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८।१. अष्टमोऽध्यायः
[ २५ भो गति के आयुष्य का बन्ध होता है। अर्थात् -अनंतानुबन्धी कषाय के उदय के समय कौनसी गति के प्रायुष्य का बन्ध होता है, इसका कोई नियम नहीं है। जो इन कषायों की परिणति अतिमन्द हो तो देवगति का आयुष्य भी बँध जाता है। अतितीव्र कषाय हो तो नरकगति का आयुष्य बँधता है। तथा मध्यम हो तो तिथंच या मनुष्यगति के आयुष्य का बन्ध होता है ।
अप्रत्याख्यान कषाय के समय प्रायुष्य का बन्ध हो तो देवों को और नारकों को मनुष्यगति का हो, तथा मनुष्यों एवं तियंचों को देवगति का ही आयुष्य बन्ध होता है। प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन इन दो प्रकार के कषायों के उदय समये आयुष्य का बन्ध हो तो नियम से देवगति का ही आयुष्य बन्ध होता है।
आम गति का आधार मृत्यु समये किस प्रकार के कषाय हैं उस पर नहीं, अपितु आयुष्यबन्ध के समय में किस प्रकार के कषाय हैं उस पर हैं।
आयुष्य कब बंधता है ? उसकी अपन को खबर पड़ती नहीं है। इसलिए सद्गति में जाना हो तो, नित्य शुभपरिणाम रखना चाहिए ।
* कथानकों से क्रोधादि कषायों का स्वरूप * कथानकों से क्रोधादि कषायों का स्वरूप नीचे प्रमाण है
* क्रोध-संज्वलन कषाय का क्रोध जलरेखा के समान है। जैसे लकड़ो के प्रहार आदि से जल-पानी में पड़ी हुई रेखा पड़ने के साथ ही तुरन्त बिना प्रयत्ने विनाश पाती है, वैसे ही उदय पाये हुए संज्वलन कषाय का क्रोध खास पुरुषार्थ किये बिना शीघ्र विनाश पाता है ।
* प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्रोध रेणुरेखा के समान है। जैसे रेती में पड़ी हुई रेखा का पवन-वायु आदि के योग होते ही अल्प काल में विनाश हो जाता है, वैसे उदय पाये हुए प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्रोध अल्प काल में विनाश पाता है।
[ महात्मा विष्णुकुमार का प्रत्याख्यानावरण क्रोध रेणुरेखा के समान था।]
* अप्रत्याख्यान कषाय का क्रोध पृथ्वीरेखा के समान है। जैसे—पृथ्वी में पड़ी हुई फाड़ कष्ट से विलम्ब से भरतो है, वैसे हो उदय पाये हुए अप्रत्याख्यान कषाय का क्रोध अल्प कष्ट से और अधिक काल में दूर होता है। . . ---
* अनन्तानुबन्धो कषाय का क्रोध पर्वतरेखा के समान है। जैसे पर्वत में पड़ी हुई फाड़ पूरनो दुःशक्य है, वैसे हो अनन्तानुबन्धी कषाय के क्रोध के उदय को दूर करना यह दुःशक्य बनता है।
यहाँ पर क्रोध को रेखा के साथ समानता करने में प्रति रहस्य रहा हुआ है। जैसे रेखा पड़ने से वस्तु-पदार्थ का भेद होता है, ऐक्य विनाश पाता है। वैसे क्रोध के उदय से भी जीवों में परस्पर भेद पड़ता है तथा ऐक्य का अर्थात् संप का विनाश होता है ।