________________
[ २१
८।१० ]
अष्टमोऽध्यायः इसके सम्बन्ध में विशेष रूप में कहा है कि-इस मोहनीय प्रकृति के २८ भेद उदय, उदीरणा तथा सत्ता की अपेक्षा हैं। बन्ध की अपेक्षा तो छब्बीस भेद हैं। कारण कि, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। मिथ्यात्वमोहनीय के शुद्ध दलिक तथा अर्द्धशुद्ध दलिक क्रमशः सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय कहलाते हैं ।
* मोहनीय शब्द की व्याख्या * मोहनीय यानी मुझवनार। जो कर्म, जीव-प्रात्मा को अपने विचार में अर्थात् अपनी
अथवा अपने वर्तन चारित्र में भी मझवे. सिद्धान्त तत्त्व के अनुसार अपने हृदय में विचार नहीं करने दे, या तत्त्व के अनुसार विचार हो जाने के बाद भी तद् अनुसार प्रवृत्ति नहीं करने दे, वह मोहनीयकर्म है। उसके मुख्य दो भेद हैं। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ।
* दर्शनमोहनीय की व्याख्या * दर्शन यानी जीवादि तत्त्वों के प्रति श्रद्धा। वह श्रद्धा में जीव-आत्मा को मुझवण खड़ी करदे. अर्थात् उत्पन्न हुई श्रद्धा में सम्यक्त्व में दूषण लगा दे, या मूल से ही श्रद्धा उत्पन्न होने नहीं दे, वह दर्शनमोहनीय है। उसके सम्यक्त्व इत्यादि तीन भेदों की व्याख्या नीचे प्रमाणे है
(१) जो उत्पन्न हुए सम्यक्त्व-समकित में अर्थात् श्रद्धा में जीव-प्रात्मा को मुझवे-दूषण लगादे, वह सम्यक्त्व मोहनीय है ।
(२) जिससे जीवादिक तत्त्वों में यथार्थ श्रद्धा न हो, जीव-प्रात्मा देव-गुरु-धर्म को नहीं माने, अथवा कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म को क्रमशः सुदेव, सुगुरु और सुधर्म माने, यही मिथ्यात्व मोहनीय है।
(३) जिस कर्म के उदय से सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म में अथवा जीवादि नौ तत्त्वों में ये ही सत्य है ऐसी श्रद्धा न हो तथा ये असत्य हैं ऐसी अश्रद्धा भी न हो, परन्तु मिश्रभाव (अर्थात् मध्यस्थ भाव) जो रहे, वह मिश्र (= सम्यक्त्व-मिथ्यात्व) मोहनीय कर्म है।
* चारित्र मोहनीय की व्याख्या * जिस चारित्र में हिंसादि पापों से निवृत्ति में मुझवते हैं अर्थात् हिंसादि पापों से निवृत्त नहीं होने दे, अथवा चारित्र में अतिचार लगाते रहे, वह चारित्र मोहनीय है ।
* कषाय मोहनीय की व्याख्या * कष यानी संसार तथा आय यानी लाभ । अर्थात् जिससे संसार का लाभ हो। जीवआत्मा को संसार में परिभ्रमण करना पड़े, वह कषाय मोहनीय है। उसके चार भेद हैं
(१) क्रोध यानी गुस्सा या अक्षमा। (२) मान यानी अहंकार, अभिमान अथवा गर्व । (३) माया यानी दम्भ या कपट ।
लोभ यानी असन्तोष अथवा प्रासक्ति ।