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सप्तमोऽध्यायः
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इसलिए यहाँ राज्यविरुद्ध कर्म करने वाले को चोरी का दण्ड होने से अदत्तादानव्रत का भंग होता है, किन्तु मैं तो व्यापार करता हूँ इत्यादिक बुद्धि से व्रत सापेक्ष होने से तथा 'लोक में चोर है' इस तरह कथन नहीं होने से (मांशिक व्रत भंग होने से) विरुद्धराज्यातिक्रम अतिचार है।
(४) हीनाधिक मानोन्मान-चीज-वस्तु की लेन-देन में हीनाधिक तोल-माप करना। अर्थात्-खोटे, छोटे-बड़े माप-तौल रखना। जब वस्तु खरीदने की हो, तब बड़े माप-तौल का उपयोग करे, तथा बेचने की हो तब छोटे माप-तौल का उपयोग करे। यह होनाधिक मानोन्मान अतिचार कहा जाता है।
(५) प्रतिरूपक व्यवहार - खोटा सिक्का अथवा कपटपूर्वक नकली चीज-वस्तु बना के बदल देना। अर्थात-अच्छे-सारे माल में खराब वा नकली माल की भेलसेल करनी। बनावटी चीज-वस्तु पैदा-उत्पन्न करके असल रूप से बेचनी। यह प्रतिरूपक व्यवहार अतिचार है।
* यद्यपि हीनाधिक मानोन्मान और प्रतिरूपक व्यवहार इन दोनों कार्यों में ठगबाजी से परधन लेने में प्राता है, इसलिए यह व्रतभंग है। छतां खातर पाड़ना यही चोरी है, यह तो वणिक्कला है, ऐसी कल्पना से प्रांशिक व्रतभंग होने से (इसकी दृष्टि से भले चोरी नहीं है, किन्तु शास्त्रदृष्टि से चोरी है) इसलिए ये दोनों अतिचार गिने जाते हैं ।। ७-२२ ।।
* चतुर्थब्रह्मचर्यव्रतस्यातिचाराः * ॐ मूलसूत्रम्परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमना-ऽनङ्गक्रीडा
तीवकामाभिनिवेशाः ॥ ७-२३ ॥
* सुबोधिका टीका * अन्यजनानां येषां न कोऽपि सम्बन्धः अस्माभिः सह तेषां विवाहकरणं ब्रह्मचर्यव्रतस्य प्रथमाऽतिचारः। विवाहिता - व्यभिचारिणीगमनं इत्वरपरिगृहीतागमनं द्वितीयः अतिचारः भवति । व्यभिचारिणी अविवाहिता कुमार्यया सह वेश्यया सह वा गमनं अपरिगृहीता नामकोऽतिचारः ।
तदतिरिक्त कृत्रिमाङ्गक्रीडा हस्तक्रीडानङ्गक्रिया नामकं अतिचारं अनङ्गक्रियातिचारः। तीवकामवासनाभिनिवेशादि तीवकामाभिनिवेशं अतिचारः कथ्यते । पञ्चब्रह्मचर्यव्रतस्यातिचारा भवन्ति ।। ७-२३ ॥
* सूत्रार्थ-परविवाह करना, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा तथा तीवकामाभिलाषा ये पांच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं ।। ७-२३ ॥