________________
२८ ] श्रीतत्त्वार्याधिगमसूत्रे
[ ७८ कर्म, वर्तमान प्रथम समय बँधता है वह यदि तीन समय भी अबाधित रूप से रहे तो वह त्रिकालवर्ती कहा जा सकता है, तथा प्रमत्तयोग से बँधे हुए कर्म की स्थिति कम से कम असंख्यात समय की है। इस अपेक्षा से उसे त्रैकालिक भी कह सकते हैं। श्री केवली भगवन्तों को प्रमत्तयोग नहीं होता है, इसलिए वे अप्रमत्त हैं। बिना प्रमत्तयोग केवली भगवन्त से हुई हिंसा, हिंसा रूप नहीं मानी है। उनको कर्मों का बन्ध है, वह मात्र एक समय की स्थिति का है। इसलिए वह तीनों कालों में अबाधित नहीं रहता है। * प्रश्न -हिंसा के दोषों का मूल यदि प्रमत्तयोग ही है, तो उसके साथ "प्राणव्यपरोपणम्"
अर्थात् प्राण का विनाश यह शब्द क्यों रखा गया है ? उत्तर-वास्तविकपणे तो प्रमत्तयोग ही हिंसा कही जाती है। किन्तु सर्व साधारण के लिए उसकी त्यागवृत्ति ही अशक्य होती है। इस हेतु से अहिंसा विकासक्रम के लिए स्थूल प्राणविनाश का त्याग प्रथम स्थान माना गया है। तत्पश्चात् यथाक्रम प्रमत्तयोग का त्याग जनसमुदाय में संभावित है। प्रमत्तयोग का त्याग नहीं होते हुए भी यदि प्राणविनाशवृत्तिकम-न्यून हो तो भी उससे जीवन शान्तिमय होता है, इतना ही नहीं किन्तु और समाज के लिए वह इष्ट तथा हितावह है। मुख्यपणे अध्यात्मविकास के साधकों को प्रमत्त योगरूप हिंसा का ही त्याग इष्ट है तो भी सामुदायिक जीवन-दष्टि से प्राणविनाशक रूप हिंसा के त्याग को अहिंसा की कोटि में रखा गया है। प्रमत्तयोग वा प्राणवध ये दोनों भिन्न-भिन्न कर दिये जाय तो उन दोषों का तारतम्यत्व भाव उपर्युक्त कथन से ही स्पष्ट है । * प्रश्न-हिंसा से निवृत्त होना ही अहिंसा है। अहिंसा व्रतधारी को जीवन के विकास
के लिए कौनसे-कौनसे कर्तव्य करने चाहिये ? उत्तर-प्रारम्भ तथा परिग्रह को कम करते हुए अपना जीवन शान्तिमय रखें तथा ज्ञानाभ्यास के लिए पुरुषार्थ के अनुसार सर्वदा तत्पर रहें एवं सरलला पूर्वक राग, द्वेष, तृष्णा तथा कार्य-अकार्य की विचारणा करके उसका सुधार करने के लिए अवश्य प्रयत्न करें।
* प्रश्न-हिंसा के दोष से आत्मा पर क्या असर होता है ?
उत्तर-चित्त से कोमलता विनष्ट होकर क्रूरता बढ़ती है तथा स्वभाव से हृदय क्रूर हो जाता है।
__अब यहाँ पर सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने में आ जाय तो देखा जाएगा कि, जैसे विशेष भाग के गृहस्थों में सदा भावहिंसा होती है, तिम साधुनों में सर्वदा द्रव्य हिंसा होती है। क्योंकि, श्वासोच्छ्वास तथा हाथ-पांव प्रसारण आदि से सूक्ष्म वायुकाय के जीवों की हिंसा हो रही है। स्वयं भले अप्रमत्त होते हुए भी इस हिंसा का परिहार अशक्य है। इस प्रकार की द्रयहिंसा तेरहवें गुणस्थानक पर्यन्त होती है एवं चौदहवें गुणस्थानक में रहे हुए जीव तथा सिद्धि स्थान में रहे हुए जीव द्रव्य मोर भाव दोनों प्रकार की हिंसा से रहित हैं । (७-८)