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________________ ७।३ ] सप्तमोऽध्यायः विशेषरूप से वर्णन क्रमशः नीचे प्रमाणे है (१) स्व, पर को क्लेश या कष्ट न हो, इस तरह यत्नपूर्वक जो गमनागमन करना; वह ईर्यासमिति कहलाती है। अर्थात् –लोकों का गमनागमन होता हो और सूर्य का प्रकाश पड़ता हो, ऐसे मार्ग-रास्ते पर जीवरक्षा के लिए युग' प्रमाणदृष्टि रख करके चलना, वह ईर्यासमिति है। (२) मनोगुप्ति-मन को अशुभध्यान से रोककर शुभध्यान में लगाना, वह मनोगुप्ति कहलाती है। अर्थात्-प्रार्तध्यान का और रौद्रध्यान का त्याग करके धर्मध्यान में मन का उपयोग रखना, वह मनोगुप्ति कहलाती है। (३) एषणा समिति-वस्तु की गवेषणा, ग्रहणेषणा और ग्रासैषणा, इन तीन प्रकार की एषणा में उपयोग पूर्वक वर्तना, वह एषणा समिति' कहलाती है। (४) प्रादाननिक्षेपणा समिति-वस्तु को उठाते समय और रखते समय यत्नपूर्वक अवलोकन करना, वह पादाननिक्षेपणा समिति कहलाती है। अर्थात्-प्रादान यानी लेना और निक्षेपण यानी मूकना-रखना। जब चीज-वस्तु लेने की हो तब उसका दृष्टि से निरीक्षण करके तथा रजोहरणादिक से प्रमार्जन करके लेना तथा चीज-वस्तु मूकने-रखने की हो तो जमीन-भूमि को दृष्टि से निरीक्षण करके तथा रजोहरणादिक से प्रमार्जन करने के बाद मूकनी-रखनी। (५) पालोकित पानभोजन-अन्न-पानादि भोजन सामग्री का यत्नपूर्वक अवलोकन करने के बाद भोगोपभोग करना, वह पालोकित पानभोजन कहलाता है। अर्थात्-आहार में उत्पन्न १. युग यानी गाड़ी में जोते हुए वृषभ-बैल के स्कन्ध रही हुई धांसरी जाननी। वह प्रायः ३।।-४ हस्त-हाथ की होती है। २. श्रमण-श्रमणियों को देह-शरीर टिकाने के लिए जरूरत पड़े तो गृहस्थ के गृह-घर पर जाकर किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगे उसी माफिक एषरणा यानी तपास करके ही पाहार लेने का होता है। आहार लाने के बाद गृद्धि प्रादि दोष रहित उसको वापरना होता है। आहार लाने में किन-किन दोषों की सम्भावना है? यह बताते हए शास्त्र में मुख्यपने बैंतालीस (४२) दोष कहे हैं। उनमें गवेष बत्तीस (३२) और ग्रहणषणा के दस (१०) ऐसे कुल बैतालीस (४२) दोष आहार लाने में सम्भवते हैं। गवेषणा के जो बत्तीस दोष हैं, उसके दो विभाग हैं। एक विभाग सोलह उद्गम दोषों का तथा दूसरा विभाग सोलह उत्पादन दोषों का है। उद्गम अर्थात् पाहार की उत्पत्ति में होते हुए दोष । ये दोष गृहस्थ से उत्पन्न होते हैं। उत्पादन अर्थात् उत्पन्न करना। गृहस्थ के गृह-घर में आहार की उत्पत्ति में कोई दोष नहीं लगा हो तथा साधु ने भी कोई दोष नहीं लगाया हो किन्तु आहार ग्रहण करते समय जो दोष उत्पन्न होते हैं; वे ग्रहणैषणा के दोष कहलाते हैं। गवेषणा के और ग्रहणषणा के इन दोषों से रहित आहार-मिक्षा लाने के बाद भी प्राहार-भिक्षा वापरते समय जो दोष लगते हैं वे प्रासंषणा दोष कहलाते हैं । ये दोष पांच हैं। इन दोषों का विशेष वर्णन पिण्डनियुक्ति प्रादि शास्त्र-ग्रन्थों से जानना चाहिए ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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