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८।१० ] अष्टमोऽध्यायः
[ २३ ___ सारांश-सारांश यह है कि-अनंतानुबन्धी आदि चार प्रकार के कषाय क्रमशः श्रद्धा (-सम्यग्दर्शन), देश विरति, सर्वविरति, तथा यथाख्यात (निरतिचार) चारित्र-संयम को रोकते हैं।
विशेष-पूर्व कषाय के उदय समये पीछे के कषाय का उदय अवश्य होता है। तथा पीछे के कषाय के उदय समये पूर्व के कषाय का उदय हो, या न भी हो। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय समये अन्य तीनों प्रकार के कषाय का उदय होता है, अथवा नहीं भी होता; तो भी प्र और संज्वलन इन दो प्रकार के कषायों का उदय होता ही है।
कषाय के ये चार भेद कषाय की तरतमता के आश्रय से हैं। अनन्तानुबन्धीकषाय अत्यन्त तीव्र होता है। अप्रत्याख्यान कषाय मन्द होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय अधिक मन्द होता है। संज्वलन का कषाय तो उससे भी अधिक मन्द होता है।
* कषायों की स्थिति * प्रश्न-कषायों की स्थिति निरन्तर कितने काल तक रहती है ?
उत्तर-कषायों की स्थिति कषायों की तीव्रता तथा मन्दता पर आश्रित है। अनन्तानुबन्धी आदि कषायों की स्थिति क्रमशः जीवनपर्यन्त, बारहमास, चार मास तथा एक पक्ष है।
अर्थात् – (१) अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय सम्पूर्ण जीवन अर्थात् जीवनपर्यन्त हो सकता है।
(२) अप्रत्याख्यान कषायों का उदय (निरन्तर) अधिक में अधिक बारह मास तक ही रहता है।"
(३) प्रत्याख्यान कषायों का उदय (निरन्तर) अधिक में अधिक चार मास तक ही रहता है।
(४) संज्वलन कषायों का उदय (निरन्तर) अधिक में अधिक एक पक्ष तक अर्थात् पन्द्रह दिन पर्यन्त ही रहता है।
तात्पर्य-जो कषाय जिसके सम्बन्ध में उत्पन्न हो वह उसके विषय में सतत जितने समय तक बना रहे, वह उसकी स्थिति है। जैसे-किसी व्यक्ति को अन्य प्रमुक व्यक्ति पर क्रोध उत्पन्न हुअा। यह क्रोध उस व्यक्ति पर सतत जितने समय तक रहे, वह उसकी स्थिति कही जाती है।
अब यह क्रोध यदि अनन्तानुबन्धी कषाय का हो तो, उस व्यक्ति के साथ सतत जिन्दगी तक अर्थात् जीवनपर्यन्त भी रह सकता है। जिन्दगी तक अर्थात् जीवनपर्यन्त तक ही रहे ऐसा नियम नहीं है। किन्तु अधिक काल तक भी रहे तो जिन्दगी पर्यन्त तो रहेगा ही।
अब यदि यह क्रोध अप्रत्याख्यान कषाय का हो तो, उस व्यक्ति पर अधिक में अधिक बारह मास पर्यन्त ही रहे। बाद में अवश्य अल्प समय में भी दूर हो।