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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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* असूया, ईर्ष्या, कलह, कोप, रोष, द्वेष, वैमनस्य तथा बलतरीया स्वभाव इत्यादि क्रोध के प्रकार हैं ।
* अभिमान, अहंकार, गर्व, दर्प तथा मद मान के प्रकार हैं ।
* कपट, कुटिलता, छेतरपिंडी, दम्भ, वक्रता, वंचना इत्यादि माया के प्रकार हैं ।
* अभिलाषा, अभिष्वंग, आकांक्षा, मासक्ति, इच्छा, काम, कामना, गृद्धि, ममत्व तथा मूर्च्छा इत्यादि लोभ के प्रकार हैं ।
राग-द्वेष स्वरूप हैं। क्रोध और मान इसलिए मोह का सामान्य अर्थ रागअर्थ करने में आता है । यहाँ पर
ये चारों कषाय अहंकार तथा ममता स्वरूप अथवा अहंकार या द्वेष स्वरूप हैं । तथा राग-द्वेष मोह स्वरूप हैं । द्वेष या क्रोधादि कषाय हैं । तदुपरान्त मोह का अज्ञानता भी अज्ञानता का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, किन्तु विपरीत ज्ञान अथवा प्रयथार्थ ज्ञान है । जीव- प्रात्मा को विरुद्ध ज्ञान तथा प्रयथार्थ ज्ञान अज्ञानता भी वास्तविक बरोबर है ।
मोहनीय कर्म से होता है ।
इसलिये मोह का अर्थ
* कषायों के अनंतानुबन्धी इत्यादि भेदों की व्याख्या
(१) अनंतानुबन्धी- जिन कषायों के उदय से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय होता है, वे 'अनंतानुबन्धी' कषाय हैं । ये कषाय अनंत संसार का अनुबन्ध कराने वाले होने से अनंतानुबन्धी कहलाते हैं । इनके उदय से जीव आत्मा को हेय तथा उपादेय का विवेक होता नहीं है ।
(२) प्रत्याख्यान - जो कषाय (देश) विरति को रोकते हैं. तथा किसी भी प्रकार के पाप से विरति नहीं करने देते, वे प्रप्रत्याख्यान कषाय हैं। जिसके उदय से प्रत्याख्यान का प्रभाव होता है, वह श्रप्रत्याख्यान कहलाता है ।
जीव- श्रात्मा प्रत्याख्यान का महत्त्व समझने पर भी तथा प्रत्याख्यान करने की इच्छा होने पर भी इस कषाय के उदय से किसी भी प्रकार का विशिष्ट प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है ।
(३) प्रत्याख्यानावरण- जो कषाय सर्वविरति के प्रत्याख्यान पर आवरण-पर्दा करे, तथा सर्वविरति को प्राप्ति नहीं होने दे, वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है ।
चारित्र संयम बिना आत्मा का कल्याण नहीं होता है, ऐसा समझते हुए चारित्र दीक्षा को स्वीकारने की भावना होते हुए भी इस कषाय के उदय से जीव- श्रात्मा सर्वविरति रूप चारित्र ग्रहण नहीं कर पाता है ।
(४) संज्वलन -- जिस कषाय के उदय से चारित्र में प्रतिचार लगे, वह संज्वलन है । संज्वलन यानी बालने वाला मलिन करने वाला । जो कषाय प्रतिचारों से चारित्र को बाले मलिन करे वह संज्वलन कहा जाता 1
इस कषाय के उदय से जीव- प्रात्मा को यथाख्यात चारित्र प्राप्त नहीं होता है, किन्तु अतिचारों से मलिन चारित्र प्राप्त होता है ।