे हुए हैं । इत्यादि रूप में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रशंसा करनी । इस प्रकार की प्रशंसा से अपरिपक्व बुद्धिवाले जीव उनके गुणों से आकर्षित होकर प्राप्त किये हुए सम्यग्दर्शन- सम्यक्त्व - समकित गुण को खो दे यह सम्भवित है । इसे अन्यदृष्टि की प्रशंसा प्रतिचार कहते हैं । (५) श्रन्यदृष्टि संस्तवः - संस्तव यानी परिचय । अन्यदर्शनवाले लोकों के साथ रहना, परिचय रखना । उनके साथ प्रतिपरिचय रखने से उनके दर्शन की क्रियाओं व सिद्धान्तों को जसे सुनने से सम्यक्त्व - समकित से पतित होने की सम्भवता है' । अर्थात् जिसकी दृष्टि यथार्थ नहीं हो, उसकी प्रशंसा या स्तवना करनी सम्यकदृष्टि के लिए प्रतिचार रूप है । क्योंकि १. जिसकी बुद्धि अपरिपक्व हो, ऐसे लोग अन्य के परिचय से भ्रमित हो जाँय यह स्वाभाविक-सहज है । इससे तो स्वदर्शन में – जैनदर्शन में रहे हुए पासथ्था आदि कुसाधुनों के साथ भी एक रात्रि भी रहने का निषेध है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ५३ ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा से अविवेकी साधक किसी भी समय अपने सिद्धान्तों से स्खलित हो सकता है। इसलिए अन्यदृष्टि प्रशंसा, स्तवना अतिचार रूप है। तथा विवेकपूर्वक गुणदोषों को समझने वाले साधक के लिए वह एकान्त रूप से हानिकारक नही है । ये पाँचों अतिचार श्रावक और साधु के लिए सामान्य रूप से हैं ।। ७-१८ ।। * द्वादशवतेषु प्रत्येकव्रतस्य अतिचाराणां संख्या * ॐ मूलसूत्रम्व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। ७-१६ * सुबोधिका टीका * अहिंसादि पञ्चसु व्रतेषु दिग्व्रतेषु सप्त-सुशीलेषु पञ्चातिचाराः भवन्ति । यथाक्रममिति ऊध्वं यद् वक्ष्यामः ।। ७-१६ ।। * सूत्रार्थ-अहिंसादि पाँच अणुव्रत तथा दिग्वतादि सात शीलव्रतों के भी इसी प्रकार पाँच-पाँच प्रतिचार हैं। अर्थात्-व्रत (अहिंसादि पाँच) शील (दिगादिक सातों) में यथाक्रम पाँच-पाँच प्रतिचार होते हैं ।। ७-१६ ॐ विवेचनामृत ॥ जो नियम श्रद्धा और समझपूर्वक ग्रहण किए जाते हैं, उन्हीं को व्रत कहते हैं। व्रत शब्द से ही श्रावक के बारह व्रतों का समावेश हो जाता है, तो भी प्रस्तुत सूत्र में व्रत तथा शील दो शब्दों का प्रयोग किया गया है। जिसका कारण यह है कि, चारित्र धर्म के मुख्य रूप में नियम अहिंसादि पांच व्रत हैं। ये व्रत कहलाते हैं। तथा इनकी पुष्टि के लिए शेष दिगादि सात व्रत हैं, उन्हें शील कहते हैं, ये संज्ञा के सूचक हैं। इनके पांच-पांच अतिचार कहे गए हैं। ये मध्यम दृष्टि से सापेक्ष हैं। उनका जघन्योत्कृष्ट रूप से वर्णन किया जाए तो उसकी व्याख्या न्यूनाधिक संख्या रूप भी बता सकते हैं। राग-द्वेष रूप विकृति-विकार के अभाव तथा समभाव-सदभाव के आविर्भाव को चारित्र कहते हैं। चारित्र का मूलस्वरूप सिद्ध करने के लिए अहिंसादिक जो-जो नियम व्यावहारिक जीवन. देश, काल इत्यादि परिस्थितियों में मनुष्य बुद्धि के संस्कारानुसार न्यूनाधिक रूप होने से चारित्रस्वरूप एक होने पर भी उसके नियम का तारतम्यभाव अनिवार्य है। इसलिए श्रावक के भी अनेक भेद होते हैं, तो भी शास्त्रकार महर्षि तेरह विभागों की कल्पना करते हुए उनके अतिचारों का कथन करते हैं। पांच अणुव्रत तथा सात शील (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) में प्रत्येक के पांच-पांच अतिचार क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं ।। ७-१६ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ॥२० * प्रथम-अहिंसावतस्य पंचातिचाराः * 卐 मूलसूत्रम्बन्ध-वध-विच्छेदा-ऽतिभारारोपणा-ऽन्नपाननिरोधाः ॥ ७-२० ॥ * सुबोधिका टीका * अभिमतस्थानेषु यस्य निमित्तेन यत्र गमनं न शक्यते तत्र बन्धः जायते। त्रसस्थावराणां जीवानां बन्धवधौ त्वक् छेदः काष्ठादीनां पुरुष-हस्त्यश्वगोमहिषादीनां चातिभारारोपणं तेषामेव चान्नपाननिरोधः अहिंसाव्रतस्यातिचारा भवन्ति । एते पञ्चाहिंसाणुव्रतस्यातिचाराः कथिताः। अस्य कारणं विधीयमानानां एतेषामहिंसाणुव्रतस्य भंग: सर्वथा नैव भवति । क्रोधादि-कषायवशीभूतोऽपि कुर्वाणोऽपि एतानि कार्याणि व्रतरक्षां प्रति सावधानो भवति । तथान्तरङ्ग-बाह्यक्रियासु अपि सावधानो भवति ।। ७-२० ॥ * सूत्रार्थ-त्रस और स्थावर जीवों का बन्ध तथा वध करना। त्वचादि का छेदन, प्रतिभार लादना एवं अन्न-पान का निरोध कर देना। ये अहिंसा व्रत के पाँच अतिचार हैं ।। ७-२० ॥ + विवेचनामृत ॥ (१) त्रस-स्थावर जीवों का वध या (२) बन्धन, (३) काष्ठादि से छेदन, (४) अथवा जीवों पर अतिभार लादना (५) एवं उनके आहार-पानी का निषेध करना। ये पांच अतिचार अहिंसाव्रत के हैं। अर्थात्-बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभारारोपण और अन्न-पान निरोध, ये पाँच अहिंसा (स्थूलप्राणातिपात विरमण) व्रत के अतिचार हैं । प्रथम अहिंसा व्रत के उक्त पाँच अतिचारों का क्रमशः संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है (१) बन्ध-क्रोधपूर्वक बैल प्रादि पशुओं को तथा अविनीत निज पुत्रादिक को अत्यन्त मजबूती से बांधना वह बन्ध है। इसलिए श्रावक-श्राविकानों को निष्कारण किसी भी प्राणी को बन्धन से बाँधना नहीं चाहिए । कदाचित् कारणवशात् पशुओं को या अविनीत स्वपुत्रादि को रज्जु आदि बन्धन से बांधने की जरूरत हो तो भी निर्दयता से प्रतिमजबूत तो नहीं हो बाँधना चाहिए । (२) वध-वध यानी मार। श्रावक-श्राविकानों को निष्कारण किसी को भी मारना नहीं चाहिए। श्रावक-श्राविकाओं को भीतपषद् बनना। जिससे अपना डाब रहने से कोई Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.२० ] सप्तमोऽध्यायः [ ५५ ना पाहिए। कदाचित अन्य उपाय अविनयादिक गुनाह भूल करे नहीं। जो कोई अविनयादि गुनाह-भूल करे या पशु आदि योग्य रीत्या नहीं वर्ते और इस कारण से मारने की जरूरियात लगे तो भी गुस्सा करके क्रोध करके निर्दयतापूर्वक नहीं मारना चाहिए । कदाचित् बाहर से गुस्सा बताना भी पड़े- क्रोध करना भी पड़े तो भी अन्तःकरण हृदय में तो क्षमा ही धारण करनी चाहिए । यह वध है । (३) छविच्छेद - छवि यानी चमड़ी-चामड़ी। इसका छेदन करना यह छविछेद है। निष्कारण किसी भी प्राणी की चमड़ी-चामड़ी का छेद नहीं करना चाहिए । कदाचित् चोर इत्यादि की चमड़ी-चामड़ी के छेद करने की आवश्यकता लगे तो केवल भय बतलाने के पूरता ही करनी चाहिए। कारण कि, जो निर्दयतापूर्वक छविछेद करने में आ जाए तो वह 'छविछेद अतिचार' कहलाता है। (४) प्रतिभारारोपण-बैल या मजदूर आदि पर शक्ति उपरान्त भार-बोझा लादना । यद्यपि श्रावक को गाड़ी चलाना आदि धन्धा-व्यापार नहीं करना चाहिए। कदाचित के अभाव में ऐसा धन्धा-व्यापार करना पड़े तो भी बैल आदि जितना भार-बोझा खशी-पानन्द से वहन कर सके उससे भी कुछ कम लादना चाहिए। तथा मजदूर इत्यादि से भार उठवाने का प्रसंग आ जाए तो भी मजदूर जितना भार-बोझा उठा सके तथा नीचे उतार सके, मूक सके उतना ही देना चाहिए। यह अतिभारारोपण अतिचार कहा जाता है। (५) अन्न-पान निरोध-अन्न-पान अर्थात् भोजन-पानी समयसर नहीं देना। बैल इत्यादि को, गृह-घर के सदस्यों को तथा नौकर-मजदूर आदि को समयसर भोजन-पानी मिले इस तरह उनकी चिन्ता अवश्य रखनी चाहिए। अविनीत ऐसे पुत्रादि को शिक्षा देने के लिए अन्न-पान का अर्थात् भोजन-पानी का निरोध करना पडे तो भी मर्यादा में करना चाहिए। * प्रश्न-व्रती-व्रतधारी श्रावक ने मात्र प्राणवियोगरूप हिंसा का नियम किया है, बन्ध आदि का नियम नहीं किया है, तो फिर बन्ध आदि से दोष क्यों लगता है ? कारण कि, इसमें उसके नियम का भंग नहीं होता है। अब जो कहने में प्राता है कि, प्राणवियोग के नियम के साथ बन्ध आदि का भी नियम आ जाता है, तो बन्ध आदि से नियम का सर्वथा भंग होता है। तो फिर वह बन्ध आदि अतिचार कैसे गिना जाता है ? अतिचार नियम का अांशिक भंग है. सर्वथा नहीं? उत्तर-यद्यपि प्रागवियोगरूप हिंसा का ही प्रत्याख्यान यानी पच्चक्खारण किया है, बन्ध प्रादि का नहीं, तो भी परमार्थ से प्रत्याख्यान के साथ बन्ध आदि का प्रत्याख्यान-पच्चक्खाण भी हो जाता है। कारण कि, बन्ध आदि हिंसा के कारण हैं। बिना नियम के साथ कारण का नियम भी पा जाता है। जैसे किसी ने 'पावाज नहीं करना' ऐसा कहा, तो फिर जिन-जिन कारणों से आवाज होती है, उन-उन कारणों का भी निषध हो जाता है। उसी प्रकार यहां पर भी हिंसा के प्रत्याख्यान-पच्चक्खारण से सभी ऐसे कारणों का प्रत्याख्यान-पच्चक्खाण भी हो जाता है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७२१ अब यह बात रही कि बन्ध प्रादि के सेवन से नियम का सर्वथा भंग होता है, तो फिर बन्ध आदि प्रतिचार कैसे लगता है ? उसका समाधान नीचे प्रमाणे है व्रत दो प्रकार के होते हैं । (१) अन्तःकरणवृत्ति से और (२) बाह्यवृत्ति से । हृदयमें व्रत के परिणाम अन्तःवृत्ति से व्रत है । तथा बाह्य से प्राणवियोग आदि का प्रभाव बाह्यवृत्ति से व्रत है। जब क्रुद्ध होकर निर्दयता से बन्ध आदि करने में आता है, तब बाह्य से तो प्राणवियोग का अभाव है। अर्थात् बाह्यवृत्ति से तो अहिंसावत का भंग नहीं हुआ है, किन्तु हृदय में अहिंसा का दया का परिणाम नहीं होने से अन्तःवृत्ति से भंग हुआ है। __ आम आंशिक व्रत का पालन है, तथा प्रांशिक व्रतभंग है। इसलिए गुस्से से निर्दयतापूर्वक करने में आए हुए बन्ध इत्यादि अतिचार हैं। इसी तरह अन्य व्रतों के अतिचारों में भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए ।। ७-२० ।। * द्वितीयसत्याणुव्रतस्य पञ्चातिचाराः * + मूलसूत्रम्मिथ्योपदेश-रहस्याभ्याख्यान-कूटलेखक्रिया-न्यासापहारसाकार मन्त्रभेदाः ॥ ७-२१ ॥ * सुबोधिका टोका * सूत्रेस्मिन् निर्देशिताः मिथ्योपदेशादिपञ्च सत्याणुव्रतस्यातिचाराः। तत्र मिथ्योपदेशो नाम प्रमत्तवचनमय यथार्थवचनोपदेशो विवादेष्वतिसंधानोपदेश इत्येवम् । रहस्याभ्याख्यानं नाम स्त्री-पुसयोः, परस्परेणान्यस्य वा रागसंयुक्त हास्यक्रीड़ासङ्गादिभिः रहस्येनाभिशंसनम् । कूटलेखक्रिया लोकप्रतीता। न्यासापहारो विस्मरणकृत परनिक्षेपग्रहणम् । साकारमन्त्रभेदः पैशुन्यं गुह्यमन्त्रभेदश्च । अन्तरङ्ग दर्शनमोहस्योदये सति चेत्-अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरणादि कषायेभ्यः कस्यापि उदये जाते तत् पूर्वक यदि प्रमत्तादि वचनानि भविष्यन्ति तदैवातिचारः कथ्यते ।। ७-२१ ॥ * सूत्रार्थ-मिथ्योपदेश, रहस्याभ्याख्यान, कूटलेख लिखना, न्यासापहार, साकारमन्त्रभेद-चुगलीखाना, इत्यादि सत्य अणुव्रत के प्रतिचार हैं ।। ७-२१ ॥ ॐ विवेचनामृत) मिथ्या उपदेश, रहस्य अभ्याख्यान (गुप्त बात प्रगट करना), कूटलेखक्रिया, न्यासापहार, "धरोहरवस्तु का अपहार" और साकारमन्त्रभेद ये पांच सत्य व्रत के अतिचार कहे जाते हैं। इन पांच अतिचारों का संक्षिप्त वर्णन पागे प्रमाणे है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२१ ] सप्तमोऽध्यायः [ ५७ (१) मिथ्याउपदेश-सच-झूठ बात के कुरास्ते-कुमार्ग पर चलना। परपीड़ाकारी वचन, असत्य उपदेश, अतिसंघान उपदेश इत्यादि मिथ्या उपदेश हैं। चोरी करने वाले चोर को मार डालो, तथा बन्दरों को पूर दो इत्यादि परपीड़ाकारी वचन हैं। असत्य-झूठी सलाह देकर विपरीत मार्ग पर चलाना यह असत्य-झूठा उपदेश है। विवाद में अन्य दूसरे को छतरने का उपाय बताना। यह प्रतिसंधान उपदेश है। यहाँ परपीड़ाकारी वचन में अन्य-दूसरे को दुःख नहीं देना। इससे अहिंसा का पालन नहीं होता है। अन्य-दूसरे समस्त व्रत अहिंसा के पालन के लिए हैं। इस परपीड़ाकारी वचन से बाह्य में व्रतभंग नहीं होते हुए भी प्रान्तरदृष्टि से व्रतभंग है । जिस विषय में अपने को वास्तविक अनुभव नहीं हो, उस विषय में सलाह देवे और अन्य व्यक्ति विपरीत मार्ग पर चले। उसमें अपनी दृष्टि से असत्य-झूठ नहीं होते हुए भी अनुभवी की दृष्टि में असत्य-झूठ ही है। इसलिए बाह्य से सत्य है, तथा तात्त्विकदृष्टि से असत्य है। इस तरह अतिसंधान में भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए। (२) रहस्य-अभ्याख्यान-रहस्य यानी एकान्त में बनेल, अभ्याख्यान यानी कहना। जैसे-परस्पर विरुद्ध राज्यों, मित्र-मित्र तथा पति-पत्नी इत्यादि की एकान्त में हुई क्रिया या बात आदि को हास्यादिपूर्वक बाहर प्रकट करनी। अर्थात् गुप्त वृत्तान्त-हकीकत बाहर आने से पति को दुःख उत्पन्न हो, क्लेश-कंकास हो, यावत परस्पर मारामारी पर्यन्त का प्रसंग भी उपस्थित हो जाए। यहाँ पर बात-हकीकत सच्ची-सांची होने से बाह्यदृष्टि से व्रतभंग न होते हुए भी तात्त्विक दृष्टि से व्रतभंग होने से रहस्याभ्याख्यान अतिचार होता है।' (३) कूटलेखक्रिया-मिथ्यालेख (जाली लिखापढ़ी)। अर्थात्-सच्चे लेख में फेरफार करना, चोपड़ा आदि में असत्य-झूठी साक्षी पूरनी, खोटी-झूठी सही करनी, खोटा-झूठा जमा खर्च करना, सील (मोहर) हस्ताक्षर इत्यादि से खोटा-झठा दस्तावेज बनाना तथा लेख लिखना, एवं असत्य-झूठी बिना छापनी-छपानी इत्यादि। यहां पर असत्य-झूठ बोलने का नियम है, असत्यझूठ लिखने का नियम नहीं है। इससे बाह्यदृष्टि से व्रत का भंग नहीं है, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से (जो दोष असत्य-झूठ बोलने से लगते हैं, वे दोष असत्य-झठ लिखने से, लिखाने से भी लगते हैं।) इसलिए व्रत का भंग होता है। यह कूटलेखक्रिया प्रतिचार है । (४) न्यासापहार-धरोहर (अमानत) रखी हुई वस्तु का अपहरण करना, वह न्यासापहार है। जैसे—किसी ने अमुक रकम अपने को साचवने के लिए दी हो, समय जाते देने वाला व्यक्ति कितनी दी है, यह भूल जाए। जब वह लेने को प्राए तब रखी हुई रकम से कम-न्यून मांगे तो वह जितनी मांगे उतनी दे देवे। शेष रकम स्वयं-पोते ही हजम कर जाए। उदाहरण हजार रुपए साचवने के लिए दिये हैं। वापिस मांगने पर "तुमने सात सौ दिये हैं", ऐसा कह करके उसको सात सौ ही देवे। और शेष रकम तीन सौ स्वयं-पोते ही हजम कर लेवे। १. योगशास्त्र इत्यादि ग्रन्थों में 'गुह्यमाषण' तरीके इस प्रतिचार का निर्देश है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ २१ यद्यपि न्यासापहार चोरी है, तो भी इसको छिपाने के लिए ऐसे असत्य मिश्रित वाक्य बोलने का प्रसंग मा जाय, इस दृष्टि से इसको सत्यव्रत के अतिचार तरीके कहने में आया है। अन्य-दूसरे ग्रन्थों में 'न्यासापहार' अतिचार के स्थान में 'सहसा अभ्याख्यान' अतिचार प्राता है। सहसा यानी विचार किए बिना तथा अभ्याख्यान यानी आरोप। बिना विचारे 'तू चोर है', 'तू बदमाश है' 'तू व्यभिचारी है' इत्यादि आरोप कहना। यहाँ पर अन्य-दूसरे को मारोप देने का इरादा नहीं है, किन्तु उतावल से हकीकत जाने बिना असत्य हकीकत को सत्य हकीकत समझ करके अनाभोग से कह देता है । इससे यहाँ पर अन्तःकरण-हृदय में व्रतभंग का भाव नहीं है, तो भी इससे परदुःख मादि होने की सम्भावना होने से प्रांशिक भंग होता है। इसलिए सहसाभ्याख्यान अतिचार रूप है। परन्तु जानते-बुझते दुःख देने के प्राशय से असत्य-झठा आरोप देने में प्रा जाय तो व्रतभग हा कहा जाता है। (५) साकारमन्त्रभेव-देह-शरीर की प्राकृति यानी विशिष्ट चेष्टा। आकार से युक्त वह साकार। मन्त्र यानी अभिप्राय । अन्य-दूसरे की इस प्रकार की देह-शरीर की चेष्टा से जानने में आये हुए अभिप्राय सो साकारमन्त्र। इसका भेद यानी बाहर प्रकाशन करना। यह साकारमन्त्रभेद का शब्दार्थ है। अब इसका भावार्थ नीचे प्रमाणे कहा जाता है। विश्वासपात्र बन करके उसी प्रकार की शारीरिक चेष्टा से या उसी प्रकार के प्रसंग पर से अथवा आस-पास के वातावरण आदि के आधार से अन्य-दूसरे का गुप्त अभिप्राय जान करके अन्य-दूसरे को कहे और अन्य-दूसरे का अभिप्राय अर्थात् गुप्त बात-हकीकत इसको कहे। इस तरह एक-दूसरे की गुप्त बातें एक-दूसरे को कह करके मन्योन्य-परस्पर की प्रीति-स्नेह का उच्छेद करावे। अथवा विश्वासी बनकर के राज्य की वा अन्य किसी की भी गुप्त बात-हकीकत पूर्वोक्त मुजब [चेष्टा, प्रसंग, वातावरण इत्यादिक से] जानकर सार्वजनिक करे। ऐसा करने का कारण ईर्ष्या तथा द्वेष इत्यादिक है। साकारमन्त्रभेद के स्थान में 'स्वदारामन्त्रभेद' नामक अतिचार 'धर्मरत्न प्रकरणादिक' अन्य ग्रन्थों में आता है। स्वकीय-अपनी दारा का-पत्नी का मन्त्र-अभिप्राय (गुप्त बात-हकीकत) वह स्वदारामन्त्र । उसका भेद यानी बाहर प्रकाश करना। यह स्वदारामन्त्रभेद का शब्दार्थ है। उसका भावार्थ नीचे प्रमाणे है । अपने पर विश्वास रख करके पत्नी, मित्र, पड़ोसी आदि कोई भी व्यक्ति जो कोई गुप्त बात कहे, उसका बाहर प्रकाशन करना, यह 'स्वदारामन्त्रभेद' है । * योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में इस अतिचार के भावार्थ तरीके इसका "विश्वस्त-मन्त्रभेद" (विश्वासी के अभिप्राय का प्रकाशन करना) ऐसा नाम है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७॥२२ ] सप्तमोऽध्यायः [ ५६ * साकारमन्त्रभेद में वा स्वदारा मन्त्रभेद में हकीकत सत्य होते हुए भी इस हकीकत के प्रकाशन से स्व-पर में द्वेष, अपघात, लड़ाई, क्लेश-कंकाश इत्यादिक महान् अनर्थ होना सम्भव है। इसलिए प्रांशिक व्रतभंग होने से यह अतिचार रूप है । साकार मन्त्रभेद और स्वदारा मन्त्रभेद (या विश्वस्त मन्त्रभेद) में भिन्नता-साकार मन्त्रभेद और स्वदारा मन्त्रभेद इन दोनों में विश्वासी की गुप्त हकीकत का बाहर प्रकाशन करना यह अर्थ समान है। परन्तु गुप्त हकीकत को जानने में भेद है। साकार मन्त्रभेद में शरीर चेष्टा, प्रसंग तथा वातावरण इत्यादि द्वारा गुप्त बात हकीकत को जानते हैं। जबकि स्वदारा मन्त्रभेद में विश्वासी व्यक्ति ही उसको अपनी बात-हकीकत जणाता है। * साकार मन्त्रभेद और रहस्याभ्याख्यान में भिन्नता-साकार मन्त्रभेद और रहस्याभ्याख्यान इन दोनों में गुप्त बात-हकीकत का प्रकाशन करना यह अर्थ समान है, किन्तु गुप्त बातहकीकत के प्रकाशन में भेद है। साकार मन्त्रभेद में व्यक्ति विश्वासी हो करके गुप्त बात-हकीकत का प्रकाशन करता है। जबकि रहस्याभ्याख्यान में सामान्य से (विश्वासी और अविश्वासी के भेद बिना बात-हकीकत का प्रकाशन करता है। तथा दूसरा भेद यह है कि साकार मन्त्रभेद में गुप्त बात-हकीकत जिसके पास से जानी हो, वह अन्य सम्बन्धी होती है। जबकि रहस्याभ्याख्यान में (पति-पत्नी, मित्र-मित्र इत्यादि) जिसके पास से जानी हो उसी से सम्बन्धित होती है। जैसे-पति-पत्नी ने एकान्त में स्व सम्बन्धी बात की। अन्य दूसरे किसी ने यह बात जान ली और बाहर उस बात का प्रकाशन किया। यह प्रकाशन रहस्याभ्याख्यान है। अब जो पति और पत्नी ने अन्य-दूसरे के सम्बन्ध में कोई बात की हो और अन्य कोई जान करके प्रकाशन करे तो वह साकार मन्त्रभेद गिना जाता है। अब तीसरा भेद यह है कि साकार मन्त्रभेद में गुप्त बात-हकीकत जिससे सम्बन्धित हो, उसको ही कहने की है। जबकि रहस्याभ्याख्यान में जिससे सम्बन्धित हो उसको वा अन्य दूसरे को भी कहने की होती है। साकार मन्त्रभेद तथा रहस्याभ्याख्यान में इन तीन दृष्टियों से भेद होता है ।। ७-२१ ।। * तृतीयव्रतस्य पञ्चातिचाराः * ॐ मूलसूत्रम्स्तेनप्रयोग-तदाहृतादान-विरुद्धराज्यातिक्रम-हीनाधिकमानोन्मान प्रतिरूपकव्यवहाराः ॥७-२२॥ * सुबोधिका टीका * स्तेनप्रयोगादि यानि सूत्राणि निर्दिष्टानि तानि अस्तेयाणुव्रतस्यातिचाराः। एते पञ्चास्तेयव्रतस्यातिचारा भवन्ति । तत्र स्तेनेषु हिरण्यादिप्रयोगः । स्तेनैराहतस्य द्रव्यस्य मुधक्रयेण वा ग्रहणं तदाहृतादानम् । विरुद्धराज्यातिक्रमश्चास्तेयव्रतस्यातिचारः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे विरुद्धे हि राज्ये प्रथममेव स्तेययुक्तमादानं भवति । हीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारः । कूटतुला कूटमानञ्च वञ्चनादि युक्तः क्रयो विक्रयो वृद्धिप्रयोगश्च । प्रतिरूपकव्यवहारो नाम सुवर्ण-रूप्यादीनां द्रव्याणां प्रतिरूपकक्रियाव्याजीकरणानि चेत्येते पञ्चास्तेयव्रतस्यातिचारा भवन्ति । एतेषु कस्यापि प्रतिचारस्य कृते सति अचौर्यव्रतस्यांशस्य भंगः भवति ।। ७- २२ ।। [ ७।२२ * सूत्रार्थ - स्तेनप्रयोग चोरी करना, तदाहृतादान चोरी की वस्तु ग्रहण करना, राज्यविरुद्ध कार्य करना, तोल-माप न्यूनाधिक रखना, नकली चीज वस्तु को असली बताना इत्यादि ये पाँच अस्तेय अणुव्रत के प्रतिचार हैं ।। ७-२२ । विवेचनामृत 5 (१) स्तेनप्रयोग, (२) तदाहृतादान, (३) विरुद्ध राज्यातिक्रम, (४) हीनाधिकमानोन्मान श्रौर ( ५ ) प्रतिरूपक व्यवहार । ये पाँच अस्तेय (स्थूल प्रदत्तादान विरमरण) व्रत के अतिचार हैं । इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है (१) स्तेनप्रयोग - स्तेन यानी चोर, प्रयोग यानी प्रेरणा- उत्तेजना । 'चोरों से व्यवहार', चोर को चोरी करने में उत्तेजन देना, यह स्तेनप्रयोग है। चोर के साथ लेन-देन का व्यवहार रखना, चोरी करने के बाद इसकी प्रशंसा करनी, चोरी के लिए प्रयत्न करने वाले को उपकरण देना, रहने के लिए आश्रय देना, तथा अन्न-पानी देना इत्यादि रीति से चोर को चोरी करने के लिए उत्तेजन देना, यह स्तेनप्रयोग प्रतिचार कहा जाता है. । (२) तदाहृतादान - 'चोरी द्वारा लाई हुई चीज वस्तु ग्रहण करनी' अल्प अथवा ठीक मूल्य से लेनी । अर्थात् - चोर द्वारा चोरी करके लाई हुई चीज वस्तु मुफ्त अथवा कम मूल्य में लेनी; यह तदाहृतादान प्रतिचार कहा जाता है । * स्तेनप्रयोग और तदाहृतादान में स्वयं पोते चोरी करता नहीं है, परन्तु चोरी में उत्तेजन देने से परमार्थ दृष्टि से आंशिक व्रतभंग होने से यह प्रतिचार है । इसके सम्बन्ध में संस्कृत भाषा के एक श्लोक में कहा हुआ है कि "चौरश्चौरापको मन्त्री, भेदज्ञः काणकक्रयी । अन्नदः स्थानदश्चेति, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥ १ ॥ " अर्थ - चोरी करने वाला, चोरी कराने वाला, चोरी के लिए सलाह देने वाला. चोरी के भेद को जानने वाला, चोरी के माल की खरीद करने वाला, चोर को अन्न-पानी देने वाला, तथा चोर को प्राश्रय स्थान देने वाला; इस तरह चोर के सात प्रकार हैं । (३) विरुद्ध राज्यातिक्रम- राजा की प्राज्ञा का उल्लंघन करना। राज्य का निषेध होते हुए भी गुप्त - छिपी रीति से अन्य राज्य में प्रवेश करना, दान चोरी करनी, तथा जकात की भी चोरी करनी इत्यादि राज्यविरुद्ध कार्यों का समावेश इसमें होता है । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२३ ] सप्तमोऽध्यायः [ ६१ इसलिए यहाँ राज्यविरुद्ध कर्म करने वाले को चोरी का दण्ड होने से अदत्तादानव्रत का भंग होता है, किन्तु मैं तो व्यापार करता हूँ इत्यादिक बुद्धि से व्रत सापेक्ष होने से तथा 'लोक में चोर है' इस तरह कथन नहीं होने से (मांशिक व्रत भंग होने से) विरुद्धराज्यातिक्रम अतिचार है। (४) हीनाधिक मानोन्मान-चीज-वस्तु की लेन-देन में हीनाधिक तोल-माप करना। अर्थात्-खोटे, छोटे-बड़े माप-तौल रखना। जब वस्तु खरीदने की हो, तब बड़े माप-तौल का उपयोग करे, तथा बेचने की हो तब छोटे माप-तौल का उपयोग करे। यह होनाधिक मानोन्मान अतिचार कहा जाता है। (५) प्रतिरूपक व्यवहार - खोटा सिक्का अथवा कपटपूर्वक नकली चीज-वस्तु बना के बदल देना। अर्थात-अच्छे-सारे माल में खराब वा नकली माल की भेलसेल करनी। बनावटी चीज-वस्तु पैदा-उत्पन्न करके असल रूप से बेचनी। यह प्रतिरूपक व्यवहार अतिचार है। * यद्यपि हीनाधिक मानोन्मान और प्रतिरूपक व्यवहार इन दोनों कार्यों में ठगबाजी से परधन लेने में प्राता है, इसलिए यह व्रतभंग है। छतां खातर पाड़ना यही चोरी है, यह तो वणिक्कला है, ऐसी कल्पना से प्रांशिक व्रतभंग होने से (इसकी दृष्टि से भले चोरी नहीं है, किन्तु शास्त्रदृष्टि से चोरी है) इसलिए ये दोनों अतिचार गिने जाते हैं ।। ७-२२ ।। * चतुर्थब्रह्मचर्यव्रतस्यातिचाराः * ॐ मूलसूत्रम्परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमना-ऽनङ्गक्रीडा तीवकामाभिनिवेशाः ॥ ७-२३ ॥ * सुबोधिका टीका * अन्यजनानां येषां न कोऽपि सम्बन्धः अस्माभिः सह तेषां विवाहकरणं ब्रह्मचर्यव्रतस्य प्रथमाऽतिचारः। विवाहिता - व्यभिचारिणीगमनं इत्वरपरिगृहीतागमनं द्वितीयः अतिचारः भवति । व्यभिचारिणी अविवाहिता कुमार्यया सह वेश्यया सह वा गमनं अपरिगृहीता नामकोऽतिचारः । तदतिरिक्त कृत्रिमाङ्गक्रीडा हस्तक्रीडानङ्गक्रिया नामकं अतिचारं अनङ्गक्रियातिचारः। तीवकामवासनाभिनिवेशादि तीवकामाभिनिवेशं अतिचारः कथ्यते । पञ्चब्रह्मचर्यव्रतस्यातिचारा भवन्ति ।। ७-२३ ॥ * सूत्रार्थ-परविवाह करना, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा तथा तीवकामाभिलाषा ये पांच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं ।। ७-२३ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।२३ विवेचनामृतम (१) परविवाहकरण, (२) इत्वरपरिगृहीतागमन, (३) अपरिगृहीतागमन, (४) अनंगक्रीड़ा, और (५) तीवकामाभिनिवेश । ये पांच ब्रह्मचर्य (स्थूल मैथुनविरमण) व्रत के अतिचार हैं। इन पाँचों का संक्षिप्त वर्णन क्रमश: इस प्रकार है (१) परविवाहकरण-अन्य-दूसरे की शादी-विवाह कन्यादानादि करना। अर्थात् कन्यादान के फल की इच्छा के स्नेहादिक से आगे पड़ता भाग लेकर के अन्य-दूसरे की सन्तान अर्थात् पुत्र-पुत्रियों के शादी-विवाह कराना। यहां परदारा के साथ मैथुन सेवन नहीं करना और नहीं कराना इस प्रकार का नियम है । शादी-विवाह कराने में परमार्थ से मैथुन सेवन कराया कहा जाता है। इसलिए परमार्थ से यह व्रतभंग है। परन्तु मैं शादी-विवाह कराता हूँ, लेकिन मैथुन सेवन नहीं कराता ऐसे मानसिक परिणाम की दृष्टि से स्वयं व्रतसापेक्ष है। ___ इसलिए आम आंशिक (अपेक्षा से) व्रतभंग और आंशिक व्रतपालन होने से यह अतिचार है। जिस तरह पर की सन्तानों के शादीविवाह से अतिचार लगते हैं, उसी तरह निज सन्तानों के शादी-विवाह से भी अतिचार लगते हैं । किन्तु जो अपने सन्तानों के शादी-विवाह नहीं करे तो अपनी सन्ताने स्वेच्छाचारी बन जाती हैं। इस तरह ऐसा हो जाने पर धर्म-शासन की हीलना होती है। इसलिए अपनी सन्तानों के शादी-विवाह का निर्देश यहाँ नहीं किया। किन्तु अपनी सन्तानों के शादी-विवाह भी अन्य अपने ज्येष्ठ-बड़े पुत्र अथवा भाई इत्यादि सम्भाल सके तब तो स्वयं-पोते उस कार्य में अंशमात्र भी मत्थामस्तक मारना नहीं चाहिए। (२) इत्वर परिगृहीतागमन-इत्वर यानी अल्प समय, परगृहीता यानी दूसरे से स्वीकार की हुई। व्यभिचारिणी या अन्य-दूसरे की विवाहिता से प्रसंग करना। अर्थात्-जब अन्य-दूसरे किसी ने अल्प समय के लिए वेश्या को स्वीकार किया हो, तब उस समय में वेश्यागमन करना। जितने समय पर्यंत अन्य-दूसरे व्यक्ति ने वेश्या का स्वीकार किया हो, उसी समय में वेश्यागमन करना, यह अतिचार है। कारण कि, इतने समय तक अन्य-दूसरे द्वार पैसा-पगार बाँध करके अपनी स्त्री रूपे रखी होने से वह परदारा है। इसलिए व्रतभंग होने से ही व्रतभंग किया जाता है। ऐसा होते हुए भी मैं परस्त्री का सेवन करता नहीं हूँ, परन्तु वेश्या का सेवन करता हूँ। इस तरह मानसिक परिणाम की दृष्टि से व्रतभंग नहीं होने से इत्वरपरिगृहीतागमन अतिचार है । अथवा स्वयं-पोते पैसा देकर के अल्प समय तक अपनी स्त्री करके वेश्यागमन जो करना वह इत्वरपरिगृहीतागमन कहा जाता है। यहाँ मैथुन सेवन के लिए भाड़ा-पैसा देकर के अल्प समय Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२३ ] सप्तमोऽध्यायः तक अपनी पत्नी-स्त्री करके रखी होने से मेरी स्वयं अपनी ही पत्नी-स्त्री है। इस दृष्टि से यह अतिचार है। (३) अपरिगृहीतागमन-कुवारियों-कुमारिकाओं से या वेश्यादिक से प्रसंग करना। अर्थात्-जिसको किसी ने भी स्त्री तरीके स्वीकार नहीं किया हो, वह अपरिगृहीता। वेश्या, प्रोषित-भर्तृका (जिसका पति परदेश गया है ऐसी स्त्री), अनाथ स्त्री, कुमारिका-कन्या इत्यादि अपरिगृहीता स्त्री का उपभोग करना वह अपरिगृहीता गमन कहा जाता है। लोक में वेश्या आदि परस्त्री रूप में गिनी जाती है। किन्तु जिसका कोई पति-धणी नहीं हो, वह परस्त्री नहीं कहलाती है। इस तरह मान करके वेश्या आदि का सेवन करने वाले व्यक्ति की दृष्टि से व्रतभंग नहीं होने से यह ब्रह्मचर्य व्रत का तीसरा अपरिगृहीतागमन अतिचार है । * इत्वर परिगृहीतागमन तथा अपरिगृहीतागमन : ये दोनों अतिचार परस्त्री का त्याग करने वाले की अपेक्षा से हैं। स्वदारा-संतोष रूप व्रत ग्रहण करने वाले की अपेक्षा से तो ये दोनों सर्वथा व्रतभंग रूप हैं। कारण कि, उसने स्वस्त्री को छोड़कर अन्य समस्त स्त्रियों का त्याग किया है। इसी भाँति स्त्री को 'स्वपति संतोष' रूप एक ही व्रत होने से उसको भी ये दोनों अतिचार सामान्य से नहीं होते लेकिन अपेक्षा से तो उसको भी ये दोनों अतिचार लगते हैं। जब निज पति को अपनी सौत के वारा के दिन परिगृहीत किया हो तब उसके वारा को उल्लंघी अपने पति के साथ संभोग-विषयसेवन करते हुए द्वितीय दूसरा इत्वरपरिगृहीतागमन नाम का अतिचार लगता है तथा परपुरुष की तरफ विकार दृष्टि से देखे, उसकी तरफ आकर्षित हो, इत्यादि प्रसंगे तृतीय-तीसरा 'अपरिगृहीतागमन' नाम का अतिचार लगता है। (४) अनंगक्रीडा-कामभोग-मैथन सेवन के लिए दो अंग हैं। योनि तथा प्रजनन । इन दोनों के अतिरिक्त देह-शरीर के हस्तादिक अवयवों से क्रीडा करनी-कामसेवन करना, अर्थातअस्वाभाविक-सृष्टिविरुद्ध कामसेवन करना अथवा अनंग यानी कामराग। अत्यन्त-अतिशय कामराग उत्पन्न हो, ऐसी अधरचुम्बन इत्यादिक क्रीड़ा करनी, यह 'प्रनंगक्रीड़ा' कही जाती है । (५) तीवकामाभिनिवेश-मोहनीयकर्म के उदय से (मैथुन सेवन की) तीव्र इच्छा से मैथुन सेवना। अर्थात्-कामसेवन के लिए तीव्र अभिलाषा यह ब्रह्मचर्य व्रत का पंचम-पांचवा अतिचार है। __ परस्त्री-विरमण अथवा स्वदारा-संतोष इन दोनों प्रकार में से गमेते रीते ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करने वाले को मैथुनसेवन का त्याग है। किन्तु ऐसी अनंगक्रीड़ा करने का त्याग नहीं है तथा तीव्र काम से मैथुन सेवन का साक्षात् त्याग नहीं है। इस दृष्टि से अनंगक्रीड़ा और तीव्र कामाभिनिवेश इन दोनों से व्रत का भंग नहीं होता है। परन्तु ब्रह्मचर्य का ध्येय..... काम की अभिलाषा इच्छा को कम करने का-घटाने का है। __अनंगक्रीड़ा तथा तीवकामाभिनिवेश इन दोनों में ध्येय का पालन नहीं होता है। कारण कि इन दोनों से काम-भोग की अभिलाषा-इच्छा में अभिवृद्धि होती है। इस परमार्थ दृष्टि से इन दोनों प्रकार के कामसेवन से व्रतभंग होता है । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।२४ इस तरह इन दोनों में अपेक्षा से व्रत का अभंग और अपेक्षा से भंग होने से दोनों ही अतिचार रूप हैं ।। (७-२३) * पंचम अपरिग्रहव्रतस्य पंचातिचाराः 5 मूलसूत्रम् - क्षेत्रवास्तु- हिरण्यसुवर्ण - धनधान्य- दासीदासकुप्यप्रमारणातिक्रमाः ॥ ७-२४ ॥ * सुबोधिका टीका * क्षेत्रभूमिवास्तुगृहाणां प्रमाणातिक्रमः हेमसुवर्ण - प्रमाणातिक्रमः, धनधान्यप्रमाणातिक्रमः, दासीदासप्रमाणातिक्रमः, कुप्यप्रमाणातिक्रमः इत्येते पञ्चेच्छापरिमाणव्रतस्यातिचारा भवन्ति । एते इच्छापरिमाण-परिग्रह परिमारण अपरिग्रहव्रतानां प्रतिचाराः । एवमेव शेषाः चत्वारोऽतिचाराः अपि । एतेषु पञ्चषु विषयेषु एव व्रतस्य भंग भंगवृत्तिः प्राप्यते श्रतः प्रतिचारा इमे ।। ७-२४ ।। * सूत्रार्थ - क्षेत्र (खेत) या वास्तु (घर), हिरण्य सुवर्ण, धन-धान्य, दासी, दास और कुप्य - बर्तन वस्त्र इत्यादि इन पाँचों का नियम से अधिक संग्रह करना । परिग्रह परिमारण व्रत के प्रतिचार हैं ।। ७-२४ ।। 15 विवेचनामृत 5 (१) क्षेत्र - वास्तु, (२) हिरण्य- सुवर्ण, (३) धन-धान्य, (४) दासी - दास तथा कुप्य । इन पाँचों के परिमाण में अतिक्रम वृद्धि करने से ये पांच प्रतिचार स्थूल परिग्रह विरमण व्रत के हैं । इन पाँचों प्रतिचारों का संक्षिप्त वर्णन क्रमशः नीचे प्रमाणे है(१) क्षेत्र - वास्तुप्रमारणातिक्रम - खेती करने इत्यादि) भूमि, वह वास्तु । परिग्रह के प्रमाण में वास्तु को, समस्त प्रकार की भूमि जमीन को स्वीकार करना । वास्तु गृह घरादि के परिमाण से अधिक संग्रह करना । प्रतिचार है । लायक भूमि, वह क्षेत्र । रहने लायक (घर घारी हुई चीज वस्तु के प्रमारण से अधिक क्षेत्रअर्थात् - क्षेत्र, जमीन खेतादिक यह क्षेत्र - वास्तु प्रमाणातिक्रम (२) हिरण्य - सुवर्णातिक्रम - हिरण्य यानी चाँदी । सुवर्ण यानी सोना । यहाँ चाँदीसोना के उपलक्षण में रत्न इत्यादिक उच्च प्रकार की घातुत्रों, इन्द्रमरिण इत्यादि कीमती पत्थर की जात तथा रोकड़ नारणां इत्यादि जान लेना । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२४ ] सप्तमोऽध्यायः [ ६५ धन - गाय, भैंसादि तथा धान्य- अन्न आदि का परिमाण से संग्रह करना । लोभवश परिग्रह के प्रमाण में धारेल प्रमाण से अधिक चाँदी- सुवर्ण इत्यादि तथा रोकड़ नारणां रखना । वह हिरण्य' - सुवर्णातिक्रम कहे जाते हैं । (३) धन - धान्यप्रमाणातिक्रम - धन - गाय-भैंस इत्यादि तथा धान्य अन्न आदि के परिमाण से अधिक संग्रह करना । अर्थात् — गाय-भैंस आदि चौपाये प्राणी घन हैं तथा चावलचोखा, गेहूँ इत्यादि धान्य हैं । परिग्रह परिमाण में किये हुए परिमाण से अधिक धन-धान्य का स्वीकार करना, यह घन-धान्य प्रमारणातिक्रम है । (४) दासी - दासप्रमाणातिक्रम - यहाँ दासी दास पद से अभिप्राय धारे हुए प्रमाण से अधिक नौकर-चाकर एवं मयूर पोपट आदि पक्षियों का संग्रह करना है । (५) कुप्य प्रमाणातिक्रम - अल्प कीमत वाली लोहा-लोढ़ा श्रादि धातुनों, गृह-घर के उपयोग में आने वाली वस्तुनों, काष्ठ, तृरण- घास इत्यादिक का कुप्य में समावेश होता है । घारे हुए प्रमाण से अधिक कुप्य का संग्रह करना, वह कुप्यप्रमाणातिक्रम है । यहाँ पर क्षेत्र वास्तु इत्यादि पाँचों में परिग्रह के प्रमाण में धारे हुए प्रमाण से अधिक स्वीकार करने से साक्षात् रीत्या तो व्रत का भंग ही होता है । किन्तु इन पाँचों में क्रमश: योजन, प्रदान, बन्धन, कारण और भाव से हृदय में व्रतरक्षा का परिणाम होने से अर्थात् व्रतभंग नहीं होने से ये पाँच प्रतिचार रूप हैं । इनका निर्देश नीचे प्रमाणे है । [१] योजन- योजन यानी जोड़ना । एक गृह घर के अभिग्रहवाले को अधिक की जरूरत पड़ने पर अथवा किसी कारण से लेने की इच्छा होते हुए) व्रत का भंग होने के भय 'प्रथम गृह के समीप प |र्श्व में ही अन्य- दूसरे गृह-घर लेकर और बीच की दीवार हटाकर दोनों का योजन-जोड़ा करके एक गृह-घर बना लेते हैं । यहाँ पर दो गृह-घर होने से अपेक्षा से व्रत भंग होता है । किन्तु हृदय में व्रतरक्षा का परिणाम होने से अपेक्षा से पूर्ण भंग नहीं भी होता है । १. इस सम्बन्ध में कितनेक ग्रन्थों में हिरण्य यानी घड़ा हुआ सुवर्णं सोना तथा सुवणं यानी बिना घड़ा हुआ सुवर्ण - सोना, ऐसे अर्थं आते हैं । फिर कितनेक ग्रन्थों में इससे विपरीत अर्थ मी प्राते हैं । अर्थात् हिरण्य यानी बिना घड़ा हुआ सोना और सुवर्णं यानी घड़ा हुआ सोना । २. कितनेक ग्रन्थों में धन शब्द से मणिम (गिन सके ऐसी सोपारी इत्यादि); धरिम (काँटे से तौल करके ले सके और दे सके जैसे गुड़-गोल इत्यादि) ; मेय ( नाप कर ले सके और दे सके ऐसे गेहूँ इत्यादि) तथा परिछेद्य ( परीक्षा करके लेने में एवं देने में श्रावे ऐसे रत्नादिक ।) ये चार प्रकार धन के ग्रहण करने में श्राये हैं तथा गाय प्रमुख चौपाये प्राणियों व पक्षियों को दासी दास प्रमारणातिक्रम में दासी - दास पद से संग्रहीत समझना | ३. धर्मरत्न प्रकरण इत्यादि ग्रन्थों में यही द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम प्रतिचार है । उसमें समस्त प्रकार के मनुष्य-तियंचों का संग्रह करने में आया है । उसमें तीसरे प्रतिचार में धन शब्द से गणिमादि चार प्रकार के घन का संग्रह करने में आता है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७.२५ [2] प्रदान-प्रदान यानो देना। सुवर्ण-सोना आदि का परिमाण करने के बाद किसी के पास से (कमाणी इत्यादिक से) सोना आदि मिले तो व्रतभंग की भीति से अभी आपके पास रखें। ऐसा कहकर अन्य-दूसरे को दे दे। बाद में व्रत की अवधि पूर्ण होते ही ले ले। अथवा नियम के उपरान्त आई हई रकम बाहर दिखावे के लिए अपने पूत्र, पूत्री, तथा पत्नी-स्त्री इत्यादि स्वजन के नाम पर चढ़ा कर अन्तर से अपनी मालिकी रखे। इस तरह अन्य-दूसरे को देते हुए भी अथवा अन्य-दूसरे के नाम पर चढ़ाते हुए भी मालिकी अपनी होने से नियम का भंग होता है । परन्तु मैंने नियम के उपरान्त रखा नहीं है। इस प्रकार की बुद्धि होने से व्रत सापेक्ष होने से भंगाभंग रूप अतिचार कहा जाता है। [३] बन्धन-बन्धन यानी ठहराव । परिमाण करने के पश्चात् अन्य-दूसरे के पास से अधिक मिले तो व्रतभंग के डर से चार मास इत्यादि अवधि के बाद मैं ले लगा। अभी तो आपके पास रहने दो। ऐसे ठहराव करके वहीं रहने दे और चार मास (इत्यादि नियम की अवधिमर्यादा) पूर्ण होते ही ले ले। ...[४] कारण-गौ-गाय, वृषभ-बैल इत्यादि का परिमाण निश्चित करने के बाद गाय आदि को गर्भ रहे, या बछड़े आदि का जन्म हो जाए तो व्रतभंग के भय से गिनतो नहीं करे। मेरे तो गाय या बैल का परिमारण है। गर्भ या बछड़ा गाय-बैल नहीं, किन्तु गाय-बैल के कारण हैं। जब बड़े होंगे तब गाय-बैल होंगे। [५] भाव-यानी परिवर्तन। जैसे-सोने की थाली-बाटकी-प्याला ३, चांदी की थालीबाटकी-प्याला-३, तथा पीतल की थाली-बाटकी-प्याला-२० इससे विशेष नहीं रखने का नियम करने के बाद, भेंट आदि से पीतल की थाली-बाटकी-प्याला की संख्या बढ़ जावे तो नियम भंग के भय से अथवा परिग्रह के परिमाण से बढ़ी हुई वस्तु को परिग्रह परिमाण से कम रही हुई वस्तु रूप में मंगाकर रखे। यहाँ पर सर्वत्र साक्षात् तो नियम का भंग हुमा है। परन्तु हृदय में व्रतभंग के भय के कारण व्रत सापेक्ष होने से अपेक्षा से व्रतभंग नहीं है। इसलिए इसे अतिक्रम-उल्लंघन अतिचार कहा जाता है ।। ७-२४ ॥ * षष्ठदिग्विरमणव्रतस्य प्रतिचाराः * 卐 मूलसूत्रम्ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रम-क्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि ॥ ७-२५॥ * सुबोधिका टोका * ऊर्ध्वदिशायां यत् प्रमाणं तस्य व्यतिक्रमः ऊर्ध्वव्यतिक्रमः, अधोदिशायां यत् प्रमाणं तस्य व्यतिक्रमः अधोव्यतिक्रमः, तिर्यग् व्यतिक्रमः, क्षेत्रवृद्धिः स्मृत्यन्तर्धानमित्येते पञ्चदिग्वतस्यातिचाराः भवन्ति । स्मृत्यन्तर्धानं नाम स्मृतेभ्रशोऽन्तर्धानमिति ॥७-२५॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः [ ६७ * सूत्रार्थ - ऊर्ध्व (ऊँचे-ऊपर), अधो (नीचे) और तिर्यग् (तिरछी ) दिशानों में परिमारण से अधिक जाना, रागवश क्षेत्र की वृद्धि करना तथा किये हुए परिमाण को भूल जाना । ये पाँच दिग्वत के प्रतिचार हैं ।। ७-२५ । ७।२५ 5 विवेचनामृत 5 व्रतसंज्ञक प्रहिंसादिक पाँच नियमों व्रतों के प्रतिचारों का वर्णन करके अब शीलसंज्ञक दिगादिव्रतों के प्रतिचार क्रमश: कहते हैं - ऊर्ध्व, अधो और तिर्यग् इन तीन दिशाओं के परिमाण में व्यतिक्रम तथा क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तर्धान ये पाँच दिग्विरति व्रत के प्रतिचार हैं । जिनका संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे है (१) ऊर्ध्व व्यतिक्रम - ऊर्ध्व - वृक्ष तथा पर्वतादि पर चढ़ने के लिए ऊँचाई के परिमाण की मर्यादा विस्मृति या लाभादि के कारण उसका उल्लंघन करना, यह ऊर्ध्व व्यतिक्रम है । ऊर्ध्व यानी ऊँची-ऊपर की दिशा में पर्वत-पहाड़ादिक ऊपर भूल से, घारित परिमाण से जाना, यह ऊर्ध्व व्यतिक्रम प्रतिचार कहा जाता है । अर्थात् - अधिक दूर (२) श्रधो व्यतिक्रम - प्रधो यानी नीचे की दिशा में कूप इत्यादि में भूल से धारित प्रमाण से अधिक दूर जाना, यह अधो व्यतिक्रम है । अर्थात् नीची दिशा की मर्यादा का उल्लंघन करना यह अधो व्यतिक्रम प्रतिचार कहा जाता है । (३) तिर्यग् व्यतिक्रम - तिर्यग् यानी तिछ । पूर्वादिक आठ दिशाओं में धारे हुए प्रमाण से भूल से अधिक दूर जाना, यह तिर्यग् व्यतिक्रम है । अर्थात् - तिरछी दिशा की मर्यादा का उल्लंघन करना, यह तिर्यग् व्यतिक्रम प्रतिचार कहा जाता है । 1 (४) क्षेत्रवृद्धि - उत्तर-पूर्वादिक चारों दिशाओं की मर्यादा में वृद्धि करना, यह क्षेत्रवृद्धि है । अर्थात् - एक दिशा का परिमाण अन्य दूसरी दिशा में डालकर दूसरी दिशा के परिमाण में अभिवृद्धि करनी । जैसे— पूर्व और पश्चिम दिशा में १००-१०० मील का परिमाण करने के बाद जब पूर्व दिशा में १५० मील जाने की जरूरत पड़ी तब पश्चिम दिशा में से ५० मील लेकर पूर्व दिशा में मिला करके अपना काम कर लिया। इससे नियम भंग होते हुए भी कुल संख्या कायम रहने से यह अपेक्षा से प्रतिचार है । यह क्षेत्रवृद्धि परिमाण प्रतिचार कहा जाता है । रहना । अर्थात् - लिये हुए दिशा के प्रमाण को भूल जैसे कि- मैंने १०० मील मील घारे होंगे तो आगे । (५) स्मृत्यन्तर्धान – मर्यादा की हुई सीमा की स्मृति न नियम को, दिशा के परिमारण को भूल जाना बराबर याद नहीं रखना जाने के बाद घरे हुए प्रमाण से दूर नहीं जाते हुए प्रतिचार लगता है । धारे हैं अथवा ५० मील धारे हैं ? ऐसी शंका हो जाने से कदाचित् ५० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७२६ जायेंगे तो भी नियम का भंग होगा। ऐसा विचार करके ५० मील प्रागे नहीं जाय तो भी अतिचार लगता है। क्योंकि, किसी भी नियम का बराबर पालन नियम को याद रखने से होता है। इसलिए नियम को भूल जाना यह अतिचार है ।। * प्रश्न-जो नियम का भूल जाना है वह अतिचार है, तो स्मृत्यन्तर्धान अतिचार समस्त व्रतों को लागू पड़ता है। फिर उसकी सर्व व्रतों में गिनती क्यों नहीं करते, यहाँ ही क्यों की? उत्तर-प्रत्येक व्रत के पांच प्रतिचार गिनने का होने से पाँच की संख्या पूर्ण करने के लिए यहाँ पर उसकी गिनती करने में पाई है। शेष ये अतिचार समस्त व्रतों के लिए हैं ।। (७-२५) 2 सप्तमदेशावकाशिकवतस्य पञ्चातिचाराः के 卐 मूलसूत्रम्प्रानयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्द-रूपानुपात-पुद्गलक्षेपाः ॥ ७-२६ ॥ * सुबोधिका टीका * निश्चितसीमानन्तरवस्तुयाचना प्रानयननामकोऽतिचारः । सेवकः सीमोल्लंघनं कृत्वा कार्यनिष्पादनं प्रेष्यप्रयोगनामकोऽतिचारः । एवमेव शब्दानुपातः, रूपानुपातः, पुद्गलक्षेपः इत्येते पञ्चदेशव्रतस्यातिचारा भवन्ति ।। ७-२६ ।। * सूत्रार्थ-पानयनप्रयोग, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप । ये पाँच भतिचार देशव्रत के हैं ।। ७-२६ ।। ॥ विवेचनामृत ॥ (१) प्रानयन-नियत सीमा के बाहर की चीज-वस्तु को स्वयमेव नहीं लाकर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मंगा लेना। अर्थात्-धारे हुए परिमारण से अधिक देश में रही हुई चीज-वस्तुओं को (कागज, चिट्ठी, तार, टेलीफोन आदि के द्वारा) अन्य-दूसरे व्यक्ति के पास से मंगवा लेना। इस अतिचार को 'मानयनप्रयोग' भी कहते हैं । १. 'अविस्मृतिमूलं धर्मानुष्ठानम्'-नियम की स्मृति नियम पालन का मूल है। २. श्री धर्मरत्न प्रकरण इत्यादि ग्रन्थों में स्मृत्यन्तर्धान अतिचार का अर्थ इस तरह से है ५० योजन धारे हैं कि १०० योजन ? ऐसे संशय में ५० योजन से दूर नहीं जाना चाहिए। जो ५० योजन से मागे जाता है तो अतिचार लगता है। ३. अयं चातिचारः सर्ववतसाधारणोऽपि पञ्चसंख्यापूरणार्थमत्रोपात्तः । [श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रास्यार्थदीपिका टीका] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ६६ (२) प्रेष्यप्रयोग-सीमा के बाहर की चीज-वस्तुओं को प्रेष्य यानी नौकर द्वारा भिजवानी। अर्थात्-धारे हुए परिमाण से अधिक देश में कोई भी चीज-वस्तु भेजने की हो या अन्य कोई कार्य करने का हो तो प्रेष्य-यानी नौकर प्रादि को भेजकर के करावे, वह प्रेष्यप्रयोग अतिचार है। * आनयनप्रयोग और प्रेष्यप्रयोग में भिन्नता इतनी है कि आनयन में धारे हुए परिमाण से अधिक देश में से चीज-वस्तु अपने पास मंगाने की होती है, जबकि प्रेष्यप्रयोग में धारे हए देश से अधिक देश में समाचार इत्यादि अथवा कोई भी वस्तु भेजने की होती है। अन्य, प्रानयन में चीजवस्तु मंगाने के लिए नौकर इत्यादि किसी को भेजते नहीं हैं, वहाँ से आने वाले के द्वारा मंगा लेते हैं जबकि प्रेष्यप्रयोग में खास नौकर इत्यादि को वहां भेजते हैं। (३) शब्दानुपात-खाँसी इत्यादि शब्द द्वारा कार्य करवा लेना। अर्थात्-समीप में उधरस-खांसी-खखारा आदि से तथा दूर तार-टेलीफोन इत्यादिक से (शब्दों के अनुपात से-फेंकने से) धारे हुए देश से अधिक देश में रहे हुए व्यक्ति को अपने पास बुलाना, यह शब्दानुपात अतिचार है। (४) रूपानुपात-रूपादि दिखा के कार्य करवा लेना। अर्थात्-धारे हुए देश से अधिक देश में रहे हुए व्यक्ति को बुलाने के लिए धारे हुए देश में खड़े रह करके अपने शरीर के अंग बतावे या उसी प्रकार की कायिक चेष्टा करे, यह रूपानुपात अतिचार है। (५) पुद्गलक्षेप-पत्थर तथा कंकरादि फेंक करके कार्य करवाना। अर्थात्-धारे हुए परिमाण से अधिक देश में रहे हुए व्यक्ति का काम पड़ने पर उसको बुलाने के लिए धारे हुए देश में रहकर के उस व्यक्ति के समीप में हो तो कंकरादि फेंके और दूर हो तो उसी प्रकार के पत्र-चिट्ठी आदि भेजे जिससे वह व्यक्ति अपने पास पा सके । यहाँ पर स्वयं अपने शरीर से नियमित देश से बाहर नहीं जाता है, इसलिए इस दृष्टि से व्रतभंग नहीं होता है। परन्तु अन्य-दूसरे द्वारा चीज-वस्तु मंगानो, अन्य-दूसरे को भेजना, शब्दानुपात इत्यादि से अन्य-दूसरे को अपने पास बुलाना इत्यादि में नियम का ध्येय सचवाता नहीं है। नियमित देश से बाहर हिंसा को अटकाने के लिये दिशा का नियमन किया है। स्वयं नहीं जाते हए भी चीज-वस्तु मंगाना इत्यादिक से हिंसा तो होती है। स्वयं जाय, इस करते अन्य-दूसरे के पास चीज-वस्तु मंगाने आदि में अधिक हिंसा हो जाय ऐसा भी सम्भव है। क्योंकि स्वयं जैसी जयणा पाले ऐसी अन्य-दूसरा पाले नहीं। इससे स्वयं चला जाय तो स्वयं ही काम करे जिससे हिंसा कम होना सम्भव है। इसलिए प्रानयन इत्यादि में नियम का ध्येय जलवाता नहीं होने से परमार्थ से व्रत का भंग होता है। इस तरह आनयन आदि में अपेक्षा से व्रत का अभंग और अपेक्षा से व्रत का भंग होता है। * यहाँ पर प्रथम के दो अतिचार, समझने के प्रभाव अथवा सहसात्कार इत्यादिक से होते हैं, तथा पीछे के तीन अतिचार मिलने से होते हैं। प्रथम के दो अतिचारों में अन्य-दूसरे के पास में मेरा कार्य करा लूगा तो भी मेरे नियम में बाधा नहीं प्रावेगी ऐसी बुद्धि है, किन्तु यह अज्ञानता है। अन्य-दूसरे के पास कराने से विशेष विराधना होनी सम्भव है ।। ७-२६ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * अष्टम- अनर्थदण्डविरतिव्रतस्यातिचारा: [ ७/२७ 5 मूलसूत्रम् कन्दर्प- कौत्कुच्य-मौखर्या-समीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ।। ७-२७ ॥ * सुबोधिका टीका * अनर्थदण्डविरतिव्रतस्य पञ्चातिचाराः । कन्दर्पः कौत्कुच्यं मौखर्यमसमीक्ष्याधिकरणमुपभोगाधिकत्वमित्येते पञ्चानर्थदण्ड - विरतिव्रतस्य प्रतिचारा भवन्ति । तत्र कन्दर्पो नाम रागसंयुक्तोऽसभ्यो वाक्प्रयोगो हास्यं च । कौत्कुच्यं नाम एतदेवोभयं दुष्टकायप्रचारसंयुक्तम् । मौखर्यमसंबद्ध बहुप्रलापित्वम् । समीक्ष्याधिकरणं लोकप्रतीतम् । उपभोगाधिकत्वम् चेति । अविचार्य प्रयोजनाधिकक्रिया श्रसमीक्ष्याधिकरणं भवति । त्रिविधश्चैतद् मनसावाचा-कायेन च । उपभोगवस्तुप्रमाणाधिकं संग्रहं उपभोगाधिकत्वातिचारः ।। ७-२७ ।। * सूत्रार्थ - कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोग का अधिकत्व ये पाँच अनर्थदण्डविरति व्रत के प्रतिचार हैं ।। ७-२७ ।। विवेचनामृत (१) कन्दर्प, (२) कौत्कुच्य, (३) मौखर्य, (४) असमीक्ष्याधिकरण तथा (५) उपभोगाधिकत्व ये पाँच प्रतिचार श्रनर्थदण्डविरमण व्रत के हैं । क्रमशः इनका संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे है - (१) कन्दर्प - रागवश होकर असभ्य भाषण या परिहासादि करना । श्रर्थात् - रागयुक्त हास्यपूर्वक कामोत्तेजक असभ्य वाक्य वचन बोलना । जिससे मोह ( तद् - तद् इन्द्रिय विषयोपभोग की अभिलाषा - इच्छा) प्रगट होवे ऐसा वाक्य वचन नहीं बोलना चाहिए। श्रावक-श्राविका को पेट भरके खटखटाट जोर से स्मित करना अर्थात् हँसना भी उचित नहीं । (२) कौत्कुच्य (कोकुच्य ) - भांडादि के समान कुचेष्टायें करनी । अर्थात् - राग सहित, हास्यपूर्वक कामोत्तेजक असभ्य वाक्य वचन बोलने के साथ असभ्य कायिक चेष्टा करनी । कन्दर्प में हास्य तथा वाक्य वचन के प्रयोग होते हैं। जबकि कौत्कुच्य में हास्य और वाक्य-वचन के प्रयोग के साथ कायिक प्रयोग भी होते हैं । इस कन्दर्प में कायिक चेष्टा हो तब वह कौत्कुच्य कहा जाता है । (३) मौखर्य - निर्लज्जपने या बिना सम्बन्ध के प्रति विलाप करना । प्रर्थात् — प्रसम्बद्ध बहुत बोलना, यह मौखर्य है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः ७/२८ ] [ ७१ (४) असमीक्ष्याधिकरण (संयुक्ताधिकरण ) - प्रसमीक्ष्य यानी विचारे बिना । अधिकरण यानी पाप का साधन । मुझे जरूरत है कि नहीं ? इत्यादि विचार किये बिना अपने को जरूरत नहीं होने पर भी शस्त्र इत्यादि अधिकरण (पाप के साधन ) तैयार रखना । कोई मांगने के लिए आ जाय तब देना पड़े; इससे निरर्थक पाप बंधाता है ।) यह 'प्रसमीक्ष्याधिकरण' है । (५) उपभोगाधिकत्व - उपभोग से अधिक चीज वस्तु रखनी । अर्थात् — स्वयं को जरूरत हो उससे अधिक चीज वस्तु अपने पास रखनी । जैसे- नदी, तालाब, बावड़ी इत्यादि स्थल में स्नान करने के लिए जब जाय तब साबुन इत्यादि चीज वस्तु अपने को जरूरियात पूर्ति ही ले जाने की होती है । अन्यथा अधिक देख करके ऐसे मसखरी करने वाले को अथवा अन्यदूसरे स्वार्थी आदि अपने को जरूरत नहीं होते हुए भी उस वस्तु का उपयोग करे । इससे निरर्थक पाप का बन्ध होता है । यहाँ पर कन्दर्प इत्यादि सहसा अथवा अनाभोग आदि से हो जाये तो अतिचार रूप है । परन्तु जो इरादा पूर्वक करते हों तो व्रतभंग होता है । प्रथम के तीन प्रतिचार प्रमादाचरण रूप अनर्थदण्ड के हैं। चौथा और पाँचवाँ प्रतिचार क्रमशः पापकर्मोपदेश तथा हिंसक साधन प्रदान रूप अनर्थदण्ड के हैं । उपयोग के अभाव में अथवा सहसात्कार आदि के कारण दुर्ध्यान करना यह अपध्यान रूप अनर्थदण्ड का अतिचार है । यह अतिचार यहाँ पर नहीं कहा है तो भी स्वयं समझ लेना चाहिए || ७-२७ ।। * नवम सामायिकव्रतस्यातिचाराः मूलसूत्रम् - योगदुष्प्ररिधानानावर - स्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ७-२८ ॥ * सुबोधिका टीका * 1 सूत्रे योगशब्दस्य प्रयोगः कृतः । योगशब्दः मनवचनकार्यक्रियार्थे प्रयुक्तः प्रतः तस्य त्रयो भेदाः मनवचनशरीराणि । दुष्प्रणिधानशब्दस्यार्थः दुरुपयोगः एवञ्च योगानामपेक्षया त्रयातीचाराः भवन्ति । कायदुष्प्रणिधानं वाग्दुष्प्रणिधानं-मनोदुष्प्रणिधानमनादरः । सामायिकसमये येन प्रकारेण शरीरस्य उपस्थापनं भवति तदभावः कायदुष्प्रणिधानं । एवमेव वचन - विसर्ग-भंग : वाग्दुष्प्रणिधानं । एवमेव रागादियुक्त दोषदूषितानां विचाराणां संकल्पः मनोदुष्प्रणिधानमनादरः । एवं सामायिकस्य पञ्चातिचाराः भवन्ति । त्वत्त्वैतानतिचारान् सामायिक कर्त्तव्यम् । एवमंशतोऽपि भंगं नैव भवेत् ।। ७-२८ ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७२८ * सूत्रार्थ - कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, मनः दुष्प्रणिधान, अनादर तथा स्मृत्यनुपस्थापन समयादि का भूल जाना ये सामायिक व्रत के पाँच प्रतिचार हैं ।। ७-२८ ।। 'मन, वचन और काया' इन तीन पाँच सामायिक व्रत के प्रतिचार हैं दुष्प्रणिधान, (३) काययोग दुष्प्रणिधान, सामायिक व्रत के प्रतिचार कहे जाते हैं । । विवेचनामृत 5 योगों के दुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थापन, ये अर्थात् - ( १ ) मनोयोगदुष्प्रणिधान, (२) वचनयोग(४) अनादर और (५) स्मृत्यनुपस्थापन ये पाँच इनका क्रमशः संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे है - [१] मनोयोगदुष्प्रणिधान - सावद्य या उपयोग रहित मनोव्यापार । अर्थात् निरर्थक पाप के विचार करना, यह मनोयोग दुष्प्रणिधान प्रतिचार है । * इस प्रतिचार से बचने के लिए सामायिक में मन के दस दोषों का त्याग करना चाहिए । वे दस दोष निम्नलिखित हैं ( १ ) श्रविवेक - सामायिक के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानने से ऐसी क्रिया से क्या फल मिले ? इत्यादि सामायिक फल सम्बन्धी कुविकल्प करना । (२) यशोवाञ्छा - श्रन्य-दूसरे लोग मेरी प्रशंसा करेंगे, ऐसी इच्छा से सामायिक करना । (३) धनवाञ्छा - धन प्राप्ति की इच्छा से सामायिक करना । (४) गर्व (अभिमान) - सामायिक करके घर्मी तरीके गर्व यानी अभिमान करना । (५) भय - जो में सामायिक नहीं करूँ तो अमुक तरफ से उपालम्भ यानी ठपका मिलेगा, कोई निन्दा करेगा तथा मैं सबके सामने हल्का ठहरूंगा; इत्यादि भय से सामायिक करना । (६) निदान - सामायिक के फल रूप में इसलोक तथा परलोक के सुखों की अभिलाषाइच्छा रखनी । (७) संशय - सामायिक का फल मिलेगा कि नहीं ? विषय में संशय रखना । (5) कषाय - क्रोध के आवेश में आकर सामायिक करना, अथवा सामायिक में क्रोध करना । इस तरह सामायिक के फल के ( ६ ) अविनय - विनय रहित सामायिक करना । (१०) बहुमान - बहुमान बिना यानी उत्साह बिना सामायिक करना। सदोष मनोयोग दुष्प्रणिधान के हैं । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२८ ] सप्तमोऽध्यायः [ ७३ [२] वचनयोग दुष्प्रणिधान -सावद्यभाषा या उपयोगरहित बोलना। अर्थात् –निरर्थक, पाप के वचन बोलना। इस अतिचार से बचने के लिए सामायिक में वचन के दस दोषों का त्याग करना चाहिए; जिनके नाम नीचे प्रमाणे हैं (१) कुवचन-किसी का अपमान इत्यादि हो, ऐसा कुवचन बोलना। (२) सहसात्कार-सहसा अयोग्य वचन बोलना। (३) प्रसत् प्रारोपण--विचार किये बिना ही किसी पर असत्-झूठा आरोप लगाना। . (४) निरपेक्ष-शास्त्र की उपेक्षा करके अर्थात् दरकार किये बिना वचन बोलना। (५) संक्षेप-सूत्र को संक्षिप्त करके बोलना। (६) क्लेश - अन्य-दूसरे के साथ क्लेश-कंका करना। (७) विकथा-स्त्रीकथा इत्यादि विकथा करनी। (८) हास्य-हंसना, ठट्ठा-मसखरी करना। (६) अशुद्ध -सूत्रों को अशुद्ध बोलना। (१०) गुणगुण-स्वयं-पोते और अन्य-दूसरे भी नहीं समझ सके, इस तरह सूत्र का अस्पष्ट उच्चारण करना, इत्यादि । उपर्युक्त दस दोष वचनयोग प्रणिधान के हैं। [३] काययोग दुष्प्रणिधान-निरर्थक पाप की प्रवृत्ति करनी। अर्थात् - बिना काम हाथ-पांव इत्यादि संचालन करना । इस अतिचार से बचने के लिए सामायिक में काया के बारह दोषों का त्याग करना चाहिए । वे बारह दोष क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं (१) प्रासन:-पांव पर पांव चढ़ाकर के बैठना। (२) चलासन:-स्थिर नहीं बैठना अर्थात् बार-बार पासन से निष्प्रयोजन उठना । (३) चलदृष्टि:-कायोत्सर्ग इत्यादि में नेत्र (ख) इधर-उधर चलाना । (४) सावधक्रियाः-स्वयं सावद्य (हिंसापूर्ण) क्रिया करनी वा अन्य-दूसरे को प्राज्ञा आदि से सावध क्रिया करने के लिए कहना। . (५) पालम्बनः-दीवार या स्तम्भ-थम्भे आदि का आश्रय (टेका) लेकर बैठना । (६) प्राकुचनः-प्रसारण-हाथ-पांव इत्यादि अवयव फैलाना और सिकोड़ना। (७) मालसः-अंग (शरीर) मरोड़ना, जम्हाई, उबासी आदि रूप पालस करना। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।२६ (८) मोटन:--अंगुली के टचाका फोड़ना। (६) मल:-अंग-शरीर का मैल उतारना। (१०) विमासणः-जाने कोई चिन्ता हुई हो इस मुद्रा में गाल इत्यादि पर हाथ रखकर बैठना इत्यादि । (११) निद्राः-झोंका खाना, ऊंघना, नींद लेना इत्यादि। .. (१२) वस्त्र संकोचन:- सर्दी इत्यादि के कारण वस्त्र से देह-शरीर संकोचना अर्थात् ढकना। उक्त बारह दोष काययोग दुष्प्रणिधान के जानना। [४] अनादर-सामायिक में उत्साह का प्रभाव, और नियत समय में सामायिक नहीं लेना, इत्यादि। [५] स्मृत्यनुपस्थापन-एकाग्रता के प्रभाव में मैंने सामायिक की या नहीं की? यह भूल जाना इत्यादि । उक्त ये दस दोष मन के, दस दोष वचन के, तथा बारह दोष काया के जानना। ये तीनों (१०-१०-१२) मिलकर बत्तीस दोष सामायिक के जानकर, सामायिक में अवश्य ही त्यजना। मनोयोग दुष्प्रणिधान इत्यादि सहसा, अनाभोग अर्थात् अनुपयोग इत्यादिक से होता हो तो अतिचार रूप है। जो इरादापूर्वक अर्थात् इरादे से (जानबूझ कर) करने में पाये तो व्रतभंग होता है ।। ७-२८ ।। * दशमपौषधव्रतस्यातिचाराः * ॥ मूलसूत्रम्अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गा-ऽऽदाननिक्षेप-संस्तारोपक्रमणाऽनादर-स्मृत्यनुपस्थापनानि ॥७-२६ ॥ * सुबोधिका टीका * अप्रत्यवेक्षितदृष्ट्या यद् दर्शितम्, तथा चाप्रमाणितेषु स्थानेषु मल-मूत्रादित्यागोप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः नामकोऽतिचारः । अर्थात् अप्रमाजिते उत्सर्गः अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितातिचारः । अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्यादाननिक्षेपी अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितः संस्तारोपक्रमः अनादरः स्मृत्यनुपस्थापनमित्येते पञ्चपौषधोपवासस्यातिचाराः । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२६ ] सप्तमोऽध्यायः उपवासादि यदपि क्रियन्ते प्रमादादिदोषपरिहारार्थञ्च रत्नत्रयाराधनार्थं क्रियन्ते । अतः पर्वणि उपवासकैरप्रमत्ततया सोत्साहेन क्रियानुष्ठानं विधातव्यम् । प्रमादारुचिना वा विधिभंगेनांशतः भंग जायते। तेनैव पञ्चातिचाराः पौषधोपवासातिचाराः भवन्ति ।। ७-२६ ॥ * सूत्रार्थ-अनदेखी और अप्रमाणित भूमि पर मल-मूत्रादि का परित्याग, अनदेखी तथा अप्रमाजित वस्तु का आदान-निक्षेप, अनदेखी और अप्रमार्जित शय्या तथा प्रासन इत्यादि का उपयोग, अनादर-व्रतपालन में भक्ति का प्रभाव और स्मृत्यनुपस्थापन, ये पाँच पौषधोपवास व्रत के अतिचार हैं ॥ ७-२६ ।। विवेचनामृत ॥ ___ अप्रतिवेक्षित तथा अप्रमार्जित स्थल में (१) उत्सर्ग (२) (उक्त) पादाननिक्षेप, (३) संस्तारोपक्रम, (४) अनादर और (५) स्मृत्यनुपस्थापन ये पाँच पौषधवत के अतिचार हैं। अर्थात्-अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाणित-उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित-आदाननिक्षेप, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-संस्तारोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थापन ये पांच पौषधोपवास (पौषध) व्रत के अतिचार हैं। दशम पोषध व्रत के पाँच अतिचारों का संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे है (१) अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-उत्सर्ग-प्रप्रत्यवेक्षित यानी दृष्टि से बिल्कुल जोहे बिना अर्थात् दृष्टि से बरावर देखे भाले बिना। अप्रमाजित यानी चरवला आदि से बिल्कुल के बरावर प्रमार्जन बिना । उत्सर्ग यानी त्याग करना। भूमि को दृष्टि से जोहे-देखे बिना और चरवला आदि से प्रमाजित किये बिना के बरोबर प्रमार्जन बिना मल-मूत्र का त्याग करना। (२) अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित-मादाननिक्षेप-आदान यानी लेना। निक्षेप यानी रखना। दृष्टि से देखे-जोहे बिना और चरवला आदि से प्रमाजित किये बिना वस्तु लेनी और रखनी। (३) अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित-संस्तारोपक्रमण-संस्तार यानी संथारा (बिछौना), पासनादि (विछाना) सोने का और पाथरने के साधन । उपक्रमण यानी पाथरना। दृष्टि से देखे-जोहे बिना के बराबर प्रमाा बिना संथारा, आसनादि पाथरना । (४) अनादर-पौषध में उत्साह नहीं रखना। जैसे-तैसे अनादर से पौषध पूर्ण करना । (५) स्मत्यनुपस्थापन- 'स्वयं पौषध में है' यह भूल जाना तथा पौषध की विधियाँ याद नहीं रखना इत्यादि । ये पांच पौषधोपवास (पौषघ) व्रत के अतिचार जानना ।। (७-२६) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७३० * एकादशमोपभोग-परिभोगपरिमाण-व्रतानामतिचाराः* 卐 मूलसूत्रम्सचित्तसंबद्ध-संमिश्रा-ऽभिषव-दुष्पक्वाहाराः ॥ ७-३० ॥ .. * सुबोषिका टीका * प्रमादयोगेन त्यक्तानां परिमितानां वा पदार्थानां ग्रहणं भक्षणं वा उपभोगपरिभोगव्रतस्यातिचाराः भवन्ति । यथानुक्रमेण सचित्ताहारः सचित्त-सबन्धाहारः सचित्त-संमिश्राहारः अभिषवाहारः दुष्पक्वाहारश्च हरितकायवनस्पतीनां भक्षणञ्च त्यक्तभक्षणस्य प्रमादेनाज्ञानेन भक्षणं सचित्ताहारातिचारः सचित्तसम्बन्धं यत्र तस्यापि भक्षणम् । यथा कदलीदलो परिभक्षणं वा कदलीपत्राच्छादितवस्तुभक्षणम् सचित्तसम्बन्धाहारः नामकोऽतिचारः । एवञ्च सचित्तसंमिश्राहारः, अभिषवाहारः दुष्पक्वाहारादि पञ्चातिचाराः भवन्ति ।। ७-३० ।। * सूत्रार्थ-सचित्त माहार, सचित्तसम्बद्ध आहार, सचित्त मिश्राहार, अभिषवगरिष्ठ और रसयुक्त पदार्थ का आहार तथा दुष्पक्व-योग्य रीति से नहीं पके हुए पदार्थ का आहार ये पाँच उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के प्रतिचार हैं ।। ७-३० ॥ विवेचनामृत (१) सचित्त पाहार, (२) सचित्त सम्बद्ध आहार, (३) सचित्तसंमिश्र आहार, (४) अभिषव आहार तथा (५) दुष्पक्व आहार। ये पाँच उपभोग-परिभोग परिमाणवत के अतिचार हैं। इनका क्रमश: संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे है (१) सचित्त प्राहार-अयोग्य वस्तु का आहार करना। अर्थात् – सचित्त (दाडिम इत्यादि) फलादि का उपयोग करना। यहाँ पर सचित्त का त्याग होने से अनाभोग' आदि से सचित्त आहार जो वापरे तो अतिचार लगे, किन्तु जो जानबूझ कर भी वापरे तो इस व्रत का भंग होता है। (२) सचित्त संबद्ध प्राहार-सचित्त से सम्बन्ध रखने वाली वस्तु का प्राहार करना। अर्थात्-ठलिया, गुठली इत्यादि सचित्त बीज समेत बोर तथा केरी प्रमुख का आहार करना (वापरना)। यहां पर ठलिय, तथा गुठलो आदि छोड़ देते हैं। मुख में से बाहर निकाल देते हैं । केवल फल का अचित्त गर्भ-सार वापरते हैं। इसलिए इस दृष्टि से व्रत का भंग नहीं होता, किन्तु १. 'सचित्त का त्याग है' इस तरह ख्याल में नहीं रहना या यह वस्तु सचित्त है इस तरह ख्याल में नहीं रखना। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।३० ] सप्तमोऽध्यायः [ ७७ व्रत का ध्येय (जीवरक्षा) सचवाता नहीं है। इसलिये यहाँ पर परमार्थ से तो व्रतभंग है। यहां पर प्रांशिक व्रतभंग और प्रांशिक व्रतपालन होने से अतिचार लगते हैं। (३) सचित्त संमिश्र प्राहार–सचित्त, अचित्त, मिश्रित पदार्थ का आहार करना। अर्थात्-अल्पभाग सचित्त और अल्पभाग अचित्त हो ऐसा पाहार करना। जैसे-तल तथा खसखस इत्यादि से युक्त मोदक (लड्डू) आदि का प्राहार करना। (४) अभिषव प्राहार-गरिष्ठ, पुष्ट और इन्द्रियों को बलवान करने वाला रसयुक्त पदार्थ अभिषव कहा जाता है। इस तरह के पदार्थों का सेवन करना अभिषवाहार नाम का अतिचार है। (५) दुषपक्व पाहार-अधपके या रंधे पदार्थों को सेवन करना। अर्थात्--बराबर नहीं रन्धाने से कंइक पक्व तथा कांइक अपक्व काकड़ी आदि का आहार करना । ये उपभोग परिभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं । * धर्मरत्न प्रकरण इत्यादि ग्रन्थों में यहाँ पर कहे हुए अन्तिम तीन अतिचारों के स्थान में अपक्वौषधि-भक्षणता, दुष्पक्वौषधि-भक्षणता तथा तुच्छौषधि-भक्षणता अतिचारों के उल्लेख हैं। (३) अपक्वौषधि भक्षणता-रँधे बिना वस्तु का आहार लेना। जैसे-सचित्त कण वाले लोट को अचित्त समझ करके वापरना। (४) दुष्पकवौषधि भक्षणता-बराबर नहीं रंधाने से कुछ पक्व तथा कुछ अपक्व ककड़ी आदि का आहार करना। ऐसा अर्थ यहां पर भी समझना। (५) तुच्छौषधि भक्षणता-जिसका प्राहार करने से तृप्ति नहीं हो, ऐसे पापड़ तथा बोर आदि वस्तु वापरनी। ये उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के पाँच अतिचार जानना। * प्रश्न--तुच्छ औषधि (जिससे तृप्ति नहीं हो ऐसी चीज-वस्तुनों को) जो सचित्त वापरते हैं, तो उसी का समावेश सचित्त आहार नाम के प्रथम-पहिले अतिचार में हो जाता है। अब जो अचित्त वापरते हैं तो वह अतिचार ही गिना जाता नहीं ? उत्तर-यह कथन सत्य है, किन्तु अचित्त वापरने में व्रत के ध्येय का पालन नहीं होने से परमार्थ से व्रत की विराधना होती है। जो आराधक सावध से-पाप से प्रति डरता हो और जिसने लोलुपता कम की हो तो वह श्रावक सचित्त का प्रत्याख्यान यानी पच्चक्खाण करता है। जिससे तृप्ति न होती हो ऐसी वस्तु वापरने में लोलुपता कारण है। कारण कि, उस वस्तु से शरीर को पुष्टि मिलती नहीं है। इससे जो श्रावक ऐसी चीज-वस्तु को वापरे तो उसमें लोलुपता अधिक है, यह सिद्ध होता है । इसमें देह-शरीर को लाभ नहीं होता है, तथा पाप विशेष होता है। इस अपेक्षा से तुच्छ औषधिका भक्षण भी अतिचार कहा जाता है ।। ७-३० ।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७३१ द्वादशम-प्रतिथिसंविभागवतस्यातिचाराः * 卐 मूलसूत्रम्सचित्तनिक्षेप-पिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिक्रमाः ॥७-३१॥ * सुबोधिका टीका * अतिथिसंविभागवतस्य पञ्चातिचाराः भवन्ति । अन्नादिवस्तु यद् दानयोग्यं पत्रोपरिपर्यवेशनं सचित्तनिक्षेपनामकोऽतिचारः । देयाहार्य सचित्तपत्रादिभिः पाच्छादनं सचित्तपिधावातिचारः । स्वयं दानेऽप्रवृत्ताय अन्यं दानायोपदेशः परव्यपदेशातिचारः । दातृभ्येश्चेष्टया मात्सर्यनामकोऽतिचारः । दानसमयोल्लंघनं कृत्वा दानं कालातिक्रमोऽतिचारः। पञ्चाणुव्रतानां सप्तशीलानाञ्चातिचाराणां वर्णनं पूर्णमत्र ॥ ७-३१ ॥ * सूत्रार्थ-देय वस्तु को सचित्त पदार्थ पर रखना, सचित्त से ढांकना, परव्यपदेश, अन्य दाता से ईर्ष्या-मात्सर्य और दान के समय का उल्लंघन-कालातिक्रम ये पाँच प्रतिथि संविभाग व्रत के अतिचार हैं ।। ७-३१ ।। + विवेचनामृत ॥ (१) सचित्त निक्षेप, (२) सचित्त पिधान, (३) परव्यपदेश, (४) मात्सर्य और (५) कालातिक्रम ये पांच अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार हैं। इनका क्रमशः संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे है (१) सचित्त निक्षेप-देने योग्य वस्तु को नहीं देने की बुद्धि से अयोग्य सचित्तादि चीजवस्तु मिलाकर देनी। अर्थात्-नहीं देने की बुद्धि से देने लायक वस्तु को सचित वस्तु में रख देनी, यह सचित्त निक्षेप अतिचारा है। (२) सचित्त पिधानम्-पूर्वोक्त वस्तु को सचित्त से ढक देना। अर्थात्-नहीं देने की बुद्धि से देने लायक वस्तु पर सचित्त वस्तु ढक देनी, वह सचित्तपिधान अतिचार है। (३) परव्यपदेश-पूर्वोक्त वस्तु को दूसरे की कह देना। अर्थात् -नहीं देने की बुद्धि से देने लायक वस्तु अपनी होते हुए भी अन्य-दूसरे की है ऐसा कहना, अथवा देने की बुद्धि से अन्यदूसरे की होते हुए भी यह वस्तु मेरी है इस तरह कहना; यह परव्यपदेश अतिचार है। (४) मात्सर्य-दान देने वालों और दान लेने वालों के गुणों से ईर्ष्या करना। अर्थात्हृदय में गुस्से होकर के देना। सामान्य मानव सभी देता है, तो क्या मैं उससे कम-न्यून हैं ? यों ईर्ष्या से देना. यह मात्सर्य अतिचार है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।३२ ] सप्तमोऽध्यायः [ ७६ (५) कालातिक्रम - दान के समय का उल्लंघन करना । अर्थात् — भिक्षाकाल के बाद, या भिक्षाकाल होने के पूर्व-पहिले साधुओं को निमन्त्रण करना, यह काला 'तक्रम प्रतिचार है । यह तिथि संविभाग व्रत के पाँच प्रतिचार जानना ।। ७-३१ ।। * संलेखनाव्रतस्यातिचाराः 5 मूलसूत्रम् जीवित-मरणाशंसा-मित्रानुराग-सुखानुबन्ध निदानकरणानि ॥ ७-३२ ।। * सुबोधिका टीका * मारणान्तिकसंलेखनायाः पञ्चातिचाराः भवन्ति । ऐश्वर्य भोगेच्छयाचार्य प्रभृतीनां सेवाभावया वा असमर्थपुत्राणां भरणपोषणचिन्तयाऽधिकजीवनेच्छा जीविताशंसा भवति । प्रतिकूलसा धनदुःखेन द्रारिद्रयेन वा रुग्णावस्था वा मरणेच्छा मरणाशंसातिचारः । स्नेहीजनानुरागेणयोऽतिचारो भवति सः मित्रानुरागातिचारः । एवमेव सुखस्यानुबन्धने सुखानुबन्धोऽतिचारः । निधान करणातिचारः एते मारणान्तिकसंलेखनाया पञ्चातिचार | : भवन्ति ।। ७-३२ ।। * सूत्रार्थ - जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध तथा निदानकररण ये पाँच संलेखनाव्रत के अतिचार हैं ।। ७-३२ ।। विवेचनामृत 5 मरण - प्रशंसा, (३) मित्र अनुराग, (४) सुख - अनुबंध, संलेखना व्रत के अतिचार हैं । इनका क्रमश: संक्षिप्त वर्णन (१) जीवित प्राशंसा, (२) तथा (५) निदान करण; ये पाँच नीचे प्रमाणे है - (१) जीवित प्राशंसा - प्राशंसा यानी इच्छा । जीवित- यानी जीना । जीने की इच्छा यह 'जीवित प्राशंसा' है । अर्थात् पूजा तथा सत्कारादि देखकर के जीने की अभिलाषा - इच्छा करनी । पूजा, सत्कार-सन्मान, तथा प्रशंसा इत्यादिक प्रति हो जाने से अब मैं विशेष जिन्दा रहूं अर्थात् जीव तो सारूं । इस प्रकार जीने की अभिलाषा - इच्छा रखनी । यह 'जीवित - श्राशंसा' नामक अतिचार है । (२) मरण-श्राशंसा - दुःखादि देखकर मरने की अभिलाषा करनी । अर्थात् - पूजा, सत्कार-सन्मान, कीत्ति, तथा वैयावच्च प्रमुख नहीं होने से कंटालके मैं शीघ्र-जल्दी मर जाऊँ तो प्रच्छा । इस तरह मृत्यु- मरण की अभिलाषा इच्छा रखनी । यह 'मरण-प्रशंसा' नामक प्रतिचार है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ ७।३३ (३) मित्र-अनुराग-मित्र तथा पुत्रादि पर प्रीतिभाव रखना। अर्थात्-मित्र, पुत्र आदि स्वजन स्नेहियों पर ममत्वभाव रखना। यह 'मित्र अनुराग' नामक अतिचार संलेखना व्रत का है । (४) सुख-अनुबन्ध- अनुभव किये हुए सुखों का स्मरण करना। अर्थात्-पूर्वे अनुभवेल सुखों को याद करना। यह 'सुखानुबन्ध' नामक अतिचार संलेखना व्रत का है। (५) निदान करण–तपस्यादि करके भोगादि विषयों की आकांक्षा करनी। अर्थात्तप तथा सयम-चारित्र के प्रभाव से मैं परलोक में चक्रवत्ती, वासुदेव, मांडलिक राजा, बलवान तथा रूपवान बनू इत्यादि परलोक के सुख की अभिलाषा-इच्छा रखनी। यह निदान करण' नामक अतिचार संलेखना व्रत का है । उपरोक्त अतिचार यदि इरादापूर्वक या वक्रता से सेवन किये जाय तो वे व्रतखण्डनरूप अनाचार हैं। भूल या असावधानी से दूषित को अतिचार कहते हैं। इस तरह ये पांच अतिचार संलेखना व्रत के जानने ॥ ७-३२ ।। * दानस्य व्याख्या * 卐 मूलसूत्रम् अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ७-३३ ।। * सुबोधिका टीका * स्वात्मपरानुग्रहार्थं स्वस्य द्रव्यस्य वाऽअन्नपानादेः पात्रेतिसर्गो दानम् । यशलाभाय वा पूजादिलाभाय नैव किन्तु पुण्यसञ्चयाय कर्मनिर्जराद्वारात्मकल्याणाय पात्रस्य रत्नत्रयधर्मरक्षणाय यद् दीयते तद् दानम् । देयवस्तुनः योग्यत्वं स्वत्वमपि भवेत् । अयोग्यपरस्य वा वस्तुनां दानं दानं ।। ७-३३ ॥ * सूत्रार्थ-स्व-पर के कल्याण के लिए वस्तु का त्याग करना दान है। अर्थात्-हित करने की इच्छा से अपनी वस्तु का त्याग करना दान कहलाता है ।। ७-३३ ।। + विवेचनामृत स्व और पर के उपकार के लिए अपनी वस्तु पात्र को देनी वह दान है। स्व-उपकार, प्रधान और प्रानुषंगिक रूप से दो प्रकार का है। प्रधान यानी मुख्य । कर्म-निर्जरा से प्रात्मा की संसार से मुक्ति यह प्रधान स्व-उपकार है। आनुषंगिक उपकार यानी मुख्य उपकार के साथ-साथ अनायास हो जाता उपकार । आनुषंगिक उपकार के दो भेद हैं-(१) इस लोक सम्बन्धी उपकार और (२) परलोक सम्बन्धी उपकार । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।३४ ] सप्तमोऽध्यायः [ ८१ * संतोष तथा वैभवादिक की प्राप्ति यह इस लोक सम्बन्धी आनुषंगिक स्व-उपकार है। अर्थात् दान से दान करने वाली प्रात्मा में संतोष गुण आता है। [संतोष के साथ उदारता इत्यादि अनेक गुण पाते हैं, इतना ही नहीं किन्तु रागादिक दोष कम हो जाते हैं।] इस प्रकार के विशिष्ट पुण्य के उदय से बाह्य वैभव की भी प्राप्ति हो जाती है । परलोक में विशिष्ट प्रकार के स्वर्गादिक सुख की प्राप्ति यह परलोक सम्बन्धी प्रानुषंगिक स्व-उपकार है। इस प्रकार पर उपकार भी प्रधान और प्रानुषंगिक यों दो प्रकार का है। कर्म की निर्जरा से आत्मा की संसार से सर्वथा मुक्ति यह प्रधान-मुख्य पर-उपकार है। आनुषंगिक पर-उपकार इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी यों दो प्रकार के हैं । संयम-चारित्र का पालन कर मोक्ष-मार्ग की आराधना यह इस लोक सम्बन्धी पर-उपकार है। विशिष्ट प्रकार के स्वर्गादिक सुख की प्राप्ति यह परलोक सम्बन्धी पर-उपकार है। इसका कोष्ठक नीचे प्रमाणे है * उपकार * प्रानुषंगिक मानुषंगिक प्रधान [कर्म निर्जरा से मोक्ष] इस लोक सम्बन्धी (संतोष, वैभव आदि) परलोक सम्बन्धी इह लोक सम्बन्धी (विशिष्ट स्वर्गादि सुख) (मोक्षमार्ग की आराधना प्रादि) * दानक्रिया समान फले भिन्नता * 卐 मूलसूत्रम्विधि-द्रव्य-दात-पात्रविशेषाच्च तद्विशेषः ॥ ७-३४ ॥ * सुबोधिका टोका * दानधर्मस्य वैशिष्टय विधिविशेषात्, द्रव्यविशेषात्, दातृविशेषात्, पात्रविशेषात् भवति । तत्र च विधि वैशिष्ट्य नाम देशकालसंपच्छद्धा सत्कारक्रमाः कल्पनीयत्व Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे ६२] [ ७।३४ मित्येवमादिः । द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सारजातिगुणोत्कर्षं योगः । दातृविशेषः प्रतिग्रहतिर्यनसूया त्यागेऽविषादः परिभाविता दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः । पात्राय दानरीति विधिः कथ्यते । नवधा भक्त्यादिभिः यद् दीयते । तस्य सम भावेन पालनमसम्भवम् । श्रतः कुत्र विधिवैशिष्ट्यं भवति । कुत्र द्रव्य वैशिष्ट्यं भवति पात्र वैशिष्टयं भवति । मात्रविशेषः सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र तपः सम्पन्नता इति ।। ७-३४ ।। * सूत्रार्थ - विधि की विशेषता, द्रव्य की विशेषता, दाता की विशेषता तथा पात्र की विशेषता से दान के फल में विशेषता हुआ करती है । अर्थात् द्रव्य दान और पात्र इनकी विशेषता से दान की विशेषता होती है ।। ७-३४ ।। विवेचनामृत 5 आत्म-जीवन के सद्गुणों में सबसे प्रथम - पहला और अन्य सद्गुणों के विकास का आधार तथा पारमार्थिक दृष्टि में आदरणीय दान है । न्यायोपार्जित वस्तु अन्य-दूसरे को अर्पण करना अर्थात् देना ही दान है। इससे स्व और पर का उपकार अवश्य ही होना चाहिए । अर्पण करने वाले अर्थात् दान देने वाले को चीज वस्तु पर से ममत्व भाव कम करके सन्तोष तथा समभाव प्राप्त होता है । स्वीकार करने वाले का अभिप्राय केवल जीवनयात्रा का निर्वाह करके संयम चारित्र के सद्गुणों की अभिवृद्धि करना है । समस्त प्रकार का दान, दान रूप से एक ही है तो भी उसके फल में तारतम्य भाव रहा हुआ है और वह तारतम्य भाव दान की विशेषता पर अवलम्बित है । सूत्रकार ने उसके मुख्य चार अंग बताये हैं । विधि, द्रव्य, दाता और पात्र इनकी विशेषता से दान की विशेषता होती है। इनका क्रमश: वर्णन नीचे प्रमाणे है - (१) विधि विशेष - देश, काल, श्रद्धा के उचितानुचित स्वरूप को जोह कर अर्थात् देखकर लेने वाले के सिद्धान्त को अबाधित हो ऐसी कल्पनीय चीज वस्तु को अर्पण करना, वह विधि विशेष है । अर्थात् – देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमपूर्वक कल्पनीय चीज वस्तु देनी इत्यादि fafa कही जाती है । १. स्वयं जाते ही अपने हाथ से सानंद सहर्षं दान करना, यह भी विधि है । इत्यादि शब्द से इस विधि का निर्देश किया है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।६४ ] सप्तमोऽध्यायः (२) द्रव्य विशेष-देय चीज-वस्तु योग्य गुणवाली होनी चाहिए, जिससे लेने वाले पात्र को जोवन-यात्रा में पोषकरूप होकर गुण-विकास को प्राप्त करने वाली हो। अन्न, पान, वस्त्र, पात्र इत्यादि श्रेष्ठ द्रव्यों का दान करना चाहिए। वह द्रव्य विशेष कहा जाता है। (३) दाता को विशेषता-दान को ग्रहण करने वाले पुरुष पर श्रद्धा होनी चाहिए। उसकी तरफ तिरस्कार या असूया (गुणों में दोष दृष्टि) के भाव नहीं हों और त्याग के पश्चात् शोक तथा विषाद नहीं हो। आदरपूर्वक दान देने की इच्छा करते हुए उससे प्रतियोग या किसी प्रकार के फल की आकांक्षा नहीं रखे। अर्थात्-दाता प्रसन्नचित्त, पादर, हर्ष, शुभाशय इन चार गुणों से युक्त और विषाद, संसार सुख की अभिलाषा-इच्छा, माया और निदान इन चार दोषों से रहित होना चाहिए। १. प्रसन्नचित्त-जब साधु इत्यादि अपने गृह-घर पर पधारें तब मैं पुण्यशाली-भाग्यशाली हूँ, जो तपस्वी मेरे गृह-घर पर पधारे हैं। इस तरह विचारे और प्रसन्न होवे। परन्तु यह तो नित्य हमारे गृह-घर पर आते हैं, वारंवार आते हैं, ऐसा विचार करके कंटाली न जाय । २. प्रादर-बढ़ते हुए आनन्द-हर्ष से पधारो! पधारो! अमुक वस्तु का जोग है, अमुक वस्तु का लाभ दीजिए। यो प्रादरपूर्वक दान दें। ३. साधु को देखकर के या साधु कोई चीज-वस्तु मांगे तब हर्ष पावे। वस्तु का दान देते हुए भी हर्ष पावे। वस्तु वहोराने के बाद भी अनुमोदना करे। आम दान देते पहिले, देते समय तथा देने के बाद भी हर्ष-आनन्द पावे । ४. शुभाशय-अपनी आत्मा का भव-संसार से निस्तार करने के प्राशय से दान देवे । ५. विषाद का प्रभाव-दान देने के बाद मैंने क्या दिया? इस तरह पश्चात्ताप नहीं करे, किन्तु व्रती (तपस्वी) के उपयोग में प्रा जाय यही मेरा है। मेरी चीज-वस्तु तपस्वी के पात्र में गई, यही मेरा अहोभाग्य है। इस तरह अनुमोदना करे। ___[उक्त प्रसन्नचित्त में कहे हुए इन चार गुणों में से हर्ष गुण प्रा जाय तो विषाद दोष दूर हो जाता है।] ६. संसार के सुख की इच्छा का प्रभाव-दान देकर के उसके फलरूप में कोई भी भवसंसार सुख की अभिलाषा-इच्छा नहीं रखे। [उक्त कहे हुए चार गुणों में से जो शुभाशय आ जाय तो संसार सुख की अभिलाषा-इच्छा तथा निदान ये दो दोष दूर हो जाते हैं ।] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७।३४ ७. माया का प्रभाव-दान देने में किसी भी तरह की अर्थात् किसी भी प्रकार की माया नहीं करे। सरल भावपूर्वक दान करे। ८. निदान का प्रभाव-दान के फलरूप में परलोक में स्वर्गादि के सुख की याचना अर्थात् मागणी नहीं करे। सुख की अभिलाषा-इच्छा का प्रभाव तथा निदान का प्रभाव इन दोनों में भव-संसार सुख की अभिलाषा-इच्छा का अभाव होने से सामान्य से अर्थ समान है। विशेष से दोनों के अर्थ में अल्प फेरफार भी है संसार सुख की इच्छा के अभाव में वर्तमान जीवन में संसार के सुख की इच्छा नहीं रखे, यह भाव है; तथा निदान के प्रभाव में परलोक में संसार के सुख की इच्छा नहीं रखे, यह भाव है। (४) पात्र-सम्यग्दर्शन इत्यादि गुणों से युक्त सर्वविरतिघर साधु और देशविरतिघर श्रावक प्रादि । जितने अंश में विधि आदि बराबर हो उतने अंश में दान से अधिक लाभ । तथा जितने अंश में विधि आदि में न्यूनता हो उतने अंश में कम लाभ होता है ।। ७-३४ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांश ] सप्तमोऽध्यायः [ ८५ ANANANAamasad Adidaanadaadidad aad # श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे सप्तमोऽध्यायस्य सारांशश्लोकाः ॥ हिंसानृतस्तेयादि वै, कुशोलञ्च परिग्रहम् । कायवाङ्मनोभिश्च, निवृत्तिरुपरमो व्रतम् ॥ १ ॥ त्यागवतं कतिविधं, स्वरूपं किञ्च तस्य च ? । एभ्यो विरतिरेकदेश-सर्वतोऽणु - महाव्रतम् ॥ २ ॥ तच्च स्थैर्यार्थमेकैकस्य पञ्च पञ्च भावना । हिंसादिष्विहामुत्र, अपायावद्यदर्शनम् ।। ३ ।। अप्राप्त - प्राप्तनष्टेषु, कांक्षा - रक्षण - शोक हि । तेभ्योद्भवं दुःखमेव, व्युपरतिः भावयेत् सदा ॥ ४ ॥ प्राणिमात्रेषु मैत्र्यं वै, प्रमोदञ्च गुणाधिके । कारुण्यं क्लिश्यमानेषु, माध्यस्थमविनयेऽपि ।। ५ ।। संवेग - विरति - सिद्धयर्थ, जगत्कायञ्च चिन्तयेत् । अनृतमसदभिधा - नादत्तादान तस्करी ॥ ६ ॥ प्रब्रह्म मैथुनं प्रोक्त, निःशल्यो व्रतवान् व्रती । अगारी अणगारश्च, श्रावकोऽणुव्रती स्मृतः ॥ ७ ।। दिग्देशानर्थदण्डादि, सप्तैतानि व्रतानि च । शंका कांक्षा विचिकित्सा, गुणदृष्टे: प्रशंसनम् ।। ८ ॥ अन्यदृष्टिश्च संस्तवः, सम्यग्दृष्टयातिचारकाः ।। यथाक्रमं . पञ्च -पञ्च, - व्रतशीलेष्वपि स्मृताः ॥ ६ ॥ पञ्चातिचाराः हिंसायाः, सूत्रे ये वरिणताऽखिलाः । मिथ्योपदेशादि प्रोक्ता, ते सत्याणुव्रतस्य च ॥ १० ॥ पञ्चास्तेयव्रतस्यापि, अतिचाराः भवन्ति हि । ब्रह्मचर्यातिचाराश्च, पञ्च परविवाहकाः ॥ ११ ।। Verwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Madaadaashaadamadadlabaradashamadhaladalaaaaad aadimandal Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AdamdaradiatimaanandMAMMMMMilamaaaaaaaaaandal श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ सारांश AMANANMadaadimanabadimania.in परिग्रह - प्रमाणस्य, कृतं सूत्रेषु वर्णनम् । क्षेत्र - वास्तु - हिरण्यादि - सुवर्ण - धन - धान्यकम् ॥ १२ ॥ दासीदासप्रमाणाति - क्रमः कुप्य - प्रमाणकम् । .... एते पञ्चातिचाराश्च, परिग्रह - व्रतस्य च ॥ १३ ॥ दिग्वतस्यातिचाराः वै, ऊर्ध्वव्यतिक्रमादयः । द्रव्यस्यानयनं प्रेष्य, शब्दरूपश्चे पुद्गलः ॥ १४ ॥ देशव्रतस्यातिचाराः पञ्चैता सप्तमे स्तुताः । एवमनर्थ - दण्डस्य, प्रोक्ता पञ्चातिचारकाः ॥ १५ ॥ कायदुष्प्रणिधानानि, सामायिकव्रतस्य च । अप्रत्यवेक्षितादीनि, पञ्चैव पौषधस्य च ॥ १६ ॥ सचित्ताहारसचित्त - सम्बन्धाहारमेव च । सचित्त - मिश्रमाहारा - भिषव दुष्पक्व पंचमः ॥ १७ ॥ एते पञ्चातिचारा हि, उपभोग - व्रतस्य च । अतिथिसंविभागस्या - ऽतिचाराश्च भवन्ति हि ॥ १८ ॥ भवन्ति जीविताशंसा, द्वितीयामरणाऽपि वै । तथा मित्रानुरागो वै, सुखानुबन्धप्रक्रमाः ।। १६ ॥ निदानकरणं पञ्च, प्रोक्ता संलेखना कृते । व्रतानि पुनरुच्यते, वतिनः सन्ति यानि च ।। २० ।। परात्मानुग्रहार्थञ्च, निजद्रव्यान् न वस्तूनाम् ।। दानं पात्रेऽतिसर्गोऽपि, तत्त्वार्थाधिगमे कृतम् ॥ २१ ।। विधिद्रव्यविशेषादि, दातृपात्रविशेषणः । फलविशेष प्रोच्यन्ते, उक्त दानस्य लक्षणम् ।। २२ ।। Allahabharatadaadiadrasbhimaanadaadimadadabaalamaanade wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के सप्तम अध्याय का ? * हिन्दी पद्यानुवाद * मूलसूत्रकार-पूर्वधर महर्षि पूज्यवाचकप्रवर श्रीउमास्वातिजी महाराज हिन्दी पद्यानुवादक-शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण-पूज्याचार्य श्रीमद्विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज * पंचवत और उनकी भावना * 卐 मूलसूत्रम् हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव॑तम् ॥ ७-१॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥७-२॥ * हिन्दी पद्यानुवाद हिंसा असत्य चोरी मैथुन, परिग्रह से अटकना। व्रत जानना इम पंचभेदे, पापकृति से विरमना ।। देश से जो अटकना वह, अणुव्रत जिनेन्द्र ने कहा । सर्व से जो अटकना वह, महाव्रत भी शास्त्रे भरणा ॥ १ ॥ 卐 मूलसूत्रम् तत्स्थै र्यार्थ भावनाः पंच पंच ॥ ७-३ ॥ हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ॥ ७-४ ॥ दुःखमेव वा ॥ ७-५॥ मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानिसत्त्व-गुणाधिक-क्लिश्यमाना-विनेयेषु ॥ ७-६ ॥ जगत्काय-स्वभावौ च संवेग-वैराग्यार्थम् ॥ ७-७ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद उन-उन व्रतों की स्थैर्यता में, पंच-पंच भावना । यों भावनाएँ पूर्ण होती, पंचविंश संख्यता ।। हिंसादि दोष यदि न अटके, जीव इहभव परभवे । अनिष्टता आपत्तियों के, दुःख सारे अनुभवे ।। २ ।। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ हिन्दी पद्यानुवाद संसार के सब जीवों में, है भावना मैत्री भली । गुण से अधिकां जीव निरखी, उल्लास भाव प्रमोद की ।। संसार के दुःखतप्त जीवों में, करो करुणा सभी। अपात्र जड़ प्रज्ञानियों में, मध्यस्थता होवे तभी ।। ३ ।। संसार की प्रकृति जानो, स्वीकार लो संवेगता । क्षयवन्त सारे जगत को, जानो करो वैराग्यता ।। संवेग और वैराग्य श्रेष्ठ, जगत्काय स्वभाव का । स्वरूप विचारी प्रात्मध्याने, रमता मुनि एकमना ।। ४ ।। पंचवतों का वर्णन 卐 मूलसूत्रम् प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ ७-८ ॥ असदभिधानमनतम् ॥ ७-६ ॥ प्रवत्तादानं स्तेयम् ॥ ७-१० ॥ मैथुनमबह्म ॥७-११॥ मूर्छा परिग्रहः ॥ ७-१२ ॥ निःशल्यो व्रती ॥ ७-१३ ॥ प्रगार्यनगारश्च ॥ ७-१४ ॥ अणुव्रतोऽगारी ॥ ७-१५ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद पांचों प्रमादों से वशी हो, जीव प्राण वियोगता। हिंसा का लक्षण कहा, तत्त्वार्थसूत्रे समझना ॥ प्रमादवश अनृत वचन है, दोष दूसरा प्रसत्य । नहीं दी हुई वस्तु लेनी, चौर्य निश्चय जान सत्य ।। ५ ॥ प्रब्रह्म ही मैथुन कहा है, साधन मूर्च्छना ही परिग्रह । प्राक्रान्त जो इन पाँच से हो, प्रविरति भव-भव फिरे ।। जो पाँच से हो विरत प्राणी, निःशल्यता भावे भजी । विरति पणे रमते नित्य जीव, प्रविरति को संत्यजी ।। ६ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी पद्यानुवाद ] सप्तमोऽध्यायः [ ८६ जो जीव विरतिवन्त है, दो भेद उसके ही कहे । अगारी है प्रथम उसका, द्वितीय अनगारी कहे ॥ प्रगारी अणुव्रतव्रती, गुणव्रती शिक्षाव्रती। इन द्वादशव्रतों का संग्रही, करता संयम में रती ।। ७ ।। * गुणवत, शिक्षाव्रत का वर्णन तथा सम्यक्त्व के प्रतिचार * 卐 मूलसूत्रम् दिग्देशानर्थदण्डविरति-सामायिक-पौषधोपवासोपभोगपरिभोगा-तिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ॥ ७-१६ ॥ मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता ॥ ७-१७ ॥ शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥७-१८ ॥ व्रतशीलेषु पंच-पंच यथाक्रमम् ॥ ७-१६ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद दिदिशापरिमाण व्रत को, देशप्रवगासिक कहे । अनर्थ विरति व्रतसामायिक, पोसहव्रत ही कहे ।। उपभोग और परिभोग में, परिमाण ही मन धरूं । अतिथि संविभाग धर के, उत्तम संयम को प्रादरूँ ॥८॥ माराधना की मरण अन्ते, सेवना शास्त्रे कही। सुणी धारी विषय वारी, हृदयमहीं ए सद्दही । समकित मूले द्वादश व्रत के, अतिचार वर्णन करूं। मन से धरते दोष तजते, श्रावक धर्म ही वहूँ ॥ ६ ॥ समकित गुण के अतिचार, पांच हैं सुनलो व्रती। शंका कांक्षा वितिगिच्छा, प्रशंसा संस्तव प्रति । व्रत शील के ये अतिचार, पंच-पंच ज वर्णना। प्रथमादि व्रत के प्रतिचारो, तजी गुण को सेवना ॥ १० ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ हिन्दी पद्यानुवाद * पाँच व्रत के प्रतिचार * 卐 मूलसूत्रम् बन्ध-वध-विच्छेदातिभारारोपणानपान-निरोधाः ॥ ७-२० ॥ मिथ्योपदेश-रहस्याभ्याख्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहार-साकारमन्त्रभेदाः ॥ ७-२१ ॥ स्तेनप्रयोग-तदाहृतादान-विरुद्धराज्यातिक्रमहोनाधिकमानोन्मान-प्रतिरूपक व्यवहाराः ॥ ७-२२ ॥ परविवाहकरणे-त्वरपरिगृहीता-परिगृहीतागमना-नंगक्रीडा-तीवकामाभिनिवेशाः ॥ ७-२३ ॥ क्षेत्रबास्तु-हिरण्यसुवर्ण-धनधान्य-दासी-दास कुप्यप्रमाणातिकमाः ॥७-२४ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद बन्ध वध और छविच्छेद, अतिभार अारोपणा । अन्न पान निरोध पांचों, अतिचार की विडम्बना ।। अतिचार तजते प्रथम व्रत के, शुद्ध मन मुनि मुदमना । अन्य दूसरे व्रत ध्यान कर, दोष त्यागे सद्मना ।। ११ ।। उपदेश झूठा अाल देते, कूट-लेख लिखते । तथा थापणो अोलवते, गुप्त वात प्रकाशते ।। अतिचार त्यागी धर्मरागी, व्रत दूसरे को प्रादरे । सत्यवादी सत्यवदता, कीत्ति चहुँदिशि विस्तरे ॥ १२ ।। तथा चोर को सहाय करते, अदत्त वस्तु लावते । दाणचोरी कूटतोला, कूट मापा भी रखते ।। वस्तु में कर भेल बेचे, ये मूर्ख की व्यवहारता । स्वीकारता अतिचार की तो, गुणशून्यता ही धारता ॥ १३ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी पद्यानुवाद ] सप्तमोऽध्यायः परविवाहे दोष महान्, परिगृहीता भाव में । अपरिगृहीता स्थान में ही, दोष है परभाव में ।। अनंगक्रीड़ा तीवकामी, दोष पंचक सेवते । तूर्यव्रत है मलिन होते, गुण यश को चूकते ।। १५ ।। क्षेत्र वास्तु रूपा सोना, धन धान्य ही धारणा । दास-दासी धातु हल की, पंच दोष ही वारणा ।। संख्या थकी नहीं दोष सेवे, मिश्र दोषो दाखवे । व्रत पंचम मलिन होने से, श्राद्ध गुण नहीं साचवे ।। १६ ।। * गुणवत तथा शिक्षाव्रत के अतिचार * 卐 मूलसूत्रम् ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रम-क्षेत्रवृद्धि-स्मृत्यन्तर्धानानि ।। ७-२५ ॥ आनयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्दरूपानुपात-पुद्गलक्षेपाः ॥ ७-२६ ॥ कन्दर्प-कौत्कुच्य-मौखर्या-समीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ॥ ७-२७ ॥ योगदुष्प्रणिधाना-नादर-स्मृत्यनु-पस्थापनानि ॥ ७-२८ ॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादाननिक्षेपसंस्तारोप क्रमणा-नावर-स्मृत्यनु-पस्थापनानि ॥ ७-२६ ॥ सचित्त-संबद्ध-संमिश्रा-भिषव-दुष्पक्वाहाराः ॥ ७-३० ॥ सचित्तनिक्षेप-पिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिकमाः ॥ ७-३१॥ * हिन्दी पद्यानुवाद ऊर्ध्व व्यतिक्रम अधोव्यतिक्रम, और तीर्थाव्यतिक्रम । धारणा से अधिक बढ़ते, दोष तीनों व्यतिक्रम ।। क्षेत्रवृद्धि दोष चौथा, दिग्विरमण है कहा। स्मृति अन्तर्धान पंचम, दोष पंचक है कहा ॥ १७ ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ हिन्दी पद्यानुवाद प्रानयन प्रयोग प्रेष्य प्रयोग, दोष को जानना। शब्दानुपात रूपानुपात, पुद्गल • प्रक्षेप मानना ।। देशावगासिकव्रत के, अतिचार रूपे ये कहे। तथावंचक दोषरूपे, शास्त्र में प्रख्यात ये ॥ १८ ॥ कन्दर्प पहला दोष गिनिये, सूत्र में क्रमशः कहा। चेष्टा नामक दोष दूसरा, वाचाल तीसरा दोष हा ।। चौथा असमीक्ष्याधिकरण, उपभोगाधिकत्व पांचवां । अनर्थदंड-विरमण के ये, दोष पांचों जानना ।। १६ ।। मन वचन और काय के ये, अशुभ व्यापार जो हुए । सामायिक के भाव में भी, प्रादर भाव नहीं रहे ॥ विस्मरण से ध्यान चूके, दोष बत्तीस हैं हुए। सामायिक के दोष तजते, होता संवर भाव ए ॥ २० ।। उत्सर्ग वस्तु ग्रहण स्थापन, और संथारा की ए। दृष्टि की प्रतिलेखना, प्रमार्जना भी सूत्रे ए॥ ये तीन दोष यों सेवे तो, पोसह आदर नहीं। स्मृतिभ्रंश है दोष पंचम, पोसह समुचित नहीं ।। २१ ।। सचित्त हो पाहार यदि, सचित्तबद्ध सचित्तमिश्रता । अभिषव तथा दुष्पक्व भी, ये दोष है माहारता ।। भोग मौर परिभोग वस्तु, उल्लंघता परिमाण में । गुणधरा वो दोष सेवे, व्रत सम्बन्धी स्थान में ॥ २२ ॥ सचित्त वस्तु ग्राह्यता कर, उपरि वस्तु सेवते । प्रचित्त वस्तु ग्राह्य करके, ऊपर सचित्त सेवते ॥ व्यपदेश और मत्सरता, समय की उल्लंघना । प्रतिथि का संविभाग साधे, दोष पंचक लंघना ॥ ७-२३ ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी पद्यानुवाद ] सप्तमोऽध्यायः [ ६३ * संलेखना और दान का स्वरूप * 卐 मूलसूत्रम् जीवितमरणाशंसा-मित्रानुराग-सुखानुबन्ध-निदानकरणानि ॥ ७-३२ ॥ अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ७-३३ ॥ विधि-द्रव्य-दातृ-पात्रविशेषात् तद्विशेषः ॥ ७-३४ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद जीवितेच्छा मृत्यु इच्छा, मित्र की मन-मोहता। सुख विषयी अनुबन्ध इच्छे, फिर करे निदानता ।। संलेखना के पाँच दोष, छोड़ दो शुभ वासना । विरति संगे धर्मरंगे, होती सुशोभित भावना ।। ७-२४ ।। परहित उपकार अर्थे, स्ववस्तु को परिहरे । दानधर्म होता सुशोभित, मूर्छना दूरे करे ।। विधि पुनः द्रव्य दाता, पात्रता चौथी कही। दान में ये हो समुद्भव, विशेषता मन गहगही ।। ७-२५ ।। तत्त्वार्थाधिगमे सूत्रे, हिन्दीपद्यानुवादके । पूर्णः सप्तमोऽध्यायः, व्रतस्वरूपो बोधकः ।। ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के सप्तमाध्याय का हिन्दीपद्यानुवाद पूर्ण हुआ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ॥ नमो नमः श्रीजैनागमाय ॥ * श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य जैनागमप्रमारणरूप-प्राधारस्थानानि * ? ॐ सप्तमोऽध्यायः ॥ mmomnomnomnomnomnomnomnomnomon y मूलसूत्रम् हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव्रतम् ॥ ७-१॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥ ७-२॥ * तस्याधारस्थानम् (१) पंच महव्वया पण्णत्ता, तं जहा-सव्वाश्रो पाणाइवायाप्रो वेरमणं । जाव सव्वानो परिग्गहाम्रो वेरमरणं । पंचाणुव्वता पण्णत्ता, तं जहा-थूलामो पारणाइवायानो वेरमणं। थूलानो मुसावायानो वेरमणं थूलातो अदिन्नादारणाप्रो वेरमणं सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे। [स्था. स्थान ५, उ. १, सू. ३८६] 卐 मूलसूत्रम् वनाः पञ्च पञ्च ॥७-३॥ * तस्याधारस्थानम्पंचजामस्य परणवीसं भावरणामो पण्णत्ता। [समवायाङ्ग समवाय २५] (१) तस्स इमा पंच भावणातो पढमस्स वयस्स होति पाणातिवाय वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए। [प्रश्न व्या. १, संवर. सू. २३]] (२) तस्स इमा पंच भावरणामो वितियस्स वयस्स अलिअ वयणस्स वेरमणपरिरक्खरगट्टयाए । [प्रश्न व्या. २, संवर. सू. २५] (३) तस्स इमा पंच भावरणाम्रो ततियस्स होंति परदन्वहरण वेरमणपरिरक्खएट्ठयाए। [प्रश्न व्या. ३. संवर. सू. २६] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ] सप्तमोऽध्यायः [ ६५ (४) तस्स इमा पंच भावरणामो चउत्थयस्य होंति प्रबंभचेर वेरमणपरिरक्खरगट्टयाए। [प्रश्न व्या. ४, संवर. सू. २७] (५) तस्स इमा पंच भावणानो चरिमस्स वयस्स होंति परिग्गह वेरमरणपरिरक्खरगट्टयाए । [प्रश्न व्या. ५, संवरद्वार सू. २६] 卐 मूलसूत्रम् हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ॥ ७-४ ॥ दुःखमेव वा ॥ ७-५॥ * तस्याधारस्थानम् संवेगिणो कहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - इहलोगसंवेगरणी, परलोगसंवेगणी, प्रातसरीरसंवेगरणी, परसरीरसंवेगरणी । णिव्वेयणी कहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगे दुच्चिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥ १॥ इहलोगे दुचिन्ना कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवन्ति ॥ २ ॥ परलोगे दुचिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवन्ति ॥ ३ ॥ परलोये दुचिन्ना कम्मा परलोये दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥ ४ ॥ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ॥ १ ॥ इहलोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, एवं चउभंगो। [स्था० स्थान ४, उ० २ सूत्र २८२] 卐 मूलसूत्रम् मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥ ७-६ ॥ * तस्याधारस्थानम्मित्ति भूएहिं कप्पए.... [सूत्रकृताङ्ग प्रथमश्रुतस्कन्ध अध्याय १५ गाथा ३] सुप्पडियाणंदा । [ौप० सूत्र १ प्र० २०] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε६] साणुकोसाए । मज्झत्यो निज्जरापेही समाहिमणुपालए । 5 मूलसूत्रम् जगत् कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ।। ७-७ ।। मूलसूत्रम् * तस्याधारस्थानम् संवेगकाररणत्था । भावगाहिय सुद्धाहिं, सम्मं भावेत्तु श्रप्ययं । प्रणिच्चे जीवलोगम्मि । जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपायचंचलम् । श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे मूलसूत्रम् - असदभिधानमनृतम् ।। ७-६ ।। * तस्याधारस्थानम् - प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।। ७-८ ।। * तस्याधारस्थानम् तत्थ णं जेते पमत्तसंजया ते श्रसुहं जोगं पडुच्च प्रायारम्भा परारम्भा जाव णो अणारम्भा । [ व्या. प्र. शतक १, उ. १ सूत्र ४८ ] मूलसूत्रम् [प. भगवदुपदेश ] [प्राचाराङ्ग प्र. श्रुतस्कन्ध प्र. ८ उ. ७ गाथा ५ ] प्रदत्तादानं स्तेयम् ॥ ७-१० ॥ * तस्याधारस्थानम्प्रदत्तं .... तेणिको । [ परिशिष्ट-१ श्रलियं.... सच्चं .... संधत्तणं - प्रसन्भाव..... ... श्रलियं । [समवाय सू. विपाकसूत्राधिकार ] [ उत्तर. अध्य. १६, गाथा ६४ ] [ उत्तरा अध्य. १८, गाथा ११, १३] [ प्रश्नव्या श्रास्रव. २ ] [प्र. व्या. आस्रव. ३ ] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ] सप्तमोऽध्यायः [ ९७ ॐ मूलसूत्रम् मैथुनमब्रह्म ॥ ७-११॥ * तस्याधारस्थानम्अबम्भ मेहुणं । [प्र. व्या. प्रास्रवद्वार-४] मूलसूत्रम् मूर्छा परिग्रहः ॥ ७-१२ ॥ * तस्याधारस्थानम्___ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। [दश. अध्ययन ६, गाथा-२१] ॐ मूलसूत्रम् निःशल्यो व्रती ॥ ७-१३ ॥ * तस्याधारस्थानम्___पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहि-मायासल्लेणं नियाणसल्लेणं मिच्छादसणसल्लेणं । [प्रावश्यक. चतु. आवश्य. सूत्र-७] 卐 मूलसूत्रम् अगार्यनगारश्च ॥७-१४ ॥ * तस्याधारस्थानम् चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-आगारचरित्तधम्मे चेव, अणगारचरित्तधम्मे चेव । [स्थानाङ्ग स्थान २, उ. १] ॐ मूलसूत्रम् अणुव्रतोऽगारी ॥ ७-१५ ॥ .. के तस्याधारस्थानम्प्रागारधम्म....अणुव्वयाइं इत्यादि । [प्रौपपातिक सूत्र, श्रीवीर देशना] 卐 मूलसूत्रम् दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक पौषधोपवासोपभोगपरिभोगातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥ ७-१६ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे । [ परिशिष्ट-१ * तस्याधारस्थानम् प्रागारधम्म दुवालसविहं प्राइक्खइ। तं जहा-पंच अणुव्बयाई तिण्णि गुणवयाइं चत्तारि सिक्खावयाई। तिण्णि गुणव्वयाइं । तं जहा - अणत्थदंडवेरमणं दिसिव्वयं, उपभोगपरिभोग परिमाणं । चत्तारि सिक्खावयाई। - तं जहा-सामाइयं देसावगासियं पोसहोववासे अतिहिसंविभागे। - [प्रौपपातिक श्रीवीरदेशना सूत्र-५७ ] 卐 मूलसूत्रम् ___ मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता ॥ ७-१७ ॥ * तस्याधारस्थानम्अपच्छिमा मारणंतिमा संलेहणा जूसणाराहणा । [औपपा. सू. ५७] 卐 मूलसूत्रम् शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः॥ ७-१८ ॥ * तस्याधारस्थानम् सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जारिणयव्वा, न समायरियव्वा। तं जहासंका कंखा वितिगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवो। [उपासकदशांग अध्याय १] 卐 मूलसूत्रम् व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ ७-१६ ॥ बन्धवधच्छविच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥ ७-२०॥ * तस्याधारस्थानम् थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणे वासएरणं पंच अइयारा पेयाला जारिणयव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-वहबंधच्छविछेए अइभारे भत्तपारणवोच्छेए । [उपा. अ. १] 卐 मूलसूत्रम् मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः॥७-२१॥ * तस्याधारस्थानम् थूलगमुसावायस्स पंच अइयारा जाणियवा। न समायरियवा। तं जहासहस्साभक्खाणे रहसाभक्खाणे, सवारमंतभेए मोसोवएसेए कूडलेहकरणे य । [उपा. अ. १] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ] सप्तमोऽध्यायः [ ६९ मूलसूत्रम् स्तेनप्रयोगतवाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ ७-२२ ॥ * तस्याधारस्थानम् थूलगप्रदिण्णादारणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा। तं जहातेनाहडे, तक्करप्पउगेविरुद्धरज्जाइकम्मे, कूडतुल्लकूडमारणे, तप्पडिरूवगववहारे । [उपा. प्र. १] 卐 मूलसूत्रम् परविबाहकरणेत्वरपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडातीवकामाभिनिवेशाः ॥७-२३ ॥ * तस्याधारस्थानम् सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियव्या। तं जहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अणंगकीडा, परविवाहकरणे कामभोएसु तिव्वाभिलासो। [उपा. अप्पा. १] मूलसूत्रम्__क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासी दास्य कुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥ ७-२४ ॥ * तस्याधारस्थानम् ___ इच्छापरिमारणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-धणधन्नपमारणाइक्कमे खेत्तवत्थुप्पमाणाइक्कमे हिरण्णसुवण्णपरिमाणाइक्कमे दुप्पय चउप्पयपरिमाणाइक्कमे कुवियपमाणाइक्कमे । [उपा. अप्पा. १] 卐 मूलसूत्रम् ___ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तर्धानानि ॥ ७-२५ ॥ * तस्याधारस्थानम् दिसिव्वयस्स पंच अइयारा जारिणयव्वा। न समायरियव्वा। तं जहाउड्ढविसिपरिमाणाइक्कमे, अहोदिसिपरिमाणाइक्कमे, तिरियविसिपरिमाणाइक्कमे, खेत्तवड्ढिस्स, सअंतरड्ढा । [उपा. अध्या. १] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-१ पास 卐 मूलसूत्रम् प्रानयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपात पुद्गलक्षेपाः ॥ ७-२६ ॥ * तस्याधारस्थानम् देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा । तं जहा-पारणबरणपोगे पेसवरणपोगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए वहियापोग्गलपक्खिवे । [उपा. अध्याय. १] 卐 मूलसूत्रम् कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ॥ ७-२७ ॥ * तस्याधारस्थानम् अणट्ठादंडवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्वा, न समायरियया । तं जहा-कन्दप्पे कुक्कुइए मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उवभोगपरिभोगाइरित्ते । [उपा. अध्या .१] 卐 मूलसूत्रम् योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ ७-२८ ॥ * तस्याधारस्थानम् सामाइयस्स पंच अइयारा समरणोवासएणं जारिणयव्वा। न समायरियव्वा, तं जहा-मणदुप्पणिहाणे, वएदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्ससति प्रकरणयाए, सामाइयस्स अरणवड्ढियस्स करणया । [उपा. अध्या. १] ॐ मूलसूत्रम् अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादाननिक्षेप-संस्तारोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थापनानि ॥ ७-२६ ॥ * तस्याधारस्थानम् पोसहाववासस्स समणोवासएणं पंच प्रइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा । तं जहा-अप्पडिलेहिय दुष्पडिलेहिय सिज्जासंथारे, अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय सिज्जासंथारे, अप्पडिलेहिय हियदुप्पडिलेहिय उच्चारपासवणभूमी, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियपासवणभूमी पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया । [उपा. अध्या. १] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ] सप्तमोऽध्यायः [ १०१ 卐 मूलसूत्रम् सचित्तसम्बद्धसंमिश्राभिषवदुष्पक्वाहाराः ॥ ७-३० ॥ * तस्याधारस्थानम् भोयणतो समणोवासएणं पञ्च अइयारा जारिणयव्वा, न समायरियन्वा । तं जहा-सचित्ताहारे सचित्तपडिबद्धाहारे उप्पउलियोसहिभक्खणया, दुप्पोलितोसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया। [उपा. अध्या. १] 卐 मूलसूत्रम् सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्य कालातिक्रमाः ॥ ७-३१ ॥ * तस्याधारस्थानम् अहासंविभागस्स पञ्च अइयारा जारिणयव्वा, न समायरियव्वा । तं जहासचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाइक्कमदारणे परोवएसे मच्छरिया। [उपा. अध्या. १] ॐ मूलसूत्रम् . जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानकरणानि ॥ ७-३२ ॥ * तस्याधारस्थानम् अपच्छिममारणंतियसंलेहणा झूसरणाराहणा ए पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा । तं जहा-इह लोगासंसप्पनोगे, परलोगासंसप्पोगे, जीवियासंसप्पनोगे, मरणासंसप्पनोगे। [उपा. अध्या. १] 卐 मूलसूत्रम् अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ७-३३ ॥ 8 तस्याधारस्थानम् समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलामेमाणे तहारूवं समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलभइ । [व्या. श. ७, उ. १, सूत्र २६३] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्टसमणो वासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा जाव पडिलामेमाणे किं चयति ? गोयमा ! जीवियं चयति उच्चयं चयति दुक्करं करेति दुल्लहं लहइ वोहिं बुज्झइ तमो पच्छा सिझति जाव अंतं करेति । [व्या. प्र. शत. ७, उ. १, सू. ३६४] ॐ मूलसूत्रम् विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात् तद्विशेषः ॥ ७-३४ ॥ * तस्याधारस्थानम् दव्वसुद्धेरणं दायगसुद्धणं तवस्सिविसुद्धणं तिकरणसुद्धेणं पडिगाहसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेणं । [व्या. प्र. शत. १५, सू. ५४१] ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य सप्तमाध्याये संगृहीते जैनागम-प्रमाणरूपआधारस्थानानि ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - २ सूत्रांक १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. १४. १५. १६. श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य सप्तमाध्याये * मूलसूत्राणि * १७. सूत्र हिंसा नृत- स्तेया- ब्रह्म - परिग्रहेभ्यो-विरतिव्रतम् ।। ७-१ ।। देश-सर्वतोऽणु-महती ।। ७-२ ।। तत् स्थैर्यार्थं भावना पञ्च पञ्च ।। ७-३ ।। हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ।। ७-४ ।। ε. १०. ११. मैथुनमब्रह्म ॥ ७-११ ।। १२. १३. दुःखमेव वा ।। ७-५ ।। मैत्री- प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमाना ऽविनेयेषु ।। ७-६ ।। जगत्कायस्वभावौ च संवेग - वैराग्यार्थम् ।। ७-७ ।। प्रमत्तयोगात् प्रारणव्यपरोपणं हिंसा ।। ७-८ ।। असदभिधानमनृतम् ।। ७-६ ।। श्रदत्तादानं स्तेयम् ।। ७-१० ।। मूर्च्छा परिग्रहः ।। ७-१२ ।। निःशल्यो व्रती ।। ७-१३ ।। अगार्यनगारश्च ।। ७-१४ ।। प्रणुव्रतोऽगारी ।। ७-१५ ।। दिग् - देशा-नर्थदण्डविरति सामायिक पौषधोपवासोपभोग- परिभोग परिमाणाऽतिथिसंविभागव्रत संपन्नश्च ।। ७-१६ ।। मारणान्तिकीं संलेखनां जोषिता ।। ७-१७ ।। पृष्ठ सं. ८ 108 10 १३ १६ १७ २१ २४ २६ ३१ ३२ ३४ ३६ ३७ ३८ ३६ ४७ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं. ४६ - ५६ १०४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-२ सूत्रांक १८. शङ्का-काङ्क्षा-विचिकित्सा-ऽन्यदृष्टिप्रशंसा संस्तवाः सम्यग्दृष्टे रतिचाराः ॥ ७-१८ ।। १६. व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। ७-१६ ।। ५३ २०. बन्ध-वध-छविच्छेदा-तिभारारोपणा-ऽन्नपाननिरोधाः ।। ७-२० ॥ २१. मिथ्योपदेश-रहस्याभ्याख्यान-कूटलेखक्रिया-न्यासापहारसाकार मन्त्रभेदाः ।। ७-२१ ।। २२. स्तेनप्रयोग-तदाहृतादान-विरुद्धराज्यातिक्रम-हीनाधिकमानोन्मान प्रतिरूपकव्यवहाराः ।। ७-२२ ॥ २३. परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीड़ा तीवकामाभिनिवेशाः ।। ७-२३ ॥ . २४. क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण-धनधान्य-दासीदास कुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥७-२४।। २५. ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रम-क्षेत्रवृद्धि-स्मृत्यन्तर्धानानि ।। ७-२५ ॥ २६. आनयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्द-रूपानुपात-पुद्गलक्षेपाः ।। ७-२६ ।। २७. कन्दर्प-कौत्कुच्य-मौखर्या-ऽसमीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि ।।७-२७।। २८. योगदुष्प्रणिधाना-ऽनादर-स्मृत्यनुपस्थापनानि ।। ७-२८ ।। २६. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गा-ऽऽदाननिक्षेप-संस्तारोपक्रमणा-ऽनादर स्मृत्यनुपस्थापनानि ।। ७-२६ ॥ सचित्तसंबद्ध-संमिश्रा-ऽभिषव-दुष्पक्वाहाराः ।। ७-३० ॥ ३१. सचित्तनिक्षेप-पिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिक्रमाः ।। ७-३१ ।। ३२. जीवित-मरणाशंसा-मित्रानुराग-सुखानुबन्ध-निदानकरणानि ॥७-३२॥ ७६ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ।। ७-३३ ।। ३४. विधि-द्रव्य-दातृ-पात्रविशेषाच्च तद्विशेषः ।। ७-३४ ।। ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमे सप्तमाध्यायस्य मूलसूत्राणि ॥ ७० १७ ७४ 0 1 ३३. ८० Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ पृष्ठ सं. ___ ७४ २६ ____श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य सप्तमाध्याये * अकाराद्यनुसारेण मूलसूत्राणि * www.rror क्र. सं. सूत्र सूत्राङ्क १. प्रगार्यनगारश्च । - ७-१४ २. अणुव्रतोऽगारी। ७-१५ ३. अदत्तादानं स्तेयम् । ७-१० ४. अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गोदानम् । ७-३३ ५. अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गा-ऽऽदाननिक्षेप-संस्तारोप क्रमणा-ऽनादार-स्मृत्यनुपस्थापनानि । ७-२६ ६. असदभिधानमनृतम् । ७-६ ७. प्रानयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्द-रूपानुपात-पुद्गल क्षेपाः। ७-२६ ८. ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रम-क्षेत्रवृद्धि-स्मृत्यन्तर्धानानि ।। ७-२५ ६. कन्दर्प-कौत्कुच्य-मौखर्या- समीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि । ७-२७ १०. क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण-धन-धान्य-दासीदास-कुप्यप्रमाणातिक्रमाः । ७-२४ ११. जगत्कायस्वभावौ च संवेग-वैराग्यार्थम् । ७-७ १२. जीवित-मरणाशंसा-मित्रानुराग-सुखानुबन्ध-निदानकरणानि । ७-३२ १३. तत्स्थै र्यार्थ भावना पञ्च पञ्च । ७-३ १४. दिग्-देशा-ऽनर्थदण्डविरति-सामायिक-पौषधोपवासोप भोग - परिभोग - परिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च । ७-१६ १५. दुःखमेव वा। U ७-५ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] श्रीतत्त्वार्याधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-३ क्र. सं. ७-६ सूत्र सूत्राङ्क - पृष्ठ सं. १६. देश-सर्वतोऽणु-महती। ७- २३ १७. निःशल्यो व्रती। ७-१३ .३६ १८. परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीड़ातीव्र--- क्रामाभिनिवेशाः । .... -- - ७-२३ १६. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। ७-८ २०. बंध-वध-छविच्छेदा-ऽतिभारारोपणाऽन्न-पाननिरोधाः। ७-२० २१. मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता । ७-१७ २२. मिथ्योपदेश-रहस्याभ्याख्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहार-साकारमन्त्रभेदाः । ७-२१ २३. मूर्छा परिग्रहः । ७-१२ २४. मैत्रो-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनेयेषु । २५. मैथुनमब्रह्म । ७-११ २६. योगदुष्प्रणिधाना-ऽनादर-स्मृत्यनुपस्थापनानि । ७-२८ २७. व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् । ७-१६ २८. विधि-द्रव्य-दातृ-पात्रविशेषाच्च तद्विशेषः । ७-३४ २६. शङ्का-काङ्क्षा-विचिकित्सा-ऽन्यदृष्टि-प्रशंसा-संस्तवाः सम्यग्दष्टेरतिचाराः । ७-१८ ३०. सचित्तनिक्षेप-पिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिक्रमाः । ७-३१ ३१. सचित्तसंबद्ध-संमिश्रा-ऽभिषव-दुष्पक्वाहाराः । ३२. स्तेनप्रयोग-तदाहृतादान-विरुद्धराज्यातिक्रम-हीनाधि__ कमानोन्मान-प्रतिरूपकव्यवहाराः । ७-२२ ५६ ३३. हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् । ___७-४ १३ ३४. हिंसा-ऽनृत-स्तेया-ब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । ७-१ १ ॥ इतिश्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य सप्तमाध्याये प्रकाराद्यनुसारेण मूलसूत्राणि समाप्ता ॥ ७-३० Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसत्रे श्रीश्वेताम्बर-दिगम्बरयोः सूत्रपाठ-भेदः सप्तमोऽध्यायः * श्रीश्वेताम्बरग्रन्थस्य सूत्रपाठः : 5 सूत्रारिण; * श्रीदिगम्बरग्रन्थस्य सूत्रपाठः * के सूत्राणि ॥ सूत्रसं. सूत्र सं. x x x __४. वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपण-समि त्यालोकितपानभोजनानि पञ्च । x x x x x x ५. क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्याना न्यनुवीचिभाषणं च पञ्च । x x x x x x ६. शून्यागारविमोचितावासपरो-परो - धाकरणभक्ष्यशुद्धिसधा विसंवादाः पञ्च । x x x ७. स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्ग निरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च । x x x x x x । x x x ८. मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयराग - द्वेष वर्जनानि पञ्च । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ परिशिष्ट-४ सूत्र सं. | सूत्र सं. ४. हिंसादिष्विहामुत्र चापाया-वद्य-| ६. हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् । दर्शनम् । च संवेग- संवेग ७. जगत्कायस्वभावौ वैराग्यार्थम् । १२. जगत्कायस्वभावौ वा वैराग्यार्थम् । २३. परविवाहकरणेत्वर-परिगृहीतापरि गृहीता गमनानङ्ग-क्रीड़ातीवकामाभिनिवेशाः। २८. परविवाहकरणेत्वरिका परिगृहीता ऽपरिगृहीता-गमनानङ्गक्रीड़ाकामतीवाभिनिवेशाः। २७. कन्दर्प-कौत्कुच्यमौखर्याऽसमीक्ष्याधि- ३२. कन्दर्पकौत्कुच्यमौख-समीक्ष्या__ करणोपभोगाधिकत्वानि । धिकरणोपभोग - परिभोगानर्थक्यानि । २६. अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गाऽऽदान- निक्षेप - संस्तारोपक्रमणाऽनादरस्मृत्यनुपस्थापनानि । ३४. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाणितोत्सर्गादान संस्तरोपक्रमणानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि । ३२. जोवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखा- ३७. जीवितमरणाशंसामित्रानुरागनुबन्धनिदानकरणानि । सुखानुबंधनिदानानि । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वधर-परमर्षि-सुप्रसिद्धश्रीउमास्वातिवाचकप्रवरेण विरचितम् श्री त म सूत्रम् तस्यायं (अष्टमोऽध्यायः) Page #150 --------------------------------------------------------------------------  Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रम् ॥ 5 श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् 5 तस्यायं अष्टमोऽध्यायः अत्र पर्यन्तं सप्ततत्त्वेषु जीवाऽजीवाऽऽस्रवत्रयतत्त्वानां वर्णनं कृतम् । अष्टमाध्याये तु बन्धतत्त्वस्य वर्णनमत्र क्रियते । * कर्मबन्धहेतु निर्देश: 5 मूलसूत्रम् - मिथ्यादर्शना - ऽविरति प्रमाद - कषाय- योगा बन्धहेतवः ॥ ८- १॥ * सुबोधिका टीका * बन्धहेतवः पञ्च भवन्ति । तेषामाद्यं मिथ्यादर्शनं अविरतिः प्रमादः कषायश्च । सम्यग्दर्शनविपरीतं मिथ्यादर्शनं तद् द्विविधं प्रभिगृहीतमनभिगृहीतं च । जीवः सकषायत्वात् कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् गृह्णाति । कर्मयोग्यानिति अष्टविध - पुद्गलग्रहण - कर्मशरीरग्रहणयोग्यानिति । सैव कर्मशरीरपुद्गलग्रहण कृतो बन्धो भवति । स पुनश्चतुर्विधः । प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धः श्रनुभावप्रदेशबन्धौ च । अष्टविधः प्रकृतिबन्धः ज्ञान - दर्शन - वेदनीय मोहनीय श्रायुष्क - नाम - गोत्रान्तरायैः व्यवहृतः । एषः प्रकृतिबन्धः प्रष्टविधः पुनरेकशः पञ्चभेदः नवभेदः द्विभेदः प्रष्टविंशतिभेदः चतुर्भेदः द्विचत्वारिंशद् भेदः द्विभेदः पञ्चभेदः विभक्तः । एतद् विषये श्रीतत्त्वार्थसूत्रस्य भाष्येऽपि कथितमाह तत्र सम्यग्दर्शनाद्विपरीतं मिथ्यादर्शनम् । तद्विविधमभिगृहीतमनभिगृहीतं च । तत्राभ्युपेत्या सम्यग्दर्शनपरिग्रहोऽभिगृहीतमज्ञानिकादीनां त्रयाणां त्रिषष्ठानां Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८१ (३६३) कुवादिशतानाम् । शेषानभिगृहीतम् । यथोक्ताया विरतेर्विपरीताविरतिः । प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरो योगदुष्प्रणिधानं चैष प्रमादः । कषाया मोहनी वक्ष्यन्ते । योगस्त्रिविधः पूर्वोक्तः । एषां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन् सति नियतमुत्तरेषां भावः । उत्तरोत्तरभावे तु पूर्वेषामनियमः इति ।। ८-१ ॥ * सूत्रार्थ - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग ये पाँच बन्ध के कारण हैं ।। ८१ । 5 विवेचनामृत 5 मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच कर्मबन्ध के हेतु कारण हैं । बन्ध यानी कार्मरण वर्गरणा के पुद्गलों का श्रात्मप्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की भाँति गाढ़ सम्बन्ध । बन्ध का स्वरूप आगे दूसरे सूत्र में कहेंगे । प्रस्तुत प्रथम सूत्र में उसके हेतुनों का निर्देश है । शास्त्रग्रन्थों में कर्मबन्ध हेतुत्रों की संख्या के सम्बन्ध में तीन परम्पराएँ प्रचलित हैं । उनमें एक परम्परा वाले कषाय और योग दो को ही कर्मबन्ध का हेतु मानते हैं । इसका निर्देश श्रीपंचसंग्रह की मलयागिरि टीकादिक ग्रन्थों में है । दूसरी परम्परा षशितिनामकचतुर्थ कर्मग्रन्थ की गाथा ५० तथा पंच संग्रह द्वा० ४ गाथा० १ इत्यादि ग्रन्थकारों की है । वे मिथ्यात्व, श्रविरति, कषाय और योग इन चार को कर्मबन्ध का हेतु मानते हैं । तथा तीसरी परम्परा सूत्रकार की है जो मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँचों को कर्मबन्ध का हेतु मानते हैं । ये मन्तव्य केवल नाम तथा संख्या मात्र से भिन्न स्वरूपी हैं । वास्तविक तत्त्वदृष्टि से उनका अवलोकन किया जाए तो उन भेदों में कुछ भी भिन्नता नहीं है। कारण कि प्रमाद एक प्रकार का असंयम है जिसका अविरति अथवा कषाय में अन्तर्भाव हो जाता है । इस तरह की सूक्ष्मदृष्टि से आगे और भी देखा जाए तो मिथ्यात्व तथा प्रविरति कषाय से जुदे नहीं हो सकते । वे वस्तुतः कषाय के ही अन्तर्गत हैं । इस तरह के अभिप्राय से पाँचवें कर्मग्रन्थ की ९६ वीं गाथा में दो ही ( कषाय, योग ) बन्ध हेतु माने हैं । तथा उनको विस्तारपूर्वक समझने के लिए ग्रन्थकारों ने प्रत्येक कर्म के भिन्न-भिन्न बन्ध हेतु बताए हैं। जैसे कि, पूर्व अध्याय ६ सूत्र ११ से २६ या कर्मग्रन्थ ( पहला ) गाथा ५४ से ६१ आदि ग्रन्थों में है । कोई भी बँधा हुआ कर्म अधिक से अधिक चार ( प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश) अंशों में विभाजित होता है जिसका वर्णन वर्तमान अध्याय के सूत्र ४ में है । तथा उनके कारण कषाय और योग दो ही कहे हैं । जैसे पंचम कर्मग्रन्थ में कहा है कि - ' जोग पर्याड पदेस, ठिप्रणुभाग कषाया' ।। ६६ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा१ ] अष्टमोऽध्यायः अर्थ –'प्रकृति तथा प्रदेश का निर्माण योग से होता है और स्थिति तथा अनुभाग (रस) बन्ध का कारण कषाय है।' आध्यात्मिक विकास की उन्नत तथा अवनत भूमिका रूप गुणस्थानों में बँधती हुई कर्म प्रकृतियों के तारतम्य भाव जानने के लिए उपयुक्तप्रकृति आदि चार बन्धहेतुओं का वर्णन है। उक्त बन्ध हेतुत्रों की जिन गुणस्थानों में अधिकता है वहाँ पर कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी अधिक-अधिकतर होता है। तथा बन्ध हेतु की अवनत दशा में कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी हीनहोनतर होता है। इसलिए उक्त मिथ्यात्वादिक चार बन्धहेतुओं की परम्परा वालों का कथन भी प्रत्येक गुणस्थान में बंधती हुई प्रकृतियों के सद्भावी कारणों का पृथक्करण है। तथा उक्त चार बन्धहेतुओं का समावेश कषाय और योग में होता है। पांच बन्ध हेतु परम्परा वालों का आशय भी उक्त चार परम्परा वालों से अलग नहीं है तथा यदि भिन्न किया भी जाए तो इसका हेतु केवल जिज्ञासु व्यक्ति को समझाना है। (१) मिथ्यादर्शन-यानी तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा। सम्यक्त्व से विपरीत को मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्यात्व तथा अश्रद्धा इत्यादि शब्द एकार्थक हैं। मिथ्यात्व दो प्रकार का है। (१) वस्तु-पदार्थ की यथार्थ श्रद्धा का अभाव । तथा (२) अयथार्थ वस्तु-पदार्थ की श्रद्धा। इन दोनों अवस्थाओं में विशेषता यह है कि पहली अवस्था केवल विचारशून्य जीव की मूढ़ दशा है। तथा दूसरी विचारशक्ति की स्फुरायमान अवस्था है। इसमें यदि अभिनिवेश यानी दुराग्रह से अपने असत्य पक्ष को जानते हुए भी उसकी स्थापना हेतु प्रतत्त्व का पक्षपात करे, तो उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं। यह उपदेशजन्य होने से अभिग्रहीत कहलाता है। तथा जिनमें गुणदोष या तत्त्वातत्त्व जानने के लिए विचार शक्ति न हो उसको अनभिगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । यह अनभिगृहीत मिथ्यात्व कीट तथा पतंगादि के तुल्य मूच्छित चेतना वाली जातियों में सम्भव होता है और अभिगृहीत मिथ्यात्व मनुष्य के तुल्य विकसित जातियों में होता है । मिथ्यादर्शन के पांच भेद प्रतिपादित किए गए हैं। उनके नाम नीचे प्रमाणे हैं १. आभिगृहिक, २. अनाभिगृहिक, ३. आभिनिवेशिक, ४. सांशयिक तथा ५. अनाभोगिक मिथ्यादर्शन । (१) प्राभिगहिक-अभिग्रह अर्थात् पकड़, विपरीत समझने से अतात्त्विक बौद्ध इत्यादि किसी भी एक दर्शन पर 'यही सत्य है', ऐसे अभिग्रह से-पकड़ से युक्त जीव के तत्त्वों के प्रति जो अश्रद्धा होती है, वह 'पाभिगृहिक मिथ्यात्व' है। इसमें विपरीत समझ तथा अभिग्रह-पकड़ मुख्य भाग भजवते हैं। (२) अनाभिगृहिक-अनाभिगृहिक अर्थात् अभिग्रह-पकड़ से रहित । अमुक ही दर्शन सत्य है ऐसे अभिग्रह से रहित बनकर सभी दर्शन सत्य हैं', इस तरह समस्त दर्शनों पर श्रद्धा रखने वाले जीव के तत्त्वों के प्रति प्रश्रद्धा, वह अनाभिगहिक मिथ्यात्व है। इसमें यथार्थ समझने का प्रभाव तथा सरलता ही मुख्य कारण है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८१ (३) प्राभिनिवेशिक-अभिनिवेश अर्थात् कदाग्रह-पकड़। यथावस्थित तत्त्वों को जानते हुए भी अभिमान-अहंकार आदि के कारण असत्य सिद्धान्त को पकड़ रखने वाले जीव के जो तत्त्वों के प्रति प्रश्रद्धा होती है, वह प्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। इसमें अभिमान-अहंकार की मुख्यता है। असत्य सिद्धान्त पर अभिनिवेश-पकड़ अभिमान-अहंकार का ही प्रताप है। अभिग्रह और अभिनिवेश इन दोनों शब्दों का अर्थ पकड़ है। इसलिए शब्दार्थ की दृष्टि से दोनों का अर्थ एक ही है। ऐसा होते हुए भी दोनों में पकड़ के हेतु में भेद होने से अर्थ का भेद पड़ता है। आभिगृहिक मिथ्यात्व में विपरीत समझने से पकड़ है; जबकि प्राभिनिवेशिक में अन्दर से (हृदय में) सत्य हकीकत को समझते हुए भी 'मेरा माना हुआ अर्थात् मेरा कहा हुआ मैं कैसे बदल हूँ” इत्यादि अभिमान-अहंकार के प्रताप से अपनी असत्य-झठी मान्यता की पकड़ है तथा अन्य आभिगृहिक में समस्त तत्त्वों के प्रति विपरीत मान्यता होती है, जबकि प्राभिनिवेशिक में किसी एकाध तत्त्व में से किसी एक विषय में विपरीत मान्यता होती है। आभिगहिक मिथ्यात्व श्री जैनदर्शन के अलावा बौद्धदर्शन आदि किसी एक दर्शन के आग्रह वाले को होता है, जबकि प्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व श्री जैनदर्शन को प्राप्त किये हुए को होता है। जैसे जमाली। (४) सांशयिक-सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वरदेव के कहे हुए 'जीवादि तत्त्व सत्य हैं कि नहीं? ऐसी शंका ही सांशयिक मिथ्यात्व है। यहां पर सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वरदेव पर अविश्वास यही मुख्य कारण है। सर्वज्ञविभु श्रीजिनेश्वरदेव पर सम्पूर्ण विश्वास नहीं होने के कारण उनके वचनों की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में भी संशय होता है। यह सांशयिक मिथ्यात्व है। (५) अनाभोगिक-अनाभोग यानी अज्ञानता। अज्ञानता के कारण तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा अर्थात् श्रद्धा का अभाव अथवा विपरीत श्रद्धा, वह अनाभोगिक मिथ्यात्व है। यहाँ पर समझने की शक्ति का अभाव ही मुख्य कारण है। __यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय जीव आदि के तथा किसी भी एक विषय में अनाभोग के कारण विपरीत श्रद्धा रखने वाले साधु के अथवा श्रावक के होता है । अनाभोग के कारण विपरीत श्रद्धा रखने वाले को जो कोई समझावे तो वह अपनी भूल सुधारता है। कारण कि, वह आग्रहरहित होता है । अन्य-दूसरे को समझाने पर भी समझाने वाले की दलील इत्यादि उसको सत्य नहीं प्रतीत हो तो उसे विपरीत श्रद्धा भी हो सकती है। किन्तु समझाने वाले का तर्क-दलील इत्यादि सत्य है, ऐसा जानने के बाद वह अपनी भूल अवश्य स्वीकार कर लेता है। यहाँ पर अश्रद्धा के दो अर्थ हैं(१) विपरीत श्रद्धा, और (२) श्रद्धा का अभाव । उसमें प्रथम तीन मिथ्यात्वों में विपरीत श्रद्धा रूप अश्रद्धा है। चौथे मिथ्यात्व में मिश्रभाव है। अर्थात्-श्रद्धा का बिल्कुल अभाव नहीं है, तथा सम्पूर्ण श्रद्धा भी नहीं है। इसमें विपरीत श्रद्धा का बिल्कुल अभाव है। पांचवें मिथ्यात्व में एकेन्द्रिय इत्यादि जीवों के श्रद्धा के प्रभावरूप मिथ्यात्व है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ ] अष्टमोऽध्यायः (२) अविरति--दोषों से विराम नहीं होना अर्थात्-विरति का अभाव वह अविरति । हिंसा आदि पापों से जो निवृत्ति वह विरति है। हिंसा आदि पापों से अनिवृत्ति यह अविरति है। (३) प्रमाद-आत्मविस्मरण या अच्छे कार्यों में अनादर, कर्तव्याकर्त्तव्य के लिए असावधान । अर्थात्-भूल जाना, धार्मिक अनुष्ठानों में उत्साह का अभाव, आर्तध्यान, रौद्रध्यान (अशुभ विचार) तथा इससे होती प्रवृत्ति प्रादि प्रमाद है। शास्त्रग्रन्थों में मद्य (मद अथवा मादक प्राहार), विषय (इन्द्रिय के स्पर्शादि पाँच विषय), कषाय (क्रोधादिक चार), निद्रा, तथा विकथा (स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, तथा राज कथा ये चार) इस तरह पाँच प्रकार के प्रमाद कहे हैं। इसके सम्बन्ध में शास्त्रीय गाथा नीचे प्रमाणे है मज्जं विषय-कषाया, निद्दा विकहा य पञ्चमी भणिया । ए ए पञ्च पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥१॥ प्रकारान्तर से आठ प्रकार के भी प्रमाद कहने में आए हैं। देखिए अन्नाणं संसपो चेव, मिच्छानाणं तहेव य । रागो दोसो मइन्भंसो, धम्ममि य प्रणायरो ॥१॥ जोगाणं दुप्परिणहाणं, पमानो अट्टहा भवे । संसारुत्तारकामेणं, सव्वहा वज्जिअव्वनो ॥ २॥ अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिभ्रंश, धर्म में अनादर तथा योगों के दुष्प्रणिधान (अयोग्य प्रवृत्ति) ये आठ प्रकार के प्रमाद हैं । (४) कषाय -समभाव की मर्यादा का उल्लंघन । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। उनका विशेष वर्णन इस आठवें अध्याय के दसवें सूत्र में पायेगा। (५) योग-मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्ति । अर्थात्-मन, वचन प्रौर काय ये तीन प्रकार के योग हैं। विशेष-छठे अध्याय में वर्णन किए हुए बन्धहेतुनों में और प्रस्तुत बन्धहेतुओं में विशेषता यह है कि, वे प्रत्येक कर्म की विशेषता रूप मुख्य बन्धहेतु हैं। पूर्ववर्ती बन्धहेतुओं के अस्तित्व में उत्तरवर्ती बन्धहेतु अवश्य होते हैं। जैसे-मिथ्यात्व के रहते हुए शेष अविरत्यादि चारों की अस्तिता अवश्यमेव होती है। तथा अविरति के रहने पर प्रमादादि तीनों बन्धहेतु अवश्य होते हैं। किन्तु मिथ्यात्व का नियम नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व केवल पहले गुणस्थानक में ही अविरति के साथ रहता है। परन्तु द्वितीयादि चार गुणस्थानकों में उसका अभाव है। इसी तरह उत्तरवर्ती बन्धहेतुओं के साथ पूर्ववर्ती बन्धहेतुओं का नियम नहीं है। वे मिथ्यात्वादि की अस्तिता में होते हैं, अन्यथा नहीं होते। यथा चतुर्थ कर्मग्रन्थ में कहा है कि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२-३ इग चउपणति गुणेसु, चउतिदुइगपञ्चरो बन्धो ॥५२॥ अर्थ-एक मिथ्यात्वगुणस्थान में चारों बन्धहेतु होते हैं। सास्वादनगुणस्थान से देशविरति पर्यन्त चार गुणस्थान में तीन बन्धहेतु हैं। तथा ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त एक बन्धहेतु है। सारांश-सूक्ष्मदृष्टि से बन्ध के कषाय और योग, ये दो ही कारण हैं, तथा प्रास्रव के और बन्ध के कारण समान होते हुए भी सामान्य अभ्यासी की सुगमता के लिए यहाँ पर बन्ध के कारण पाँच कहे हैं। तथा आस्रव के और बन्ध के हेतु भिन्न-भिन्न बताये हैं। प्रास्रव के कारणों के क्रम में कोई खास कारण नहीं है। बन्ध के कारणों के क्रम, कारणों के विनाश की अपेक्षा से हैं ॥ ८-१।। * बन्धस्य व्याख्या * + मूलसूत्रम्सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते ॥८-२॥ ___स बन्धः ॥८-३॥ * सुबोधिका टीका * कषायवान् भवतीति हेतुना जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् गृह णाति । कर्मयोग्यान् इति अष्टविधपुद्गलग्रहणकर्मशरीरग्रहणयोग्यान् इत्यर्थः । नामप्रत्ययाः सर्वतो योग्यविशेषाद् इति वक्ष्यते ।। ८-२ ।। जीवद्वारा पुद्गलानां यद्ग्रहणं स बन्धो भवति ।। ८-३॥ * सूत्रार्थ-कषाय के सम्बन्ध से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है ।। ८-२ ॥ कार्मण शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने को बन्ध कहते हैं ।। ८-३ ।। विवेचनामृत ॥ कषाय के कारण जीव कर्म के योग्य अर्थात् कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। ग्रहण किये हुए पुद्गलों को प्रात्मा में दुग्ध-दूध में जल-पानी की माफिक एकमेक करता है । (२) __ यही कर्म का बन्ध है। अर्थात् कार्मण वर्गणा के कर्म के योग्य पुद्गलों को आत्मा के साथ क्षीर-नीर की तरह या लोह-अग्नि की भाँति एकमेक रूप जो सम्बन्ध वह बन्ध है। (३) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।४ ] अष्टमोऽध्यायः विशेष-पुद्गल की वर्गणायें अनेक प्रकार की हैं और मनन्तानन्त रूप हैं। उसमें से जो वर्गणा कर्म रूप परिणमने योग्य है उसी को जीव ग्रहण करके अपने प्रदेशों के साथ विशिष्ट रूप में जोड़ता है, जिसका विशेष रूप से वर्णन आगे आने वाले सूत्र पच्चीस में है । __ जीव-मात्मा स्वभाव से अमूर्त है, तो भी अनादिकालिक कर्म सम्बन्ध से कर्म के सहचारी होने के कारण वह मूत्तिवान दिखाई देता है, तथा कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है। जिस तरह दीपक-दीवा बत्ती द्वारा तेल ग्रहण करके अपनी उष्णता से ज्वाला रूप में परिणमित होता है, इसी तरह जीव-आत्मा काषायिक विकारों से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके भावकर्म रूप से परिणमन करता है। तथा जीव-प्रात्मप्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध ही बन्ध कहलाता है। बन्ध के लिए मिथ्यात्वादि अनेक निमित्त होते हुए भी उनमें कषाय की मुख्यता-प्रधानता सूचित करने के लिए ही 'सकषायत्वाद् जीवः' इत्यादि कहा है। सकर्मी अर्थात् कर्मयुक्त जीव जो पुद्गल ग्रहण करता है, उसी को बन्ध कहते हैं ।। २-३ ॥ * बन्धस्य भेदाः * 卐 मूलसूत्रम्प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशास्तद्विधयः ॥८-४ ॥ * सुबोधिका टीका * प्रकृतिबन्धः, स्थितिबन्धः, रसबन्धः, प्रदेशबन्धः, इति चत्वारो भेदाः बन्धस्य सन्ति ।। ८-४ ॥ * सूत्रार्थ-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, बन्ध के ये चार प्रकार हैं ।। ८-४ ॥ 5 विवेचनामृत ॥ बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाव (रस) और प्रदेश ये चार प्रकार हैं। जब कर्म के अणुओं का जीव-आत्मा के साथ सम्बन्ध होता है तब स्वभाव, स्थिति, फल देने की शक्ति और कर्म के अणुओं की वहेंचणी ये चार कार्य होते हैं। इन चार को क्रमश: प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशबन्ध कहा जाता है। विशेष स्पष्टीकरण-जीव-आत्मा द्वारा ग्रहण किये हुए कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल कर्म रूप परिणाम को प्राप्त होते समम इन चारों प्रकृति आदि अंशों में विभाजित होते हैं। ये अंश ही बन्धभेद कहलाते हैं। जैसे-गाय, भैंस, बकरी आदि का खाया हुमा तृण-घास रक्त, मेदा, मांस तथा दुग्ध-दूधादि रूप में परिणमित होता है। . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८४ इस तरह जीव-प्रात्मा द्वारा ग्रहण किए हए कर्म पुद्गलज्ञानावरणीयादि आठ कर्म प्रकृति रूप में परिणत होते हैं, उसको प्रकृतिबन्ध कहते हैं। वह दूध नियमित काल-समय तक अपने स्वभाव में रहता है। उस कालमर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं। तथा दूध की मधुरता में जो तीव्रता मन्दता रहती है, उसको अनुभाववन्ध अर्थात् रसबन्ध कहते हैं। एवं तत् योग्य पुद्गलों के परिमाण का निर्माण भी उसी समय होता है, उसको प्रदेशबन्ध कहते हैं । इसी को कर्मग्रन्थ में मोदक-लड्डू के दृष्टान्त से समझाया है । (१) प्रकृतिबन्ध-प्रकृति यानी स्वभाव । कर्म के जिन अणुओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध हुआ उन अणुषों में से कौनसे-कौनसे अणु जीव-आत्मा के कौनसे कौनसे गुण को दबायेंगे ? जोव-प्रात्मा को कैसो-कैसी असर पहुंचायंगे? इस तरह इसके स्वभाव का निर्णय होता है। कर्माणुओं के स्वभावनिर्णय को प्रकृतिबन्ध कहने में आता है। आत्मा में अनन्तगुण हैं। उनमें मुख्य गुण अनन्तज्ञानादिक पाठ हैं । कर्माणुओं का प्रात्मा के साथ में सम्बन्ध होता है. अर्थात् प्रदेशबन्ध होता है। तब बँधाए हुए कर्माणुओं में से अमुक अणुनों में ज्ञानगुण का अभिभव करने का अर्थात् दबाने का स्वभाव नियत होता है । अमुक कर्माणुओं में दर्शनगुण को पावरने का अर्थात् दबाने का स्वभाव नक्की होता है। अमुक कर्माणुषों में जीव-आत्मा के अव्याबाघ सुख को रोक करके बाह्यसुख या दुःख देने का स्वभाव नियत होता है। कितनेक कर्माणुषों में चारित्र गुण को दबाने का गुण नक्की होता है। इस तरह अन्य गुणों में भी समझना चाहिए। कर्माणुगों के इस स्वभाव का प्राश्रय कर जीव-प्रात्मा के साथ बँधे हुए कर्माणुओं के मूल प्रकार भेद पाठ पड़ते हैं। तथा उनके उत्तर प्रकार भेद एक सौ बीस (१२०) पड़ते हैं। मूल प्रकृतिबन्ध पाठ प्रकार के हैं और उत्तरप्रकृतिबन्ध एक सौ बीस (१२०) प्रकार के हैं । (२) स्थितिबन्ध-कर्माणुओं का आत्मा के साथ जब सम्बन्ध होता है तब उसी समय इनमें जीव-प्रात्मा के उन-उन गुणों को आवरने का अर्थात दबाने का इत्यादि स्वभाव नियत होता है। उसी प्रकार उन-उन कर्माणुओं में वह स्वभाव कहाँ तक रहेगा, अर्थात् वे कर्म जीव-आत्मा में कितने समय तक रुकेंगे वह भी उसी समय निश्चित हो जाता है। कर्माणुओं में जीव-प्रात्मा को प्रभावित करने की अवधि का निर्णय यह स्थितिबन्ध है। कर्मों की स्थिति के उत्कृष्ट तथा जघन्य ये मुख्य दो भेद हैं। अधिक में अधिक स्थिति वह उत्कृष्टस्थिति कही जाती है। तथा न्यून में न्यून अर्थात् कम में कम स्थिति वह जघन्यस्थिति कही जाती है। (३) रसबन्ध-कर्मों में जीव प्रात्मा के गुणों को दबाने का स्वभाव है। किन्तु वह स्वभाव प्रत्येक समय समान नहीं होता, न्यूनाधिक भी होता है। जैसे-मद्य में केफ करने का स्वभाव है, किन्तु हरेक प्रकार का मद्य एक सरीखा केफ उत्पन्न नहीं करता। अमुक प्रकार का मद्य अतिशय केफ उत्पन्न करता है। प्रमुक प्रकार का मद्य उससे Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।४ ] अष्टमोऽध्यायः भी न्यून-कम केफ करता है। एवं अमुक मद्य उससे भी न्यून-अल्प केफ उत्पन्न करता है। इस तरह कर्मों के जीव-आत्मगुणों को दबाने इत्यादि स्वभाव में भी तरतमता होती है। अर्थात्-कर्मों के विपाक में भी तरतमता होती है। कोई कर्म कितने अंश में अपना विपाक (फल) देगा, उसका निर्णय भी प्रदेशबन्ध के समय ही हो जाता है। कोई कर्म अपना विपाक (फल) कितने अंश में देगा, इसके निर्णय को ही रसबन्ध कहते हैं। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म जीव-प्रात्मा के ज्ञान गुण को ढकता है। परन्तु हम देखते हैं कि प्रत्येक जीव में ज्ञान गुण का अभिभव समानपणे नहीं है । प्रदेशबन्ध के समय कर्मों में जो रस उत्पन्न होता है, उस रस की तरतमता के अनुसार कर्म के स्वभाव में तरतमता पाती है। कर्माणुषों में उत्पन्न होते हुए रस की असंख्य तरमताएं होते हुए भी शास्त्रों में स्थूलदृष्टि से उसके चार भेद प्रतिपादित किये हैं। ये भेद नीचे प्रमाणे हैं (१) एकस्थानिक रस, (२) विस्थानिक रस, (३) त्रिस्थानिक रस तथा (४) चतु:स्थानिक रस। इनको चालू भाषा में एक ठाणिया रस, दो ठाणिया रस, तीन ठाणिया रस तथा चार ठाणिया रस, इस तरह भी कह दिया जाता है। * सामान्य मन्द रस को एकस्थानिक रस कहते हैं। इस रस से जीव-प्रात्मा के गुणों का अभिभव अल्पांश में होता है। * एकस्थानिक रस से अधिक तीव्र रस को द्विस्थानिक रस कहते हैं । * उससे भी अधिक तीव्र रस को त्रिस्थानिक रस कहते हैं । * त्रिस्थानिक रस से भी अधिक तीव्र रस को चतुःस्थानिक रस कहते हैं । उक्त रसों की तरतमता समझाने के लिए लीम्बड़ा के तथा शेलड़ी के रस की तरतमता का उदाहरण नीचे प्रमाणे आता है लीम्बड़ा का या शेलड़ी का रस जब स्वाभाविक होता है तब एकस्थानिक होता है। इसके दो भाग कल्पी एक भाग जब बाल देवे तो बचा हुआ एक भाग रस विस्थानिक बनता है। इसके भी तीन भाग कल्पी दो भाग जब बाल देवे तो बचा हुमा एक भाग रस त्रिस्थानिक बनता है। इसके भी चार भाग कल्पी तीन भाग जब बाल देवे तो बचा हुमा एक भाग रस चतुःस्थानिक बनता है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८४ इस तरह प्रस्तुत में कर्म के रस में भी जानना। इसकी स्पष्टता करते हुए कहा है कि, जैसे-शेलड़ी का रस सुख देता है, वैसे शुभ कर्म का फल भी सुख देता है तथा जैसे लीम्बड़ा का रस दुःख देता है, वैसे अशुभ कर्म का फल भी दुःख देता है। इसलिए शास्त्र में शुभकर्म के रस को शेलड़ी के रस से और अशुभ कर्म के रस को लीम्बड़ा के रस से समझाने में आया है। जैसेजैसे शेलड़ी का रसवधु बले वैसे-वैसे वह अधिक मधुर बनता है। लीम्बड़ा का रस भी जैसे-जैसे वधु बले वैसे-वैसे वह अधिक कटु-कड़ आ बनता है। इसी तरह कर्म की शुभ प्रकृति में जैसे-जैसे अधिक तीव्र रस वैसे-वैसे इसका शुभ फल भी अधिक मिलता है तथा कर्म की अशुभ प्रकृति में जितना-जितना अधिक तीव्र रस उतना-उतना इसका अशुभ फल भी अधिक मिलता है। जैसे उदाहरण तरीके-दो व्यक्तियों को असाता वेदनीय कर्म के उदय से दुःख होता है तो भी एक व्यक्ति को दुःख का अनुभव अधिक होता है, जबकि दूसरे व्यक्ति को दुःख का अनुभव अल्प होता है। इसका क्या कारण है ? तो समाधान यह है कि रस की तरतमता से ऐसा होता है। (४) प्रदेशबन्ध-कर्म के अणुओं का जीव आत्मा के साथ जब सम्बन्ध होता है तब इन कर्माणुषों की आठों प्रकृतियों में अर्थात् कर्मों में जो वहेंचणी होती है, उसे प्रदेशबन्ध कहा जाता है। इसको समझाने के लिए शास्त्र में मोदक का दृष्टान्त कहने में आया है। भिन्न-भिन्न प्रकार के मोदकों में भिन्न-भिन्न प्रकृति अर्थात् स्वभाव होता है। जैसे-जो मोदक वात-विनाशक द्रव्यों से बनाये हुए हों, उन मोदकों का स्वभाव वात-वायु को शमन करने का होता है तथा जो मोदक पित्त-विनाशक द्रव्यों से बनाये हुए हों, उन मोदकों का स्वभाव पित्त को शान्त करने का बनता है। कफ-विनाशक द्रव्यों से बनाये हुए मोदकों का स्वभाव कफ का विनाश करने का होता है। इस तरह भिन्न-भिन्न जाति के मोदकों में किसी प्रकार के विकार बिना टिके रहने की स्थिति भी भिन्नभिन्न होती है। अमूक प्रकार के मोदक एक ही दिन खाद्य रहते हैं। दूसरे दिन ही उनमें विकृति-विकार आ जाने से वे अखाद्य बन जाते हैं। जबकि कितनेक मोदक पाठ दिन तक, पन्द्रह दिन तक यावत एक मास तक भी खाद्य रहते हैं। भिन्न-भिन्न मोदकों में मधुरता अथवा स्निग्धता इत्यादि रस भी न्यूनाधिक होते हैं। जिन मोदकों में गलपण अधिक डालने में आये हों वे मोदक अधिक मधुर होते हैं। अल्प गलपण डालकर बनाये हुए मोदकों में मिठास अल्प होती है। इसी तरह अधिक घृत-घी डालकर बनाये हुए मोदकों में स्निग्धता अर्थात् चिकनाहट विशेष होती है। तथा अल्प घत-घी डालकर बनाये गए मोदकों में स्निग्धता-चिकनाहट अल्प ही होती है। एवं विशेष मेथी डाल करके बनाये हुए मोदकों में विशेष कटु-कड़वास तथा कम मेथी डाल करके बनाये हुए मोदकों में कम कटु-कड़वास होती है। भिन्न-भिन्न मोदकों में करिणया रूप प्रदेशों का प्रमाण भी न्यूनाधिक होता है। जैसे कोई मोदक ५० ग्राम का, कोई मोदक १०० ग्राम का तो कोई मोदक २०० ग्राम का भी होता है। उसी तरह प्रस्तुत में भी इधर किसी कर्म में ज्ञान को पावरने का स्वभाव, किसी कर्म में दर्शन को अभिभव करने का स्वभाव, इसी तरह भिन्न-भिन्न कर्मों का भिन्न-भिन्न स्वभाव है। किसी कर्म की तीस कोडा-कोडी सागरोपम की स्थिति, किसी कर्म की बीस कोडा-कोडी सागरोपम की Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।५ ] अष्टमोऽध्यायः स्थिति, यों भिन्न-भिन्न कर्मों में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इसी तरह किसी कर्म में एकस्थानिक रस, किसी कर्म में द्विस्थानिक रस, यों भिन्न-भिन्न रस उत्पन्न होते हैं। इसी तरह किसी कर्म में कर्माणु अर्थात् कर्म के अणु कम-अल्प, किसी कर्म में उससे अधिक, किसी कर्म में उससे भी अधिक, यों भिन्न-भिन्न कर्मों में न्यूनाधिक अर्थात् अल्प-अधिक कर्माणु होते हैं ।। ८-४॥ * प्रकृतिबन्धस्य मूलभेदाः * 卐 मूलसूत्रम्प्राद्यो ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-ऽऽयुष्य-नाम-गोत्रा ऽऽन्तरायाः॥८-५॥ * सुबोधिका टीका * प्राद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्रकृतिबन्धमाह, सोऽष्टविधः । तद्यथा-प्रथमः प्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणं, दर्शनावरणं, वेदनीयं, मोहनीयं, प्रायुष्क, नाम, गोत्र, अन्तरायश्चेत्यष्टविधत्वमस्ति । प्रकृतिबन्धा अष्टविधाः भवन्तीति फलितार्थः ॥ ८-५ ।। * सूत्रार्थ-प्रथम प्रकृति बन्ध पाठ प्रकार का है। यथा-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय ॥ ८-५ ॥ 5 विवेचनामृत प्र उपर्युक्त सूत्र चार से क्रमशः प्राप्त प्राद्य अर्थात् पहला प्रकृति बन्ध आठ प्रकार का है जिनके नाम क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं (१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र, तथा (८) अन्तराय। अध्यवसाय विशेषपूर्वक जीव-आत्मा द्वारा एक ही बार एक समय में ग्रहण किये हुए कर्म के पुद्गल हैं। उनका अध्यवसायिक शक्ति की विविधता के कारण अनेक प्रकार से परिणमन होता है। जैसे- एक ही बार एक प्रकार का किया हुआ अन्न-जलादि का भोजन शरीर में सातों धातुरूप से परिणमित होता है, वैसे ही वे कर्म स्वभावतः अदृश्य रूप हैं, तो भी संसारी जीवों पर उनकी विचित्रता प्रत्यक्षरूप से सिद्ध ही है। एक अध्यवसाय से एक समय में बाँधे हुए कर्म वास्तविक रूप से असंख्याते हैं, तो भी कार्यक्रम की परिगणना मात्र से उनका वर्गीकरण आठ विभागों में किया गया है। इसलिए उसी को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८५ (१) कर्म के जो अणुजीव श्रात्मा के ज्ञान गुरण को दबाते हैं, उनको ज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है। (२) कर्म के जो अणु जीव आत्मा के दर्शन गुरण का अभिभव करते हैं वे कर्माणु दर्शनावरणीय कर्म कहे जाते हैं । (३) कर्म के जो अणुजीव श्रात्मा के अनन्त अव्याबाध सुख को रोककर बाह्य सुख और दुःख देवे, कर्म के उन अणुत्रों को वेदनीय कर्म कहा जाता है । (४) आत्मा के स्वभाव में रमणता रूप चारित्र को दबाने वाले जो कर्माणु हैं वे मोहनीय कर्म कहे जाते हैं । ( ५ ) अक्षयस्थिति गुरण को रोक करके जन्म और मरण के अनुभव कराने वाले कर्म के जो अणु हैं वे प्रायुष्य कर्म कहे जाते हैं । (६) श्ररूपीपने को दबाकर मनुष्यादि पर्यायों का जो अनुभव करावे वे कर्माणु नामकर्म कहे जाते हैं । (७) अगुरुलघुपने का अभिभव करके उच्चकुल और नीचकुल का व्यवहार कराने वाले कर्मा गोत्रकर्म कहे जाते हैं । (८) अनन्तवीर्यगुण को दबाने वाले कर्माणु अन्तराय कर्म कहे जाते हैं । विशेष – विश्व में प्रत्येक वस्तु सामान्य तथा विशेष इस तरह दो प्रकार की है। वस्तु की विशेष रूप में जो बोधि वह ज्ञान तथा सामान्य रूप में जो बोधि वह दर्शन है । ज्ञान और दर्शन गुरण से जीव आत्मा में भूत, भावी तथा वर्तमान इन तीन कालों की समस्त वस्तुओं को सामान्य रूप में अथवा विशेष रूप में बोध करने की शक्ति है, तो भी अभी अपने को भूत एवं भावी काल की वस्तुओंों की बात तो दूर करें, वर्तमान काल की वस्तुओं में भी कुछ ही वस्तु-पदार्थों का सामान्य या विशेष रूप में जो बोध होता है, वह भी इन्द्रियों की सहायता से ही होता है। इसका कारण है ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म - प्रकृतियाँ। इन दोनों प्रकृतियों ने जीवात्मा की ज्ञान दर्शन की शक्ति दबा दी है किन्तु ऐसा होते हुए भी वे आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुण 'को सर्वथा नहीं दबा सकी हैं । जैसे सूर्य पर बादलों का आवरण होते हुए भी बादलों के छिद्रों द्वारा सूर्य का प्रल्प भी प्रकाश पड़ता है, वैसे ही जीव आत्मा रूपी सूर्य पर कर्मप्रकृति रूपी बादलों का आवरण होते हुए भी क्षयोपशम रूपी छिद्रों द्वारा यत् किंचित् ज्ञान-दर्शन गुण रूपी प्रकाश व्यक्त प्रर्थात् स्पष्ट होता है । * अब आत्मा का तीसरा गुरण 'अनंत अव्याबाध सुख' है। इस गुरण के प्रताप से जीवआत्मा में भौतिक किसी भी वस्तु की अपेक्षा बिना स्वाभाविक सहज सुख विद्यमान होते हुए भी अपन दुःखी होते हैं । जो यत् किंचित् सुख प्राप्त होता है, वह भी भौतिक वस्तुओं द्वारा। इसमें वेदनीय कर्म कारण है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] अष्टमोऽध्यायः * आत्मा में चौथा गुण 'स्वभावरमरणतारूप अनन्त चारित्र' है । आत्मा में केवल स्वभाव में अर्थात् अपने ही भाव में रमणता करने का गुण होते हुए भी मोहनीय कर्म से इस गुण का अभिभव हो गया है। अर्थात्-आत्मा भौतिक वस्तु प्राप्त करने की रुचि रखता है, उसका संग्रह करता है, उस पर राग-द्वेष करता है, इस प्रकार परभाव में रमता है। * आत्मा का पांचवां गुण 'अक्षयस्थिति है। इस गुण के प्रभाव से प्रात्मा का न जन्म है, न जरा है, न मृत्यु-मरण है। ऐसा होते हुए भी प्रायुष्य-कर्म के कारण प्रात्मा को जन्म-मरण करने पड़ते हैं। * आत्मा का छठा गुण 'प्ररूपीपना' है। आत्मा में यह गुण होने से इसका न कोई रूप है, न रस है, न गन्ध है, न स्पर्श है। ऐसा होते हुए भी अभी अपन शरीरधारी हैं। इसके कृष्ण, श्वेत इत्यादि रूप तथा मनुष्यादि गति, यश, अपयश, सुस्वर एवं दुःस्वर इत्यादि जो विकार दिखाई देते हैं, वे छठी नामकर्म प्रकृति के कारण हैं । * आत्मा का सातवाँ गुण 'प्रगुरुलघुता' का है। इस गुण से आत्मा उच्च नहीं है तथा नीच भी नहीं है; तो भी अमुक व्यक्ति उच्च कुल में जन्मा है तथा अमुक व्यक्ति नीच कुल में जन्मा है। इस तरह जो उच्चकुल या नीच कुल की व्यवहार होता है, वह सातवीं गोत्र कर्मप्रकृति के कारण है। आत्मा का आठवाँ गुण 'अनन्तवीर्यपना' है। इस गुण से प्रात्मा में अतुल, अनंत शक्ति है। किन्तु अभी इस अतुल सामर्थ्य का अनुभव नहीं होता है क्योंकि अन्तराय कर्मप्रकृति से इस शक्ति का अभिभव हो रहा है। इस तरह इन अष्ट-पाठ कर्मों का क्रमशः आत्मा के आठ गुणों को दबाकर उसमें विकृति लाने का स्वभाव है। कर्म अनेक स्वभावी हैं तो भी संक्षेप दृष्टि से उनके आठ विभाग करके बताये गये हैं। मध्य मार्गवर्ती विस्तृत रुचि जिज्ञासुओं के लिए उन आठ प्रकृतियों के भेदों की संख्या तथा नाम का निर्देश आगे के सूत्र से करते हैं, जो उत्तर प्रकृति के नाम से विख्यात-प्रसिद्ध हैं । 'कर्म विपाक' नामक पहले कर्मग्रन्थ में इन उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन है ।। (८-५) .. प्रकृतिबन्धस्योत्तरभेदानां संख्याः * ॐ मूलसूत्रम्पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-चतु-द्वि-चत्वारिंशद-द्वि-पञ्चभेदाः यथाक्रमम् ॥८-६॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८७ * ज्ञानावरणप्रकृतीनां पञ्च भेदाः * 卐 मूलसूत्रम् मत्यादीनाम् ॥ ८-७॥ * सुबोधिका टीका * तेषामष्टानां प्रकृतिबन्धानामेकैकस्यानुक्रमात् पञ्च, नव, द्वि, अष्टाविंशतिः, चत्वारः, द्विचत्वारिंशत्, द्विः तथा पञ्चेति भेदाः यथाक्रमं प्रत्येतव्यम् । इत उत्तरंयद् वक्ष्यामः । तद्यथा-मतिज्ञानादीनां पञ्च भेदाः भवन्ति ।। ८-७ ।। * सूत्रार्थ-उपर्युक्त पाठ प्रकार के प्रकृतिबन्ध के क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और पाँच उत्तरभेद हैं ।। ८-६ ॥ . मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पांच ज्ञानावरण कर्म के भेद हैं ।। ८-७ ।। विवेचनामृत * प्रकृतिभेद के उत्तर भेदों की संख्या-ज्ञानावरणादिक पाठ मूल प्रकृतियों के अनुक्रम से ५, ६, २, २८, ४, ४२, २ और ५ भेद हैं। सब मिलकर ६७ भेद होते हैं ।। ८-६ ।। * ज्ञानावरण प्रकृति के पांच भेद–मति इत्यादि पांच ज्ञान के पाँच प्रावरण ज्ञानावरण के पाँच भेद हैं। अर्थात मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण तथा केवलज्ञानावरण, ये ज्ञानावरण के पांच भेद हैं । उनमें(१) मतिज्ञान को रोकने वाली मतिज्ञानावरण प्रकृति है । (२) श्रुतज्ञान को रोकने वाली श्रुतज्ञानावरण प्रकृति है । (३) अवधिज्ञान को रोकने वाली अवधि ज्ञानावरण प्रकृति है। (४) मनःपर्यवज्ञान को रोकने वाली मनःपर्यवज्ञानावरण प्रकृति है। (५) तथा केवलज्ञान को रोकने वाली केवलज्ञानावरण प्रकृति है। विशेष—प्रत्येक ज्ञान का आवरण यानी आच्छादन करने का जो स्वभाव उसको ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। उसके स्थूलदृष्टि से मुख्य पाँच भेद बताए हैं । विशेषरूप में पहले 'कर्मविपाक' ग्रन्थ में गाथा ४ से ८ तक इनके उत्तर भेदों का सविस्तार वर्णन है। इस ग्रन्थ में भी मतिज्ञानादिक पांच ज्ञान का स्वरूप प्रथम अध्याय के नवे सूत्र से विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।। ८-७ ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] अष्टमोऽध्यायः [ १५ * दर्शनावरणस्य प्रकृतीनां भेदाः * 卐 मूलसूत्रम्चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च ॥ ८-८ ॥ * सुबोधिका टीका * चक्षुर्दर्शनावरणं, प्रचक्षुर्दर्शनावरणं, अवधिदर्शनावरणं, केवलदर्शनावरणं, निद्रावेदनीयम्, निद्रानिद्रावेदनीयम्, प्रचलावेदनीयं, प्रचलाप्रचलावेदनीयम्, स्त्यानगृद्धिवेदनोयम् चेति नवभेदाः दर्शनावरणीयस्य सन्ति ।। ८-८ ।। * सूत्रार्थ-चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, तथा केवलदर्शनावरण, ये चार प्रावरण और निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, एवं स्त्यानगृद्धि इन पाँचों का वेदन; इस प्रकार दर्शनावरण कर्म के नौ भेद हैं ।। ८-८ ॥ 9 विवेचनामृत चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये चार दर्शन के चार आवरण हैं। तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला एवं स्त्यानगृद्धि ये पाँच मिलकर दर्शनावरण कर्म प्रकृति के नौ भेद होते हैं । उनका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-चक्षु प्रादि के सामान्य अवबोध (दर्शन) को आवृत करने का जिसमें स्वभाव हो, उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । उसके ही नौ भेद हैं (१) चक्षुदर्शनावरण, (२) अचक्षुदर्शनावरण, (३) अवधिदर्शनावरण, (४) केवलदर्शनावरण, इनके दर्शन को सामान्य उपयोग भी कहते हैं। तथा पाँच प्रकार की निद्रा भी दर्शनावरणीय है । (१) सुखपूर्वक निद्रा आ जाए और जाग उठे उसको निद्रा' कहते हैं । (२) सुख से निद्रा पा जाए और मुश्किल से ही जागे उसे 'निद्रानिद्रा' कहते हैं । (३) बैठे और खड़े नींद ले, उसको 'प्रचला' कहते हैं । (४) चलते हुए नींद ले उसको 'प्रचलाप्रचला' कहते हैं । (५) जागृत अवस्था में विचारा हुआ कार्य निद्रावस्था में करे, उसको 'स्त्यानगृद्धि निद्रा' कहते हैं। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रे इस अवस्था में स्वाभाविक बल की अपेक्षा अनेक गुरणा बल प्रगट होता है । विशेष (१) जिससे चक्षुद्वारा रूपका (सामान्य) ज्ञान न कर सके, वह 'चक्षुदर्शनावरण' है । GIS (२) अचक्षु शब्द से चक्षु बिना चार इन्द्रियाँ तथा मन ग्रहण करने में आते हैं । जिससे स्पर्शेन्द्रिय आदि चार इन्द्रियाँ तथा मन द्वारा अपने-अपने विषय का ( सामान्य ) ज्ञान न हो सके, वह 'प्रचक्षुदर्शनावरण' है । (३) जिस कर्म के उदय से अवधिदर्शन रूप (सामान्य) ज्ञान न हो सके, वह 'अवधिदर्शनावरण' है । ( ४ ) जिस कर्म के उदय से केवलदर्शन रूप (सामान्य) ज्ञान न हो सके, वह 'केवलदर्शनावरण' है । पूर्व में इस अध्याय के पाँचवें सूत्र में कहा है कि सामान्य और विशेष इम दो प्रकार से बोध होता है । उसमें सामान्य बोध वह दर्शन है तथा विशेष बोध वह ज्ञान है । ज्ञान विषय में भी प्रथम अध्याय में कहा है कि मतिज्ञान में इन्द्रियों की और मन की श्रावश्यकता जरूरी है । पाँच इन्द्रियों तथा मन द्वारा होता हुआ मतिज्ञान सामान्य और विशेष इम उभयरूप है । पाँच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से प्रथम सामान्य मतिज्ञान होता है, बाद में विशेष मतिज्ञान होता है । उसमें भी चक्षुइन्द्रिय से रूप का सामान्य जो मतिज्ञान होता वही चक्षुदर्शन, तथा शेष चार इन्द्रियों और मन द्वारा तद् तद् विषय का जो सामान्य मतिज्ञान होता है वही चक्षुदर्शन है। इस तरह अवधिज्ञान तथा केवलज्ञान भी सामान्य और विशेष इम उभयरूप हैं । अवधि लब्धि से जो सामान्य बोध होता है, वह 'अवधिदर्शन' है, तथा विशेष बोध होता है वह 'अवधिज्ञान' है । केवलब्धि से जो सामान्य बोध होता है, वह 'केवलदर्शन' है, तथा विशेष जो बोध होता है, वह 'केवलज्ञान' है । * प्रश्न – मतिज्ञान आदि की भाँति मनः पर्यवज्ञान भी सामान्य और विशेष इम उभयरूप क्यों नहीं है ? उत्तर - जिससे मन की पर्यायों को जान सके वह मनः पर्यवज्ञान है । मन के पर्याय विशेष रूप हैं। इससे इस ज्ञान से पहले से ही विशेष बोध होता है। इसलिए मनः पर्यवज्ञान विशेष क्षयोपशम से होता होने से चक्षुदर्शन आदि की भाँति मनः पर्यवदर्शन नहीं है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] अष्टमोऽध्यायः * प्रश्न-मनःपर्यवज्ञान के भेदरूप ऋजुमति को सामान्य कहा गया है ? कारण मन की पर्यायों का सामान्यरूप में जो बोध, वह ऋजुमति है । उत्तर-यहाँ पर सामान्य बोध विपुलमति से होता है, विशेष बोध की अपेक्षा है। जैसे -लक्षाधिपति श्रीमन्त होते हुए भी कोड़पति की अपेक्षा से सामान्य ही कहलाता है, वैसे ऋजुमति विशेषस्वरूप होते हुए भी विपुलमति की अपेक्षा सामान्यस्वरूप है। विशेष बोध की तरतमता बताने के लिए ही मनःपर्यवज्ञान के दो भेद कहने में पाए हैं। श्रुतज्ञान भी शब्द तथा अर्थ के पर्यालोचनपूर्वक होने से विशेषरूप ही है। मतिज्ञानादि पांच ज्ञानों में मति, श्रुत तथा अवधि ये तीन ज्ञान सामान्य (दर्शन) एवं विशेषरूप हैं। (५) निद्रा-सुखपूर्वक विशेष प्रयत्न बिना न जाग सके, ऐसी ऊंघ को निद्रा कहते हैं । जिस कर्म के उदय से ऊंघ-नींद आती है, वह निद्रावेदनीय दर्शनावरण है। (६) जो कष्टपूर्वक यानी विशेष प्रयत्नपूर्वक भी न जाग सके, ऐसी गाढ़ ऊंघ-नींद उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। जिस कर्म के उदय से निद्रा-निद्रा आती है, वह निद्रानिद्रा वेदनीय दर्शनावरण कर्म है। (७) बैठे-बैठे ऊंघ-नींद आ जाए, वह प्रचला। जिस कर्म के उदय से प्रचला ऊंघ-नींद आ जाए, वह प्रचलावेदनीय दर्शनावरण कर्म है । (८) जिस कर्म के उदय से प्रचलाप्रचला (चलते चलते ऊंघ-नींद) पा जाए, वह प्रचला-प्रचला वेदनीय दर्शनावरण है। (६) दिन में सोचे हुए कार्य रात्रि में ऊंघ-नींद में कर सके, वह निद्रा स्त्यानगद्धि कही जाती है। जिस कर्म के उदय से स्त्यानगृद्धि ऊंघ-नींद आ जाए, वह स्त्यानगद्धि वेदनीय दर्शनावरण है। * प्रश्न-प्रष्ट कर्मों की अपेक्षा से वेदनीय कर्म तो तीसरा कर्म है। फिर यहां पर दर्शनावरण कर्म प्रकृति के भेद में निद्रावेदनीयादि पांच का निर्देश करने का __ क्या कारण है ? उत्तर-निद्रावेदनीयादिक कर्म भी चक्षुदर्शनावरणादिक की भाँति दर्शनावरणरूप ही है। परन्तु फर्क इतना ही है कि चक्षुदर्शनावरणादिक चार कर्म मूल से ही दर्शनलब्धि को रोकते हैं। नलब्धि को प्राप्त ही नहीं करने देते हैं, जबकि निद्रावेदनीय इत्यादि पाँच कर्म चक्षदर्शनावरणदिक के क्षयोपशम से प्राप्त हुई दर्शनलब्धि को रोकते हैं। जीव-आत्मा जब ऊँघ जाता है अर्थात् नींद लेता है तब चक्षुदर्शन इत्यादि दर्शन की प्राप्त हुई किसी भी लब्धि-शक्ति का उपयोग नहीं होता है। अर्थात्-प्रथम के चार कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त हुई दर्शनशक्ति का उपयोग होता नहीं है। अतः निद्रावेदनीयादिक पांच कर्म भी दर्शनावरण रूप होने से दर्शनावरण कर्म के भेद हैं, न कि तीसरे वेदनीयकर्म के। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।९-१० वेदनीय शब्द का प्रयोग तो जो वेदाता है अर्थात् अनुभवाता है, वह वेदनीय; इस सामान्य अर्थ में करने में आता है। ___ इस सामान्य अर्थ की दृष्टि से समस्त कर्म वेदनीय ही हैं। ऐसा होते हुए भी वेदनीय शब्द शास्त्र में तीसरे प्रकार के कर्म में रूढ़ बन गया है । यहाँ निद्रावेदनीयादिक में वेदनीय शब्द का रूढ़ अर्थ नहीं है, किन्तु जो वेदाता है वह वेदनीय ऐसा यौगिक अर्थ है। इसलिए उसमें वेदनीय शब्द का प्रयोग दोष रूप नहीं है ।। ८-८ ॥ * वेदनीयकर्मणोः द्वौ भेदाः * ॐ मूलसूत्रम् सदसवेद्ये ॥८-६॥ * सुबोधिका टोका * सद्वेद्यं प्रसवेद्यं च वेदनीयं द्विभेदं भवति । अर्थात्-सातानामकमसातानामक मिति द्विप्रकारकं वेदनीयकर्म भवति ।। ८-६ ॥ * सूत्रार्थ-सातावेदनीय तथा प्रसातावेदनीय ये वेदनीय कर्म के दो भेद हैं ।। ८-६ ॥ ॐ विवेचनामृतम सद्वेद्य सातावेदनीय। प्रसवेद्य असातावेदनीय, वेदनीय प्रकृति के ये दो भेद हैं । जिस कर्म के उदय से जीव-प्रात्मा को शारीरिक तथा मानसिक सुख का अनुभव होता है, वह सातावेदनीय कर्म है। एवं जिस कर्म के उदय से शारीरिक और मानसिक दुःख का अनुभव होता है, वह असातावेदनीय कर्म है। अर्थात्-सुख और दुःख के अनुभव को क्रमश: सातावेदनीय कर्म तथा असातावेदनीय कर्म कहते हैं ।। ८-६ ।। * मोहनीयकर्मणोः भेदाः * 卐 मूलसूत्रम्दर्शन-चारित्रमोहनीय-कषाय-नोकषायवेदनीयासंख्यास्त्रि-द्वि-षोडश-नव भेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयानि कषाय-नोकषायौ, अनन्तानबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा स्त्री-पु-नपुंसकवेदाः ॥ ८-१०॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.१० ] प्रष्टमोऽध्यायः [ १६ * सुबोधिका टीका * त्रिद्विषोडशनवभेदा यथाक्रमम् । मोहनीयकर्मणो दर्शनमोहनीयं तथा चारित्रमोहनीयमिति द्वौ भेदौस्तः । तस्य दर्शनमोहनीयस्य सम्यक्त्वमोहनीयं, मिथ्यात्वमोहनीयं तथा मिश्रमोहनीयमिति त्रयो भेदाः सन्ति । चारित्रमोहनीयस्य कषायवेदनीयं तथा नोकषाय-वेदनीयमिति द्वौ भेदौस्तः । तस्य कषायवेदनीयस्य अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी तथा संज्वलनामिति चत्वारो भेदाः भवन्ति । तथाऽनन्तरमेतेषां चतुर्णामेकैकस्य क्रोधः, मानः, माया, लोभ इति चत्वारश्चत्वारो भेदा भवन्तीति हेतोः मिलित्वा षोडश भेदाः भवन्ति । नोकषायवेदनीयस्य हास्यं, रतिः, अरतिः शोकः, भयं, जुगुप्सा, स्त्रीवेदः, पुरुषवेदः, नपुसकवेदश्चेति नव भेदाः सन्ति । तत्र पुरुषवेदादीनां तृणकाष्ठकरीषाग्नयो निदर्शनानि भवन्ति । इत्येवं मोहनीयमष्टाविंशतिभेदं भवतीति अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते । पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । अप्रत्याख्यानकषायोदयाद् विरतिर्न भवति । प्रत्याख्यानावरण-कषायोदयाद् विरताविरतिर्भवत्युत्तमचारित्रलाभस्तु न भवति। संज्वलनकषायोदयाद् यथाख्यातचारित्रलाभो न भवत्येव । * क्रोधस्य तीवमध्यविमध्य मन्दभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथापर्वतराजिसमानः, भूमिराजिसदृशः, वालुकाराजितुल्यः, उदकराजि समान इति । * मानस्य तीव्रादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा-शैलस्तम्भसदृशः, अस्थिस्तम्भः समानः, दारुस्तम्भतुल्यः, लतास्तम्भसदृश इति । * मायायास्तीवादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति। तद्यथा-वंशकुणसदृशी, मेषविषाण सदृशी, गोमूत्रिकासदृशी, निर्लेखन सदृशीति ।। * लोभस्य तोवादिभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा-लाक्षारागसमानः कर्दमरागसदृशः, कुसुमरागतुल्यः, हरिद्राराग सदृश इति । अत्रापि उपसंहार निगमने क्रोधनिदर्शनाख्याते । एषां क्रोधादीनां चतुण्णां कषायाणां प्रत्यनीकभूता: प्रतिघातहेतवो भवन्ति । तद्यथा-क्षमा क्रोधस्य, मार्दवं मानस्य, प्रार्जवं मायायाः, संतोषो लोभस्येति ।। ८-१० ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८१० * सूत्रार्थ-मोहनीय कर्म के उत्तरभेद दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय के क्रम से तीन, दो, सोलह और नौ भेद हैं। जैसे-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, तदुभय सम्यक्त्वमिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म के भेद हैं। चारित्रमोहनीय के कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। कषायचारित्रमोहनीय के क्रोध, मान, माया और लोभ ये प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी तथा संज्वलनरूप से चार-चार प्रकार होने से सोलह भेद हैं । हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद ये नौ नोकषाय के भेद होते हैं ।। ८-१० ।। + विवेचनामृत ॥ * मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेव हैं-(१) दर्शनमोहनीय तथा (२) चारित्र मोहनीय । * दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं-(१) सम्यक्त्वमोहनीय, (२) मिथ्यात्व मोहनीय, (३) मिश्रमोहनीय । * चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं- (१) कषायमोहनीय, (२) नोकषाय मोहनीय । * कषाय मोहनीय के मुख्य चार भेद हैं-(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, (४) लोभ । * क्रोधादिक प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्याना तथा संज्वलन इस प्रकार चार-चार भेद होने से कषाय के कुल सोलह (१६) भेद हैं । (१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । (२) अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ । (३) प्रत्याख्याना क्रोध, मान, माया, लोभ । (४) संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । * नोकषाय मोहनीय के नौ भेद हैं-हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसक वेद । [ शास्त्र में हास्यादिक छह कर्मों की 'हास्यषट्क संज्ञा' तथा स्त्रीवेदादिक तीन वेद की 'वेदत्रिक संज्ञा' कहने में प्राई है। ] इस प्रकार मोहनीय कर्म प्रकृति के कुल अट्ठाईस [२८] भेद हैं । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ८।१० ] अष्टमोऽध्यायः इसके सम्बन्ध में विशेष रूप में कहा है कि-इस मोहनीय प्रकृति के २८ भेद उदय, उदीरणा तथा सत्ता की अपेक्षा हैं। बन्ध की अपेक्षा तो छब्बीस भेद हैं। कारण कि, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। मिथ्यात्वमोहनीय के शुद्ध दलिक तथा अर्द्धशुद्ध दलिक क्रमशः सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय कहलाते हैं । * मोहनीय शब्द की व्याख्या * मोहनीय यानी मुझवनार। जो कर्म, जीव-प्रात्मा को अपने विचार में अर्थात् अपनी अथवा अपने वर्तन चारित्र में भी मझवे. सिद्धान्त तत्त्व के अनुसार अपने हृदय में विचार नहीं करने दे, या तत्त्व के अनुसार विचार हो जाने के बाद भी तद् अनुसार प्रवृत्ति नहीं करने दे, वह मोहनीयकर्म है। उसके मुख्य दो भेद हैं। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । * दर्शनमोहनीय की व्याख्या * दर्शन यानी जीवादि तत्त्वों के प्रति श्रद्धा। वह श्रद्धा में जीव-आत्मा को मुझवण खड़ी करदे. अर्थात् उत्पन्न हुई श्रद्धा में सम्यक्त्व में दूषण लगा दे, या मूल से ही श्रद्धा उत्पन्न होने नहीं दे, वह दर्शनमोहनीय है। उसके सम्यक्त्व इत्यादि तीन भेदों की व्याख्या नीचे प्रमाणे है (१) जो उत्पन्न हुए सम्यक्त्व-समकित में अर्थात् श्रद्धा में जीव-प्रात्मा को मुझवे-दूषण लगादे, वह सम्यक्त्व मोहनीय है । (२) जिससे जीवादिक तत्त्वों में यथार्थ श्रद्धा न हो, जीव-प्रात्मा देव-गुरु-धर्म को नहीं माने, अथवा कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म को क्रमशः सुदेव, सुगुरु और सुधर्म माने, यही मिथ्यात्व मोहनीय है। (३) जिस कर्म के उदय से सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म में अथवा जीवादि नौ तत्त्वों में ये ही सत्य है ऐसी श्रद्धा न हो तथा ये असत्य हैं ऐसी अश्रद्धा भी न हो, परन्तु मिश्रभाव (अर्थात् मध्यस्थ भाव) जो रहे, वह मिश्र (= सम्यक्त्व-मिथ्यात्व) मोहनीय कर्म है। * चारित्र मोहनीय की व्याख्या * जिस चारित्र में हिंसादि पापों से निवृत्ति में मुझवते हैं अर्थात् हिंसादि पापों से निवृत्त नहीं होने दे, अथवा चारित्र में अतिचार लगाते रहे, वह चारित्र मोहनीय है । * कषाय मोहनीय की व्याख्या * कष यानी संसार तथा आय यानी लाभ । अर्थात् जिससे संसार का लाभ हो। जीवआत्मा को संसार में परिभ्रमण करना पड़े, वह कषाय मोहनीय है। उसके चार भेद हैं (१) क्रोध यानी गुस्सा या अक्षमा। (२) मान यानी अहंकार, अभिमान अथवा गर्व । (३) माया यानी दम्भ या कपट । लोभ यानी असन्तोष अथवा प्रासक्ति । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८११० * असूया, ईर्ष्या, कलह, कोप, रोष, द्वेष, वैमनस्य तथा बलतरीया स्वभाव इत्यादि क्रोध के प्रकार हैं । * अभिमान, अहंकार, गर्व, दर्प तथा मद मान के प्रकार हैं । * कपट, कुटिलता, छेतरपिंडी, दम्भ, वक्रता, वंचना इत्यादि माया के प्रकार हैं । * अभिलाषा, अभिष्वंग, आकांक्षा, मासक्ति, इच्छा, काम, कामना, गृद्धि, ममत्व तथा मूर्च्छा इत्यादि लोभ के प्रकार हैं । राग-द्वेष स्वरूप हैं। क्रोध और मान इसलिए मोह का सामान्य अर्थ रागअर्थ करने में आता है । यहाँ पर ये चारों कषाय अहंकार तथा ममता स्वरूप अथवा अहंकार या द्वेष स्वरूप हैं । तथा राग-द्वेष मोह स्वरूप हैं । द्वेष या क्रोधादि कषाय हैं । तदुपरान्त मोह का अज्ञानता भी अज्ञानता का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, किन्तु विपरीत ज्ञान अथवा प्रयथार्थ ज्ञान है । जीव- प्रात्मा को विरुद्ध ज्ञान तथा प्रयथार्थ ज्ञान अज्ञानता भी वास्तविक बरोबर है । मोहनीय कर्म से होता है । इसलिये मोह का अर्थ * कषायों के अनंतानुबन्धी इत्यादि भेदों की व्याख्या (१) अनंतानुबन्धी- जिन कषायों के उदय से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होता है, वे 'अनंतानुबन्धी' कषाय हैं । ये कषाय अनंत संसार का अनुबन्ध कराने वाले होने से अनंतानुबन्धी कहलाते हैं । इनके उदय से जीव आत्मा को हेय तथा उपादेय का विवेक होता नहीं है । (२) प्रत्याख्यान - जो कषाय (देश) विरति को रोकते हैं. तथा किसी भी प्रकार के पाप से विरति नहीं करने देते, वे प्रप्रत्याख्यान कषाय हैं। जिसके उदय से प्रत्याख्यान का प्रभाव होता है, वह श्रप्रत्याख्यान कहलाता है । जीव- श्रात्मा प्रत्याख्यान का महत्त्व समझने पर भी तथा प्रत्याख्यान करने की इच्छा होने पर भी इस कषाय के उदय से किसी भी प्रकार का विशिष्ट प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है । (३) प्रत्याख्यानावरण- जो कषाय सर्वविरति के प्रत्याख्यान पर आवरण-पर्दा करे, तथा सर्वविरति को प्राप्ति नहीं होने दे, वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है । चारित्र संयम बिना आत्मा का कल्याण नहीं होता है, ऐसा समझते हुए चारित्र दीक्षा को स्वीकारने की भावना होते हुए भी इस कषाय के उदय से जीव- श्रात्मा सर्वविरति रूप चारित्र ग्रहण नहीं कर पाता है । (४) संज्वलन -- जिस कषाय के उदय से चारित्र में प्रतिचार लगे, वह संज्वलन है । संज्वलन यानी बालने वाला मलिन करने वाला । जो कषाय प्रतिचारों से चारित्र को बाले मलिन करे वह संज्वलन कहा जाता 1 इस कषाय के उदय से जीव- प्रात्मा को यथाख्यात चारित्र प्राप्त नहीं होता है, किन्तु अतिचारों से मलिन चारित्र प्राप्त होता है । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१० ] अष्टमोऽध्यायः [ २३ ___ सारांश-सारांश यह है कि-अनंतानुबन्धी आदि चार प्रकार के कषाय क्रमशः श्रद्धा (-सम्यग्दर्शन), देश विरति, सर्वविरति, तथा यथाख्यात (निरतिचार) चारित्र-संयम को रोकते हैं। विशेष-पूर्व कषाय के उदय समये पीछे के कषाय का उदय अवश्य होता है। तथा पीछे के कषाय के उदय समये पूर्व के कषाय का उदय हो, या न भी हो। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय समये अन्य तीनों प्रकार के कषाय का उदय होता है, अथवा नहीं भी होता; तो भी प्र और संज्वलन इन दो प्रकार के कषायों का उदय होता ही है। कषाय के ये चार भेद कषाय की तरतमता के आश्रय से हैं। अनन्तानुबन्धीकषाय अत्यन्त तीव्र होता है। अप्रत्याख्यान कषाय मन्द होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय अधिक मन्द होता है। संज्वलन का कषाय तो उससे भी अधिक मन्द होता है। * कषायों की स्थिति * प्रश्न-कषायों की स्थिति निरन्तर कितने काल तक रहती है ? उत्तर-कषायों की स्थिति कषायों की तीव्रता तथा मन्दता पर आश्रित है। अनन्तानुबन्धी आदि कषायों की स्थिति क्रमशः जीवनपर्यन्त, बारहमास, चार मास तथा एक पक्ष है। अर्थात् – (१) अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय सम्पूर्ण जीवन अर्थात् जीवनपर्यन्त हो सकता है। (२) अप्रत्याख्यान कषायों का उदय (निरन्तर) अधिक में अधिक बारह मास तक ही रहता है।" (३) प्रत्याख्यान कषायों का उदय (निरन्तर) अधिक में अधिक चार मास तक ही रहता है। (४) संज्वलन कषायों का उदय (निरन्तर) अधिक में अधिक एक पक्ष तक अर्थात् पन्द्रह दिन पर्यन्त ही रहता है। तात्पर्य-जो कषाय जिसके सम्बन्ध में उत्पन्न हो वह उसके विषय में सतत जितने समय तक बना रहे, वह उसकी स्थिति है। जैसे-किसी व्यक्ति को अन्य प्रमुक व्यक्ति पर क्रोध उत्पन्न हुअा। यह क्रोध उस व्यक्ति पर सतत जितने समय तक रहे, वह उसकी स्थिति कही जाती है। अब यह क्रोध यदि अनन्तानुबन्धी कषाय का हो तो, उस व्यक्ति के साथ सतत जिन्दगी तक अर्थात् जीवनपर्यन्त भी रह सकता है। जिन्दगी तक अर्थात् जीवनपर्यन्त तक ही रहे ऐसा नियम नहीं है। किन्तु अधिक काल तक भी रहे तो जिन्दगी पर्यन्त तो रहेगा ही। अब यदि यह क्रोध अप्रत्याख्यान कषाय का हो तो, उस व्यक्ति पर अधिक में अधिक बारह मास पर्यन्त ही रहे। बाद में अवश्य अल्प समय में भी दूर हो। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे २४ ] [ ८।१० यदि यह क्रोध प्रत्याख्यानावरण हो तो उस व्यक्ति पर अधिक में अधिक चार मास पर्यन्त ही रहने के बाद, पीछे अवश्य दूर होता है । जो संज्वलन का क्रोध हो तो व्यक्ति पर अधिक में अधिक पन्द्रह दिन तक ही रहे । इस तरह मान, मायादि में भी समझना । जिस कषाय की जो स्थिति कही है वह कषाय उक्त समय तक रहे ही ऐसा नियम नहीं है, वह समय पूर्व भी दूर होता है । किन्तु शीघ्र जल्दी दूर नहीं हो, तथा अधिक में अधिक कहे हुए काल तक ही रहे । पीछे अल्प समय में अवश्य दूर हो जाता है । * प्रश्न - चौथे संज्वलन कषाय की स्थिति अधिक में अधिक पन्द्रह दिन की कही है, तो रहा ? श्री ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलीजी को मान कषाय बारह मास तक क्यों उत्तर - यहाँ पर क्रोधादिक कषायों की स्थिति व्यवहार से अर्थात् -- स्थूल दृष्टि से कही है । किन्तु निश्चय से अर्थात् सूक्ष्मदृष्टि से तो उक्त काल से अधिक काल भी रह सकती है । इसलिए ही प्रथम कर्मग्रन्थ की गाथा १८ की वृत्ति में कहा है कि उक्त सोलह कषायों के ६४ भेद भी होते हैं । * प्रश्न - कौनसे प्रकार के कषाय के उदय से कौनसी गति होती है ? उत्तर- (१) जीव-आत्मा जो अनंतानुबन्धी कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावेतो नरकगति में जाता है । (२) जीव- श्रात्मा जो अप्रत्याख्यान कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावे तो वह तियंचगति में जाता है । (३) जीव- श्रात्मा जो प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावे तो वह मनुष्यगति में जाता है । (४) तथा जीव - प्रात्मा जो संज्वलन कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावे तो वह देवगति में जाता है । यह प्ररूपणा भी व्यवहार से अर्थात् स्थूल दृष्टि से है । क्योंकि, अनंतानुबन्धी कषाय के उदय वाले तापस, अकामनिर्जरा करने वाले जीव तथा प्रभव्यसंयमी आदि देवलोक में या मनुष्यलोक में भी उत्पन्न होते हैं । तथा अप्रत्याख्यान कषाय के उदय वाले सम्यगृष्टिवन्त मनुष्य तिर्यंच या देवगति में उत्पन्न होते हैं, तथा देव मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं । प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले देशविरतिवंत मनुष्य एवं तिर्यञ्च देवगति में उत्पन्न होते हैं । * प्रश्न - उक्त दृष्टि से तो कौनसे प्रकार के कषाय वाले जीव कौनसी गति में जाते हैं, उसका निश्चयात्मक नियम कहाँ रहा ? जीव आत्मा ने जिस आयुष्य बन्ध का आधार अनंतानुउदय समये जो आयुष्य का बन्ध हो प्रमाणे चारों गतियों में से किसी उत्तर - गति की प्राप्ति तो प्रायुष्य बन्ध आधार पर होती है । का बाँधा हो, वह उस गति में उत्पन्न होता है । बन्ध आदि कषायों पर है। क्योंकि अनंतानुबन्धी कषाय के तो अव्यवसाय के प्रमाणे अर्थात् - कषाय परिणति की तरतमता Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१. अष्टमोऽध्यायः [ २५ भो गति के आयुष्य का बन्ध होता है। अर्थात् -अनंतानुबन्धी कषाय के उदय के समय कौनसी गति के प्रायुष्य का बन्ध होता है, इसका कोई नियम नहीं है। जो इन कषायों की परिणति अतिमन्द हो तो देवगति का आयुष्य भी बँध जाता है। अतितीव्र कषाय हो तो नरकगति का आयुष्य बँधता है। तथा मध्यम हो तो तिथंच या मनुष्यगति के आयुष्य का बन्ध होता है । अप्रत्याख्यान कषाय के समय प्रायुष्य का बन्ध हो तो देवों को और नारकों को मनुष्यगति का हो, तथा मनुष्यों एवं तियंचों को देवगति का ही आयुष्य बन्ध होता है। प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन इन दो प्रकार के कषायों के उदय समये आयुष्य का बन्ध हो तो नियम से देवगति का ही आयुष्य बन्ध होता है। आम गति का आधार मृत्यु समये किस प्रकार के कषाय हैं उस पर नहीं, अपितु आयुष्यबन्ध के समय में किस प्रकार के कषाय हैं उस पर हैं। आयुष्य कब बंधता है ? उसकी अपन को खबर पड़ती नहीं है। इसलिए सद्गति में जाना हो तो, नित्य शुभपरिणाम रखना चाहिए । * कथानकों से क्रोधादि कषायों का स्वरूप * कथानकों से क्रोधादि कषायों का स्वरूप नीचे प्रमाण है * क्रोध-संज्वलन कषाय का क्रोध जलरेखा के समान है। जैसे लकड़ो के प्रहार आदि से जल-पानी में पड़ी हुई रेखा पड़ने के साथ ही तुरन्त बिना प्रयत्ने विनाश पाती है, वैसे ही उदय पाये हुए संज्वलन कषाय का क्रोध खास पुरुषार्थ किये बिना शीघ्र विनाश पाता है । * प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्रोध रेणुरेखा के समान है। जैसे रेती में पड़ी हुई रेखा का पवन-वायु आदि के योग होते ही अल्प काल में विनाश हो जाता है, वैसे उदय पाये हुए प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्रोध अल्प काल में विनाश पाता है। [ महात्मा विष्णुकुमार का प्रत्याख्यानावरण क्रोध रेणुरेखा के समान था।] * अप्रत्याख्यान कषाय का क्रोध पृथ्वीरेखा के समान है। जैसे—पृथ्वी में पड़ी हुई फाड़ कष्ट से विलम्ब से भरतो है, वैसे हो उदय पाये हुए अप्रत्याख्यान कषाय का क्रोध अल्प कष्ट से और अधिक काल में दूर होता है। . . --- * अनन्तानुबन्धो कषाय का क्रोध पर्वतरेखा के समान है। जैसे पर्वत में पड़ी हुई फाड़ पूरनो दुःशक्य है, वैसे हो अनन्तानुबन्धी कषाय के क्रोध के उदय को दूर करना यह दुःशक्य बनता है। यहाँ पर क्रोध को रेखा के साथ समानता करने में प्रति रहस्य रहा हुआ है। जैसे रेखा पड़ने से वस्तु-पदार्थ का भेद होता है, ऐक्य विनाश पाता है। वैसे क्रोध के उदय से भी जीवों में परस्पर भेद पड़ता है तथा ऐक्य का अर्थात् संप का विनाश होता है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।१० * मान-(१) संज्वलन मान नेतर समान है। जैसे नेतर सहेलाइ से वाल सकते हैं, वैसे संज्वलन मान के उदय वाला जीव-आत्मा निजमाग्रह का त्याग करके शीघ्र नमने के लिए तैयार होता है। जैसे ब्राह्मी-सुन्दरी के वाक्यों से महात्मा बाहुबलीजी का संज्वलन का मान दूर हुआ और वे केवलज्ञान पाए । (२) प्रत्याख्यानावरण मान काष्ठ समान है। जैसे काष्ठ को वालने में अल्प कष्ट पड़ता है, वैसे ही प्रत्याख्यानावरण मान के उदय वाला जीव-प्रात्मा अल्प प्रयत्न करने से नमता है, अर्थात् नम्र बनता है। (३) अप्रत्याख्यान मान अस्थि समान है। जैसे अस्थि-हड्डी को वालने में अतिकष्ट पड़ता है, वैसे ही अप्रत्याख्यान मान के उदयवाला जीव-प्रात्मा अतिकष्ट से विलम्ब से, नमने के लिए तैयार होता है। (४) अनन्तानुबन्धी मान पत्थर-पाषाण के स्तम्भ समान है। जैसे पत्थर-पाषाण का स्तम्भ नहीं नमा सकते हैं, वैसे अनन्तानुबन्धीमान के उदय वाला जीव-प्रात्मा नमे, यह अशक्य है। जैसे-नेतर इत्यादि वस्तु-पदार्थ अक्कड़ होते हैं, वैसे मान कषाय वाला जीव-आत्मा अक्कड़ रहता है। इसलिए यहाँ मान की नेतर इत्यादि अक्कड़ वस्तु-पदार्थ के साथ समानता है। * माया-(१) यह संज्वलन माया इन्द्रधनुष की रेखा समान है। जैसे आकाश में होती इन्द्रधनुष की रेखा शीघ्र विनाश पाती है, वैसे ही संज्वलन की माया शीघ्र दूर होती है । (२) प्रत्याख्यानावरण माया वृषभ-बलद आदि के मूत्र-पेशाब की धारा समान है। जैसे मूत्र की धारा (ताप इत्यादि से) जरा विलम्बे विनाश पाती है, वैसे ही यह माया अल्प विलम्वे विनाश पाती है। (३) अप्रत्याख्यान माया-यह माया घंटा के सींग के समान है। जैसे घंटा के सींग की वक्रता कष्ट से दूर होती है, वैसे ही यह माया अतिकष्ट से दूर होती है। (४) अनन्तानबन्धी माया-यह माया घनबांस की जड समान है। जैसे घनबांस की जड़ की वक्रता दूर नहीं हो सकती है, वैसे अनन्तानुबन्धी माया प्रायः दूर नहीं होती। जैसे इन्द्रधनुष की रेखा आदि वक्र होती है वैसे ही मायावी जीव-वक्र होते हैं। इसलिए यहाँ माया को इन्द्रधनुष की रेखा आदि की उपमा दी है। * लोभ-(१) संज्वलन लोभ हलदर के रंग समान है। जैसे वस्त्र में लगा हुआ हलदर का रंग सूर्य का ताप लगने मात्र से शीघ्र दूर हो जाता है, वैसे ही संज्वलन का लोभ कष्ट बिना, शीघ्र दूर होता है। (२) प्रत्याख्यानावरण लोभ दीपक-दीवा की मेष समान है। जैसे वस्त्र में लगी हुई दीवा की मेष (काजल) जरा कष्ट से दूर होती है, वैसे ही यह लोभ अल्प कष्ट से विलम्बे दूर होता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१० ] अष्टमोऽध्यायः [ २७ (३) अप्रत्याख्यान लोभ-गाड़ी के पहिए की सली समान है। वस्त्र में लगी हुई यह मली जैसे प्रति कष्ट से दूर होती है, वैसे ही यह लोभ भी अति कष्ट से दूर होता है। (४) अनन्तानुबन्धी लोभ-कृमिरंग अर्थात् किरमिजी रंग समान है। जैसे वस्त्र में लगे हुए किरमिजी रंग जब तक वस्त्र का विनाश होता है वहाँ तक रहता है, वैसे ही यह अनन्तानुबन्धी लोभ प्रायः जीव मरे वहाँ तक रहता है। इसलिए यहाँ पर लोभ को हलदर आदि के रंग के साथ समानता किए हुए हैं। * नोकषाय की व्याख्या-यहाँ पर नो शब्द का अर्थ साहचर्य अर्थात् साथ रहना है। जो कषायों के साथ रहकर अपना फल दिखाता है, वह नोकषाय है। नोकषायों के विपाकफल कषायों के आधार से होते हैं। जो कषायों के विपाक तीव्र हों तो, नोकषायों के विपाक भी तीव्र होते हैं। आम कषायों के आधारे फल देते होने से केवल नोकषायों की मुख्यता नहीं होती है । अथवा नो अर्थात् प्रेरणा। जो कषायों को प्रेरणा करे-कषायों के उदय में निमित्त बने, वह नोकषाय है। हास्यादि क्रोधादिक भी कषाय के उदय में निमित्त बनते हैं, इसलिए वे भी नोकषाय हैं। * हास्यषट्क * हास्यादि षट्क नीचे प्रमाणे हैं[१] जिस कर्म के उदय से हंसना पाता हो, वह हास्य मोहनीयकर्म है । [२] जिस कर्म के उदय से रति उत्पन्न होती हो, वह रति मोहनीयकर्म है। [३] जिस कर्म के उदय से अरति उत्पन्न होती हो, वह प्ररति मोहनीय कर्म है। [४] जिस कर्म के उदय से भय उत्पन्न होता हो, वह भय मोहनीयकर्म है। [५] जिस कर्म के उदय से शोक उत्पन्न होता हो, वह शोक मोहनीयकर्म है । [६] जिस कर्म के उदय से जुगुप्सा उत्पन्न होती हो, वह जुगुप्सा मोहनीयकर्म है । * वेदत्रिक * वेदत्रिक नीचे प्रमाणे हैं--_.. [१] जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ मैथुन सेवन की इच्छा हो, वह पुरुषवेद मोहनीय है। [2] जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ मैथुन सेवन की इच्छा हो, वह स्त्रीवेद मोहनीय है। [3] जिस कर्म के उदय से स्त्री-पुरुष दोनों के साथ मैथुन सेवन की इच्छा हो, वह नपुंसक वेद मोहनीय है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।११ * उदाहरणों से वेवत्रिक का स्वरूप * * पुरुषवेद-तृण-घास की अग्नि के समान है। जैसे-तृण-घास की अग्नि शीघ्र प्रदीप्त होती है, तथा शान्त भी शीघ्र ही हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषवेद का उदय शीघ्र होता है तथा वह शान्त भी शीघ्र ही हो जाता है। * स्त्रीवेद काष्ठ की अग्नि के समान है। जसे काष्ठ की अग्नि जल्दी सुलगती नहीं है, वैसे ही स्त्रीवेद का उदय भी शीघ्र नहीं होता है, किन्तु काष्ठ की अग्नि सुलगने के बाद शीघ्र शान्त नहीं होती, वैसे स्त्रीवेद भी शीघ्र शान्त नहीं होता है। * नपुसकवेद-नगर के दाह (प्राग) के समान है। नगर के दाह (प्राग) की भांति नपुंसक वेद का उदय बहुत काल तक शान्त नहीं होता है। उक्त कथन के अनुसार मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेदों का वर्णन पूर्ण हुआ ।। ८-१० ॥ * आयुष्यकर्मणो भेदाः १ 卐 मूलसूत्रम् नारक-तैर्यग्योन-मानुष-दैवानि ॥ ८-११॥ * सुबोधिका टीका * प्रायुष्कं चतुर्भेदं नारकं तैर्यग्योनं मानुषं देवमिति । अर्थात्-नारकसम्बन्धि, तियंचसम्बन्धि, मनुष्यसम्बन्धि, देवतासम्बन्धि चेति चतुर्विधान्यायुष्यकर्माणि सन्ति ।। ८-११ ।। * सूत्रार्थ-नारक, तियंच, मनुष्य और देव ये चार आयुष्यकर्म के भेद हैं ।। ८-११ ॥ के विवेचनामृत है जीव-मात्मा की एक शरीरावस्थित काल मर्यादा को प्रायुष्य कहते हैं। वह गति की अपेक्षा चार प्रकार की है। नारक, तियंच, मनुष्य और देव ये चार प्रायुष्य कर्म के भेद हैं। (१) जिस कर्म के उदय से नरकगति का जीवन प्राप्त हो, वह नरक प्रायुष्य है। (२) जिस कर्म के उदय से तिर्यंचति का जीवन प्राप्त हो, वह तियंच प्रायुष्य है। (३) जिस कर्म के उदय से मनुष्यगति का जीवन प्राप्त हो, वह मनुष्य प्रायुष्य है। (४) जिस कर्म के उदय से देवगति का जीवन प्राप्त हो, वह देव प्रायुष्य है। इस तरह आयुष्यकर्म के चार भेद जानना ।। ८-११ ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१२ ] 'अष्टमोऽध्यायः [ २६ * नामकर्मणो भेदाः * ॐ मूलसूत्रम्गति-जाति-शरीराऽङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्शरस-गन्ध-वर्णाऽऽनुपूर्व्यगुरु-लघूपघात-परघाताऽऽतपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्तस्थिराऽऽदेय-यशांसि-सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च ॥ ८-१२॥ * सुबोधिका टोका * (१) गतिः, (२) जातिः, (३) शरीरं, (४) अङ्गोपाङ्ग, (५) निर्माणं, (६) बन्धनं, (७) संघातः, (८) संस्थानं, (६) संहननं, (१०) स्पर्शः, (११) रसः, (१२) गन्धः, (१३) वर्णः, (१४) प्रानुपूर्वी, (१५) अगुरुलघुः, (१६) उपघातः, (१७) परघातः, (१८) प्रातपः, (१६) उद्योतः, (२०) उच्छ्वासः, (२१) विहायोगतिः, (२२) प्रत्येकशरीरं, (२३) सः, (२४) सौभाग्यं, (२५) सुस्वरः, (२६) शुभः, (२७) सूक्ष्मः, (२८) पर्याप्तः, (२६) स्थिरः, (३०) प्रादेयः, (३१) यशः, प्रतिपक्षिणा सह (३२) साधारणः, (३३) स्थावरः, (३४) दुर्भगः, (३५) दुस्वरः, (३६) अशुभः, (३७) बादरः, (३८) अपर्याप्तः, (३६) अस्थिरः, (४०) अनादेयः, (४१) अयशः, (४२) तीर्थकरत्वं चेति द्विचत्वारिंशद् भेदा नामकर्मणो भवन्ति ।। ८-१२ ।। * सूत्रार्थ-गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, पातप, उद्योत, उच्छवास, विहायोगति ये इक्कीस [२१] और प्रतिपक्ष सहित बीस जैसे-प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, प्रादेय, अनादेय, यश और अपयश तथा तीर्थंकरनाम यों नामकर्म के बयालीस [४२] भेद हैं ।। ८-१२ ।। + विवेचनामृत. प्रस्तुत सूत्र में नामकर्म की ४२ प्रकृतियों का जिस अनुक्रम से वर्णन किया है, उसको यथाक्रम नहीं कहकर के प्रथम कर्मग्रन्थ की प्रणालिका के अनुसार विवेचन करते हुए उत्तर प्रकृतियों के नाम का निर्देश करते हैं । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८.१२ * गतिनामकर्म से प्रारम्भ करके विहायोगति नामकर्म तक चौदह प्रकृतियों के पेटाविभाग होने से उनको 'पिण्डप्रकृति' कहने में आती है। उनके पीछे की परघात से प्रारम्भ कर उपघात् पर्यन्त की आठ प्रकृतियों के पेटा विभाग नहीं होने से उनको 'प्रत्येक प्रकृति' कहने में पाती है। उनके पीछे की दस प्रकृतियों को 'बस दशक' कहने में आता है। और उनके भी पीछे की यानी अन्त में रही हुई दस प्रकृतियों को 'स्थावर दशक' कहने में आती है। .. नामकर्म के भेदों की ४२, ६३, १०३ तथा ६७ ऐसे चार संख्या दृष्टिगोचर अर्थात् देखने में पाती है। नामकर्म के केवल मूल भेदों की गिनती करने में आए तो ४२ संख्या होती है। जो इस प्रस्तुत सूत्र में कहने में पाई है। नामकर्म के अवान्तर भेदों का विचार करने में आए तो ६३ आदि संख्या हो जाती है। ६३ को संख्या नीचे प्रमाणे है। * चौदह पिण्डप्रकृतियों के भेद * [१] गतिनामकर्म-जिसमें सांसारिक सुख-दुःख के अनुभव होते हैं। उसके चार भेद देव० मनुष्य० तिर्यच० और नरक । * जिस कर्म के उदय से नारक पर्याय प्राप्त हो, अर्थात् नरकगति का जीवन प्राप्त हो, वह नरकगतिनामकर्म है। * जिस कर्म के उदय से तियंचगति का जीवन प्राप्त हो, वह तियंचगतिनामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से मनुष्यगति का जीवन प्राप्त हो, वह मनुष्यगतिनामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से देवगति का जीवन प्राप्त हो, वह 'देवगतिनामकर्म है। [२] जातिनामकर्म-इन्द्रिय अनुभव विशेष से पांच प्रकार का है। अर्थात् –जाति के एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय, ये पांच भेद हैं । * जिस कर्म के उदय से जीव-प्रात्मा को एक इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) की प्राप्ति हो, वह एकेन्द्रियजातिनामकर्म है। जैसे-पृथ्वोकाय, अप्काय, तेउ (अग्नि) काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय । * जिस कर्म के उदय से जीव-प्रात्मा को दो इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय) की प्राप्ति हो, वह बेइन्द्रियजातिनामकर्म है। जैसे- शंख, कवड्डय गंडुल इत्यादि । * जिस कर्म के उदय से जीव-आत्मा को तीन इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय) की प्राप्ति हो, वह तेइन्द्रियजातिनामकर्म है । जैसे गोमी. मंकण ज, खटमल, बिच्छू इत्यादि । * जिस कर्म के उदय से जीव-प्रात्मा को चार इन्द्रिय (म्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय) की प्राप्ति हो, वह चउरिन्द्रियजातिनामकम है। जैसे-मक्खी, मच्छर, डांस, भ्रमर, बरं, ततैया आदि। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१२] अष्टमोऽध्यायः [ ३१ * जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा को पाँच इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय) की प्राप्ति हो, वह पंचेन्द्रियजातिनामकर्म है । जैसे- नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव । [३] शरीरनामकर्म - संसारी जीव आत्मा को रहने का आधार विशेष । उसके पाँच भेद हैं- प्रदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । * जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा श्रदारिक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहरण करके दारिक शरीर रूप में परिणमावे, वह मौदारिकशरीरनामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा वैक्रिय शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय शरीर रूप में परिणमावे, वह वैक्रियशरीरनामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से जीव- श्रात्मा श्राहारक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके आहारक शरीर रूप में परिणमावे वह श्राहारकशरीरनामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से जीव म्रात्मा तैजस शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके तेजस शरीर रूप में परिणमावे, वह तैजसशरीरनामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा कार्मण शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके कार्मण शरीर रूप में परिणमावे, वह कार्मणशरीर नामकर्म है । [४] अंगोपांग नामकर्म - शरीरगत अवयव विशेष अंगोपांग अंगोपांग शब्द में अंग और उपांग दो शब्द हैं। हाथ, पाँव प्रादि शरीर के अंग है, तथा अंगुली प्रादि उपांग हैं अर्थात् अंगों के अंग हैं। अंगोपांग तीन प्रकार के हैं। श्रदारिक, वैक्रिय तथा आहारक । * जिस कर्म के उदय से प्रदारिक शरीर रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल प्रौदारिक शरीर के अंग तथा उपांग रूप में परिणमे, वह श्रदारिक अंगोपांग नामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल वैक्रियशरीर के अंग तथा उपांग रूप में परिणमे, वह वैक्रिय अंगोपांग नामकर्म है । * जिस कर्म के उदय से श्राहारक शरीर रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल प्राहारक शरीर के अंग तथा उपांग रूप में परिणमें, वह श्राहारक अंगोपांग नामकर्म है । विशेष – प्रदारिकादि शरीर पाँच होते हुए भी अंगोपांग प्रारम्भ के तीन शरीरों में है । अन्तिम तैजस और कार्मरणशरीर के अंगोपांग नहीं होते हैं । [५] बन्धननामकर्म - प्रौदारिक शरीर योग्य पुद्गलों का परस्पर योग सम्बन्ध कराने वाले बन्धन हैं । बन्धन यानी जतु-काष्ठ की भाँति एकमेक संयोग । बन्धन के पाँच भेद हैं । दारिक, वैक्रिय, श्राहारक, तैजस और कार्मण । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।१२ * जिस कर्म के उदय से पूर्वे ग्रहण किये हुए औदारिक शरीर के पुद्गलों की साय नूतन ग्रहण कराते ऐसे औदारिक शरीर योग्य पुदगलों का जत-काष्ठवत एकमेक संयोग होता है. वह प्रौदारिक बन्धन नामकर्म है। इसी तरह अन्य वैक्रिय, आहारक, तैजस तथा कार्मण बन्धन नामकर्म में भी समझना। [६] संघातननामकर्म-प्रौदारिकादिक शरीर योग्य पुद्गलों का संग्रहीत करने वाली सत्ता को संघातननामकर्म कहते हैं। संघात यानी पिंड रूप में संघटित करना। संघात के भी शरीरनामकर्म की अपेक्षा पाँच भेद हैं। औदारिक, वैक्रिय, पाहारक, तैजस और कार्मरण । * जिस कर्म के उदय से जसे दंताली से तृण-घास एकत्रित होता है तथा उसको दबाकर छोटा ढगला बनाता है, वैसे ही जीव-प्रात्मा द्वारा औदारिक शरीर के पुद्गल पिण्डरूप में संघटित होते हैं, वह प्रौदारिक संघात नामकर्म है। इसी तरह अन्य संघात के सम्बन्ध में भी जान लेना। [७] संहनन नामकर्म-हड्डी की विशिष्ट रूप से रचना विशेष को संहनन कहते हैं। संहनन यानी शरीर में अस्थियों की विशिष्ट रचना। संहनन को चालू भाषा में संघयण की बावा कहने में आती है। संहनन के छह प्रकार हैं-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कोलिका और सेवार्त। (१) वज्रऋषभनाराच- इस शब्द में वज्र, ऋषभ और नाराच ये तीन शब्द हैं। वज्र का अर्थ है कीली, ऋषभ का अर्थ है पाटा तथा नाराच का अर्थ है विशिष्ट प्रकार का बन्धन, जिसको शास्त्र में कहते हैं मर्कटबन्ध। दो अस्थि-हड्डियों के ऊपर कीलिका होती है, अर्थात् तीसरी अस्थि पाटी की माफिक वींटायेला होता है। इन तीनों पर कीली की माफिक ये तीन अस्थि-हड्डियों को भेदकर के चौथी अस्थि रही हुई है। इस प्रकार के अतिशय दृढ़-मजबूत संहनन की रचना वह वज्रऋषभनाराच संहनन (संघयण) है। (२) ऋषभनाराच-जिसमें दो अस्थि-परस्पर मर्कटबन्ध से बँधाये हुए हों, इन दो अस्थियों पर तीसरी अस्थि-हाड का पाटा की भांति वींटायेल हो, किन्तु इन तीन पर कोली की भाँति चौथी अस्थि नहीं हो। इस प्रकार का संहनन-संघयण ऋषभनाराच है । अर्थात् जिसमें नाराच और ऋषभ हो किन्तु वज्र नहीं हो वह ऋषभनाराच संहनन (संघयण) कहलाता है। (३) नाराच-जिसमें मात्र दो अस्थियां मर्कटबन्ध से बाँधे हों वह नाराच संहनन है। अर्थात्-जिसमें वज्र और ऋषभ नहीं हो, मात्र नाराच ही हो, वह नाराच संहनन (संघयण) कहा जाता है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽध्यायः [ ३३ (४) अर्धनाराच - जिसमें एक बाजू मर्कट हो और अन्य दूसरी तरफ कीलिका हो तो, वह अर्धनाराच संहनन ( संघयण) कहलाता है । ८।१२] (५) कोलिका - जिसमें मर्कटबन्ध नहीं हो, अस्थि मात्र कीलिका से बँधाये हुए हों, वह कलिका संहनन ( संघयण ) है । (६) सेवार्त - जिसमें मर्कटबन्ध नहीं हो, कीलिका भी नहीं हो, मात्र अस्थियाँ परस्पर अड़ी हुई अर्थात् जुड़ी हुई हों, वह सेवार्त संहनन ( संघयरण ) है | * जिस कर्म के उदय से वज्रऋषभनाराच संहनन ( संघयरण ) प्राप्त होता है, वह वज्रऋषभ नाराचसंहनन ( संघयण) नामकर्म कहलाता है । इसी तरह अन्य पाँच संहनन ( संघयरण ) की भी व्याख्या समझ लेनी चाहिए । [5] संस्थान नामकर्म - देह शरीर की प्राकृति विशेष को अर्थात् देह शरीर की बाह्य प्राकृति रचना को संस्थान कहते हैं । उसके छह भेद हैं- ( १ ) समचतुरस्र, (२) न्यग्रोधपरिमण्डल, (३) सादि, (४) कुब्ज, (५) वामन, भौर ( ६ ) हुण्डक । * देह शरीर के प्रत्येक अंग उपांग की रचना सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार यथाप्रमाण हो, वह समचतुरस्त्र संस्थान है । * न्यग्रोध यानी बड़। परिमंडल यानी प्राकार। जिसमें बड़ वृक्ष के जैसा देह शरीर आकार हो, अर्थात् जैसे- बड़ का वृक्ष ऊपर के भाग में सम्पूर्ण हो और नीचे के भाग में कृश हो, वैसे ही नाभि से ऊपर के अवयवों की रचना समान अर्थात् भरावदार हो, किन्तु नीचे के अवयवों की रचना असमान हो अर्थात् कृश हो, तो वह न्यग्रोध परिमंडल संस्थान है । * न्यग्रोध परिमंडल की रचना से जो विपरीत रचना, वह सादिसंस्थान है । अर्थात् जिसमें नाभि से ऊपर के अवयवों की असमान और नीचे के अवयवों की रचना समान हो, वह सादिसंस्थान कहलाता है । * जिसमें छाती, पेट आदि अवयव कुबड़े हों, वह कुब्ज संस्थान है । * जिसमें हाथ, पाँव आदि अवयव जो टूका-छोटे हों, वह वामन संस्थान है । * जिसमें समस्त अवयव अव्यवस्थित हों अर्थात् शास्त्रोक्त लक्षणों से रहित हों, वह हुंड संस्थान है। सारांश - उक्त कथन का सारांश यह है कि - जिस कर्म के उदय से देह शरीर की समचतुरखरचना ( संस्थान ) होती है, वह समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म कहा जाता है । इसी तरह अन्य दूसरे संस्थान की व्याख्या में भी समझ लेना चाहिए । [2] वर्ण - वर्ण यानी रूप-रंग । वर्ण पाँच हैं -- ( १ ) कृष्ण (काला), (२) नील (लीला), (३) रक्त (लाल), (४) पीत (पीला) तथा ( ५ ) शुक्ल (सफेद) । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।१२ * जिस कर्म के उदय से देह-शरीर का वर्ण कृष्ण-काला हो, वह कृष्णवर्णनामकर्म है। इस माफिक अन्य-दूसरे नीलादि वर्ण के सम्बन्ध में भी जानना। [१०] गन्ध-गन्ध के दो भेद हैं-सुगन्ध और दुर्गन्ध । जिस कर्म के उदय से देह-शरीर सुरभित सुगन्धित हो, वह सुगन्ध नामकर्म कहा जाता है । तथा जिस कर्म के उदय से देह-शरीर दुरभि-दुर्गन्धित हो, वह दुर्गन्ध नामकर्म कहा जाता है । _ [११] रस-रस यानी स्वाद । वह पांच प्रकार का है--(१) तिक्त (तीखा), (२) कटु (कड़वा), (३) कषाय (तूरा), (४) अम्ल (खट्टा) तथा (५) मधुर (मीठा)। [अन्य ग्रन्थों में लवण रस के साथ 'छह' रस कहे गये हैं।] * जिस कर्म के उदय से देह-शरीर तिक्त हो अर्थात् शरीर का रस तीखा हो, वह तिक्तरसनामकर्म कहलाता है। इसी तरह अन्य-दूसरे रस की भी व्याख्या जाननी। [१२] स्पर्श-स्पर्श के आठ भेद हैं, जिनके नाम नीचे प्रमाणे हैं (१) कर्कश, (२) मृदु (कोमल), (३) गुरु, (४) लघु, (५) स्निग्ध, (६) रुक्ष, (७) शीत और (८) उष्ण । * जिस कर्म के उदय से देह-शरीर का स्पर्श कर्कश हो, वह कर्कश नामकर्म कहलाता है । इसी तरह अन्य-दूसरे स्पर्श विषे भी जानना। [१३] प्रानुपूर्वी-इसका उदय वक्रगति में होता है। जीव-आत्मा मृत्यु-मरण पा करके अन्य-दूसरी गति में वक्र (बांकी) तथा ऋजु (सरल) इन दो प्रकार की गति से जाता है। उसमें जब ऋजुगति से परभव के स्थान में जाता है, तब एक ही समय में अपनी उत्पत्ति के स्थान में जाता है। इस समय उसको किसी भी जाति की मदद-सहायता की आवश्यकता रहती नहीं है। परन्तु जब वक्रगति से परभव के स्थान में जाता है, तब अपनी उत्पत्ति के स्थान में पहुंचते हए दो, तीन या चार समय लग जाते हैं। इस वक्त उसको गति करने में मदद-सहायता की जरूरत पड़ती है। जैसे किसी व्यक्ति को चार-पाँच क्लाक की मुसाफिरी करनी हो तो उसे बीच में नवीन आहार की जरूरत नहीं पड़ती है क्योंकि जाते वक्त जो आहार लिया है, उसकी मदद-सहायता से ही इष्ट स्थान पर पहुंच जाता है। किन्तु दो दिन या उससे अधिक दिन की मुसाफिरी करनी हो तो उसको मार्ग में नवीन पाहार की जरूरत पड़ती है। वैसे ही यहाँ पर भी ऋजुगति से एक समय में उत्पत्ति स्थान पर पहुंचने वाले जीव-प्रात्मा को विशिष्ट नवीन मदद-सहायता की जरूरत पड़ती नहीं है । अपने ही पूर्वभव के आयुष्य के व्यापार से वह इष्ट स्थान पर पहुंच जाता है। अपने पूर्व भव के आयुष्य का व्यापार एक ही समय रहता है। इससे अन्य-दूसरे प्रादि समयों में गतिगमन करने में नूतन-नवी मदद की जरूरत पड़ती है। यहाँ पर अन्य-दूसरे आदि समयों में आकाश Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१२ ] अष्टमोऽध्यायः [ ३५ प्रदेश की श्रेणी अनुसार गमन करने में जो कर्म नवीन मदद-सहायता देते हैं, उसको प्रानुपूर्वीनामकर्म कहने में आता है। जीव-प्रात्मा चार गतियों में उत्पन्न होता है, इसलिए चार गतियों के नामपूर्वक चार आनुपूर्वी हैं -देवगति-प्रानुपूर्वी, मनुष्यगति प्रानुपूर्वी, तियंचगति प्रानुपूर्वी तथा नरकगति आनुपूर्वी । जो कर्म वक्रगति से देवगति में जाते हुए जीव-पात्मा को उत्पत्ति के स्थान में पहुँचने में अर्थात्-प्राकाशप्रदेश की श्रेणी के अनुसार गमन करने में मदद-सहायता करता है, उसे देवगतिआनुपूर्वी कर्म जानना। इसी तरह अन्य प्रानुपूर्वी कर्म की व्याख्या भी जान लेनी। _ [१४] विहायोगति-विहायोगति शब्द में दो शब्द हैं-विहायस् और गति । विहायस अर्थात् आकाश । आकाश में होती हुई गति विहायोगति कही जाती है। विहायोगति शब्द का यह शब्दार्थ है। इसका भावार्थ गति करनी अर्थात् गमन करना यही है।। जीवों की गति दो प्रकार की होती है। शुभगति तथा अशुभ गति । इससे विहायोगति नामकर्म के शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति ये दो भेद होते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव-प्रात्मा शुभ (-प्रशस्त) गति करता है, वह शुभविहायोगति नामकर्म कहा जाता है। जैसे-गजगति तथा हंसगति इत्यादि गति शुभ होती है तथा जिस कर्म के उदय से जीव अशुभ (-अप्रशस्त) गति करता है, वह प्रशभविहायोगति नामकर्म कहा जैसे-ऊँटगति तथा सियारगति इत्यादि गति अशुभ है इसलिए वह अशुभ विहायोगति नामकर्म में आती है। शुभ और अशुभ विहायोगति अवान्तर भेद होने के कारण चौदह पिंड प्रकृति कही जाती हैं। * प्रश्न-यहाँ पर विहायोगति का भावार्थ तो गति करना यही है। इसलिए यहां विहायस् शब्द लिखने में नहीं आये और जिस कर्म के उदय से शुभ गति हो वह शुभगतिनामकर्म तथा अशुभगति हो वह अशुभगतिनामकर्म, इस तरह अर्थ करने में किसी भी प्रकार की बाधा आती नहीं है। इससे यहां विहायस् शब्द का निर्देश करने की आवश्यकता नहीं होने पर भी, उसका उल्लेख-निर्देश क्यों करने में आया है ? उत्तर-चौदह पिण्डप्रकृतियों में गतिनामकर्म भी है। जो यहाँ विहायस् शब्द लिखने में नहीं पाये तो गतिनामकर्म दो हो जाय। इसलिए पिण्डप्रकृतियों में गतिनामकर्म को पृथक् बताने के लिए गति के साथ विहायस शब्द का उल्लेख करने में पाया है। उसका अर्थ तो, जिस कर्म के उदय से जोव-यात्मा शुभ गति कर सके वह शुभविहायोगति तथा अशुभ गति कर सके वह अशुभविहायोगति यही है। * प्रश्न-जो पिंडप्रकृति में आये हुए गतिनामकर्म से इस चलने रूप गतिनामकर्म को अलग रखने के लिए विहायस् शब्द जोड़ने में आया है तो अन्य-दूसरे शब्द जोड़ते, यह विहायस् शब्द ही क्यों जोड़ा? Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।१२ उत्तर-गति प्रर्थात् चाल=पाकाश में (खाली जगह में) गति होने से 'विहायसि'गतिःअर्थात् आकाश में जो गति, वह विहायोगति। इस तरह भी अर्थ घटने से अन्य कोई शब्द नहीं जोड़ते, विहायस् शब्द जोड़ा है। * पाठ प्रत्येक प्रकृतियाँ * .... पाठ प्रत्येक प्रकृतियों के नाम नीचे प्रमाणे हैं (१) परघात, (२) उच्छ्वास, (३) प्रातप, (४) उद्योत, (५) अगुरुलघु, (६) तीर्थकर, (७) निर्माण, और (८) उपघात । * परघात-पराघात-जिससे जीव-प्रात्मा अन्य से पराभव नहीं पावे, अथवा अपने से अधिक बलवान का भी स्वयं-पोते पराभव कर सके, वह परघातपराघात नामकर्म है। * उच्छवास-जिससे जीव-आत्मा श्वासोश्वास की क्रिया कर सके, वह उच्छवास नामकर्म है। * प्रातप-जिससे देह-शरीर में प्रातप का सामर्थ्य प्राप्त हो वह प्रातपनामकर्म है। जैसे-सूर्य के विमान में रहे हुए एकेन्द्रिय जीवों को प्रातपनामकर्म का उदय होता है। उनका देह-शरीर शीत स्पर्श वाला होता है, तो भी उनके देह-शरीर में से निकलता प्रकाश उष्ण होता है। विशेष-आकाश में अपने को दिखाई दे रहे सूर्य-चन्द्र, देवों के रहने के विमान हैं। वे असंख्य पृथ्वीकाय जीवों के देह-शरीर के समूहरूप हैं। सूर्य विमान के पृथ्वीकाय जीवों को 'प्रातपनामकर्म' का उदय है, तथा चन्द्र विमान के पृथ्वीकाय जीवों को 'उद्योतनामकर्म' का उदय है। * उद्योत-जिससे जीव-मात्मा का देह-शरीर अनुष्ण प्रकाश रूप उद्योत करता है, वह 'उद्योतनामकर्म' है। पतंगिया आदि जीवों को इस कर्म का उदय होता है । ___ * अगुरुलघु-जिससे देह-शरीर गुरु अर्थात् (भारी) नहीं तथा लघु (अर्थात् हल्की) भी नहीं, किन्तु जो अगुरुलघु बनता है, वह 'प्रगुरुलघुनामकर्म' है । * तीर्थकर-जिससे जीव-प्रात्मा त्रिभुवन पूज्य बने और धर्मरूपतीर्थ को करे (अर्थात्प्रवर्तावे) वह 'तीर्थकरनामकर्म' है। * निर्माण-जिससे देह-शरीर के प्रत्येक अंग की तथा उपांग की अपने-अपने नियत स्थान में रचना हो, वह 'निर्माणनामकर्म' है । * उपघात-जिससे देह-शरीर के अंगों और उपांगों का उपघात (अर्थात् खंडन) हो, वह 'उपघातनामकर्म' है। १. इस प्रकार का यह विग्रह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के भाष्य की वृत्ति-टीका में है। कर्मग्रन्थ में तो 'विहायसा गतिः विहायोगतिः' ऐसा विग्रह किया है । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१२ ] अष्टमोऽध्यायः [ ३७ * स दशक * त्रस दशक नामकर्म नीचे प्रमाणे हैं * सदशक-(१) सनामकर्म, (२) बादरनामकर्म, (३) पर्याप्तनामकर्म, (४) प्रत्येकनामकर्म, (५) स्थिरनामकर्म, (६) शुभनामकम, (७) सोभाग्यनामकर्म, (८) सुस्वरनामकर्म, (६) प्रादेयनामकर्म, तथा (१०) यश, कीत्तिनामकर्म । इस तरह त्रस दशक नाम कहे जाते हैं। [१] सनामकर्म-जिससे जीव-प्रात्मा इच्छा होते हुए एक स्थान से अन्य-दूसरे स्थान में जा सके, वह 'वसनामकर्म' है। बेइन्द्रियादि जीवों के प्रसनामकर्म का उदय होता है। यद्यपि वायुकाय और तेउकाय के जीव अन्य-दूसरे स्थान में जा सकते हैं, किन्तु उसमें उनकी इच्छा कारण नहीं है, परन्तु स्वाभाविक रीत्या गति होती है। इससे उनको इस कर्म का उदय नहीं होता। [२] बादरनामकर्म-जिससे जीव-प्रात्मा को बादर (स्थूल) देह-शरीर प्राप्त हो वह बादरनामकर्म कहा जाता है । [३] पर्याप्तनामकर्म-जिससे जीव-प्रात्मा की स्वप्रायोग्य समस्त पर्याप्तियां पूर्ण हों, वह पर्याप्तनामकर्म कहा जाता है। पर्याप्ति यानी पुद्गल के उपचय से उत्पन्न हुई उन-उन पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन में कारणभूत शक्ति विशेष । वे पर्याप्तियां छह हैं। जिनके नाम नीचे प्रमाणे हैं । (१) आहारपर्याप्ति, (२) शरीरपर्याप्ति, (३) इन्द्रियपर्याप्ति, (४) श्वासोश्वासपर्याप्ति, (५) भाषापर्याप्ति तथा (६) मनः पर्याप्ति । * जीव-आत्मा, जिस शक्ति से बाह्य पुद्गलों के आहार को ग्रहण करके उन पुद्गलों को खल (-मल) तथा रस रूप में जो परिणमावे वह शक्ति 'पाहारपर्याप्ति' कही जाती है। * रस रूप में हुए पाहार को रुधिरादि धातु रूप में परिणमावने की जो शक्ति, वह 'शरीरपर्याप्ति' कही जाती है। * धातु रूप में परिणमेल आहार को इन्द्रियों के रूप में परिणमावने की जो शक्ति, वह 'इन्द्रियपर्याप्ति' कही जाती है । * जो शक्ति से श्वासोश्वास प्रायोग्य वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके श्वासोश्वास रूपे परिणमावी वो ही पुद्गलों के पालम्बन से वे पुद्गलों को जो छोड़ दे, वह शक्ति 'श्वासोश्वासपर्याप्ति' कही जाती है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ ८।१२ ___ * भाषाप्रायोग्यवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में परिणमावी, उन्हीं पुद्गलों के पालम्बन से उन पुद्गलों को छोड़ देना, वह 'भाषापर्याप्ति' कही जाती है । * मनप्रायोग्य वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मन रूप में परिणमावी वो ही पुद्गलों के पालम्बन से उन पुद्गलों को छोड़ देने की जो शक्ति वह 'मनःपर्याप्ति' कही जाती है। विशेष-एकेन्द्रिय जीव-प्रात्माओं को प्रथम की प्राहासदिक चार पर्याप्तियाँ होती हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव-प्रात्माओं को आहारादिक छहों पर्याप्तियाँ होती हैं तथा शेष सभी (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, और असंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों-प्रात्मानों के मनःपर्याप्ति बिना पांचों पर्याप्तियाँ होती हैं। प्रत्येक जीव-प्रात्मा अपने उत्पत्ति स्थान में आने के साथ ही स्वप्रायोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ कर देता है। उसमें जिन जीवों के पर्याप्त नामकर्म का उदय हो, वे ही जीव यथायोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर सकते हैं। जिसके अपर्याप्त नामकर्म का उदय हो, वह जीव-आत्मा स्वप्रायोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मृत्यु-मरण पाता है। अपर्याप्त नामकर्म स्थावर दशक में पायेगा। [४] प्रत्येक शरीर-जिससे जीव-प्रात्मा को स्वतन्त्र एक देह-शरीर प्राप्त हो, वह 'प्रत्येक शरीर नामकर्म' कहा जाता है। (५) स्थिर - जिससे देह-शरीर के दाँत, अस्थि इत्यादि अवयव निश्चल बनें, वह 'स्थिर नामकर्म' कहा जाता है। [६] शुभ-जिससे नाभि से ऊपर के शुभ अवयव प्राप्त हों वह 'शुभनामकर्म' कहा जाता है। नाभि से ऊपर के अवयव शुभ गिनाते हैं । [७] सुभग-जिससे जीव-आत्मा उपकार नहीं करने पर भी सर्व को प्रिय बनता है, वह 'सुभगनामकर्म' कहा जाता है । _ [८] सुस्वर-जिससे जीव-प्रात्मा को मधुर स्वर प्राप्त हो, वह 'सुस्वर नामकर्म' कहा जाता है। [६] प्रादेय --जिससे जीव-आत्मा का वचन जो उपादेय बनता है, दर्शनमात्र से जो सत्कार-सन्मान होता है, वह 'प्रादेय नामकर्म' कहा जाता है । [१०] यश-जिससे जीव-आत्मा को यश-कीत्ति-ख्याति मिलती है, वह 'यशनामकर्म' कहा जाता है। इस तरह त्रसदशक को जानना । * स्थावर दशक-त्रस दशक में प्रसादि का जो अर्थ है, उससे विपरीत अर्थ क्रमशः स्थावर आदि का है। जैसे कि त्रस के अर्थ से स्थावर का अर्थ विपरीत है। बादर के अर्थ से सूक्ष्म का अर्थ भी विपरीत है। स्थावर दशक के क्रमश: नाम नीचे प्रमाणे हैं Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१२ ] अष्टमोऽध्यायः [ ३६ (१) स्थावर नामकर्म, (२) सूक्ष्मनामकर्म, (३) अपर्याप्तनामकर्म, (४) साधारणनामकर्म, (५) अस्थिर नामकर्म, (६) अशुभनामकर्म, (७) दौर्भाग्यनामकर्म, (८) दुःस्वरनामकर्म, (६) अनादेयनामकर्म तथा (१०) अयश नामकर्म । * स्थावर-जिससे जीव-प्रात्मा की इच्छा होते हुए भी वह अन्यत्र (दूसरे स्थल) नहीं जा सके, वह 'स्थावरनामकर्म' कहा जाता है। * सूक्ष्म-जिससे सूक्ष्म (नेत्र से नहीं देख सके ऐसे) देह-शरीर की प्राप्ति हो, वह 'सक्ष्मनामकर्म' कहा जाता है। * अपर्याप्त -जिससे स्वप्रायोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं हो सके, वह 'अपर्याप्तनामकर्म' कहा जाता है। * साधारण शरीर-जिससे अनन्त जीव-आत्माओं के बीच में एक साधारण (अर्थात् सर्व सामान्य एक) शरीर जो प्राप्त हो, वह 'साधारणशरीरनामकर्म' कहा जाता है । * अस्थिर-जिससे कर्ण (कान) तथा जीभ इत्यादि अस्थिर अंग प्राप्त हो, वह 'अस्थिरनामकर्म' कहा जाता है। * अशुभ-जिससे नाभि से नीचे के अशुभ अवयव प्राप्त हों तो, वह 'अशुभनामकर्म' कहा जाता है। जैसे -नाभि से नीचे के अवयव लोक में अशुभ गिनाते हैं । इसलिए कोई भी व्यक्ति पाँव इत्यादि लगा दे तो उस पर गुस्सा होता है । * दुभंग - जिससे जीव उपकार करने पर भी अप्रिय बनता है, वह 'दुर्भगनामकर्म' कहा जाता है। * दुःस्वर-जिससे स्वर कठोर (अर्थात्-कान में अप्रिय बने ऐसा) मिले तो, वह 'दुःस्वरनामकर्म' कहा जाता है । * अनादेय --जिससे युक्तियुक्त तथा उत्तम शैली से कहने पर भी वचन उपादेय नहीं बने तो, वह 'अनादेयनामकर्म' कहा जाता है । * अयश -जिससे परोपकार इत्यादि अच्छे कार्यों को करने पर भी यश-कीत्ति नहीं मिले तो, वह 'प्रयशनामकर्म' कहा जाता है। इस तरह नामकर्म के ६३ भेदों के संक्षिप्त वर्णन पूर्ण जानना । विशेष-नामकर्म के उक्त ६३ भेदों में १० बन्धन कर्म मिलाने में जो पा जाँय तो १०३ संख्या होती है। बन्धनकर्म की अपेक्षा पाँच और पन्द्रह भेद हैं। अर्थात् -जब बन्धन के पाँच भेद गिनने में प्रायें तब ६३ और पन्द्रह भेद गिनने में पायें तब दश संख्या बढ़ते १०३ संख्या होती है । अब बन्धन नामकर्म के पन्द्रह भेद और संघातनाम कम के पांच भेद पांच शरीर में करने में आ जाय, तथा वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श इन चार के अवान्तर भेद गिनने में नहीं पायें, तो १०३ में Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] श्रीतत्त्वार्याधिगमसूत्रे [ ८।१३-१४ से (बन्धन के १५, संघात के ५, तथा वर्णादि चार के १६ इम) ३६ भेद कम हो जाने से कुल ६७ भेद होते हैं। बन्ध, उदय और उदीरणा को पाश्रय करके ६७ तथा सत्ता के आश्रय ६३ वा १०३ संख्या गिनने में आती है। (८-१२) * गोत्रकर्मणो मेदाः * 卐 मूलसूत्रम् उच्चर्नीचश्च ॥८-१३ ॥ * सुबोधिका टीका * उच्चगोत्रं नीचगोत्रमिति द्वौ भेदो गोत्रकर्मणः । उच्चैर्गोत्रं नीचर्गोत्रं च । तत्रोच्चैर्गोत्रं देशजातिकुलस्थानमानसत्कारेश्वर्याद्युत्कर्षनिर्वर्तकम् । विपरीतं चण्डालमुष्टिकव्याधमत्स्यबन्धदास्यादिनिर्वर्तकमिति ।। ८-१३ ।। * सूत्रार्थ-उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये दो गोत्रकर्म के भेद हैं ।। ८-१३ ।। + विवेचनामृत देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार तथा ऐश्वर्यादि की प्रकर्षता 'उच्चता' के साधक को उच्चगोत्र तथा इससे विपरीत को नीचगोत्र कहते हैं। अर्थात्- उच्च और नीच ये दो गोत्र के भेद हैं। जिसके उदय से जीव-प्रात्मा अच्छे उच्च कूल में जन्मे, वह 'उच्च गोत्रकर्म है। तथा हीन-नीच कुल में जन्मे, वह 'नीचगोत्रकर्म' है। धर्म का तथा नीति का रक्षण करने से बहुत काल से प्रख्याति पाये हुए ऐसे इक्ष्वाकुवंश प्रमुख उच्च कुल विश्व में सुप्रसिद्ध है। अधर्म और अनीति का सेवन करने से निन्द्य बने हुए कसाई और मच्छीमार प्रादि के कुल नीच कुल हैं ।। ८-१३ ॥ * अन्तरायकर्मणोः भेदाः * 卐 मूलसूत्रम् दानादीनाम् ॥ ८-१४॥ * सुबोधिका टीका * दानादौ विघ्नकर्तारोऽन्तरायाः सन्ति । यथा [१] दानान्तरायः, [२] लाभान्तरायः, [३] भोगान्तरायः, [४] उपभोगान्तरायः, [५] वीर्यान्तराय इति । इत्थं तस्य पञ्च भेदा भवन्ति ।। ८-१४ ।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] [ ४१ * सूत्रार्थ - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय ये पाँच 'अन्तरायकर्म' के भेद हैं ।। ८-१४ ।। अष्टमोऽध्यायः 5 विवेचनामृत 5 वस्तु प्राप्त होने पर भी उपभोग नहीं कर सके या इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं हो, उसको 'अन्तराय कर्म' कहते हैं । वह पांच प्रकार का है [३] भोगान्तराय, [४] उपभोगान्तराय, [१] दानान्तराय, [२] लाभान्तराय, तथा [५] वीर्यान्तराय । * दानान्तराय - द्रव्य भी हो, पात्र का योग भी हो, पात्र को देने से लाभ होगा, ऐसा ज्ञान भी हो तो भी जिसके उदय से दान देने का उत्साह नहीं होता है, अथवा उत्साह होते हुए भी अन्य किसी कारण से दान नहीं दे सके, उसे 'दानान्तराय कर्म' कहा जाता है । * लाभान्तराय - दाता विद्यमान हो, देने योग्य चीज वस्तु भी विद्यमान हो, मांगणी भी कुशलता से की हो, ऐसा होते हुए भी जिसके उदय से याचक नहीं प्राप्त कर सके, वह 'लाभान्तराय कर्म' कहा जाता है । इस कर्म के उदय से प्रयत्न करने पर भी इष्ट वस्तु का लाभ नहीं होता है । * भोगान्तराय - वैभव प्रादि हो, भोग की वस्तु विद्यमान हो, भोगने की अभिलाषा - इच्छा मी हो, ऐसा होते हुए भी जिसके उदय से इष्टवस्तु का भोग नहीं कर सके, वह 'भोगान्तराय कर्म' कहा जाता है। * उपभोगान्तराय - वैभवादिक हो, उपभोग योग्य वस्तु भी हो, उपभोग करने की अभिलाषा इच्छा भी हो, ऐसा होते हुए भी जिसके उदय से उपभोग नहीं कर सके, वह 'उपभोगान्तराय कर्म' कहा जाता है । * वीर्यान्तराय - जिस कर्म के उदय से निर्बलता प्राप्त हो, वह 'वीर्यान्तराय कर्म' कहा जाता है । विशेष - मूल ज्ञानावरणादि आठ प्रकृति के कुल १४८ भेद होते हैं । [५+ +२+२८ + ४ + (६५ + २८) ९३ + २ + ५ = १४८] तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के इस आठवें अध्याय के छठे सूत्र में मूल प्रकृति के कुल ६७ भेद गिनाये हैं । कारण कि वहाँ चौदह पिण्ड प्रकृतियों के पेटे विभाग की गिनती करने में नहीं श्रई है। चौदह पिण्डप्रकृतियों के भेदों को गिनने से ५१ भेद होते हैं । अर्थात् – कुल ६७ + ५१ १४८ भेद होते हैं । ये १४८ भेद तथा बन्धन के १० भेद मिलाने से १५८ भेद सत्ता की अपेक्षा होते हैं । = Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ ८।१५-१६ उदय तथा उदीरणा की अपेक्षा नामकर्म की ६७ प्रकृतियां गिनने में आती होने से १२२ भेद होते हैं। बन्ध की अपेक्षा सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय ये दो प्रकृतियाँ निकल जाने से १२० भेद होते हैं। इस विषय में विशेष स्पष्टीकरण के लिए प्रथमकर्मग्रन्थ देखने की आवश्यकता है । उपर्युक्त प्रकृतियों के बन्ध को 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं। इसे कर्मग्रन्थ में अनेक प्रकार से समझाया गया है। जैसे-पहले कर्मग्रन्थ में प्रकृतियों के स्वरूप तथा दूसरे, तीसरे और चौथे कर्मग्रन्थ में मुख्यपने प्रकृति बन्ध का ही वर्णन पाता है। बाद में पांचवें कर्मग्रन्थ में ध्रुवबन्ध्यादि तथा भूयस्कारादिरूप से वर्णन किया है। पंचम कर्मग्रन्थ की तेईसवीं गाथा में कहा है कि एगावहिये भूयो एगाह ऊरणगमि अप्पतरो। तम्मतोऽवठ्ठियो पढमे . समए अवतव्वो ॥२३॥ एक आदि प्रकृति का अधिक बन्ध भूयस्कार कहलाता है। वैसे ही तीन बन्ध को अल्पतर कहते हैं तथा समको अवस्थित कहते हैं और प्रबन्धक हो के फिर से बांधे वह प्रथम समय अव्यक्त बन्ध है। जैसे = गाथा २२ । मूल पाठ प्रकृतियों के बन्ध स्थान ४ हैं। ८-७-६-१ के तीन भूयस्कार होते हैं। अव्यक्त बन्ध नहीं है। विशेष-जिज्ञासुमों को उक्त ग्रन्थ की वृत्ति-टीका या भाषान्तर देखना चाहिए। वहां पर उत्तरप्रकृतियों का सविस्तार वर्णन है ।। ८-१४ ॥ * स्थितिबन्धस्य वर्णनम् * ॐ मूलसूत्राणिप्रावितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत् सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः ॥ ८-१५॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ ८-१६ ॥ नाम-गोत्रयोविंशतिः ॥ ८-१७ ॥ त्रयस्त्रिशत् सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥ ८-१८ ।। अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ ८-१६ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२०- २१ ] अष्टमोऽध्यायः नाम - गोत्रयोरष्टौ ॥ ८-२० ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्त्त म् ॥ ८-२१ ॥ [ ४३ * सुबोधिका टीका * * प्रथम त्रीणि कर्माणि श्रर्थात् ज्ञानावरणं दर्शनावरणं वेदनीयमिति प्रत्येककर्मणस्तथाऽन्तरायकर्मण उत्कृष्टस्थितिस्त्रिशत्कोटाकोटिसागरोपमप्रमाणकालस्य भवति ।। ८-१५ । * मोहनीय कर्मणः सप्ततिकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणकालस्य परा ( उत्कृष्टा ) स्थितिरस्ति ।। ८-१६ ॥ * नामकर्मणस्तथा गोत्रकर्मणो विंशतिकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणकालस्योत्कृष्टा स्थितिरस्ति ।। ८- १७ ।। * श्रायुष्यकर्मणस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमप्रमाणकालस्योत्कृष्ट स्थितिरस्ति । ८-१८। * वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थितिर्द्वादशमुहूर्त्तस्य भवति ।। ८-१९ ।। * नामकर्मणो गोत्रकर्मणश्च जघन्यस्थितिरष्टमुहूर्त्तस्यास्ति ।। ८-२० ।। * श्रवशिष्टकर्मणामर्थात् - ज्ञानावरणस्य, दर्शनावरणस्य, मोहनीयस्य श्रायुष्यस्य तथाऽन्तरायस्येति कर्मणां जघन्यस्थितिरन्तर्मुहूर्त्तस्य भवति ।। ८-२१ ।। * सूत्रार्थ- पहले तीन अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय श्रौर अन्तराय कर्म की तीस कोटाकोटी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । ( ८-१५) ० मोहनीय कर्म की सित्तर (७०) कोटाकोटी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है ।। ( ८-१६) नामकर्म और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा - कोटि सागरोपम है । ( ८-१७) D आयुष्यकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम है ।। ( ८-१८) 7 वेदनीयकर्म की जघन्यस्थिति बारह मुहूर्त है । ( ८-१६) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२०-२१ 0 नामकर्म और गोत्रकर्म की जघन्य स्थिति पाठ मुहूर्त है । (८-२०) D शेष (बाकी बचे) ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, प्रायुष्य और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है ।। (८-२१) प्र विवेचनामृत. .. उक्त सूत्रों (१५ से २१ तक) का सारांश इस प्रकार है प्रारम्भ की तीन प्रकृति की अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और वेदनीय की तथा अन्तरायकर्म की उत्कृष्टस्थिति ३० कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। (१५) मोहनीयकर्म की उत्कृष्टस्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । (१६) नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्टस्थिति २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। (१७) आयुष्यकर्म की उत्कृष्टस्थिति ३३ सागरोपम है । (१८) वेदनीयकर्म की जघन्यस्थिति १२ मुहूर्त है। (१६) नाम और गोत्रकर्म की जघन्यस्थिति पाठ मुहूर्त है। (२०) शेष पाँच (ज्ञाना०, दर्शना०, मोह०, आयु, अन्तराय) कर्मों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है। (२१) * स्थितिबन्ध का कोष्ठक * प्रकृति उत्कृष्ट स्थिति प्रकृति जघन्य स्थिति | (४) वेदनीय कर्म को । १२ ३० कोड़ाकोड़ी सागरोपम मुहूर्त (१) ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय अन्तराय कर्म की (२) मोहनीय कर्म की | (५) नाम-गोत्र कर्म ७० कोडाकोड़ी सागरोपम मुहूर्त की (३) मायुष्य कर्म को (६) ज्ञानावरणीय 'अन्तर्मुहूर्त सागरोपम दर्शनावरणीय मोहनीय आयुष्य जानना अन्तराय कर्म की १. यहाँ पर आयुष्य का अन्तमुहूर्त 'क्षुल्लक भव' प्रमाण जानना। असंख्य समय = १ प्रावलिका, २५६ प्रावलिका का एक क्षुल्लकमव जानना । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२२ ] अष्टमोऽध्यायः [ ४५ विशेष-मूलप्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थिति बन्ध कहा है, उसके अधिकारी मिथ्यादृष्टि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ही कहे हैं, तो भी पांचवें कर्मग्रन्थ में उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्टस्थिति बन्ध और उनके अधिकारी बताए हैं। अविरय सम्मोतित्थं, पाहार दुगामराउ य पमत्ते । मिच्छाविट्ठी बन्धइ जिठिइ सेस पयडीणं ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिन नामकम का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अविरति सम्यग्दृष्टि तथा प्राहारकद्विक और देवायुष्य का प्रमत्तसंयत, शेष ११६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वी को होता है। यह सामान्यापेक्षा गुणस्थानक विषयी है। सूत्राथ में मूल पाठ कर्मों की ३०-७०-२० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बताई है, किन्तु उत्तरप्रकृतियों का स्थिति बन्ध ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, तथा अन्तरायकर्म की पाँच को छोड़कर शेष उत्तरप्रकृतियों का स्थिति बन्ध भिन्न-भिन्न है। कर्मप्रकृति ग्रन्थ में स्थिति बन्धाधिकार ८ द्वारों सहित [गाथा ६८ से] विशेष विस्तारपूर्वक समझाया है। पांचवें कर्मग्रन्थ में [गाथा २६ से] इसी विषय का संक्षेप में वर्णन है। जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के अधिकारी गणस्थानक और गति की अपेक्षा कौन-कौन और कैसं अवस्था में उन प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, उसको समझाया है। विशेष जिज्ञासुमों को उक्त कथन देखने चाहिए। मूलसूत्रकार ने तो वेदनीयकर्म की जघन्यस्थिति बारह मुहूर्त की कही है। वह सकषायी जीव की अपेक्षा समझनी चाहिए। यथा मुतु प्रकषाय ठिइ बार मुहूत्त वे अणिए । कर्मग्रन्थगाथा ॥२७॥ काषायिक परिणामों की तरतमता की अपेक्षा मध्यम स्थिति असंख्यात प्रकार की है ।। ८-१५ से ८-२१ तक ।। * रसबन्धस्य व्याख्या* 卐 मूलसूत्रम् विपाकोऽनुभावः ॥८-२२ ॥ * सुबोधिका टीका * कर्मणो विपाकमनुभावः (रसयुक्तोभोगः) कथ्यते । निखिलप्रकृतीनां फलम् अर्थात्-विपाकोदयः सोऽनुभावोऽस्ति । विविधप्रकारो भोगः सो विपाकः । स विपाकस्तत्प्रकारेण तथाऽन्यप्रकारेणाऽपि भवति । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२३ कर्मविपाकं भुजानो जीवो मूलप्रकृतेरभिन्नोत्तरप्रकृतिविषये कर्मनिमित्तकानाभोगवोर्य पूर्वककर्मणः सङ्क्रमणं करोति । बन्धस्य तथा विपाकस्य निमित्ततोऽन्यजातिभवनेन मूलप्रकृतिविषये सङ्क्रमणं न भवति । उत्तरप्रकृतिविषयेऽपि दर्शनमोहनीयकर्मणश्चारित्रमोहनीयकर्मणः सम्यक्त्वमोहनीयकर्मणो मिथ्यात्व मोहनीयकर्मणरायुष्यकर्मणो नामकर्मणश्च जात्यन्तरानुबन्धेन विपाकेन निमित्तेन चान्यजातिभवनात् सङ्क्रमणं न भवति । अपवर्तनन्तु निखिलप्रकृतीनां भवति ।। ८-२२ ।। * सूत्रार्थ-विपाक अर्थात् फल देने की शक्ति को ही 'अनुभाव' कहते हैं ।। ८-२२ ।। ॐ विवेचनामृत कर्म का विपाक (-फल देने की जो शक्ति) वह अनुभाव (- रस) है। परिपाक, विपाक, अनुभाव, रस तथा फल ये सभी शब्द एकार्थक हैं । कर्मबन्ध के समय में कौनसा कर्म तीव्र, मध्यम वा जघन्य इत्यादि कैसा फल देगा इसका . कर्माणुओं में रहे हुए रस के आधार पर जो निर्णय वह रसबन्ध है ।। ८-२२ ।। कर्म में फल देने की जो शक्ति, वह रसबन्ध है। किस कर्म में किस प्रकार की फल देने की शक्ति है, सो कहते हैंॐ मूलसूत्रम् स यथानाम ॥ ८-२३ ॥ * सुबोधिका टीका * सोऽनुभावो गतिनामादीनां यथानाम विपच्यते ।। ८-२३ ।। * सूत्रार्थ-अनुभाव उन-उन प्रकृतियों के नाम के अनुसार ही हुआ करता है ।। ८-२३ ॥ ॐ विवेचनामृत ॥ वह (अनुभाग बन्ध) कर्मपकृतियों के स्वभावानुसार वेदा जाता है। समस्त कर्मों का विपाक-फल अपने-अपने नाम प्रमाणे है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२३ ] अष्टमोऽध्यायः [ ४७ अर्थात् - जिस कर्म का जो नाम है उस नाम प्रमाणे उस कर्म का विपाक फल मिलता है, जैसे (१) ज्ञानावरणकर्म का फल ज्ञान का प्रभाव है । (२) दर्शनावरणकर्म का फल दर्शन का ( सामान्य ज्ञान का ) प्रभाव है । (३) वेदनीयकर्म का फल सुख या दुःख है । ( ४ ) मोहनीयकर्म का फल तत्त्वों पर श्रद्धा का प्रभाव तथा विरति का प्रभाव आदि है । (५) आयुष्य कर्म का फल नरकगति श्रादि के जोवन की प्राप्ति है । (६) नामकर्म का फल देह शरीर आदि की प्राप्ति आदि है । (७) गोत्रकर्म का फल उच्चगोत्र में या नीचगोत्र में जन्म-प्राप्ति है । (८) अन्तरायकर्म का फल दानादि का प्रभाव है । * उपमा द्वारा आठों कर्मों के विपाक का वर्णन • उपमा द्वारा आठों कर्मों के विपाक का क्रमशः वर्णन नीचे प्रमाणे है - [१] ज्ञानावरण कर्म - प्राँख पर बँधी हुई पट्टी के समान है । जैसे प्रांख पर पट्टी बाँधने से कोई चीज वस्तु दिखाई नहीं देती है, उसी प्रकार जीव आत्मा के ज्ञानरूपी नेत्र पर ज्ञानावरण कर्म रूपी पट्टी आ जाने से जीव- श्रात्मा जान सकता नहीं है । तथा जैसे-जैसे पट्टी मोटी होती है वैसे-वैसे कम दिखता है, और जैसे-जैसे पट्टी पतली होती है वैसे-वैसे अधिक दिखता है । उसी तरह ज्ञानावरण का प्रावरण जब अधिक होता है तब ज्ञान कम दिखाता है, और जब ज्ञानावरण का आवरण कम होता है तब ज्ञान अधिक दिखाता है । जीव आत्मा कभी भी सर्वथा ज्ञानरहित होता नहीं है । जैसे- श्राकाश में चाहे कितने ही बादल होत्रें, तो भी सूर्य का प्रकाश रहता ही है, वैसे ही जीव-श्रात्मा को अल्पज्ञान अवश्य होता [२] दर्शनावरण - दर्शनावरणीय कर्म प्रतिहार ( द्वारपाल ) के समान है । जैसे- द्वारपाल राजसभा में प्राते हुए व्यक्ति को यदि रोके रखे तो उस व्यक्ति को राजा के दर्शन नहीं होते, वैसे ही दर्शनावरण से जीव-नात्मा वस्तु को देख नहीं सकता है । अर्थात् - वह सामान्य बोध रूप ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है । [३] वेदनीय - वेदनीयकर्म मधुलिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार के समान है, कारण कि उसे चाटते समय प्रथम तो स्वाद लगता है, किन्तु परिणाम में जीभ कटने पर दुःख पीड़ा होती है; वैसे हो यह वेदनीयकर्म दुःख- पीड़ा का अनुभव कराता है । एवं उससे होता हुआ सुख का अनुभव भी परिणामे दु:ख पीड़ा देने वाला ही होता है । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२३ [४] मोहनीय-मोहनीयकर्म मदिरा के समान है। जैसे मदिरा का पान करने से अर्थात् पीने से मनुष्य विवेकरहित हो जाता है, हिताहित का विचार भी नहीं कर सकता है, इतना ही नहीं किन्तु नहीं करने लायक अयोग्य चेष्टा भी करता है। वैसे ही मोहनीयकर्म के योग से जीव-प्रात्मा विवेकरहित बनता है। तथा उसके लिए हेय क्या है ?, उपादेय क्या है ? इत्यादि विचार भी नहीं कर सकता है, परिणामे अयोग्य प्रवृत्ति करता है। [५] प्रायुष्य-आयुष्यकर्म बेड़ी के समान है। जैसे बेड़ी में बँधा हुमा जीव-आत्मा अन्यत्र नहीं जा सकता है, वैसे आयुष्य रूपी बेड़ी में बंधा हुआ जीव-प्रात्मा जहाँ तक वर्तमान गति का प्रायुष्य पूर्ण न हो जाए वहाँ तक अन्य-दूसरी गति में वह नहीं जा सकता है । [६] नाम-नामकर्म चित्रकार के समान है। जैसे चित्रकार मनुष्य, हाथी इत्यादि के भिन्न-भिन्न चित्र-प्राकार चित्रित करते हैं; वैसे ही नामकर्म अरूपी जोव-यात्मा के गति-जाति, शरीर आदि अनेक रूप तैयार करता है। [७] गोत्र-गोत्रकर्म कुलाल (-कुम्भकार) के समान है। जैसे कुलाल-कुम्भकार अच्छे और खराब दो प्रकार के घट-घड़े बनाते हैं। उसमें अच्छे घट-घड़े की मंगल कलश रूप में स्थापना होती है, तथा चन्दन, अक्षत, माला आदि से पूजा होती है। एवं खराब घट-घड़े में मद्य (मदिरा) आदि भरने में आती है। इसलिए वे घट-घड़ लोक में निन्द्य गिने जाते हैं। वैसे ही गोत्रकर्म के योग से उच्च तथा नीच कूल में जन्म पाकर जीवआत्मा की उच्च रूप में एवं नीच रूप में गिनती होती है। [८] अन्तराय-अन्तरायकर्म भंडारी के समान है। जैसे दान करने की इच्छा वाले राजा आदि को उसका लोभी भंडारी दान करने में विघ्न करता है, वैसे ही अन्तरायकम दान आदि में विघ्न करता है। 5 कर्म-उपमा-फल कोष्ठक 卐 कर्म उपमा [१] ज्ञानावरणीय |* आंख पर पट्टी के समान | विशेष बोध रूप ज्ञान न हो । [२] दर्शनावरणीय |* द्वारपाल के समान । सामान्य बोध रूप ज्ञान न हो। [३] वेदनीय * मधु से लिप्त असि की 0 दुःख का अनुभव, सुख भी परिणामे तीक्ष्ण धार के समान दुःख देने वाला बने । [४] मोहनीय * मदिरा के समान 0 विवेक तथा हितकारी प्रवृत्ति नहीं। [५] आयुष्य * बेड़ी के समान - मनुष्यगति आदि में रहना पड़े। [६] नाम * चित्रकार के समान गति, जाति आदि विकार । [७] गोत्र * कुलाल के समान 0 उच्च-नीच का व्यवहार करना । [८] अन्तराय * भण्डारी के समान 0 दान आदि में अन्तराय करना ॥८-२३ ।। फल Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२४ ] अष्टमोऽध्यायः [ ४६ फल देने के बाद कर्मों का क्या होता है ? उसका निरूपणके मूलसूत्रम् ततश्च निर्जरा ॥८-२४ ॥ * सुबोधिका टीका * ततश्च अनुभावात् कर्मनिर्जरा भवतीति । * सूत्रार्थ-विपाक हो जाने के बाद उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है। अर्थात्-जीव-प्रात्मा से सम्बन्ध छोड़कर वे झड़ जाते हैं । ८-२४ ।। ॐ विवेचनामृत ॥ कर्मों के फल मिलने के बाद कर्मों को निर्जरा होती है। निर्जरा अर्थात्-कर्मों का जीवमात्मप्रदेशों से छूट जाना। निर्जरा दो प्रकार की होती है-(१) विपाक निर्जरा, तथा (२) अविपाक निर्जरा। * विपाक निर्जरा-जैसे आम्रवृक्ष पर रही हुई केरी काल पाकर स्वाभाविक रीति से पकती है, वैसे ही कर्म अपनी स्थिति का परिपाक होने से स्वाभाविकपने उदय में आकर अपना फल देकर झड़ जाते हैं। यह निर्जरा विपाक निर्जरा कही जाती है । * अविपाक निर्जरा-जैसे केरी आदि को तृण-घास आदि में रख करके शीघ्र पका लिया जाता है, वैसे ही कर्म की स्थिति का परिपाक नहीं हुमा हो, तो भी तप इत्यादिक से उसकी स्थिति कम-न्यून करके और उसे शीघ्र ही उदय में ला करके फल देने के लिए सन्मुख करने से जो निर्जरा होती है, वह अविपाक निर्जरा कही जाती है ।। ८-२४ ।। 0 विशेष सारांश-उपर्युक्त २२-२३-२४ इन तीनों सूत्रों का विशेष सारांश यह है कि, प्रकृतिबन्ध होते समय ही उसके कारणभूत काषायिक परिणामों की तीव्रता-मन्दता के अनुसार उन प्रकृतियों में तीव्रता तथा मन्दता रूप फल देने की शक्ति प्राप्त होती है। उसको अनुभाव या अनुभाग कहते हैं, और उसके निर्माण को अनुभाग बन्ध कहते हैं। इसको कर्मप्रकृति ग्रन्थ में अविभाग, वर्गणा, स्पर्घकादि १४ द्वार करके बहुत विस्तारपूर्वक समझाया है, तथा पाँचवें कर्म ग्रन्थ में भी इसका संक्षेप में वर्णन है। [गाथा ६५ से ७४] * स्थितिबन्ध की परिपक्व अवस्था होने पर अनुभाग बन्ध फलप्रद होता है, वह भी स्वकर्मनिष्ठ। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाग (रस) अपने स्वभावपने तीव्र या मंदरूप से ज्ञान को ही प्रावृत करने वाला होता है, परन्तु अन्य कर्म दर्शनावरण प्रादि फल स्वभाव को प्राप्त नहीं होता। इसी भांति दर्शनावरणीयकर्म का अनुभाग दर्शन शक्ति को ही तीव्र अथवा मन्दपने आच्छादित करता है, किन्तु अन्य ज्ञानादि कर्मप्रकृतियों को आच्छादित नहीं करता, यह नियम मूल प्रकृतियों के लिए है। उत्तरप्रकृति अध्यवसाय के बल से स्वजातीय रूप में बदल जाती है, तथा वह Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८२५ अपने स्वभाव के अनुसार तीव्र और मन्द फल देती है । जैसे - मतिज्ञानावरणीय कर्म का श्रुतज्ञानावरणीय कर्म में जब संक्रमण होता है, तब वह श्रुतज्ञानावरणीय अनुभाग (रस) वाली हो जाती है, किन्तु उत्तरप्रकृतियों में भी कितनीक ऐसी प्रकृतियाँ हैं कि जिनका स्वजातीय में भी संक्रमण नहीं होता है। जिस तरह दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय का परस्पर संक्रमण नहीं होता है, इसी तरह आयुष्यकर्म की उत्तरप्रकृतियों का संक्रमरण एक-दूसरे में नहीं होता है । इसके सम्बन्ध में कहा है कि ५० ] ' मोह दुगाउगमूल, पयडीण ना परोप्परं मि संकमण ॥' [कम्पयड़ी संक्रमणाधिकारे गाथा - ३] संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तनादि अधिकार कर्मप्रकृति ग्रन्थ के वृत्ति टीका की गुजराती व्याख्या में विस्तारयुक्त कहा है । अशुभ तथा शुभ प्रकृति का तीव्ररस क्रम से संक्लेश और विशुद्ध परिणाम रूप होता है तथा मन्द रस इससे विपरीतपने होता है । अनुभाग द्वारा भोगे हुए कर्म जीव आत्मप्रदेशों से भिन्न होते हैं । वे जीव- श्रात्मा के साथ संलग्न नहीं रहते हैं । उसी कर्मनिवृत्ति को निर्जरा कहते हैं, कर्मों की निर्जरा जैसे कर्म फल वेदने से अर्थात् भोगने से होती है वैसे तपोबल से भी होती है। और वे कर्म आत्मप्रदेशों से अलग पृथक् हो जाते हैं । सूत्र में जो 'च' शब्द है वह यही बात सूचित करता है । इसका स्वरूप श्रागे श्रध्याय १० सूत्र ३ में कहेंगे ।। ८-२४ ।। * प्रदेशबन्धस्य वर्णनम् मूलसूत्रम् नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेषु श्रनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ ८-२५ ॥ * सुबोधिका टीका * नामकर्मणोः कृते सर्वात्मप्रदेशे मन श्रादीनां व्यापारात् सूक्ष्मं तेज श्राकाशप्रदेशमवगाहस्थिताः, स्थिराः सन्त अनन्तानन्त प्रदेशवन्तः कर्मपुद्गलाः सर्वपाशर्वाद् बद्धायन्ति । नामप्रत्ययिक - नामकर्मणोः कृते पुद्गलाः बद्ध्यन्ते । * प्रश्नम् - कस्माद् बद्ध्यन्ते ? प्रत्युत्तरम् - मनसो वचसस्तथा कायायाः व्यापारविशेषाद् बद्धयन्ते । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२५ ] अष्टमोऽध्यायः [ ५१ * प्रश्नम् - कीदृशं बद्धयन्ते ? प्रत्युत्तरम् - सूक्ष्मं बद्धयन्ते, बादरं न बद्ध्यन्ते । तथैक ( श्रात्मप्रदेशादभिन्नं ) क्षेत्रेऽवगाहः स्थिरं तिष्ठति तदा बद्ध्यन्ते । * प्रश्नम् - प्रात्मनः कः प्रदेशो बद्ध्यन्ते ? प्रत्युत्तरम् - प्रात्मनः सर्वप्रदेशेषु सर्वकर्मप्रकृतीनां पुद्गलाः बद्ध्यन्ते । * प्रश्नम् - कीदृशः पुद्गलाः बद्ध्यन्ते ? प्रत्युत्तरम् - अनन्तानन्तप्रदेशात्मककर्मणः पुद्गलाः भवन्ति ते एव बद्ध्यन्ते, किन्तु सङ्ख्यातप्रदेशी असङ्ख्यातप्रदेशी अथवा अनन्तप्रदेशी पुद्गला प्रग्रहणयोग्या भवन्ति, तस्मात् ते न बद्ध्यन्ते ।। ८-२५ ।। * सूत्रार्थ - कर्मप्रकृति के काररणभूत सूक्ष्म, एक ही क्षेत्र में अवगाहन करके रहे हुए अनन्तानन्त प्रदेश वाले पुद्गल योगविशेष के द्वारा समस्त प्रोर से समस्त आत्मप्रदेशों में बन्ध को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार कर्मग्रहण योग्य पुद्गलप्रदेशों का जीव- प्रदेशों के साथ बन्ध हो जाना प्रदेशबन्ध है ।। ८-२५ ।। विवेचनामृत बध्यमान कर्म के कारणभूत कर्म पुद्गलों का सर्व प्रकार के योगविशेष द्वारा सूक्ष्मरूप से रहे हुए एक प्रदेशक्षेत्रावगाही अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध को समस्त आत्मप्रदेशों से सब प्रात्मप्रदेशों में वन्ध होता है । अर्थात् - नामनिश्रित्तक - प्रकृतिनिमित्तक, समस्त तरफ से, योगविशेष से, सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाढ़, स्थिर सर्व आत्मप्रदेशों में, अनन्तानन्त प्रदेशवाले अनन्त कर्मस्कन्ध बन्धाते हैं । * जीव- श्रात्मा के साथ कर्मस्कन्ध योग्य पुद्गल प्रदेशों के सम्बन्ध को प्रदेशबन्ध कहते हैं । . इस विषय में आठ प्रश्न उत्पन्न होते हैं । उसी को इस प्रस्तुत सूत्र से समझना प्रति आवश्यक है । ( १ ) प्रश्न - कर्म स्कन्धों के बन्ध से क्या निर्मित होता है ? उत्तर - आत्मप्रदेशों के साथ बँधे हुए पुद्गल स्कन्ध कर्म भाव अर्थात् - ज्ञानावरणीयादि प्रकृति रूप से परिणत होते हैं यानी उनसे कर्मप्रकृतियों का निर्माण होता है। इसलिए वे कर्म Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८२५ प्रकृति के कारणभूत हैं। अर्थात-कर्मों के ज्ञानावरणीयादि जो सार्थक नाम हैं, वे उसके कारण हैं। कर्मों के नाम उनके फल देने के स्वभाव प्रमाणे हैं। बन्ध के समय में ही कर्मप्रदेशों में स्वभाव निश्चित हो जाता है, तथा तद्अनुसार उसका (कर्म प्रदेशों का) नाम पड़ता है। जिन कर्मप्रदेशों में ज्ञान गुण को आवरने का स्वभाव निश्चित होता है, उन कर्मप्रदेशों का ज्ञानावरण ऐसा नाम निश्चित हो जाता है। जिन कर्मप्रदेशों में दर्शनगुण को पावरने का स्वभाव निश्चित होता है, उन कर्मप्रदेशों का दर्शनावरण ऐसा नाम निश्चित होता है। आम प्रदेशों में स्वभाव तथा स्वभाव प्रमाणे नाम निश्चित होता है । प्रदेशों के बिना स्वभाव के नाम निश्चित नहीं हो सकते हैं। इसलिए प्रदेश नाम के या स्वभाव के (प्रकृति के) कारण हैं। यह उत्तर इस सूत्र में रहे हुए 'नामप्रत्ययाः' शब्द से मिलता है। ग्राम अर्थात्-उस-उस कर्म के सार्थक नाम या स्वभाव उसके प्रत्यय कारण हैं । [स्वभाव प्रमाणे हो कर्मों के नाम हैं या नाम प्रमाणे कर्मों के स्वभाव हैं। इससे नाम का अर्थ स्वभाव भी हो सकता है ।] (२) प्रश्न–वे स्कन्ध ऊँची-नीची तथा तिरछी दिशाओं में रहे हुए ऊँची-नीची तथा तिरछी दिशा के प्रात्मप्रदेशों से ग्रहण होते हैं ? अर्थात्-जीव प्रदेशों को (कर्मपुद्गलों को) समस्त दिशाओं में से ग्रहण करते हैं अथवा किसी एक दिशा में से ग्रहण करते हैं ? उत्तर-जीव-प्रात्मा चार दिशा, चार विदिशा, ऊर्ध्व दिशा और अघोदिशा इन दसों दिशाओं से कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है। यह तथ्य इस सूत्र में रहे हुए 'सर्वतः' शब्द से जात होता है। (३) प्रश्न-समस्त जीवों के कर्म का बन्ध समान रूप है या असमान रूप है ? अर्थात् भिन्न-भिन्न जीव प्रत्येक समय में समान कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करते हैं कि, अधिक-न्यून भी कर्मपुद्गल ग्रहण करते हैं ? अथवा समस्त जीव एक समान पुद्गल ग्रहण करते हैं कि न्यूनाधिक कर्मपुद्गल ग्रहण करते हैं ? उत्तर-समस्त संसारी जीवों के कर्मबन्ध एक समान नहीं होता है। इसका कारण यह है कि उनके मानसिक, वाचिक तथा कायिक योग व्यापार एक समान नहीं होते हैं। योगों की तरतमता के अनुसार कर्मबन्ध प्रदेशों में तारतम्यभाव रहता है। स्पष्टीकरण-कोई एक जीव-आत्मा भी प्रत्येक समय में समान पुद्गल ग्रहण नहीं करता है, किन्तु न्यूनाधिक पुद्गल ग्रहण करता है। क्योंकि प्रदेशबन्ध योग से अर्थात् वीर्य व्यापार से होता है। जोव-प्रात्मा का योग-वीर्य व्यापार प्रत्येक समय में एक सरीखा नहीं होता है, न्यूनाधिक होता है। योगों की अधिकता से अधिक पुद्गलों का ग्रहण होता है और योगों की न्यूनता से कम पुद्गलों का ग्रहण होता है। यद्यपि किसी समय एक समान योग भी होता है, परन्तु वह अधिक में अधिक आठ समय पर्यन्त ही रहता है। बाद में अवश्य योग में फेरफार होता है। इससे जीव Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२५ ] अष्टमोऽध्यायः आत्मा सर्व समयों में समान पुद्गल नहीं ग्रहण करते हैं, अपने योग प्रमाणे अधिक-न्यून पूदगल ग्रहण करते हैं तथा विवक्षित किसी एक समय में समस्त जीवों को समान ही प्रदेशों का बन्ध हो, ऐसा नियम नहीं है। जिन जीवों के समान योग होता है, उन जीवों के समान बन्ध होता है तथा जिन जीवों के जितने अंशों में योग की तरतमता होती है, वे जीव उतने अंशों में तरतमता वाला प्रदेशबन्ध करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जोबात्मा प्रति समय अपने योग प्रमाण प्रदेशों का बन्ध करता है। इस तरह की सूचना 'योगविशेषात्' शब्द से मिलती है। (४) प्रश्न -वे कर्म स्कन्ध सूक्ष्म हैं ? या स्थूल हैं ? अर्थात्-जीव स्थूल कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है कि सूक्ष्म कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है ? उत्तर - कर्मयोग्य पुद्गलस्कन्ध स्थूल-बादर नहीं होते हैं, किन्तु सूक्ष्मभाव में रहते हैं और वे ही कर्मवर्गणा योग्य हैं। विशेष-इस विश्व में नयनों से नहीं दिख सके ऐसे अनेक प्रकार के सूक्ष्म पुद्गल सर्वत्र व्याप्त हैं, परन्तु सर्व पुद्गल कर्म रूप नहीं बन सकते हैं। जो पुद्गल अत्यन्त ही सूक्ष्म हों अर्थात् कर्म रूप बन सकें इतने ही सूक्ष्म हों, वे ही पुद्गल कर्म रूप में बन सकते हैं । __ जैसे जातेलोट-कणेक-रोटी इत्यादि बनने के लिए अयोग्य हैं, वैसे बादर पुद्गल भी कर्म बनने के लिए अयोग्य हैं। कर्म रूप बन सकें ऐसे पुद्गलों के समूह को 'कार्मण वर्गणा' कहते हैं । जोव-आत्मा कार्मणवर्गणा में रहे हुए सूक्ष्म पुद्गलों को लेकर कर्म रूप बनाते हैं। यह जानकारी इस सूत्र में रहे हुए 'सूक्ष्म'शब्द से मिलती है। (५) प्रश्न-जीव-प्रात्म प्रदेश क्षेत्र में रहे हुए कर्मस्कन्धों का जीव-यात्म प्रदेशों के साथ बन्ध होता है ? या अन्य क्षेत्र में रहे हए स्कन्धों के साथ बन्ध होता है ? । अर्थात् -- जीव कौनसे स्थल में रहे हुए कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है ? उत्तर-जीव-प्रात्म प्रदेशावगाढ़ कर्मस्कन्धों के सिवाय अन्य प्रदेशान्तर रहे हुए स्कन्ध अग्राह्य हैं। विशेष - अन्य पुद्गलों की भाँति कार्मण वर्गणा के पुद्गल सर्वत्र विद्यमान हैं । जीव-आत्मा सर्वत्र रहे हुए कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता नहीं है, किन्तु जितने स्थान में अपने जोव-प्रात्मा के प्रदेश हैं उतने ही स्थान में रहे हुए कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। ___जैसे-अग्नि स्वयं जितने स्थान में है उतने ही स्थान में रहे हुए जलने योग्य पदार्थ को जलाती है। किन्तु अपने स्थान से दूर-बाहर की वस्तु को नहीं जलाती है। वैसे ही जीव-प्रात्मा अपने क्षेत्र में रहे हुए कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है, परन्तु अपने क्षेत्र से दूर रहे हुए कर्मपुद्गलों को ग्रहण नहीं करता है। इस तरह की सूचना इस सूत्र में रहे हुए 'एकक्षेत्रावगाढ़' पद से मिलती है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८.५ ( ६ ) प्रश्न- गतिशील कर्मस्कन्धों का बन्ध होता है या स्थितिशील कर्मस्कन्धों का बन्ध होता है ? उत्तर - स्थिर कर्मस्वन्धों का बन्ध होता है, गतिशील स्कन्ध अस्थिर होने से उनका बन्ध नहीं होता है । अर्थात् - कार्मण वर्गणा के जो पुद्गल स्थित हैं अर्थात् गति रहित हैं, उन्हीं पुद्गलों का ग्रहण होता है, गतिमान कार्मण वर्गरणा के पुद्गलों का बंध नहीं होता है । यह जानकारी इस सूत्र में रहे हुए स्थिता:' शब्द से मिलती है । ( ७ ) प्रश्न- उन कर्म - स्कन्धों का बन्ध सम्पूर्ण प्रात्मप्रदेशों के साथ होता है ? या न्यूनाधिक श्रात्मप्रदेशों के साथ होता है ? अर्थात् ग्रहरण किये हुए कर्मपुद्गलों का जीव - प्रात्मा के ही अमुक प्रदेशों में सम्बन्ध होता है कि समस्त प्रदेशों में सम्बन्ध होता है ? उत्तर- समस्त आत्मप्रदेशों के साथ बन्ध होता है । करता है । जैसे श्रृंखला की का चलन होते ही सर्व कड़ियों का जब कर्मपुद्गलों का ग्रहण करने ! * जीव सर्व आत्मप्रदेशों द्वारा कर्मपुद्गलों का ग्रहण ( सांकल की ) प्रत्येक कड़ी परस्पर जुड़ी हुई होने से एक कड़ी चलन होता है, वैसे जीव आत्मा के सर्वप्रदेश परस्पर जुड़े होने से के लिए कोई एकप्रदेश व्यापार करता है, तब अन्य सर्वप्रदेश भी व्यापार करते हैं । ग्रहा कितनेक जीवों के प्रदेशों का व्यापार न्यून होता है, कितनेक प्रदेशों का व्यापार न्यूनतर होता है; यो व्यापार में भी तारतम्य अवश्य होता है । उदाहरण रूप जब अपन घट-घड़े को उठाते हैं। तब हाथ के समग्र भागों में व्यापार होते हुए भी हथेली के भाग में व्यापार विशेष होता है, कन्धे के भाग में उससे न्यून - कम व्यापार होता है । उसी भाँति प्रस्तुत में कर्मपुद्गलों को ग्रहण करने का व्यापार सर्व श्रात्मप्रदेशों में होता है किन्तु व्यापार में तरतमता अवश्य होती है । प्रत्येक प्रात्मप्रदेश में कर्मग्रहण का व्यापार होने से सर्व श्रात्मप्रदेशों में आठों ही कर्मों के प्रदेश सम्बद्ध होते हैं । इस प्रकार की जानकारी सूत्र में रहे हुए 'सर्वात्मप्रदेशेषु' इस पद से मिलती है । ( ८ ) प्रश्न – कर्मस्कन्धों के प्रदेश संख्याते, असंख्याते या अनन्त होते हैं ? * एक बार में कितने प्रदेशों वाले स्कन्धों का बन्ध होता है ? उत्तर - कर्मयोग्य स्कन्ध के पुद्गल "परमाणु" नियम से अनन्तानन्त प्रदेशी होते हैं । संख्यात, असंख्यात या श्रनन्त परमाणुओं से बने हुए स्कन्ध प्रग्राह्य हैं । स्पष्टीकरण - प्रदेशबन्ध में एक, दो, तीन यों छूटे-छूटे पुद्गल - कर्माणु बन्धाते नहीं हैं, किन्तु स्कन्ध रूप में बन्धाते हैं । उसमें भी एक साथ एक, दो, तीन, चार, यावत् संख्यात अथवा असंख्यात जथ्था बँधाते नहीं हैं, किन्तु अनन्त जथ्था ही बँधाते हैं। तथा एकैक जथ्था में अनन्त कर्माणु होते हैं । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२६ ] अष्टमोऽध्यायः [ ५५ इससे एक ही समय में प्रत्येक आत्मप्रदेश में अनन्तानन्त कर्माणु बंधाते हैं । यह सूचना इस सूत्र में रहे हुए 'अनन्तानन्तप्रदेशा:' इस पद से मिलती है । यही स्वरूप पाँचवें कर्म ग्रन्थ की ७८-७९ गाथा में कहा है ।। ८-२५ ।। * पुण्यप्रकृतीनां निर्देश: 5 मूलसूत्रम् सवेद्य-सम्यक्त्व हास्य रति पुरुष वेद- शुभायुर्नाम गोत्रारिण पुण्यम् ॥ ८- २६ ॥ * सुबोधिका टीका * सातावेदनीयं, सम्यक्त्वं, हास्यं, रतिः, पुरुषवेदः, शुभायुष्यं ( देव- मनुष्य सम्बन्धि ) शुभनामकर्मणः प्रकृतयः, शुभगोत्रं ( अर्थाद् - उच्चगोत्रं ) चेति पुण्यमस्ति । तेभ्यो विपरीतं कर्म तत् पापमस्ति ।। ८- २६ ।। * सूत्रार्थ - सातावेदनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभ श्रायु ( मनुष्य तथा देव प्रायु), देव- मनुष्यगति प्रादि शुभनाम और शुभ-गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं ।। ८- २६ ।। 5 विवेचनामृत 5 यमान कर्म के विपाकों की शुभाशुभता जीव आत्मा के अध्यवसायों पर निर्भर है । शुभ अध्यवसाय का विपाक भी 'शुभ इष्ट' होता है, तथा अशुभ अध्यवसाय का विपाक भी 'अशुभ श्रनिष्ट' होता है । उनके परिणामों में संक्लेश की मात्रा जितनी न्यूनाधिक होगी, उतने ही परिणाम से शुभाशुभ कर्म की विशेषता रहेगी। शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकृतियों का बन्ध एक साथ एक समय होता है । परिणामों की इस प्रकार की धार नहीं है कि मात्र शुभ अथवा अशुभ एक ही प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध हो । उभय प्रकृतियों का एक ही साथ बन्ध होते हुए भी व्यावहारिक जो प्रवृत्ति है उसमें शुभत्व 'की तथा अशुभत्व की भावना मानी जाती है, वह केवल व्यावहारिक प्रवृत्ति की मुख्यता और गौणता पर है । जिस तरह शुभ परिणाम से पुण्य प्रकृतियों का शुभ प्रनुभाग (रस) बँधता है, उसी तरह अशुभ परिणाम से पापप्रकृतियों का अशुभ अनुभाग (रस) भी बँधता है । एवं जिस समय प्रशुभ परिणाम से पाप प्रकृतियों का अशुभ अनुभाग (रस) बंधता है, उसी समय उस परिणाम से पुण्य प्रकृति का शुभ अनुभाग (रस) बन्ध भी होता है तथापि शुभपरिणामों की प्रकृष्टता के समय शुभ अनुभाग की प्रकृष्टता रहती है, और अशुभ अनुराग निकृष्ट होता है । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२६ सूत्र में उक्त आठ प्रकार से पुण्य प्रकृतियां कही हैं। वे मूल पाँच कर्मों की हैं। [१] सातावेदनीय (वेदनीय कर्म की), [२] सम्यक्त्व, [३] हास्य, [४] रति, तथा [५] पुरुषवेद ये मोहनीयकर्म के दर्शन मोहनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं। [३] शुभायुष्य (प्रायुष्यकर्म की), __ [४] ७ शुभ नाम (नामकर्म की प्रकृति), [५] शुभ गोत्र (गोत्र कर्म की प्रकृति) है। एवं शेष रही हुई पाप प्रकृतियाँ हैं । विशेष स्पष्टीकरण- सातावेदनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभ आयुष्य, शुभनाम और शुभगोत्र ये पुण्यप्रकृतियाँ हैं । आयुष्यकर्म में-देव और मनुष्य ये दो आयुष्य शुभ हैं । नामकर्म की शुभप्रकृतियाँ ३७ हैं। वे नीचे प्रमाणे हैं मनुष्यगति, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, पांच शरीर, तीन अङ्गोपाङ्ग, वज्रऋषभ नाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, 'प्रशस्त वर्ण,प्रशस्त गन्ध प्रशस्त रस, प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगतिप्रानुपूर्वी, शुभविहायोगति, उपघात बिना की सात प्रत्येक प्रकृतियां (पराघात, उच्छ्वास, प्रातप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थङ्कर, निर्माण), त्रसदशक तथा उच्चगोत्र शुभ हैं । वेदनीयकर्म में (सातावेदनीय) १, मोहनीयकर्म में (सम्यक्त्व मोहनीय आदि) ४, आयुष्य कर्म में (देव-मनुष्यायुष्य) २, नामकर्म में ३७, तथा गोत्र में १-इस तरह कुल ४५ पुण्य प्रकृतियाँ हैं। कर्मप्रकृति इत्यादि ग्रन्थों में सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद ये चार प्रकृति रहित तथा तिर्यंच आयुष्य सहित ४२ प्रकृतियाँ पुण्य रूप बताने में आई हैं । पुण्य और पाप की व्याख्या में जो भेद है, वह इस मतान्तर में कारण लगता है। * वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति तत्त्वार्थकार के मत में जो प्रीति-आनन्द उपजाता है अर्थात् जो गमता है वह पुण्य और इससे विपरीत वह पाप है । * कर्मप्रकृति इत्यादि ग्रन्थकारों के मत में आत्मविकास के साधक जो कर्म हैं वे पुण्य रूप हैं तथा प्रात्मविकास में बाधक जो कर्म हैं वे पाप रूप हैं। वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के कितनेक भेद पुण्यस्वरूप तथा कितनेक भेद पापस्वरूप होने से सामान्य से वर्ण चतुष्क उभय स्वरूप है। विशेष से रक्त, पीत तथा श्वेत ये तीन वर्ण, सुरमिगन्ध, कषाय, अम्ल और मधुर ये तीन रस, लघु, मृदु, स्निग्ध तथा उष्ण ये चार स्पर्श, इस तरह ग्यारह पुण्य स्वरूप, एवं शेष नौ पाप स्वरूप हैं। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२६ ] अष्टमोऽध्यायः [ ५७ सम्यक्त्व मोह का उदय श्री मरिहन्त भगवन्त इत्यादि के प्रति प्रीति अर्थात् भक्तिराग उत्पन्न करता है, इसलिए प्रशस्त होने से श्रोतत्त्वार्थकार के मत में पुण्यरूप है। परन्तु उससे दर्शन गुण में अतिचार लगने से अन्य-दूसरे ग्रन्थकारों के मत में वह पुण्य रूप नहीं है। हास्य, रति और पुरुषवेद का उदय प्रोति-प्रानन्द उपजाता है। इसलिए श्रीतत्त्वार्थकार के मत में वे तोन पुण्यरूप हैं। किन्तु अात्मविकास में बाधक होने से अन्य-दूसरे ग्रन्थकारों के मत में वे पापरूप हैं। तिर्यंच जीवों को नरक जीवों की भाँति मरना गमता नहीं है। इससे 'कर्मप्रकृति' इत्यादि ग्रन्थों में तियंच आयुष्य को पुण्यरूप माना गया है। * पुण्यप्रकृति बिना की समस्त प्रकृतियां पापप्रकृतियां हैं। उदय की अपेक्षा १२२ प्रकृतियों में से ४५ पुण्य प्रकृतियों को बाद करते हुए तथा वर्णचतुष्क को मिलाते हुए ८१ प्रकृतियाँ पापरूप हैं। वे नीचे प्रमाणे हैं ज्ञानावरणीय कर्म की-५, दर्शनावरणीय कर्म की-६, वेदनीय कर्म की-१, मोहनीय कर्म की-२४, आयुष्य कर्म की-२, नामकर्म की-३४, गोत्रकर्म की-१, तथा अन्तराय कर्म की-५। ये सब मिलकर ८१ प्रकृतियां पापरूप हैं। प्रश्न-नवतत्त्व इत्यादि ग्रन्थों में ८२ पापप्रकृतियां कही गई हैं, वे किस प्रकार हैं ? उत्तर-वहाँ नामकर्म के ६७ भेदों की गिनती करने में आई है। नामकर्म की ३४, चार घाती कर्मों की ४५, तथा शेष तीन प्रघाती कर्मों की (वेदनीय की-१, गोत्र की-१, तथा अन्तराय की-१) ३ इस तरह कुल ८२ प्रकृतियां पाप स्वरूप हैं। नवतत्त्व प्रादि ग्रन्थों में बन्ध की अपेक्षा १२० प्रकृतियों को आश्रय करके ४२ पुण्य प्रकृतियाँ तथा ८२ पाप प्रकृतियां कही गई हैं। सुर नर', तीगुच्च', साय', तसदस', तणु' वग' बइर' चउरंसं । परघासग तिरिमाउ', वनचउ पणिवि० सुभरवगई ॥ १५ ॥ बयाल पुण्यपगइ, अपढ़मसंगण खगई। संघयण । तिरिदग' असायं निनो', वधाय' इग' विगल' निरियतिंग ॥ १६ ॥ यवारदक्ष'• वन्नचउक्क', पाईपणयालं५ सहिय वासीह२ । पाव पयडित्ति दो सुवि, वन्तई गहा सुहा असुहा ॥ १७ ॥ अर्थ-देवत्रिक (गति पानपूर्वी, आयुष्य) एवं मनुष्यत्रिक, उच्चगोत्र, सातावेदनीय, त्रसदशक पाँच शरीर (प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस तथा कार्मण,) उपाङ्ग तीन (प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक), वज्रऋषभ नाराचसंघयण, समचौरस संस्थान, पराघात सप्तक (पराघात, उच्छ्वास, मातप, उद्योत, अगुरुलधु, तीर्थङ्कर तथा निर्माण), तियंचायुष्य, वर्ण चतुष्क (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श), पञ्चेन्द्रिय, शुभविहायोगति इस प्रकार ४२ पुण्यप्रकृतियाँ हैं। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८।२६ प्रथम को छोड़कर के पांच स्थान (न्यग्रोध, सादि, कुब्ज, वामन तथा हुंड), अशुभ विहायोगति, प्रथम को छोड़कर पांच संहनन (ऋषभनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलिका तथा सेवार्त), तियंचद्विक (गति, प्रानु०), असाता वेदनीय नीचगोत्र, उपघात, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रिय, (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय), नरक त्रिक (गति०, मानु०, मायु०), स्थावर दशक (वर्ण चतुष्क, सर्वघाती और देशघाती ४५ [केवलज्ञान-१, केवलदर्शन-१, पाँच निद्रा, बारह कषाय-१२ और मिथ्यात्व ऐसे सर्वघाती २०] चार ज्ञान, तीन दर्शन, चार संज्वलन कषाय, नव नोकषाय और पांच अन्तराय, ये २५ देशघाती इस प्रकार ४५ ये सब मिलकर ८२ पाप प्रकृतियाँ कहलाती हैं। वर्ण चतुष्क शुभाशुभ की अपेक्षा पुण्य और पाप दोनों में सम्मिलित हैं ॥८-२६ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांश ] प्रष्टमोऽध्यायः [ ५६ ॐ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य अष्टमाध्यायस्य सारांशः . श्रीजिनागमसिद्धान्त - सारः तत्त्वार्थसूत्रकम् । सर्वेषां विदुषां मान्यं, जिज्ञासूनां प्रबोधकम् ॥ १ ॥ सिद्धिसंख्यान्वितेऽध्याये, मिथ्यात्वादि - पुरस्सरम् । बन्धनिरूपणं सम्यक्, कृतं सत्तत्त्वदर्शिना ॥ २ ॥ बन्धस्य हेतवः पञ्च, प्रमुखाः सन्ति कर्मणाम् । मिथ्यादर्शनयोगावि - रत्यालस्य - कषायकाः ॥ ३ ॥ चतुर्धा द्रव्यबन्धस्य, भेदाः शास्त्रे सुवरिणताः । प्रकृतिस्थित्यनुभाव - प्रदेशनामकाः किल ॥ ४ ॥ कर्मप्रकृति कार्याणा - मष्टौ भेदाः प्रकीर्तिताः । ज्ञानावरणकर्मादि - भिर्नाम्ना चात्र गुम्फिताः ॥ ५ ॥ प्रष्टकर्माणि नामानि, तत् प्रकृत्यनुसारतः । जघन्योत्कृष्टभेदेन, कर्मस्थितिद्विधा मता ॥ ६ ॥ तद् विपाकोऽनुभावोऽयं, यथा नाम तथा गुणः । ददात्येव फलं काले, मूलकर्मानुसारतः ॥ ७ ॥ नष्टे बीजे यथात्यन्त - मङ्कुरो नो प्ररोहति । तथा नष्ट कर्मबीजे, नो पुनः स्याद्भवाङ्कुरः ।। ८ ॥ Mirrrrrrrrrrrrrrywww radibasi.dadadladdadimaabidabaddalaimaduindia, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ प्रशस्तिः Adalinihdanimlindianimal.lammadhan Allamaadamiliaadimanabadashamadhana इति श्रीशासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवत्ति - तपोगच्छाधिपति - भारतीयभव्यविभूति - महाप्रभावशालि - प्रखण्डब्रह्मतेजोमूत्ति - श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक - श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपतिप्रतिबोधक - चिरन्तनयुगप्रधानकरूपवचनसिद्धमहापुरुष - सर्वतन्त्रस्वतन्त्र - प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज - श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालङ्कार - साहित्यसम्राटव्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद - कविरत्न - साधिकसप्तलक्षश्लोक प्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक - परमशासनप्रभावक - बालब्रह्मचारि - परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर - धर्मप्रभावक - शास्त्रविशारदकविदिवाकर - व्याकरणरत्न - स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेक ग्रन्थकारक - बालब्रह्मचारिपरमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद् विजयदक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्धपट्टधर-जैनधर्मदिवाकरतीर्थप्रभावक - राजस्थानदीपक - मरुधरदेशोद्धारक - शास्त्रविशारद-साहित्यरत्नकविभूषण - बालब्रह्मचारि - श्रीमद्विजयसुशीलसूरिणा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य अष्टमोऽध्यायस्योपरि विरचिता 'सुबोधिका टीका' एवं तस्य सरलहिन्दीभाषायां 'विवेचनामृतम्। dabadiadadlabandidamdamdaddhaddhanandidabadasti Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के अष्टम (पाठ) अध्याय का ___* हिन्दी पद्यानुवाद * Lammmnomnomnomnomnomorrow * कर्मप्रकृति के बन्ध, बन्ध हेतु तथा बन्ध के प्रकार * 卐 मूलसूत्रम् मिथ्यादर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगा बंधहेतवः ॥ ८-१॥ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणोयोग्यान पुद्गलानादत्ते ॥ ८-२॥ स बंधः ॥ ८-३॥ प्रकृति-स्थित्य-नुभाग-प्रदेशास्तविधयः ॥८-४॥ प्राद्यो ज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-युष्क-नाम-गोत्रा-ऽन्तरायाः॥८-५॥ पंच-नव-द्वय-ष्टाविंशति-चतु-द्विचत्वारिंशत्-द्वि-पंचमेवा यथाक्रमम् ॥ ८-६ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद मिथ्यादर्शन अविरति, प्रमाद और कषायता । . पाँचवाँ है योग ये सब, कर्मबन्धन हेतुता ॥ है कषायी जीव कर्म योग्य, पुद्गल खींचता । लोहचुम्बक सूचिका ज्यों, त्यों जीव पुद्गल खींचता ॥ १ ॥ कहा जिनशास्त्र से यह बन्ध, चार इसके भेद हैं । प्रकृति स्थिति रस प्रदेश, बन्ध के सब भेद हैं । है प्रथम जो भेदप्रकृति, अष्ट भेद उसके कहे । ज्ञानावरणीय कर्म पहला, भेद सारे हैं कहे ॥ २ ॥ दर्शनावरणीय दूसरा, वेदनीय तीसरा कहा । मोहनीय कर्म चौथा, तत्त्व से वणित कहा ॥ पांचवाँ आयुष्य कर्म, षष्ठ कर्म नाम है । गोत्र कर्म ... सातवां है, पाठवां अन्तराय है ।। ३ ।। पंच नव दो वीश अधिके, अष्ट साथ है योग में । चार बेंतालीश दोसे, पंचसंख्या साथ में । भेद पाठे प्रतिभेदे, अब भेद संख्या सुनिये ।। सूत्र शैली हृदय धरते, अष्टकर्म को हनिये ॥ ४ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] 5 मूलसूत्रम् सदसद्वेद्ये ।। ८-९ ।। श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * भ्रष्ट कर्मप्रकृति का वर्णन * मत्यादीनाम् ॥ ८-७॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलाप्रचला - स्त्यानद्ध वेदनीयानि च ॥ ८-८ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद [ हिन्दी पद्यानुवाद - दर्शन - चारित्रमोहनीय कषाय- नोकषायवेदनीयाख्यास्त्रि - द्वि-षोडश - नवभेदाः सम्यक्त्व - मिथ्यात्व तदुभयानि कषाय- नोकषायौ, अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन - विकल्पाश्चैकशः क्रोध- मान-माया-लोभ-हास्य रत्यरति शोक-भय-जुगुप्साः स्त्री-पु-नपुंसकवेदाः ॥ ८-१० ॥ नारक-तैर्यग्योन - मानुष- देवानि ॥ ८-११ ॥ मतिज्ञानावरण ज्ञानावरणकर्म के हैं, पाँच भेद वरित किये । नाम, प्रथम उसका भेद ये ।। अवधिज्ञानावरण है । मिलके पंचावरण हैं ।। ५ ॥ तदनुश्रुतज्ञानावरण, कारण से अज्ञान है । मनः केवलज्ञान दो ये, इनमें प्रथम तीन के, चक्षुदर्शन चक्षुदर्शन, दो भेद क्रमशः ही अवधि तीसरा तुरीय केवल, चार दर्शन हैं हुए । ये आवरण चारों कहे हैं, पाँच-निद्राभेद के ॥ ६ ॥ हैं ॥ निद्रा सम्बन्धी प्रथम निद्रा, निद्रानिद्रा दूसरा । प्रचला तृतीय भेद होता, प्रचला प्रचला है खरा ॥ स्त्यानगृद्धि भेद पंचम, नव संख्या में गणना करो । कर्म दूसरा भेद नव से, सुनि सत्त्वर परिहरो ।। ७ ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी पद्यानुवाद ] अष्टमोऽध्यायः ८ ॥ शाता अशाता भेद दोनों, वेदनीय के जान लो । मोहनीय के भेद प्रट्ठाईस शास्त्र से ही मानलो || अनन्तानुबन्धी और फिर, अप्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यानी भेद तीसरा, संज्वलन प्रतिसूक्ष्म है ॥ कषाय चारों क्रोध मान, माया लोभ से गुणते । भेद सोलह होते जिसको, जानि मुनिजन टालते ॥ हास्य रति अरति तथा शोक भय जुगुप्सा साथ में । स्त्री नपुंसक पुरुष वेद, होते पच्चीस योग में ।। ६ ।। समकित मिश्र मिथ्यात्व, मोह भेदत्रय जो जोड़िये । भेद अट्ठाईस सारे, सूत्र सुनकर छोड़िये ॥ नारक तिर्यंच मनुष्य, तथा देव की जीवन-स्थिति । भेद चारे श्रायुष्यकर्मे, सूत्र की जानो रीति ।। १० ।। 5 मूलसूत्रम् गति - जाति-शरीरा -ऽङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन - संघात संस्थान संहनन - स्पर्श-रसगन्ध - वर्णाऽऽनुपूर्व्यगुरु लघूपघात पराघाताऽऽतपोद्योतोच्छ्वास - विहायोगतयः प्रत्येकशरीर त्रस - सुभग- सुस्वर - शुभ सूक्ष्म-पर्याप्त स्थिराऽऽदेय यशांसि -सेतर राणि-तीर्थकृत्त्वं च ।। ८-१२ ॥ - उच्चैर्नीचैश्च ।। १३ ॥ दानादीनाम् ।। १४ ।। * हिन्दी पद्यानुवाद [ ६३ गति जाति भेदे तनु उपाङ्ग, बन्ध संघातन गिनो । संघण संस्थान वर्णं, गन्ध रस स्पर्श क्रमशः गिनो || श्रानुपूर्वी गतिविहाये, चौदह भेद जानिये । पराघात श्वासोच्छ्वास फिर, प्रातप को मानिये ।। ११ ।। उद्योत अगुरुलघु तीर्थंकर, निर्माण उपघात के । त्रस बादर पर्याप्त प्रत्येक, स्थिर शुभ बहु भाँति के ॥ सौभाग्य फिर प्रादेय सुस्वर, सुयश दसवाँ जानिये । स्थावर दशको योग करते, बयालीस पिछानिये ।। १२ ।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ हिन्दी पद्यानुवाद है गोत्रकर्म सातवां, ऊँच नीच दो भेद से । अन्तरायकर्म आठवां, दान लाभ और भोग से । उपभोग वीर्य ये पांच भाव, अवरुद्ध होते कर्म से । अन्तराय कर्म जान कल्मष, त्याग दो निज ज्ञान से ।। १३ ॥ स्थितिबन्ध* -- . 卐 मूलसूत्रम् प्रादितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परास्थितिः॥८-१५॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ ८-१६ ॥ नाम-गोत्रयोविंशतिः ॥८-१७ ॥ त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥ ८-१८ ॥ अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥८-१९ ॥ नाम-गोत्रयोरष्टौ ॥८-२० ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ॥ ८-२१॥ विपाकोऽनुभावः ॥८-२२॥ स यथानाम ॥८-२३॥ ततश्च निर्जरा ॥८-२४ ॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेषु अनन्तानन्तप्रदेशाः ॥८-२५ ॥ सद्वेद्य-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम् ॥ ८-२६ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद पहले तीन-अन्तिम चार की, उत्कृष्ट कर्म स्थिति । त्रिंश कोटाकोटी सागर, नाम-गोत्र की विंशति ॥ सित्तर कोटाकोटी सागर, मोहकी स्वस्थिति कही । तैंतीस सागरोपम प्रायु, स्थिति सूत्रे सद्दही ॥ १४ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ हिन्दी पद्यानुवाद ] अष्टमोऽध्यायः मुहूर्त जघन्य स्थिति कही, वेदनीय को द्वादश सही । नाम तथा गोत्र कर्म की, स्थिति अष्ट मुहूर्त कही ॥ शेष सारे कर्म की स्थिति, अन्तर्मुहूर्त जानना । होती अनुभव कर्मस्थिति, परि-पाक से पिछानना ।। १५ ।। नाम जैसा काम भी सब, कर्म उदये होते हैं । हँसते मुख या रुदन करते, कर्म सब वेदाते हैं । कर्म ज्यों-ज्यों भोगवाये, विनाश उसका होता है । तप शुद्धि बिना ए निर्जरा, निष्काम रूप कहाता है ॥ १६ ॥ कर्म बन्धे नाम प्रत्यय, नाम के दो प्रर्थ हैं । कर्म सारे एक पक्षे, नाम कर्म समर्थ है ॥ सारी दिशामों से ग्रहीत, जोड़कर सब प्रदेश को । त्रय योग के तारतम्य से, जान लो विशेषता को ।। १७ ॥ चेतन नभ प्रदेश से ही, खींचता है कर्म को । अस्थिर कर्म ग्रहे नहीं, स्थिर ग्रहे जानो मर्म को ॥ प्रात्मविषयी सब प्रदेशे, कर्म के पुद्गल भरे । वे सभी कर्म हैं अनन्ता-नन्त पुद्गल से बने ॥ १८ ।। सुखरूप शातावेदनीय, फिर मोहनी समकित की । हास्य रति और पुरुषवेद, सात्त्विक स्थिति कही ॥ शुभ प्रायु जानो शुभ गति का, नाम गोत्र कहे सभी । ये सब प्रकृति पुण्य से, तत्त्वार्थ निर्मल निर्भरी ॥ १६ ॥ तत्त्वार्थाधिगमे सूत्रे, हिन्दीपद्यानुवादके । पूर्णोऽध्यायोऽष्टम: कर्म-बन्ध-स्थित्यादि-बोधकः ॥ ॥ इति श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के अष्टमाध्याय का हिन्दी पद्यानुवाद पूर्ण हुमा ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ ॥ नमो नमः श्रीजैनागमाय ॥ * श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य जैनागमप्रमाणरूप - श्राधारस्थानानि * ॐ अष्टमोऽध्यायः फ्र] मूलसूत्रम् मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥ ८-९ ॥ * तस्याधारस्थानम् पंच श्रासवदारा पण्णत्ता । तं जहामिच्छतं श्रविरई पमाया कसाया जोगा । [ श्रीसमवायाङ्ग - समवाय ५ ] मूलसूत्रम् सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते ॥ ८-२ ॥ स बन्धः ।। ८-३ ॥ * तस्याधारस्थानम् - बन्धे | जोगबन्धे कषायबन्धे । पण्णत्ते । माय । तं जहा - रागेण य दोसेण य । दुवि दोहि ठाणेहि पापकम्मा बंधंति । तं जहा - माया य लोभे य । दोसे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा कोय [ श्री स्था. स्थान २ उ. २ प्रज्ञापना पद २३ सू. ५ ] मूलसूत्रम् प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः ।। ८-४ ॥ चविहे बन्धे पण्णत्ते । * तस्याधारस्थानम् [श्रीसमवायाङ्ग - समवाय-५] तं जहा - पगइबन्धे, ठिइबन्धे, प्रणुभावबन्धे, पएस [श्रीसमवायाङ्ग-समवाय ४ ] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ ] मूलसूत्रम् प्राद्यो ज्ञान दर्शनावरण- वेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायाः ।। ८-५ ।। * तस्याधारस्थानम्श्रट्ट कम्मपगडी वेदणिज्जं, मोहरिणज्जं प्राउयं, नामं, गोयं, अंतराइयं । 1455 मूलसूत्रम् - मूलसूत्रम् अष्टमोऽध्यायः पञ्चनवद्वयष्टाविंशति चतुद्विचत्वारिंशद्विपंच मेदा यथाक्रमम् ।। ८-६ ॥ मत्यादीनाम् ॥ ८-७ ॥ चक्षुरचक्षुवधिकेवलानां वेदनीयानि च ॥ ८-८ ॥ पण्णत्ताश्रो । तं जहा गारणावर णिज्जं, दंसरणावर णिज्जं, * तस्याधारस्थानम् - पंचविहे गारणावररिगज्जे कम्मे पण्णत्ते । तं जहा - श्राभिणिबोहिय गाणावरणिज्जे, सुयरणारणावर णिज्जे, श्रोहिणारणावर रिगज्जे, मरगपज्जव रखारणावर रिगज्जे केवलरणारणावर णिज्जे । [ श्रीस्थानाङ्ग स्थान ५ उ. ३ सू. ४६४ ] मूलसूत्रम् [ ६७ सदसद्वेद्ये ।। ८-९ ॥ * तस्याधारस्थानम् [ श्रीप्रज्ञापद २१, ३०१ सू. २८८ ] * तस्याधारस्थानम् raविधे दरिसणावर णिज्जे कम्मे पण्णत्ते । तं जहा निद्दा निद्दानिद्दा पयला पयलापयला थी गिद्धं चक्खुदंसरणावरणे प्रचक्खुदंसरणावरणे श्रवधिदंसरणावरणे केवलदंसणावररणे । [ श्रीस्थानाङ्ग स्थान & सू. ६६८ ] निद्रा-निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलाप्रचला - स्त्यानगृद्धि सातावेद रज्जेय असायावेदरिणज्जे य । [ श्रीप्रज्ञापना पद २३, उ. २, सू. २ε३] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-१ 卐 मूलसूत्रम् दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयासंख्या-स्त्रिद्विषोडशनवभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानिकषायनोकषायावनन्तानुबाध्यप्रत्यास्यामप्रत्याख्यानावरण संज्वलनविकल्पाश्चैकशः कोषमानमायालोभाः हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुनपुसकवेदाः ॥८-१०॥ * तस्याधारस्थानम् मोहणिज्जे णं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहादसणमोहणिज्जेय चरित्तमोहणिज्जेय। दसणमोहणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-सम्मत्तवेदणिज्जे, मिच्छत्तवेदणिज्जे सम्मामिच्छत्तवेयरिणज्जे। चरितमोहणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-कसायवेदणिज्जे नोकसायवेदणिज्जे। कसायवेदणिज्जे रणं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलसविधे पण्णत्ते । तं जहा-अरणंताणुबंधोकोहे अरणंताणुबंधीमारणे अणंताणुबंधीमाया अणंताणुबंधीलोभे, अपच्चक्खाणे कोहे एवं माणे माया लोभे पच्चक्खाणावरणे कोहे एवं माणे माया लोभे संज्वलणकोहे एवं माणे माया लोमे । नोकसायवेयणिज्जेणं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! णवविधे पण्णत्ते । तं जहा-इत्थीवेय वेयणिज्जे, पुरिसवेय वेयणिज्जे, नपुंसगवेय वेयरिणज्जे हासेरतीपरतीभए सोगे दुगुछा । [श्रीप्रज्ञा. कर्मबन्ध. २३, उ. २] 卐 मूलसूत्रम् नारकर्तर्यग्योनमानुषदेवानि ॥८-११॥ * तस्याधारस्थानम् पाउएणं भंते ! कम्मे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते । तं जहा-णेरइयाउए, तिरिय पाउए, मणुस्साउए, देवाउए । [श्रीप्रज्ञापना पद २३, उ. २] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ] अष्टमोऽध्यायः [ ६६ 卐 मूलसूत्रम्____ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वास-विहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग - सुस्वर शुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसिसेतराणि तीर्थकृत्वं च ॥ ८-१२॥ * तस्याधारस्थानम्__णामेणं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! बायालीसतिविहे पण्णत्ते । तं जहा-(१) गतिणामे, (२) जातिणामे, (३) सरीरणामे, (४) सरोरोवंगणामे, (५) सरीरबंधणणामे, (६) सरीरसंघयणणामे, (७) संघायणणामे, (८) संठाणणामे, (९) वण्णणामे, (१०) गंधरणामे, (११) रसणामे, (१२) फासणामे, (१३) अगुरुलघुरणामे, (१४) उवघायणामे, (१५) पराघायणामे, (१६) प्राणुपुव्वीणामे, (१७) उस्सासणामे, (१८) प्रायवणामे, (१६) उज्जोयणामे, (२०) विहायगतिणामे, (२१) तसणामे, (२२) थावरणामे, (२३) सुहुमणामे, (२४) बादरणामे, (२५) पज्जत्तणामे, (२६) अपज्जत्तणामे, (२७) साहारणसरीरणामे, (२८) पत्तेयसरीरणामे, (२९) थिरणामे, (३०) अथिरणामे, (३१) सुभणामे, (३२) असुभरणामे, (३३) सुभगरगामे, (३४) दुभगणामे, (३५) सूसरणामे, (३६) दूसरणामे, (३७) प्रादेज्जणामे, (३८) प्रणादेज्जणामे, (३६) जसोकोत्तिणामे, (४०) अजसोकोत्तिणामे, (४१) रिणम्माणणामे, (४२) तित्थगरणामे । [श्रीप्रज्ञापना उ. २, पद २३, सू. २६३, श्रीसमवायाङ्ग. स्थान-४२] ॐ मूलसूत्रम् उच्चैर्नीचैश्च ॥ ८-१३ ॥ * तस्याधारस्थानम् गोए णं भंते ! कम्मे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहाउच्चागोए य नीयागोए य । [श्रीप्रज्ञापना पद २३, उ. २, सूत्र २६३] ॐ मूलसूत्रम् दानादीनाम् ॥ ८-१४॥ * तस्याधारस्थानम् अंतराए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पण्णत्त ? गोयमा ! पंचविधे पण्णत्त । तं जहा-दाणंतराइए, लाभंतराइए, भोगंतराइए, उवभोगंतराइए, वीरियंतराइए। [प्रज्ञापना पद २३ उद्दे. २ सू. २६३] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-१ 卐 मूलसूत्रम् पादितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परास्थिति ॥८-१५॥ * तस्याधारस्थानम् उवहीसरिसनामारण, तीसई कोडि कोडीयो। उक्कोसिया ठिई होइ, अन्तोमुहुत्त जहनिया ॥ १९ ॥ आवरणिज्जाण दुण्हंपि, वेयाणिज्जे तहेव य । प्रान्तराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया ॥ २० ॥ [उत्तराध्ययन अध्ययन ३३] 卐 मूलसूत्रम् सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥८-१६ ॥ * तस्याधारस्थानम् उदहीसरिसनामारण, सतरि कोडिकोड़ीयो । मोहरिणज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहूत्तं जहनिया ॥ [उत्तराध्ययन अध्ययन ३३ गाथा २१] 卐 मूलसूत्रम् ___ नाम-गोत्रयोविंशतिः ॥ ८-१७ ॥ * तस्याधारस्थानम् उदहीसरिसनामारण, वीसई कोडिकोडीयो। नामगोत्ताणं उक्कोसा, अन्तोमुहुत्त जहनिया ॥ [उत्तराध्ययन मध्ययन ३३ गाथा २३] 卐 मूलसूत्रम त्रयस्त्रिशत् सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥८-१८ ॥ * तस्याधारस्थानम् तेत्तीस सागरोबमा, उक्कोसेरण वियाहिया। ठिइ उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहनिया ॥ श्री उत्तराध्ययन अध्ययन ३३ गाथा २२] म मूलसूत्रम् अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ ८-१९ ॥ * तस्याधारस्थानम्सातावेदरिणज्जस्स....जहन्नेणं वारसमुहुत्ता । [श्री प्रज्ञापना पद २३ उ. २ सू. २६३] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ] अष्टमोऽध्यायः 卐 मूलसूत्रम् नाम-गोत्रयोरष्टौ ॥८-२० ॥ * तस्याधारस्थानम्नामगोयाणं जहण्णेणं अट्ठमुहुत्ता। [श्री भगवतीसूत्र शतक ६ उ. ३ सू. २३६] असोकित्तनामाएरणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णे अट्टमुहत्ता। उच्चगोयस्स पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठमुहुत्ता । [श्री प्रज्ञापना पद २३ उ. २ सूत्र २६४] 卐 मूलसूत्रम् शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ॥ ८-२१ ॥ * तस्याधारस्थानम्अन्तोमुहुत्तं जहनिया। [श्री उत्तराध्ययन अध्ययन २३ गाथा १६-२२] 卐 मूलसूत्रम् विपाकोऽनुभवः ॥ ८-२२ ॥ स यथानाम ॥८-२३ ॥ * तस्याधारस्थानम्अणुभागफलविवागा। [श्री समवायाङ्ग विपाकश्रुतवर्णनम् ] सव्वेसि च कम्माणं । [श्री प्रज्ञापना पद २३ उ. २] [श्री उत्तराध्ययन अध्ययन २३ गाथा १७] 卐 मूलसूत्रम् ततश्च निर्जरा ॥८-२४ ॥ * तस्याधारस्थानम्__उदीरिया वेइया य निज्जिन्ना । [श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १ उ. १ सूत्र ११] 卐 मूलसूत्रम् नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेध्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥८-२५ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... .. .......... .. "ह छाद्दसागयं। ७२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-१ * तस्याधारस्थानम् सव्वेसि चेव कम्माणं, पएसग्गमणन्तर्ग। गण्ठियसत्ताईयं अन्तो सिद्धारण पाउयं ॥ सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं । ....... सम्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सवेणवद्धगं ॥ - [श्री उत्तराध्ययन अध्ययन ३३ गाथा १७-१८] 卐 मूलसूत्रम् सवेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ ८-२६ ॥ * तस्याधारस्थानम् सायावेदणिज्ज....तिरिमाउए मणुस्साउए देवाउए, सुहणामस्सणं....उच्चागोतस्स....प्रसाया वेदरिणज्ज इत्यादि । [श्री प्रज्ञापना सूत्र पद २३ सू. १६] ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाषिगमसूत्रस्य अष्टमाध्याये संगृहीते जैनागमप्रमाणरूपप्राधारस्थानानि समाप्तम् ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - २ सूत्राङ्क सूत्र १. मिथ्यादर्शना - ऽविरति प्रमाद - कषाय- योगा बन्धहेतवः ।। ८-९ ॥ सकषायत्वाज्जीवाः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते ।। ८-२ ।। २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ६. १०. प्रष्टमोऽध्यायस्य * सूत्रानुक्रमणिका * ११. १२. स बन्धः ।। ८-३ ॥ प्रकृति- स्थित्यनुभाव- प्रदेशास्तद्विधयः ।। ८-४ ॥ श्राद्यो ज्ञान दर्शनावरण- वेदनीय मोहनीयाऽऽयुष्य-नामगोत्रा - ऽन्तरायाः ।। ८-५ ।। पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति चतु द्विचत्वारिशद् द्वि-पश्वभेदा यथाक्रमम् ।। ८-६ ।। मत्यादीनाम् ।। ८७ ।। चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धि वेदनीयानि च ॥ ८-८ ॥ सदसद्वेद्ये ।। ८-६ । दर्शन- चारित्रमोहनीय कषाय- नोकषाय वेदनीयासं ख्यास्त्रिद्विषोडश नव भेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व तदुभयानि कषाय नोकषाया वनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन - विकल्पा श्चैकशः क्रोध- मान - माया - लोभ- हास्य- रत्य रति-शोक-भय जुगुप्साः स्त्री-पु-नपुंसकवेदाः ।। ८-१० ।। नारक तैर्यग्योनमानुषदैवानि ।। ८-११ ।। गति-जाति-शरीरा - ऽङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन संघात - संस्थान - संहननस्पर्श-रस - गन्ध-वर्णा-ऽऽनुपूर्व्यगुरु - लघूपघात - परघाता-ऽऽतपोद्योतोच्छ्वास - विहायो - गतयः प्रत्येकशरीर त्रस-सुभग-सुस्वरशुभ - सूक्ष्म-पर्याप्त स्थिराऽऽदेय यशांसि सेतराणि तीर्थकृत् त्वंच ।। ८-१२ ॥ - पृष्ठ सं. १ ६ ७ ११ १३ १४ १५ १८ १८ २८ २६ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ......... ७४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-२ सूत्राङ्क पृष्ठ सं. १३. उच्चर्नीचैश्च ।। ८-१३ ।। १४. दानादीनाम् ॥ ८-१४ ।। १५. प्रादितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत् सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः ।। ८-१५ ।। १६. सप्ततिर्मोहनीयस्य ।। ८-१६ ॥ १७. नाम-गोत्रयोविंशतिः ।। ८-१७ ॥ १८. त्रयस्त्रिशत् सागरोपमाण्यायुष्कस्य ।। ८-१८ ॥ १६. प्रपरा द्वादश मुहूर्त्ता वेदनीयस्य ।। ८-१६ ।। २०. नाम-गोत्रयोरष्टौ ।। ८-२० ।। शेषाणामन्तर्मुहुर्तम् ।। ८-२१ ॥ २२. विपाकोऽनुभावः ॥ ८-२२ ॥ स यथानाम ।। ८-२३ ॥ २४. ततश्चनिर्जरा ॥ ८-२४ ॥ २५. नामप्रत्ययाः सर्वतो योग विशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्राक्गाढ स्थिताः ___ सर्वात्मप्रदेशेषु अनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ ८-२५ ॥ २६. सद्वेद्य-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम् ।। ८-२६ ॥ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य अष्टमाध्याये सूत्रानुक्रमणिका समाप्ता ॥ २१. २३. 卐 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ ummmmmmmmmmmmmm प्रष्टमाध्यायस्य १ अकारादिसूत्रानुक्रमणिका क्रम पृष्ठ सं. सूत्र सूत्राङ्क १. अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । ८-१६ २. प्राद्यो ज्ञानदर्शनावरण वेदनीयमोहनीयायुष्क नामगोत्रान्तरायाः । ८-५ ३. प्रादितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम-कोटयः परा स्थिति । ८-१५ ४. उच्चनीचैश्च । ८-१३ ५. गति-जाति-शरीराऽङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन-संघात संस्थान-संहनन-स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णा-ऽऽनुपूर्व्य-गुरुलघूपघात-परघाता-ऽऽतपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ सूक्ष्म-पर्याप्त-स्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च । ६. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धि-वेदनीयानि च । ७. त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ८-१८ ८. ततश्च निर्जरा। ८-२४ दर्शन-चारित्रमोहनीय-कषाय-नोकषाय-वेदनीया ख्यास्त्रिद्विषोडश-नवभेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्वतदुभयनि कषाय-नोकषायो अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरण-संज्वलन-विकल्पाश्चैकशः क्रोध-मानमाया-लोभाः हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्साः स्त्री-पुनपुसकवेदाः । ८-१० ८-१० ___८-१२ ८-१२ २६ ८-८ १८ १८ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-३ पृष्ठ सं. ४३ क्रम सूत्र सूत्राङ्क १०. दानादीनाम् । ८-१४ ११. नामगोत्रयोविंशतिः । ८-१७ १२. नामगोत्रयोरष्टौ . ८-२० १३. नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढ- . -. स्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ८-२५ १४. नारकतर्यग्योनमानुषदैवानि। ८-११ १५. पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंचभेदा यथाक्रमम् । १६. प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः । ८-४ १७. मत्यादीनाम् । १८. मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः । ८-१ १६. विपाकोऽनुभावः । ८-२२ २०. सकषायत्वाल्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते ।। सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् । ८-२६ २२. सदसवेद्ये । ८-६ सप्ततिर्मोहनीयस्य । ८-१६ २४. स बन्धः । ८-३ स यथानाम । ८-२३ २६. शेषाणामन्तर्मुहूर्त्तम् । . ८-२१ ८-७ ८-२ २३. सप्तात २५. ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य अष्टमाध्याये अकारादिसूत्रानुक्रमणिका समाप्ता । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- ४ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे श्रीजैनश्वेताम्बर - दिगम्बरयोः सूत्रपाठ - भेदः फ्र अष्टमोऽध्यायः * श्रीश्वेताम्बरग्रन्थस्य सूत्रपाठः 5 सूत्राणि क सूत्र सं. २. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते ।। ८-२ ।। ३. स बन्धः ॥ ८-३ ।। ५. श्राद्यो ज्ञानदर्शनावरण वेदनीय-मोहनीयायुकनामगोत्रान्तरायाः ।। ८-५।। ७. मत्यादीनाम् ॥ ८-७ ।। ८. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रा प्रचलाप्रचलाप्रचला - स्त्यान निद्रा गृद्धि - वेदनीयानि च ॥ ८-८ ॥ - १०. दर्शनचारित्रमोहनीयकषाय- वेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडशनवभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानावरणसंज्व - लनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः हास्यरत्यरतिशोकभय जुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसक वेदाः ।। ८-१० ।। * श्रीदिगम्बरग्रन्थस्य सूत्रपाठः 5 सूत्राणि फ्र सूत्र सं. २. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । X X ४. श्राद्यो X ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः । ६. मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानाम् । ७. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धयश्च । ६. दर्शनचारित्रमोहनीयाकषाया कषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम् यक्त्वमिथ्यात्व तदुभयान्याऽकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान - प्रत्याख्यान संज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ परिशिष्ट-४ ७८ ] सूत्र सं. १४. दानादीनाम् ।। ८-४ ॥ सूत्र सं. १३. दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् । १७. नामगोत्रयोविंशतिः ।। ८-१७ ॥ | १६. विंशति मगोत्रयोः।---- १८. त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥ ८-१८ ॥ १७. त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः । २१. शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् ।। ८-२१॥ १६. शेषाणामन्तर्मुहूर्ता। २४. नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः । २५. नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् | २५. सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् । सूक्ष्मक क्षेत्रावगाढ-स्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ।। ८-२५ ॥ २६. सवेद्यसम्यक्त्वहास्य रतिपुरुषवेदशु-| २६. अतोऽन्यत् पापम् । भायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २६ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 जिनभक्ति - गुञ्जन क * रचयिता परमपूज्य श्राचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज * अरिहन्त - महिमा * [१] आराध्य मेरे अरिहन्त प्रभु 1 अरिहन्त श्रद्धास्पद चरण - अनुरागी मैं । पावन नाम यही अरिहन्त भजे बड़भागी कितने पावन हैं ये अक्षर कितनी मनभावन है " महिमा | मुनिजन " गणधर गुरुजन जपकर गाते हैं इसकी शुभ गरिमा || हूँ ज्ञानगिरा मतिहीन किन्तु, अरिहन्त भजे मैं । श्राराध्य मेरे अरिहन्त - चरण - बड़भागी अरिहन्त अनुरागी " मैं । प्रभु, मैं ॥ [ २ ] मनसा वचसा अरु काया से , जब-जब भक्तों ने याद किया । , दुःख दर्द मिटे सारे क्षण में ज्ञानामृत नित्य प्रसाद दिया || तव नाम की अरिहन्त भजे आराध्य मेरे अरिहन्त - चरण बड़भागी अरिहन्त अनुरागी महिमा गाता हूँ , 1 प्रभु, मैं ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) [३] मनमन्दिर में है मूर्ति तेरी , निशदिन मैं दर्शन पाता हूँ । दरबार दिखा जिस प्रोर मुझे , श्रद्धा से शीश नमाता हूँ ।। अज्ञानी अरु छद्मस्थ 'अहो' , अरिहन्त भजे बड़भागी मैं । आराध्य मेरे अरिहन्त प्रभु , अरिहन्त - चरण - अनुरागी मैं ।। [ ४ ] मानव - तन सुरदुर्लभ प्यारे , अरिहन्त भजो अरिहन्त भजो । 'परिहन्त' नाम गुणवन्त महा , जयवन्त सदा मतिमन्त भजो । भवबन्धन है विपदा दुःखड़ा , अरिहन्त भजे बड़भागी मैं । आराध्य मेरे अरिहन्त प्रभु , अरिहन्त - चरण - अनुरागी मैं ॥ भव - पीड़ाओं से क्या डरना , अरिहन्त परमहितकारी हैं । अरिहन्त नाम की महिमा से , जगमग अन्तर्जगक्यारी है ।। अरिहन्त रंग रांचा मनवा , अरिहन्त भजे बड़भागी मैं । आराध्य मेरे । अरिहन्त प्रभु , अरिहन्त - चरण - अनुरागी मैं ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक स्वीकार करो बन्दन मेरा * स्वीकार करो वन्दन मेरा * हे पार्श्व प्रभो! हे सुखदाता , स्वीकार , करो वन्दन - मेरा । तव चरित पतित - पावन जग में , मेटो भवबन्धन , का फेरा ॥ अश्वसेन पिता तव बड़भागी , वामादेवी माता प्यारी , तव दर्शन - स्पर्शन हितकारी , जन-जन को प्रभु मंगलकारी । मेरे मन में खिली मंगल क्यारी , स्वीकार करो वन्दन मेरा ।। प्रभो! आप ही पुरुषादानी हैं , अष्टोत्तर शत नामे ख्याति है , तव वाणी से ही जग में प्रभो ! सत्य - सुधा संचार हुआ । पद्मावती पूज्य हे पार्श्व प्रभो ! स्वीकार करो वन्दन मेरा ॥ - . -..... [ ४ ] भक्तों के श्रद्धा - केन्द्र महा , हे नागेश्वर ! जगहितकारी , दर्शन से धन्य हुमा हूँ मैं , उद्योत हुमा अन्तस् भारी । मनमन्दिर में नित - वास करो , स्वीकार करो वन्दन मेरा ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) नहीं अन्त तुम्हारी महिमा का , मैं प्रज्ञानी क्या गान करू , तेरी इक-इक गुण गरिमा का , मैं बार - बार बखान करूं। है 'सुशील' चरण सेवक तेरा , स्वीकार करो वन्दन मेरा ।। हे पार्श्व प्रभो! हे सुखदाता , स्वीकार करो वन्दन मेरा । तव चरित पतित - पावन जग में , मेटो भव बन्धन का फेरा ।। జయదురు हे नागेश्वर ! जनहितकारी ఉయదయ [१] हे नागेश्वर ! जनहितकारी , हे पार्श्वप्रभो! मंगलकारी । मैं अज्ञानी गतिहीन दीन , तव चरणों में नित बलिहारी ॥ [ २ ] शास्त्रों में यशगाथा तेरी , ना तुझ सा प्रभयंकर दानी । तव चरण-कमल वन्दन मेरा , चन्दन से धन्य हुए अगणित प्राणी ॥ हे लोकत्रय में सुन्दरतम ! तव चरणों में नित बलिहारी । हे नागेश्वर ! जनहितकारी , हे पार्श्वप्रभो! मंगलकारी ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५) [३] प्रज्ञान तिमिर के नाशक तुम , शिव सत्य और सुन्दर स्वरूप । मैं मटका भटका हूँ निशदिन , दुःख दर्द भरित यह भव विरूप ॥ तारो तारो हे नागेश्वर ! तव चरणों में नित बलिहारी । हे नागेश्वर ! जनहितकारी , हे पार्श्व प्रभो! मंगलकारी ॥ मैं तो मज्ञानी हूँ प्रभुवर ! प्रज्ञान तिमिर मम दूर करो। प्रभु गुण - गौरव का गान करूं , मति विभ्रम मेरा दूर करो । मन में शुभ भक्ति भरो प्यारी , तव चरणों में नित बलिहारी । हे नागेश्वर ! जनहितकारी , हे पार्श्वप्रभो ! मंगलकारी ॥ जग-वैभव कीत्ति न मैं चाहूँ, जिनभक्ति - शक्ति अनुरागी हूँ। भटकू ना लेश कभी पथ से , सत्पथ का नित अनुरागी हूँ । प्रत एव सुशीलसूरीश यहीं , मुनियुत तव चरणों में नित बलिहारी । हे नागेश्वर ! जनहितकारी , हे पार्श्वप्रभो! मंगलकारी ।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) XKAR * जैनधर्म है मेरा * [१] सम्यग् दर्शन - ज्ञान - चरित का विहँसे जहाँ सवेरा, 'जैनधर्म' है मेरा वह 'जैनधर्म' है मेरा वह सत्य अहिंसा दयाधर्म का , नित्य जहाँ पर डेरा , वह 'जनधर्म' है मेरा , वह 'जैनधर्म' - है... मेरा ॥ अतुलनीय है शक्ति अहिंसा , दयाधर्म है। प्रतिभारी , गुणिजन गाते जिसकी गरिमा , नित नूतनता है न्यारी ॥ वन्दन अभिनन्दन मैं करता , बनकर . जिसका चेरा , वह 'जैनधर्म' है मेरा , वह 'जनधर्म' है मेरा ॥ [ ३] पल - पल जपते भक्त सुहाने , वीर जिनेश्वर माला , कष्ट मिठे पल भर में उनका , जिनका 'जिन' रखवाला । दो ऐसा वरदान 'जिनेश्वर' ! मि जनम का फेरा , वह 'जनधर्म' है 'मेरावह 'जैनधर्म' है मेरा ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् मनवांछित ( ५ ) [ ४ ] बने, दुर्लभ भी सब सुलभ भवसागर को तिर जाये 'सुशील' सदा सुखधाम जगत् में 2 सुकृत सुगन्ध बसेरा वह 'जैनधर्म' है वह 'जैनधर्म' हाथ भक्ति नित्य जपे तो फल पाये * जय हो पार्श्वजिनेश्वर तेरी * [१] जय हो पार्श्व जिनेश्वर वन्दन मनभावन मम 卐 नित तेरी नजरों तेरी है । भक्ति, जीवन का आधार है ।। हो. बारम्बार तेरी [ २ ] नूतन वात्सल्य से जोड़कर शीश करू तेरी मेरा मेरा ॥ पार्श्वजिनेश्वर बारम्बार बरसता " अनुपम नवाऊँ हरदम । जिसकी तुम पतवार सम्भालो, उसका बेड़ा पार जय वन्दन • तेरी " 1 " है । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दयासिन्धु श्रधमों तेरी जय वन्दन हे दुःखभंजन मेरा भी उद्धार नाव फँसी भव भँवरजाल हो ( at ) [ ३ ] प्रभुवर जय वन्दन जय हो - उस पार करो । उद्धारक जिनवर ! · वामानन्दन ! करो, जयकार है. तेरी, है ॥ भक्तों पर भक्तों के तुम इस 'सुशील' को चरण अन्तर्घट हों पार्श्वजिनेश्वर बारम्बार [ ४ ] उपकार - तुम्हारा, रखवारे 1 शरण दो उजियारे । तब मानूं श्रद्धायुत वन्दन, है ॥ को स्वीकार पार्श्वजिनेश्वर तेरी, बारम्बार है । 卐 , * मनवा ! अर्हम् श्रर्हम् बोल [ १ ] मानव जीवन है मन ! तू विषयों में मत कभी तू कड़वे वचन न 'अर्हम्-अर्हम्' मनवा अनमोल डोल । बोल 1 बोल ।। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) [२] बचपन खेलों में ही यौवन भी विषयों में देख बुढ़ापा प्रब क्यू 'प्रहम्-अहम्' बोल, बोल न कड़वे 'महम्-अहम्' बोल, खोया , खोया । रोया , मनवा । बोल , मनवा॥ वृद्धावस्था से मत डरना , पाप कमाई तू मत करना । सत्य कमाई 'अहम्-अहम्', जप कर अन्तस्तल को भरना । अपना जीवन खुद ही तोल , मनवा 'अहम्-अहम्' बोल ।। [४] कालबली का चक्र चलेगा , तब हंसा स्वयमेव उड़गा। तेरा वश फिर कुछ न चलेगा , खुल जायेगी पोल । मनवा 'अहम्-अहम्' बोल ॥ Ho श्रद्धा से सतत समर्पित है न .. [१] श्रद्धा से सतत समर्पित है , जिनवर ! चरणों में मम जीवन । महकेगा शीघ्र कृपालव से , मेरे अन्तस्तल का उपवन ।। ॥ श्रद्धा से० ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभुवर के पद अति पावन है। भक्तों को सततः लुभावन हैं। पल-पल, क्षण-क्षण, रिम-झिम... (२), बरसाते प्रानन्द के घने हैं ।। । श्रद्धा से ० ।। तेरी भक्ति है - शक्ति मेरी , सम्बल तेरा माराधन है। तव वाणी . जन-कल्याणी है, प्रभु - नाम मेरा जीवन - धन है । ॥श्रद्धा से० ॥ मेरी इच्छा प्रभु-दर्शन की , दिन-रैन सदा तव चिन्तन की। हूँ धन्य प्राज कृतकृत्य प्रभो ! बलिहारी है प्रभु - दर्शन की। ॥श्रद्धा से० ॥ मेरा जीवन-धन तव चरण-कमल तव दर्शन ज्ञान पढ़कर समझा अर्पित है, अनुरागी मैं । चरित्र सुखद , बड़भागी मैं ।। ॥ श्रद्धा से० ।। [६] मेरा मानस तव रंग राचा , तेरा प्रभु नाम , सदाः सांचा । 'सुशील' निरत जिनगुण-गुजन , जिससे जगमग हो अन्तर मन ।। ॥ श्रद्धा से० ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फक x जीवन यह अनमोल x जीवन बचपन नाज पल-पल विषय-वासना की मन बार-बार ( 58 ) धर्म- मर्म [१] यह अनमोल रे मानव ! जीवन यह अनमोल । भोलेपन में बीता " यौवन है सरसाया प्रदा में जादू छाया , मन प्रसून विकसाया || सत्पथ जीवन [ २ ] जीवन यह अनमोल रे बीता कदम-कदम पर प्राशा नहीं चलेगी यह थिरकन में, पंछी बौराया, जाये साधो ! 1 [ 1 जीवन यह अनमोल । पोल | मानव ! तृष्णा रूप अनूप दिखाती है, यह भव बन्धन के गहरे कूप गिराती है । जाये, सब बिसरा ऐसी तान सुनाती है, अपना ऐसा साधो बजे धर्म का ढोल । अनमोल रे मानव ! जीवन यह अनमोल ।। फफफफ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) [४] दुःखसागर में डोले नैया , धर्म करे भव पार , वीर जिनेश्वर नित्य जपो , तो होता बेड़ा पार । सावधान ! यदि धर्म नहीं तो , ___ डबोगे मझधार , 'अहम् • अहम्' बोल हे साधो ! मनवाणी को तोल । जीवन यह अनमोल....॥ ज १० प्रण पाश्र्व का मन्दिर है ये तु प्रभु पार्श्व का मन्दिर है ये [१] प्रभु पार्श्व का मन्दिर है ये , जिनराज का दर है । मन कह दे सभी त्रुटियां , किस बात का डर है । सम्यक्त्व बिन रहा तू , जिनराज से सुदूर । मिली शरण है पावन फिर , क्यू बना मजबूर । कर . भाव समर्पण के , समर्पण की उमर है । प्रभु पार्श्व का मन्दिर है ये ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nunu कर सुख कर्मजाल, श्राज श्रज्ञात है निश्चिन्त पार्श्व " मिटेगा । नहीं प्रभु को " हर पल की खबर है । प्रभु पार्श्व का मन्दिर है ये | पाप पार्श्व - ( १ ) [ ३ ] के साज प्रभु कर खाली बन्दे ! प्रभु पार्श्व का हे जिनवर ! विनती भव - भव ये [ ४ ] की अपना न हो में गठरी जो, उतार । जा, उद्धार । गया , है । मन्दिर है ये | दुःखभञ्जन, सुनो रम * हे दुःखभञ्जन वामानन्दन 181 [१] तो सवाली वो दर " गुणगान सजेगा । पापपुज मेरी से [ २ ] के भाग्य दीन-दुःखी सन्तों के निशदिन तुम जिनवर ! विनती भव भव वामानन्दन सुनो तुम से मेरी पुकार । प्रभुवर । निस्तार ॥ विधाता " त्राता । पुकार, प्रभुवर । निस्तार || గదగద Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) [ ३ ] भव पीड़ा प्रति गहन जिन ! तुम्हीं सुनो से मेरी से [ ४ ] महिमा है अनन्त दर्शन ज्ञान चारित्र जिनवर सुनो विनती तुम से मेरी भव भव से [ ५ ] उद्धारक जिनवर विनती भव भव - - तुम भव - · भवनद जल पार करो प्रभु जिनवर ! विनती तुम से में डूबे पार्श्व ! भव सुनो से [ ६ ] 'सुशील' जपे नित नाम पार्श्व बिना अब कौन जिनवर सुनो विनती तुम से मेरी भव भव मेरी मम श्रापदा " सर्वदा । पुकार, प्रभुवर । निस्तार ॥ तुम्हारी ,, सुधारी । पुकार, प्रभुवर । निस्तार ।। नैया , खिवैया | पुकार " प्रभुवर । निस्तार ॥ तुम्हारा, सहारा । पुकार, प्रभुवर । निस्तार ॥ [ ७ ] चरण - शरण में लेना जिनवर करना जिनवर सुनो विनती तुम से मेरी भव भव उद्धार । पुकार, प्रभुवर | निस्तार ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) - मेरी जीवन नैया टूटी , मेरी जीवन नैया टूटी , जिनवर ! पार लगा देना । प्रज्ञानतिमिर में फंसा हुआ मैं , निशदिन टक्कर खाता हूँ। ज्ञानामृत की कुछ बूंदें तो , मुझ पर भी बरसा देना । मेरी जीवन नैया टूटी० ॥ कर्म - पीन मतिहीन दीन मैं , शरण तुम्हारी पाया हूँ । भव - विषयों में भटका - अटका , बहुत ठोकरें खाया हूँ । सादर विनती तव चरणों में , पाशावन्ध मिटा देना । ज्ञानामृत की कुछ बूंदें तो , मुझ पर भी बरसा देना । मेरी जीवन नैया टूटी० ॥ अशरण शरण तुम्हीं हो दाता , शरण तुम्हारी आया हूँ । चरण - तरण भवसिन्धु बिन्दुसम. मुझको पार लगा देना । अटका भटका बहुविध जग में , कर्म शूल हैं बिंधे हुए । जिनवर ! एक सहारा तेरा , मुक्ति सुपथ दरसा देना । मेरी जीवन नैया टूटी० ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xxx * जपनी है तेरी माला x ( जपनी है तेरी माला, मिट जाये मेरी हस्ती, मन में बसा ली मिट भी जाऊँगा मिटने के बाद ( १४ ) सर्वे ( २ श्रद्धा से आया दर पे तू जाने या न जाने, पूरी करूंगा अब तो, निज तू सर्वे १ ) पीना है भक्ति प्याला । चाहूँ तेरे भजन में ॥ जपनी है तेरी माला ० भवन्तु सर्वे ) निज भावना लुटाने । माने या न माने । भावना भजन में ॥ जपनी है तेरी माला० ( ३ ) मूरत, गर मैं, दीदार कम न तो रंजोगम न होगी, चर्चा फ्र होगा । होगा । तेरे भजन में ॥ जपनी है तेरी माला० सुखिन: ppo निरामयाः । सन्तु भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥ 15 जैनं जयति शासनम् Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) A श्रीजिनेश-स्तुतिः ॥ * रचयिता * शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषण परमपूज्य प्राचार्यदेव श्रीमद् विजयसुशीलसूरिः [१] अखिलेश ! गणोश ! जिनेश विभो !, परमेश परात्पर शुद्धमते । विनतं पतितं बहुकर्मगतं, जनतारण ! तारय भक्तममुम् ।। [२] बलहीनमहो मतिहीनमहो, गुणहीनमहो गतिहीनमहो । तमसावृत-बोधनिधानमहो, जनतारण ! तारय भक्तममुम् ।। [३] मम जीवनमीन-निभं सततं, विकलं सकलं भवसागरके । करुणाकर ! तारय तारय मां, जनतारण ! तारय भक्तममुम् ।। [ ४ ] करुणावरुणालय ! कर्मतती, पतितं परिपालय पालय भो। हत बुद्धिबलं बहुतापितकं, जनतारण ! तारय भक्तममुम् ।। [५] दुरितोषभरैः परिपूर्णजनः, वितनोति यदा तव पादनतिम् । परिशुद्धमुपैति कथा.- प्रथिता, जनतारण ! तारय भक्तममुम् ।। __ [६] जनप्रिय-जिनेशस्य, पञ्चकं भक्तिसंयुतम् । प्रोक्त सूरि-सुशीलेन, कर्मणां मलशुद्धये ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राचीनश्रीपार्श्वनाथस्य मन्त्राधिराजस्तोत्रम् ॥ अर्थकर्ता-श्रोजैनधर्मदिवाकर - राजस्थानदोपक-शास्त्रविशारद - परमपूज्य-प्राचार्यप्रवर श्रीमद् विजय सुशोलसूरीश्वरजी महाराज श्रीपार्श्वः पातु वो नित्यं, जिनः परमशंकरः । नाथः परमशक्तिश्च, शरण्यः सर्वकामदः ॥ १ ॥ अर्थ-श्रीपार्श्वनाथ प्रभु हम सब की हमेशा रक्षा करें, वे जिन हैं, सर्वोत्कृष्ट कल्याण करने वाले हैं, नाथ हैं, परमशक्ति हैं, शरणदाता हैं और सर्व कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं ॥ १ ॥ सर्वविघ्नहरः स्वामी, सर्वसिद्धिप्रदायकः । सर्वसत्त्वहितो योगी, श्रीकरः परमार्थवः ॥ २ ॥ अर्थ-हे स्वामिन् ! आप समस्त विघ्नों को हरने वाले हैं, सर्वसिद्धिप्रदायक हैं, सब प्राणियों का हित करने वाले हैं, योगी हैं, लक्ष्मी प्रदान करने वाले हैं और परमार्थप्रदाता हैं ॥ २ ॥ देवदेवः स्वयंसिद्ध - श्चिदानन्दमयः शिवः । परमात्मा परब्रह्म, परमः परमेश्वरः ॥ ३ ॥ अर्थ-पाप देवों के देव हैं, स्वयंसिद्ध, चिदानन्दमय, शिव, परमात्मा, परब्रह्म, और परम (उत्कृष्ट) परमेश्वर हैं ।। ३ ।। जगन्नाथः सुरज्येष्ठो, भूतेशः पुरुषोत्तमः । सुरेन्द्रो नित्यधर्मश्च, श्रीनिवासः शुभार्गवः ॥ ४ ॥ अर्थ-पाप विश्व के नाथ, सुरज्येष्ठ, भूतेश, पुरुषोत्तम, सुरेन्द्र, नित्यधर्म, श्रीनिवास तथा शुभार्णव हैं ।। ४ ।। सर्वज्ञः सर्वदेवेशः, सर्ववः सर्वगोत्तमः । सर्वात्मा सर्वदर्शी च, सर्वव्यापी जगद्गुरुः ॥ ५ ॥ अर्थ-पाप सर्वज्ञ हैं, समस्त देवों के स्वामी हैं, सब कुछ देने वाले हैं, सब कुछ जानने में उत्तम हैं, सर्वात्मा हैं, सर्वव्यापी हैं, सर्वदर्शी हैं और जगद्गुरु हैं ॥ ५ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) तत्त्वमूत्तिः परादित्यः परब्रह्मप्रकाशकः। परमेन्दुः परप्रारणः, परमामृत - सिद्धिदः ॥ ६ ॥ अर्थ-(प्राप) तत्त्वमूर्ति, परादित्य, परब्रह्मप्रकाशक, परमेन्दु, परप्राण तथा परमामृतसिद्धि देने वाले हैं ।। ६ ॥ प्रजः सनातनः शम्भुरीश्वरश्च सदाशिवः । विश्वेश्वरः प्रमोदात्मा, क्षेत्राधीशः शुभप्रदः ॥ ७ ॥ अर्थ-(प्राप) प्रज, सनातन, शम्भु, ईश्वर, सदाशिव, विश्वेश्वर, प्रमोदात्मा, क्षेत्राधीश तथा शुभप्रद हैं ।। ७ ॥ साकारश्च निराकारः, सफलो निष्कलोऽव्ययः। निर्ममो निर्विकारश्च, निर्विकल्पो निरामयः ॥ ८ ॥ अर्थ-(आप) साकार, निर्विकार, सफल, निष्कल, प्रव्यय, निर्मम, निर्विकार, निर्विकल्प तथा निरामय हैं ॥ ८ ॥ अमरश्चाजरोऽनन्तः, एकोश्च शिवात्मकः। अलक्ष्यश्चाप्रमेयश्च, ध्यानलक्ष्यो निरंजनः ॥ ६ ॥ अर्थ-अमर, अजर, अनन्त, एक, शिवात्मक, मलक्ष्य, अप्रमेय, ध्यानलक्ष्य तथा निरंजन हैं ।। ६ ॥ ॐ - काराकृतिरव्यक्तो, व्यक्त - रूपस्त्रयीमयः । ब्रह्मद्वयप्रकाशात्मा, निर्मयः परमाक्षरः ॥१०॥ अर्थ-ॐकाराकृति, अव्यक्त, व्यक्तरूप, त्रयीमय (उत्पाद व्यय ध्रौव्यमय) ब्रह्मद्वयप्रकाशात्मन्, निर्मय तथा परमाक्षर (ये सब प्रभु के नाम) हैं ।। १० ।। दिव्यतेजोमयः शान्तः, परामृतमयोऽच्युतः। प्राद्योऽनाद्यः परेशानः, परमेष्ठी परः पुमान् ॥ ११ ॥ प्रर्थ-(आप) दिव्यतेजोमय, शान्त, परामृतमय, अच्युत, प्राद्य, अनाद्य, परेशान, परमेष्ठी तथा परम पुमान् हैं ।। ११ ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) शुद्धस्फटिकसंकाशः, स्वयंभूः परमाच्युतः । व्योमाकार - स्वरूपश्च, लोकालोकावभासकः ॥ १२ ॥ अर्थ-(पाप) शुद्धस्फटिक संकाश, स्वयम्भू, परमाच्युत, व्योमाकार स्वरूप तथा लोक-प्रलोक के प्रकाशक हैं ।। १२ ॥ ज्ञानात्मा परमानन्दः, प्राणारूढो मनःस्थितिः। मनः साध्यो मनोध्येयो, मनोदृश्य परापरः ॥ १३ ॥ अर्थ-(पाप) ज्ञानात्मा, परमानन्द, प्राणारूढ़, मनःस्थिति, मनःसाध्य, मनोध्येय, मनोदृश्य और परापर हैं ।। १३ ॥ सर्वतीर्थमयो नित्यः, सर्वदेवमयः प्रभुः। भगवान् सर्वतत्त्वेशः, शिवश्री - सौख्यदायकः ॥ १४ ॥ अर्थ-(आप) सर्वतीर्थमय, नित्य, सर्वदेवमय, प्रभु, भगवान्, सर्वतत्त्वेश और शिवश्री-सौख्यदायक हैं ।। १४ ।। इति श्रीपार्श्वनाथस्य, सर्वज्ञस्य जगद्गुरोः। दिव्यमष्टोतरं नाम, शतमन्त्र - प्रकीर्तितम् ॥ १५ ॥ अर्थ-जगद्गुरु सर्वज्ञ श्रीपार्श्वनाथ भगवान के ये दिव्य १०८ एक सौ पाठ मन्त्र रूप नाम (ऊपर) कहे हैं ।। १५ ।। पवित्रं परमं ध्येयं, परमानन्ददायकम् । भुक्ति-मुक्तिप्रदं नित्यं, पठने मङ्गल - प्रदम् ॥ १६ ॥ अर्थ-भगवान के ये नाम पवित्र हैं, परम ध्येय हैं, परम प्रानन्द को देने वाले हैं, भोग और मोक्ष को देने वाले हैं, इनका नित्य पाठ मंगलप्रद है ।। १६ ।। श्रीमत् परमकल्याण - सिद्धिदः श्रेयसेऽस्तु वः। पार्श्वनाथजिनः श्रीमान्, भगवान् परमशिवः ॥ १७ ॥ अर्थ-परम शिव, भगवान, परम कल्याण और सिद्धिप्रदाता श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वर हम सबके कल्याण के लिए हों ।। १७ ।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) धरणेन्द्रफणच्छत्रालङ्कृतो वः श्रिये प्रभुः । दद्यात् पद्मावती देव्या, समधिष्ठितशासनः ॥ १८ ॥ अर्थ-धरणेन्द्र के फणस्वरूप छत्र से सुशोभित प्रभु हमारे कल्याण के लिए हों ओर हमें पद्मावतो देवो का सम्यक् प्रकार से शोभित शासन प्रदान करें ।। १८ ।। ध्यायेत् कमलमध्यस्थं, श्रीपार्श्वजगदीश्वरम् । ॐ ह्रीं श्रीं ह्रः समा युक्त, केवलज्ञानभास्करम् ॥ १६ ॥ अर्थ-जगत के स्वामी श्रीपार्श्वनाथ प्रभु का कमल के मध्य ध्यान धरें। वे केवलज्ञान सूर्य ॐ ह्रीं श्रीं ह्रः इस मन्त्र से सम्यक् प्रकार से युक्त हैं ।। १६ ।। पद्मावत्यान्वितं वामे, धरणेन्द्रण दक्षिणे। परितोऽष्टदलस्थेन, मन्त्रराजेन संयुतम् ॥ २० ॥ अर्थ-प्रभु के बायें पद्मावतीदेवी, दाहिने धरणेन्द्र, चारों तरफ मन्त्रराज से युक्त प्रष्ट दल कमल है ।। २० ।। अष्टपत्रस्थितः पञ्च, नमस्कारैस्तथा त्रिभिः । ज्ञानाद्ये - र्वेष्टितं नाथं, धर्मार्थ - काममोक्षदम् ॥ २१॥ अर्थ-पाठ पाँखड़ियों पर अंकित किये हुए पाँच नमस्कारों से तथा तीन ज्ञानादि से वेष्टित किये हुए प्रभु धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्रदान करें ॥ २१ ।। शत - षोडश - दलारूढं, विद्यादेवी - भिरन्वितम् । चतुर्विशतिपत्रस्थं, जिनं मातृ - समावृतम् ॥ २२ ॥ अर्थ-११६ एक सौ सोलह कमल-पत्रों पर आरूढ़ विद्यादेवियों से युक्त, २४ चौबीस पांखड़ो वाले कमल पर मालामों से सुशोभित श्रीजिनेश्वरदेव हैं ।। २२ ॥ माय विष्टयत्रयाग्रस्थं, क्रौंकारसहितं प्रभुम् । नवग्रहावृत्तं देवं, दिक्पाल - दशभि - वृतम् ॥ २३ ॥ अर्थ-क्रौंकार सहित प्रभु माया से तीन वार आवेष्टित हैं और नवग्रह दशदिक्पाल से प्रावृत (घिरे हुए) हैं ।। २३ ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) चतुष्कोणेषु मन्त्राध, चतुर्विजान्वित - जिनः । चतुरष्टदशद्वीति, द्विआंकसंज्ञकै . युतम् ॥ २४ ॥ अर्थ-चारों कोनों पर प्रादिमन्त्र, चारों बीज से युक्त, श्रीजिनेश्वर देव चौरासी द्विर्धाक से समलंकृत हैं ।। २४ ॥ दिक्षु क्षकारयुक्त न, विदिक्ष लांकितेन च। चतुरस्त्रेण वज्रांक, क्षिति - तत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ २५ ॥ अर्थ-दिशामों में क्षकार से युक्त, विदिशाओं में मेल से, चारों तरफ अस्त्र से वज्र के समान अंकित पृथ्वी तत्त्व पर प्रतिष्ठित हुए ॥ २५ ॥ श्रीपार्श्वनाथ - मित्येवं, यः समाराधये - जिनम् । तं सर्वपापं निर्मुक्त, भजते श्रीशुभप्रदा ।। २६ ॥ अर्थ-जो कोई श्रीपार्श्वनाथ जिनेश्वर की सम्यक् प्रकार पाराधना करता है, वह सब पापों से निर्मुक्त होकर शुभ प्राप्त करता है ।। २६ ।। जिनेशः पूजितो भक्त्या, संस्तुतः प्रस्तुतोऽथवा । ध्यातस्त्वं यः क्षणं वापि, सिद्धिस्तेषां महोदया ॥ २७ ॥ अर्थ-जो कोई श्रीजिनेश्वरदेव की भक्ति से पूजा करता है, स्तुति-प्रस्तुति करता है या उनका एक क्षण भी ध्यान करता है, वह महान् उदय वाली सिद्धि को पाता है ॥ २७ ॥ श्रीपार्श्वमन्त्र राजन्ते, चिन्तामणि गुणास्पदम् । शान्ति-पुष्टिकरं नित्यं, क्षुद्रोपद्रव - नाशनम् ॥ २८ ॥ अर्थ-श्रीपार्श्वनाथ मन्त्रराज चिन्तामणि के समान गुणों का घर है, क्षुद्र उपद्रवों का नाशक है और नित्य शान्तिपुष्टिकारक है ।। २८ ।। ऋद्धि - सिद्धि - महाबुद्धि - श्री-कान्ति - धति-कोत्तिदम । मृत्युजयं शिवात्मानं, जपनान्नन्दितो जनः ॥ २६ ॥ अर्थ-ऋद्धि, सिद्धि, महती बुद्धि, श्री, कान्ति, धैर्य, कीत्ति को देने वाले मृत्युजय, शिवात्मा के जाप से मनुष्य प्रानन्दित होता है ।। २६ ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्, सर्वकल्याणपूर्णः श्रणिमादि - महासिद्धि, ( १०१ ) जरा मृत्यु - विवर्जितः । लक्षजापेन चाप्नुयात् ॥ ३० ॥ - श्रर्थ-इसके एक लाख जाप से जपकर्त्ता जरा मृत्यु से रहित होता है, सब कल्याणों से परिपूर्ण होता है तथा प्रणिमादि जो महा प्रष्ट सिद्धियाँ हैं, उनको प्राप्त करता है ।। ३० ।। प्रारणायाममनोमन्त्र योगादमृत मात्मनिः । त्वामात्मानं शिवं ध्यात्वा, स्वामिन् सिद्धयन्ति जन्तवः ।। ३१ ॥ अर्थ - हे स्वामिन्! मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करते हैं, कब ? जब वे शिवस्वरूप आपका ध्यान करें, मन्त्र द्वारा प्राणायाम करें और योग द्वारा अपनी प्रात्मा में मन्त्ररूप अमृत को प्राप्त करें ।। ३१ ।। रिपुघ्नः सर्वसौख्यदः । संस्मृतो जिनः ॥ ३२ ॥ हर्षदः कामदश्चेति, पातु वः परमानन्द - लक्षणः अर्थ - परमानन्द लक्षण से संस्मृत जिनेश्वरदेव हम सब की रक्षा करें, हमें हर्ष प्रदान करें, हमारी इच्छा की पूर्ति करें, शत्रु का नाशकर समस्त सुखों को देने की कृपा करें ।। ३२ ।। तत्त्वरूप - मिदं स्तोत्रं, सर्वमंगलसिद्धिदम् । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं नित्यं प्राप्नोति सः श्रियम् ॥ ३३ ॥ अर्थ- जो प्रतिदिन त्रिकाल तत्त्वरूप इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह मनुष्य समस्त मंगल सिद्धि तथा श्री को प्राप्त करता है ।। ३३ ।। ।। इति श्रीपार्श्वनाथस्य मन्त्राधिराजजिनस्तोत्रं समाप्तम् ॥ [ श्रीवीर संवत् २५२५, विक्रम सं. २०५५ वैशाख सुद - ३ ( प्रक्षयतृतीया दिन ) शनिवार । श्रोनाकोड़ाजी तीर्थ - राजस्थान ] शुभं भवतु श्रीसंघस्य 5 卐 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 मूल श्लोक प्राचीन स्तोत्र * मृत्यु- महोत्सवः * (हिन्दी अर्थ सहित) मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे । समाधिबोध (घी) पाथेयं यावत् मुक्तिपुरे पुरः ॥ १ ॥ " अर्थ - मृत्यु के मार्ग में चलते हुए, जब तक मैं मुक्तिपुरी में नहीं पहुँचूँ तब तक, हे वीतरागदेव ! मुझे समाधि और बोधि रूप पाथेय ( भोज्य सामग्री - भाता ) प्रदान करो ।। १ ।। 5 मूलश्लोक कृमिजालसमाकीर्णे, भज्यमाने न भेतव्यं, देहञ्जरे । ज्ञानविग्रहः ॥ २ ॥ जर्जरे यतस्त्वं अर्थ - कीटाणुग्नों कृमियों से युक्त इस जीर्ण शरीर - पिंजर को निरन्तर क्षीण होते हुए देखकर तुम मत डरो क्योंकि तुम ज्ञानस्वरूप हो, श्रात्मस्वरूप हो ।। २ ।। 5 मूलश्लोक ज्ञानिन् ! भयं भवेत् कस्मात् प्राप्ते मृत्युमहोत्सवे । स्वरूपस्थो पुरं याति देही देहान्तरस्थितिः ॥ ३ ॥ अर्थ - हे ज्ञानी आत्मन् ! मृत्यु महोत्सव प्राप्त होने पर तुम किससे डर रहे हो, क्योंकि शरीर-परिवर्तन के समय भी प्रात्मस्वरूप तो अखण्ड ही रहता है ।। ३ ।। क मूलश्लोक सुदत्तं प्राप्यते यस्मात्, दृश्यते पूर्वसत्तमैः । भुज्यते स्वर्भवं सौख्यं मृत्युभीतिस्त्यजेच्छनैः ॥ ४ ॥ अर्थ - 'सुदत्त' यानी यथाविधि प्रसन्नतापूर्वक दान देने से कई गुणा अधिक प्राप्त होता है । पूर्व महापुरुषों के दृष्टान्त से ऐसा दिखाई देता है कि उन्होंने प्रसन्नता से विधिपूर्वक मानवदेह का त्याग किया तो अजरामर परमपद को प्राप्त Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) किया। कई ने दैविक देह तथा अन्य सुखों को प्राप्त किया। इस तरह प्रसन्न मन से विधिवत् देह-शरीर को त्यागने पर स्वर्गापवर्ग के सुख स्वाधीन होते हैं। प्रतः मृत्यु भय को छोड़ देना चाहिए ॥ ४ ।। ॐ मूलश्लोक प्रागर्भाद् दुःख - संतप्तः, प्रक्षिप्तो देह - पञ्जरे । नात्मा विमुच्यतेऽन्येन, मृत्युभूमिपति विना ॥ ५॥ अर्थ-गर्भावास से ही दुःख-पीड़ित शरीररूपी पिंजड़े में डाले हुए इस जीव को मृत्यु के स्वामी यमराज के बिना कौन छुड़ा सकता है ? ॥ ५ ॥ ॐ मूलश्लोक सर्वदुःखप्रदं पिण्डं, दूरीकृत्यात्मदर्शिभिः । मृत्युमित्रप्रसादेन, प्राप्यन्ते सुखसंपदः ॥ ६ ॥ अर्थ-प्रात्मज्ञानी-प्रात्मदर्शी सभी प्रकार के दुःखों को देने वाले इस देह-शरीर को मृत्युरूपी मित्र के सहयोग से छोड़कर सुख-सम्पदामों को प्राप्त करते हैं । अर्थात् समस्त दुःखों का मूल यह देहपिण्ड है और जब देह-शरीर का संयोग सर्वथा दूर हो जाता है तब प्रात्मा अनन्त प्रानन्द को प्राप्त करती है ।। ६ ।। 卐 मूलश्लोक मृत्युकल्पद्रुमे प्राप्ते, येनाऽऽत्मार्थो न साधितः । निमग्नो जन्मजं, बाले, स पश्चात् किं करिष्यति ॥ ७ ॥ अर्थ-सुख प्राप्त कराने में कल्पवृक्ष के समान (ऐसी) मृत्यु प्राप्त होने पर भी जिसने प्रात्महित नहीं साधा अर्थात् जिसने अपनी प्रात्मा के लिए कुछ नहीं किया, वह जन्म-जरा-मृत्यु के कीचड़ में डूबा हुप्रा पीछे क्या करेगा ? ।। ७ ॥ ॐ मूलश्लोक जीर्णदेहादिकं सर्व, नूतनं जायते यतः। स मृत्युः किं न मोदाय, सतां सातोत्थितियथा ॥८॥ अर्थ-जिस मृत्यु की मदद से जीर्ण देह-शरीर, इन्द्रियाँ, बुद्धि तथा बल-शक्ति प्रादि सभी नवीन प्राप्त होते हैं, वह मृत्यु भी सत्पुरुषों के लिए प्रानन्ददायिनी क्यों नहीं होगी ! ।। ८ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलश्लोक ( १०४ ) सुखं दुखं सदा वेत्ति, देहस्थः स मृत्युभीतिस्तदा कस्य, जायते स्वयं व्रजेत् । परमार्थतः ॥ ६ ॥ * श्रर्थ-जब तक श्रात्मा जीव देह शरीर में स्थित है, तब तक सदा सुख-दुःखों का अनुभव करता है । किन्तु यदि वह स्वयं ही चला जाय तो फिर देह शरीरादि का वियोग कराने वाली मृत्यु का भय वास्तव में किसको होगा ? ।। ६ ।। 5 मूलश्लोक संसारासक्तचित्तानां, मृत्योर्भीति भवेन्नृणाम् । मोवायते पुनः सोहि, ज्ञानवैराग्यवासिनाम् [ शालिनाम् ] ॥ १० ॥ * अर्थ-संसार में प्रासक्ति वाले मनुष्यों को मृत्यु-मरण का भय होता है । किन्तु जो ज्ञानगर्भित वैराग्यवान है उनके लिए वास्तव में वह मृत्यु प्रमोद - श्रानन्द का कारण होती है ।। १० ।। मूलश्लोक पुराधीशो यदा याति, सुकृतस्य बुभुत्सया । तदाऽसौ वार्यते केन, प्रपञ्चैः पञ्चभौतिकैः ।। ११ ।। * अर्थ - देह का अधिपति श्रात्म-राजा जब अपने पुण्य को भोगने की चाहना से अन्य विराट राज्य की ओर प्रस्थान करता है, तब पंचभूतों के विविध प्रपंच उसे कैसे रोक सकते हैं ! अर्थात् बाह्य कृत्रिम सुख प्रात्मा को प्राकर्षित नहीं कर सकते ।। ११ ।। फ मूलश्लोक मृत्युकाले सतां दुःखं, प्रभवेत् व्याधिसंभवम् । देहमोहविनाशाय, मन्ये शिवसुखाय च ॥ १२ ॥ * अर्थ - सत्पुरुषों को मृत्यु- समय की व्याधियाँ (रोग) शरीर के प्रति आत्मा के ममत्व का विनाश करने में औौर शिवसुख को पाने में सहायक बनती हैं, ऐसी मेरी मान्यता है ।। १२ ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मूलश्लोक ज्ञानिनोऽमृततुल्याय, मृत्युस्तापकरोऽपि सन् । प्रामकुंभस्य लोकेऽस्मिन्, भवेत् पाकविधिर्यथा ॥ १३ ॥ * अर्थ-अज्ञानी प्रात्मा को मृत्यु सन्ताप और दुःख देने वाली लगती है, किन्तु सम्यग्ज्ञानवन्त जीव को यही मृत्यु अमृततुल्य मोक्षपद के लिए हितकर लगती है । जैसे-कच्ची मिट्टी का घड़ा अग्नि में पकाने के बाद अमृततुल्य जल धारण के योग्य बनता है, उसी तरह मृत्यु के समय के रोगादि ताप समभाव से सहने से प्रात्मा मोक्षपद के योग्य बनती है ।। १३ ।। ॐ मूलश्लोक यत् फलं प्राप्यते सद्भिः, व्रतायासविडम्बनात् । ___ तत् फलं सुखसाध्यं स्यात्, मृत्युकाले समाधिना ॥ १४ ॥ अर्थ-व्रतपालन के कष्ट से जो फल सत्पुरुषों को प्राप्त होता है, वही फल मृत्यु के समय समाधि रखने से सहज भाव से प्राप्त किया जा सकता है ॥ १४ ।। + मूलश्लोक अनार्तः शान्तिमान मर्यो, न तिर्यङ्नाऽपि नारकः । धर्मध्यानी सदा मुक्तो, भवेन् नित्यं महेश्वरः ॥१५॥ अर्थ-मृत्यु-मरण के समय जो व्यक्ति प्रार्तध्यान से मुक्त रहता है तथा उपशम भाव में रमण करता है, वह व्यक्ति तियंचगति में या नरकगति में नहीं जाता। इसके विपरीत मृत्यु के समय धर्मध्यान करती हुई मुक्तात्मा महेश्वर-परमेश्वर पद को प्राप्त करती है ॥ १५ ॥ ॐ मूलश्लोक तप्तस्य तपश्चाऽपि, पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्याऽपि, फलं मृत्युः समाधिना ॥ १६ ॥ अर्थ-तप के संताप का, व्रत के पालन का तथा श्रुत के पठन का जो कोई फल है तो वह 'समाधिमरण' ही है। अर्थात्-जीवन पर्यन्त उग्र तप करने वाले, निर्मलतया व्रतों का पालन करने वाले और श्रुतज्ञान के अभ्यासी की भी उत्तम माराधना का यदि कोई फल हो तो वह 'समाधिमरण' ही जानना ॥ १६ ।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 मूलश्लोक ( १०६ ) प्रतिपरिचितेष्ववज्ञा, नवे भवेत् प्रीतिरिति हि जनवादः । चिरतरशरीरनाशे, नवतरलाभे च कि भीरुः ।। १७ ।। अर्थ - लोक - विश्व में तो यह माना गया है कि प्रतिपरिचय अवज्ञा का कारण है और नये में प्रीति होती है तो तुझे प्रतिप्राचीन प्रतिपरिचित ऐसी पुद्गल देह का वियोग कराने वाली तथा नव-नवीन रूप प्राप्त कराने वाली ऐसी मृत्यु का भय क्यों हो ? प्रर्थात् - यह जीर्णदेह अवज्ञा की पात्र है, इसके विसर्जन का समय एवं नूतन देह - शरीर की प्राप्ति का काल आनन्द का अवसर है, भय का नहीं ।। १७ ।। 5 मूलश्लोक स्वर्गादेत्य पवित्रनिर्मल - कुले, दत्वा भक्तिविधायिनां बहुविधं भोक्त्वा भोगमहर्निशं परकृतं स्थित्वा क्षरणं पात्रं वेशविसर्जनामिव मृति, सन्तो लभन्ते स्वतः ॥ १८ ॥ संस्मर्यमाणा वाञ्छानुरूपं जनैः । धनम् ॥ मण्डले । अर्थ- सत्पुरुष स्वर्ग से पवित्र निर्मल कुल में आते हैं और लाखों लोग उनका स्मरण करते हैं । वे सेवकजनों को बहुविध इच्छित वस्तु तथा धन देते हैं । अहर्निश भोगों का उपभोग करते हैं । इस तरह भूमण्डल पर जो अल्प समय रहकर नट की तरह वेश विसर्जन करता है, वह स्वयं देह शरीर का विसर्जन कर परम शान्ति प्राप्त करता है । सारांश-जिस तरह नाटक का प्रारम्भ होता है, बाद में नाटक पूर्ण होने पर नाटक करने वाला वेश परिवर्तन कर अपना पूर्व वेष धारण करता है, उसी तरह यह महान् श्रात्मा मनुष्यादि चार गतियों का नृत्य पूर्ण होने पर मनुष्य-जन्म के वेश का परित्याग कर ( मूलस्वरूप अरूपी भाव को प्राप्त करने हेतु ) स्वयं मृत्यु- मरण को महामहोत्सव रूप स्वीकृत करता है ।। १८ ।। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं श्रीं नम: * मृत्युञ्जय - महोत्सवः * रचयिता श्रीजैनधर्मदिवाकर-प्रतिष्ठा शिरोमणि - शास्त्रविशारद - कविभूषणपरमपूज्याचार्यदेवश्रीमद्विजयसुशील सूरिः । - [ पापप्रतिघातकाः मूलश्लोकाः ] जिनोत्तमं जिनेन्द्रं वे, रत्नत्रय विभूषितम् । वन्देऽहं सच्चिदानन्दं, सम्यग् बोधोपलब्धये ॥ १ ॥ * अर्थ - सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति हेतु सच्चिदानन्द स्वरूप, दर्शन - ज्ञान - चारित्र की रत्नत्रयी से विभूषित, जिनोत्तम जिनेन्द्र की वन्दना करता हूँ ।। १ ॥ बन्धनैर्जातं जन्मसंसारसागरे । कर्मणां रिगत्तरंग - दुःखाख्यैः, दुःखितोऽहं मुहुर्मुहुः ॥ २॥ मैं * अर्थ - कर्मों के बन्धन से मेरा जन्म तरंगित दुःख- समुद्र में हुआ है । उसमें बार-बार दुःखित होता हूँ ।। २ ।। संसारे यच्च तद् दुःखं, कर्म तस्य च कारणम् 1 प्रोक्ता निवारणार्थं वै, रत्नानां च त्रयी जिनैः ॥ ३ ॥ * अर्थ-संसार में जो दुःख है, उसका कारण कर्म हैं । उसके निवारण हेतु जिनेश्वर भगवन्तों ने दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नों की प्राराधना करने हेतु कहा है ।। ३ ।। सद्दर्शनं च सुज्ञानम्, पवित्रं चरितं परम् । कर्ममोक्षाय संदिष्टा, त्वजिह्मा राजपद्धतिः ॥ ४ ॥ * अर्थ - जिनेश्वरदेव ने कर्मों से मुक्ति दिलाने हेतु सम्यक्दर्शन, ज्ञान एवं परम पवित्र चारित्र का उपदेश दिया है, जो निश्चय ही राजमार्ग है || ४ || Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) भोगायतने देहे वं, जीवो दुःखर्तात श्रितः । संत्रस्तो बहुधा घातैः, प्राप्तो मृत्युमहार्णवः ॥ ५ ॥ * श्रर्थ-भोगोपभोग से युक्त इस शरीर के श्राश्रित जीव दुःखों को प्राप्त करता रहता है । फिर अनेक घात-प्रतिघातों से श्राहत मृत्युरूप महासमुद्र में विलीन हो जाता है ॥ ५ ॥ श्रतीते बहुधा जाता, मृत्युर्मे च पुनः पुनः । किन्त्वद्यापि नो जातो, मृत्युञ्जय-महोत्सवः ॥ ६ ॥ * अर्थ - पुरातन काल से ही मेरी मृत्यु अनेक बार हुई है । मेरा मृत्युञ्जय महोत्सव नहीं हुआ है ।। ६ ॥ जीवनस्य प्रतिच्छाया, मृत्युरस्ति न संशयः । मरणं मे मंगलं भूयात्, भक्त्या दानमहोत्सवः ॥ ७ ॥ किन्तु आज तक अर्थ - जीवन की प्रतिच्छाया मृत्यु है । इसमें कोई संशय नहीं है । लेकिन मेरी भावना है कि भक्ति एवं दान महोत्सव से मण्डित मेरी मृत्यु मंगलमय हो ॥ ७ ॥ जैनदर्शन - सिद्धान्तः, प्रथितोऽस्ति महीतले । निगोदस्तु बुधैः प्रोक्तः, गर्भावस्थानमात्मनः ॥ ८ ॥ अर्थ- गर्भावस्था में श्रात्मा की निगोद अवस्था ज्ञानियों जैन सिद्धान्त पृथ्वीमण्डल में प्रसिद्ध है ॥ ८ ॥ कही है । * श्रर्थ - श्रव्यवहार संकुल निगोद अनादि कहा गया है । पर निगोद भी नष्ट होता है । इसलिए धीर पुरुष कभी है ।। १० ।। गर्भावस्था यथा लोके, बाल्य-यौवन- वार्धकम् । तथैव जैन - सिद्धान्ते, निगोदो गर्भकोदितः ॥ & ॥ * अर्थ-संसार में गर्भावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था और बुढ़ापा वर्णित है, वैसे ही जैनदर्शन में निगोद की गर्भ उत्पत्ति बतायी है ।। ६ ।। अव्यवहार राशिस्तु, निगोदोऽनादि - रुच्यते । निगोदकर्मणां नाशे, धीरो नैव प्रमाद्यति ।। १० ।। यह कर्मों के नष्ट होने प्रमाद नहीं करता Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) असारेऽस्मिन् च संसारे, दुःखदावाग्निसंकुले । मरणं निश्चितं किन्तु, तरणं स्यात् प्रयत्नतः ॥ ११ ॥ अर्थ-दुःख-दावाग्नि से युक्त इस प्रसार संसार में मृत्यु तो निश्चित है किन्तु उससे मुक्ति प्रयत्न से ही सम्भव है ।। ११ ॥ जैन-सिद्धान्त-शास्त्रेषु, मरणं पञ्चविधं मतम् ।। प्रथमं वीतरागानां, मरणं मंगलं मतम् ॥ १२ ॥ * अर्थ-जैनशास्त्रों में मृत्यु पाँच प्रकार की कही गई है। उनमें सर्वप्रथम वीतराग मरण परम मंगल माना गया है ॥ १२ ॥ विरक्तानां च देशाद्वा, सर्वस्माद् वा च छद्मनाम् । द्वितीयं मरणं प्रोक्त, पण्डिताख्यं च धीधनैः ॥ १३ ॥ * अर्थ-विरक्त छद्मस्थों एवं सर्वविरतिजनों के मरण को विद्वानों ने द्वितीय पण्डितमरण कहा है ॥ १३ ॥ सुदेव - गुरु - धर्मेषु, दत्त - चित्तोप - योगिनाम् । मरण - मवितानां वै, तृतीयं बाल - पण्डितम् ॥ १४ ॥ * अर्थ-सुदेव, सुगुरु, धर्मलग्न चिन्तना के योगियों तथा अपरिग्रही लोगों का मरण तीसरा बालपण्डित मरण कहा गया है ।। १४ ।। चतुर्थ मरणं लोके, किञ्चिद् धर्मार्थसेविनाम् ।। मिथ्यादशिनां प्रोक्तं, बालाख्यं मरणं पुनः ॥ १५ ॥ * अर्थ-संसार में किञ्चित् धर्मसेवा करने वाले एवं मिथ्यादष्टि लोगों का मरण चतुर्थ बालमरण कहा गया है ॥ १५ ॥ पञ्चमं दुष्ट-वृत्तीनां, मिथ्या - भवाभिनन्दनम् । जैनसिद्धान्त - मर्मज्ञैः, वणितं शास्त्रपद्धतौ ॥ १६ ॥ * अर्थ-पाँचवाँ दुष्ट मरण दुष्ट वृत्ति एवं मिथ्याभिमानी लोगों का होता है । ऐसा जैनदर्शन के मर्मज्ञों ने जनशास्त्रों में वर्णित किया है ।। १६ ।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) मरणं मंगलं तच्च, बोधि - भाव - समन्वितम् । दर्शन - ज्ञान - चारित्र - शुद्धानां वीतरागिणाम् ॥ १७ ॥ * अर्थ-मंगल मरण वही है, जो बोधिभाव से युक्त है। यह मरण दर्शनज्ञान-चारित्र से शुद्ध वीतरागियों को प्राप्त होता है ॥ १७ ॥ जातो यश्चात्र संसारे, मृत्युस्तस्य सुनिश्चितम् । अतो भीतिः कथं मृत्योः, देहो नश्यति नैव सः ॥ १८ ॥ * अर्थ-संसार में जिसका जन्म हुमा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर उस मृत्यु से क्या भय ! इसमें तो केवल देह नष्ट होता है, प्रात्मा नहीं ।। १८ ॥ कृमिभिः संकुलो देहः, रोग-सन्ताप-कारकः । क्षीयतेऽनुपलं नित्यं, मोहं नैव वृथा कृथाः ॥ १६ ॥ * अर्थ-कृमियों से युक्त यह शरीर रोगों एवं दुःखों का कारक है। यह तो प्रति क्षण क्षीण-जर्जर होता जा रहा है। इसलिए इसका मोह व्यर्थ है ।। १६ ।। प्रात्मा नो जायते चात्र, नैव बालो युवा तथा । नैव वृद्धोऽप्यशक्तोऽसौ, तस्मान् मृत्युञ्जयी सदा ॥ २० ॥ * अर्थ-प्रात्मा तो यहाँ कभी शिशु, बालक, युवा, वृद्ध, अशक्त आदि होता नहीं है, अतः वह तो सदैव मृत्युजयी है ।। २० ।। माया मोहं च संत्यज्य, स्वात्मरूपं विचार्य वै। श्रीजिनोक्तौ च सत् श्रद्धा, कुर्वन् मृत्युञ्जयो सदा ॥ २१ ॥ * अर्थ-प्रतः माया-मोह का त्याग कर निश्चय रूप से अपने स्वरूप का विचार करो। श्रीजिनेश्वर भगवन्तों द्वारा निर्दिष्ट सम्यश्रद्धा से अनुपम मृत्युञ्जयी होता है ।। २२ ।। प्रात्मन् ! अनित्योऽयं देहस् त्वशुची रोग-मन्दिरम् । शुद्धौ यत्ने कृते शश्वत्, सर्वदा मलिनायते ॥ २२ ॥ * अर्थ-हे आत्मन् ! यह शरीर तो अनित्य, अपवित्र एवं रोगों का घर है । शुद्धता का यत्न करने पर भी यह तो मलिन ही बना रहता है ।। २२ ।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) जननान् मरणं जातं, निश्चितं यस्य पूर्वतः। कः शोकस्तत्र को मोहो, वृथा का परिदेवना ॥ २३ ॥ * अर्थ-पहले से ही जन्म के कारण जिसका मरण निश्चित है तो इसके लिए क्या शोक करना और क्या मोह करना। इसके लिए विलाप करना व्यर्थ है ॥ २३ ॥ संरुध्य ममतावतम्, समता सूत्रमास्थितः । मृत्युमहोत्सवे हर्षन्, सत्यं मृत्युञ्जयी सदा ॥ २४ ॥ * अर्थ-ममता के आवेगों को रोककर समता के सूत्रों में स्थित हो जाम्रो । मृत्युञ्जयी तो मृत्यु के अवसर को सहर्ष सदा महोत्सव ही मानता है ।। २४ ।। राग - द्वषवशीभूतो, जीवो दुःखति श्रितः । __क्रूरकर्माश्रितो लोके, कथं शान्ति समाश्रयेत् ॥ २५ ॥ * अर्थ-राग-द्वेष के वशीभूत यह जीव दुःख-परम्परा में पड़ता है। यह संसार तो क्रूर कर्मों का घर है। यहाँ शान्ति कैसे मिल सकती है ।। २५ ॥ प्रतिकूलेऽनुकूले वा, सुन्दरेऽसुन्दरेऽपि च । राग-द्वषो न मे किञ्चित्, जायतां हे जिनेश्वरः ॥ २६ ॥ * अर्थ-हे जिनेश्वर देव ! प्रतिकूल, अनुकूल, सुन्दर, प्रसुन्दर पदार्थों एवं अवसरों के प्रति मेरे मन में किञ्चित् भी राग-द्वेष नहीं हो ।। २६ ॥ मनो मे जायतां स्वच्छं, पवित्रं दोषवजितम । सर्वेषामात्म - तुष्टानां, दर्शनं स्यात् प्रशान्तये ॥ २७ ॥ * अर्थ-मेरा मन स्वच्छ, पवित्र एवं दोषों से रहित हो। मेरी भावना है कि मैं सभी प्रात्मतुष्टों का अपनी मनःशान्ति के लिए दर्शन करूं ।। २७ ॥ जानन्नहं सदा लोके, प्रात्मनो देह - भिन्नताम् । उद्देश्यं निर्मलं मोक्षं, चिन्तयामि मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥ * अर्थ-मैं हमेशा यह जानता हूँ कि लोक में प्रात्मा और शरीर दोनों भिन्न हैं। आत्मा का उद्देश्य निर्मल मोक्ष है। यही बार-बार मेरे चिन्तन का विषय रहता है ।। २८ ।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) उत्पद्यते जगत् सर्वम्, वर्धते कर्म-साधनैः। उदेति सविता प्रात - कति चास्तं दिनात्यये ॥ २६ ॥ * अर्थ-सारा जगत् उत्थान-पतन से युक्त है। कर्मों के साधन से बढ़ता रहता है। सूर्य प्रभात में उगता है एवं संध्या काल में प्रस्त होता है ॥ २६ ॥ तिस्रो दशाः हि सूर्यस्य, दृश्यन्ते चेखि नैकके । अपरस्य कथा केह, सर्व नाशेन विनश्यति ॥ ३० ॥ * अर्थ-एक ही दिन में सूर्य की तीन दशाएँ दिखाई देती हैं, तो फिर दूसरों की क्या कथा ! समग्र संसार नाशवान है ।। ३० ॥ .. त्रिपद्या उपदेष्टारो, वस्तूनि जगजिनाः । उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति, तिष्ठन्ति कर्मयोगतः ॥ ३१ ॥ * अर्थ-महापुरुषों ने जगत् की समस्त वस्तुनों की तीन गतियां बताई हैं। कर्म के योग से उनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं विनाश ये तीन गतियां होती हैं ॥ ३१ ॥ परिवर्तनशीलोऽयं, विश्वग्रामो निरन्तरम् । नरो दिवं समासाद्य, भूयो भूमि समाश्रयेत् ॥ ३२ ॥ * अर्थ-यह समस्त विश्व परिवर्तनशील है। मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त कर पुनः भूमि का प्राश्रय लेता है ।। ३२ ॥ जातस्य नित्यता नास्ति, स्तोककालनिवासिनः। मरणं क्षरणं नित्यं, जातस्योत्पत्ति तस्य च ॥ ३३ ॥ * अर्थ-थोड़े समय रहने वाले जन्मधारी की नित्यता है ही नहीं। उसका नित्य क्षरण एवं मरण होता रहता है ।। ३३ ॥ रामो दाशरथिर्जातो, नलो वालिश्च रावणः । भूपाला बहवो जाताः, जित्वारीन् बुभुजुर्महीम् ॥ ३४ ॥ * अर्थ-पूर्व में दाशरथी राम, नल, बालि एवं रावण जैसे अनेक भूपाल हुए । उन्होंने शत्रुओं को जीत कर पृथ्वी पर शासन किया ॥ ३४ ।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) किन्तु चैकतमः कोऽपि, दृश्यते श्रूयते जनः । विनाशेन समं दृष्टं जगदेतच्चराचरम् ॥ ३५ ॥ * अर्थ-किन्तु उनमें से कोई भी राजा न तो माज दिखाई देता है और न लोगों के द्वारा सुना जाता है । यह चराचर संसार तो विनाश के वशीभूत है ।। ३५ ।। यावन्तो हि जना जाताः, न म्रियेरन् कदाचन । धरित्री खलु वासाय, तिलमात्रं न वा भवेत् ॥ ३६ ॥ अर्थ-जितने लोग संसार में उत्पन्न हुए, यदि वे नहीं मरते तो इस धरती पर रहने के लिए तिलमात्र भी स्थान नहीं मिलता ।। ३६ ।। __ फलानि ननु वृक्षेषु, यावन्ति प्रफलन्ति वै। न पतेयुर्धरापीठे, भगुरास्युमहीरुहाः ॥ ३७ ॥ * अर्थ-वृक्षों पर जितने फल पकते है क्या वे धरती पर नहीं गिरते हैं ? इस पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले सभी नाशवान होते हैं ।। ३७ ।। परिवर्तनशीलोऽयम्, शाल्मलि - कुसुमोपमः । संसारः सारहीनो हि, रम्यो गिरिकुटोपमः ॥ ३८ ॥ * अर्थ-शाल्मलि वृक्ष के फूल की तरह यह संसार परिवर्तनशील है। यह तो पर्वत के सारहीन शिखर की तरह है जो सुन्दर तो है पर प्राश्रय नहीं दे सकता है ।। ३८ ।। प्रभाते यन्न मध्याह्न, मध्याह्न न निशामुखम् । कुलालचक्रवन्नित्यं, जगद् भ्राम्यति सर्वदा ॥ ३९ ॥ अर्थ-जो प्रभात में है वह मध्याह्न में नहीं और जो मध्याह्न में है वह संध्या काल में नहीं। तो यह संसार तो कुम्भकार के चाक की तरह नित्य भ्रमणशील है ।। ३६ ॥ धनं धान्यं कलत्रं च, यौवनं नूतनं गृहम् । __ मनोहारि जगत् सर्व, प्रान्ते निर्माल्य सन्निभम् ॥ ४० ॥ * अर्थ-धन-धान्य, स्त्री, यौवन एवं नया घर ये सब संसार में मनोहारी लगते हैं, परन्तु अन्त में निर्माल्य के समान छोड़ने योग्य होते हैं ।। ४० ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) पुत्रार्थ पितरौ कष्ट, सहेते वचनातिपम् । स पुत्रो मातरं तातं, रक्षितु न प्रभुर्भवेत् ॥ ४१ ॥ * अर्थ-पुत्र के लिए माता-पिता अवर्णनीय कष्ट सहते हैं। परन्तु वह पुत्र माता-पिता की रक्षा करने में समर्थ नहीं होता है ।। ४१ ॥ कालः कवलयन् सर्वान्, पश्यतां हि हितैषिणाम् । न कोऽपि कस्यचित् त्राता, यात्यनाथो भवान्तरम् ॥ ४२ ॥ * अर्थ-अपने हितैषी एवं सगे-सम्बन्धियों के देखते-देखते काल सबको खा जाता है, तो संसार में कोई किसी का रक्षक नहीं है। जीव तो अनाथ होकर ही भवान्तर हेतु प्रयाण करता है ॥ ४२ ।। नरनाथाः प्रजा सर्वाः, मुनयश्च महर्षयः । स्तेनाः रङ्काः वराः क्रूराः, ये जातास्ते मृताः ध्र वम् ॥ ४३ ॥ * अर्थ-सारे राजा, प्रजा, मुनि, महर्षि, धनिक, गरीब, सेवक और क्रूर जो भी पैदा हुए, वे सब मृत्यु को प्राप्त हुए ॥ ४३ ।। भूपो नृपोऽपि जीवोऽयं, पङ्कः रङ्कः प्रजायते । रुजा कान्तः सुखी नित्यं, विचित्रा हि भवस्थितिः ॥ ४४ ॥ ® अर्थ-कभी भूपति, कभी नरपति, कभी धनी तो कभी गरीब के रूप में यह जीव उत्पन्न होता है। कभी रोगों से आक्रान्त, तो कभी नित्य सुखी भी रहा है। संसार की स्थिति बहुत विचित्र है ।। ४४ ॥ का योनिः कतरत् स्थानं, का जातिः किं च वा कुलम् । यत्र जीवो न वा जातः, किं दुःखं नैव भुक्तवान् ॥ ४५ ॥ * अर्थ-इस जीव ने किस योनि, किस स्थान, किस जाति एवं किस कुल में जन्म नहीं लिया ? एवं उसने किस दुःख को नहीं भोगा ।। ४५ ।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) भवेऽस्मिन् सकलं स्थानं, पदं चापि वरेतरम् । भुक्त्वोज्झितं हि जीवेन, भुञ्जमानं भुज्यते पुनः ॥ ४६ ॥ * अर्थ-इस संसार में जीव ने सब स्थानों एवं अच्छे-बुरे सब पदों को भोगकर छोड़ दिया है। वह बार-बार भोगे हुए भोगों को ही बार-बार भोगता रहता है ।। ४६ ॥ सुखिनः सन्तु जीवास्ते, संसारे येऽपि संगताः । क्षामये सततं भक्त्या , समताभाव - संधितः ॥ ४७ ॥ * अर्थ-संसार में वे ही जीव सुखी रहते हैं जो समता भाव में रमण करते हुए निरन्तर भक्तिपूर्वक क्षमापना करते हैं ।। ४७ ।। हे जिनेश्वर ! हे ज्ञानिन् ! , वीतराग ! जगत्प्रभो! । बोधिरत्नं यथालभ्यं, क्रिया मे स्यात् यथा - तथा ॥ ४८ ॥ * अर्थ-हे जिनेश्वर ! हे ज्ञानी ! हे वीतराग ! हे जगत् के स्वामी ! मेरी क्रिया जैसी-कैसी भी है। परन्तु मुझे यथायोग्य ज्ञानरत्न प्रदान कीजिए ।। ४८ ॥ अर्हतां शरणं दिव्यं, सिद्धानां शरणं परम् । साधूनां शरणं पुण्यं, नित्यं प्रोत्या समाश्रये ॥ ४६ ॥ * अर्थ-अर्हतों की शरण दिव्य है, सिद्धों की शरण परम वरेण्य है, साधुनों को शरण पुण्यदायिनो है। अतः इन शरणों को प्रेमपूर्वक अपनाना चाहिए ।। ४६ ॥ ....--- धर्माणां शरणं सत्यं, नित्यं सत्यार्थदर्शकाः । केवली - भाषितत्त्वाच्च, श्रद्धेयास्ते पुनःपुनः ॥ ५० ॥ * अर्थ-धर्म की शरण नित्य सत्य एवं सन्मार्ग की दर्शिका होती है। केवलज्ञानियों द्वारा भाषित इन शरणों में पुनःपुनः श्रद्धा रखनी चाहिए ।। ५० ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशेष - क्लेश- हन्तारं, वीतरागं जिनेश्वरम् । स्मारं स्मारं लिखन् सूरिः, सुशीलः शान्तिमाश्रयेत् ॥ ५१ ॥ * अर्थ-संसार के समस्त कष्टों का हरण करने वाले वीतराग जिनेश्वर का पुनःपुनः स्मरण कर इस स्तोत्र को लिखते हुए रचयिता 'सुशीलसूरि' शान्ति को प्राप्त करे ।। ५१ ।। इति श्रीमन्मृत्युञ्जयमहोत्सवे सभक्तिपठनीयो महामंगलप्रदो 'मृत्युञ्जयस्तोत्रपाठः' शासनसम्राट् परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद् - विजयनेमि-लावण्य-दक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्ध-पट्टधराचार्यश्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरेण विरचितः, सम्पूर्णम् ॥ इति श्रीमन् 'मृत्युञ्जय महोत्सव' पर सभक्ति पढ़ने योग्य महामंगलकारी मृत्युञ्जयस्तोत्र पाठ शासनसम्राट् परमपूज्य प्राचार्य महाराजाधिराज श्रीमद्विजय नेमि-लावण्य-दक्षसूरीश्वरजी महाराजश्री के सुप्रसिद्ध पट्टधराचार्य श्रीमद् विजय सुशीलसूरीश्वरजी महाराज द्वारा विरचित सम्पूर्ण हुआ। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. आचार्य देव श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वर जी. म. * संक्षिप्त जीवन परिचय जन्म : जावाल, वि. सं. २०१८ चैत्र वदी ६, २७-३-१९६२ माता : श्रीमती दाडमीबाई : पिता श्री उत्तमचन्द जी अमीचन्द जी मरडिया संयम : परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा. की शुभ निश्रा में माता श्री दाडमीबाई (साध्वी श्री दिव्यप्रज्ञाश्री जी म.) के साथ वि. सं. २०२८, ज्येष्ठ वदी ५, १५-५-१९७१ को दीक्षा बड़ी दीक्षा : उदयपुर, वि. सं. २०२८ आषाढ़ शुक्ल १०, ३-६-१९७१ गणि पद : सोजत सिटी, वि. सं. २०४६ मार्गशीर्ष शुक्ल ६, ४-१२-१९८९ पंन्यास पद : जावाल, वि. सं. २०४६ ज्येष्ठ शुक्ल १०, २-६-१९९० उपाध्याय पद : कोसेलाव, वि. सं. २०५३ मार्गशीर्ष वदी २. २७-१११९९६ आचार्य पद : लाटाडा, वि. सं. २०५३ वैशाख शुक्ल ६, १२-५-१९९७ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहराग जनाथ जिनालय, समा नगर की महा मंगलकारी प्रतिष्ठानिमित हत्यप्र INDIGI PRH ARRIA NIROYEE उद्देश्य सम्यग्ज्ञान का प्रचार-प्रसार ॐ नमो नाणस्स ही ॐ प्रकाशन सौजन्य श्री जैन संघ रामा नगर (जि. जालोर):