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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ७२१ अब यह बात रही कि बन्ध प्रादि के सेवन से नियम का सर्वथा भंग होता है, तो फिर बन्ध आदि प्रतिचार कैसे लगता है ? उसका समाधान नीचे प्रमाणे है
व्रत दो प्रकार के होते हैं । (१) अन्तःकरणवृत्ति से और (२) बाह्यवृत्ति से । हृदयमें व्रत के परिणाम अन्तःवृत्ति से व्रत है । तथा बाह्य से प्राणवियोग आदि का प्रभाव बाह्यवृत्ति से व्रत है।
जब क्रुद्ध होकर निर्दयता से बन्ध आदि करने में आता है, तब बाह्य से तो प्राणवियोग का अभाव है। अर्थात् बाह्यवृत्ति से तो अहिंसावत का भंग नहीं हुआ है, किन्तु हृदय में अहिंसा का दया का परिणाम नहीं होने से अन्तःवृत्ति से भंग हुआ है।
__ आम आंशिक व्रत का पालन है, तथा प्रांशिक व्रतभंग है। इसलिए गुस्से से निर्दयतापूर्वक करने में आए हुए बन्ध इत्यादि अतिचार हैं। इसी तरह अन्य व्रतों के अतिचारों में भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए ।। ७-२० ।।
* द्वितीयसत्याणुव्रतस्य पञ्चातिचाराः * + मूलसूत्रम्मिथ्योपदेश-रहस्याभ्याख्यान-कूटलेखक्रिया-न्यासापहारसाकार
मन्त्रभेदाः ॥ ७-२१ ॥
* सुबोधिका टोका * सूत्रेस्मिन् निर्देशिताः मिथ्योपदेशादिपञ्च सत्याणुव्रतस्यातिचाराः। तत्र मिथ्योपदेशो नाम प्रमत्तवचनमय यथार्थवचनोपदेशो विवादेष्वतिसंधानोपदेश इत्येवम् । रहस्याभ्याख्यानं नाम स्त्री-पुसयोः, परस्परेणान्यस्य वा रागसंयुक्त हास्यक्रीड़ासङ्गादिभिः रहस्येनाभिशंसनम् । कूटलेखक्रिया लोकप्रतीता। न्यासापहारो विस्मरणकृत परनिक्षेपग्रहणम् । साकारमन्त्रभेदः पैशुन्यं गुह्यमन्त्रभेदश्च ।
अन्तरङ्ग दर्शनमोहस्योदये सति चेत्-अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरणादि कषायेभ्यः कस्यापि उदये जाते तत् पूर्वक यदि प्रमत्तादि वचनानि भविष्यन्ति तदैवातिचारः कथ्यते ।। ७-२१ ॥
* सूत्रार्थ-मिथ्योपदेश, रहस्याभ्याख्यान, कूटलेख लिखना, न्यासापहार, साकारमन्त्रभेद-चुगलीखाना, इत्यादि सत्य अणुव्रत के प्रतिचार हैं ।। ७-२१ ॥
ॐ विवेचनामृत) मिथ्या उपदेश, रहस्य अभ्याख्यान (गुप्त बात प्रगट करना), कूटलेखक्रिया, न्यासापहार, "धरोहरवस्तु का अपहार" और साकारमन्त्रभेद ये पांच सत्य व्रत के अतिचार कहे जाते हैं। इन पांच अतिचारों का संक्षिप्त वर्णन पागे प्रमाणे है।