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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे २४ ] [ ८।१० यदि यह क्रोध प्रत्याख्यानावरण हो तो उस व्यक्ति पर अधिक में अधिक चार मास पर्यन्त ही रहने के बाद, पीछे अवश्य दूर होता है । जो संज्वलन का क्रोध हो तो व्यक्ति पर अधिक में अधिक पन्द्रह दिन तक ही रहे । इस तरह मान, मायादि में भी समझना । जिस कषाय की जो स्थिति कही है वह कषाय उक्त समय तक रहे ही ऐसा नियम नहीं है, वह समय पूर्व भी दूर होता है । किन्तु शीघ्र जल्दी दूर नहीं हो, तथा अधिक में अधिक कहे हुए काल तक ही रहे । पीछे अल्प समय में अवश्य दूर हो जाता है । * प्रश्न - चौथे संज्वलन कषाय की स्थिति अधिक में अधिक पन्द्रह दिन की कही है, तो रहा ? श्री ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलीजी को मान कषाय बारह मास तक क्यों उत्तर - यहाँ पर क्रोधादिक कषायों की स्थिति व्यवहार से अर्थात् -- स्थूल दृष्टि से कही है । किन्तु निश्चय से अर्थात् सूक्ष्मदृष्टि से तो उक्त काल से अधिक काल भी रह सकती है । इसलिए ही प्रथम कर्मग्रन्थ की गाथा १८ की वृत्ति में कहा है कि उक्त सोलह कषायों के ६४ भेद भी होते हैं । * प्रश्न - कौनसे प्रकार के कषाय के उदय से कौनसी गति होती है ? उत्तर- (१) जीव-आत्मा जो अनंतानुबन्धी कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावेतो नरकगति में जाता है । (२) जीव- श्रात्मा जो अप्रत्याख्यान कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावे तो वह तियंचगति में जाता है । (३) जीव- श्रात्मा जो प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावे तो वह मनुष्यगति में जाता है । (४) तथा जीव - प्रात्मा जो संज्वलन कषाय के उदय समये मृत्यु- मरण पावे तो वह देवगति में जाता है । यह प्ररूपणा भी व्यवहार से अर्थात् स्थूल दृष्टि से है । क्योंकि, अनंतानुबन्धी कषाय के उदय वाले तापस, अकामनिर्जरा करने वाले जीव तथा प्रभव्यसंयमी आदि देवलोक में या मनुष्यलोक में भी उत्पन्न होते हैं । तथा अप्रत्याख्यान कषाय के उदय वाले सम्यगृष्टिवन्त मनुष्य तिर्यंच या देवगति में उत्पन्न होते हैं, तथा देव मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं । प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले देशविरतिवंत मनुष्य एवं तिर्यञ्च देवगति में उत्पन्न होते हैं । * प्रश्न - उक्त दृष्टि से तो कौनसे प्रकार के कषाय वाले जीव कौनसी गति में जाते हैं, उसका निश्चयात्मक नियम कहाँ रहा ? जीव आत्मा ने जिस आयुष्य बन्ध का आधार अनंतानुउदय समये जो आयुष्य का बन्ध हो प्रमाणे चारों गतियों में से किसी उत्तर - गति की प्राप्ति तो प्रायुष्य बन्ध आधार पर होती है । का बाँधा हो, वह उस गति में उत्पन्न होता है । बन्ध आदि कषायों पर है। क्योंकि अनंतानुबन्धी कषाय के तो अव्यवसाय के प्रमाणे अर्थात् - कषाय परिणति की तरतमता
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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