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८।१२ ]
'अष्टमोऽध्यायः
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* नामकर्मणो भेदाः *
ॐ मूलसूत्रम्गति-जाति-शरीराऽङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्शरस-गन्ध-वर्णाऽऽनुपूर्व्यगुरु-लघूपघात-परघाताऽऽतपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्तस्थिराऽऽदेय-यशांसि-सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च ॥ ८-१२॥
* सुबोधिका टोका * (१) गतिः, (२) जातिः, (३) शरीरं, (४) अङ्गोपाङ्ग, (५) निर्माणं, (६) बन्धनं, (७) संघातः, (८) संस्थानं, (६) संहननं, (१०) स्पर्शः, (११) रसः, (१२) गन्धः, (१३) वर्णः, (१४) प्रानुपूर्वी, (१५) अगुरुलघुः, (१६) उपघातः, (१७) परघातः, (१८) प्रातपः, (१६) उद्योतः, (२०) उच्छ्वासः, (२१) विहायोगतिः, (२२) प्रत्येकशरीरं, (२३) सः, (२४) सौभाग्यं, (२५) सुस्वरः, (२६) शुभः, (२७) सूक्ष्मः, (२८) पर्याप्तः, (२६) स्थिरः, (३०) प्रादेयः, (३१) यशः, प्रतिपक्षिणा सह (३२) साधारणः, (३३) स्थावरः, (३४) दुर्भगः, (३५) दुस्वरः, (३६) अशुभः, (३७) बादरः, (३८) अपर्याप्तः, (३६) अस्थिरः, (४०) अनादेयः, (४१) अयशः, (४२) तीर्थकरत्वं चेति द्विचत्वारिंशद् भेदा नामकर्मणो भवन्ति ।। ८-१२ ।।
* सूत्रार्थ-गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, पातप, उद्योत, उच्छवास, विहायोगति ये इक्कीस [२१] और प्रतिपक्ष सहित बीस जैसे-प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, प्रादेय, अनादेय, यश और अपयश तथा तीर्थंकरनाम यों नामकर्म के बयालीस [४२] भेद हैं ।। ८-१२ ।।
+ विवेचनामृत. प्रस्तुत सूत्र में नामकर्म की ४२ प्रकृतियों का जिस अनुक्रम से वर्णन किया है, उसको यथाक्रम नहीं कहकर के प्रथम कर्मग्रन्थ की प्रणालिका के अनुसार विवेचन करते हुए उत्तर प्रकृतियों के नाम का निर्देश करते हैं ।