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सप्तमोऽध्यायः
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* असत्यस्य स्वरूपम *
5 मूलसूत्रम्
असदभिधानमनृतम् ॥ ७-६॥
* सुबोधिका टोका * अत्रासद् शब्दस्यत्रयार्थाः । सद्भाव-प्रतिषेधोऽर्थान्तरं गर्दा च । तत्र सद्भावप्रतिषेधो नाम सद्भूतनिह्नवोऽभूतोद्भावनं च । यथा नास्त्यात्मा, नास्ति च परलोकः इत्यादि भूतनिह्नवः । श्यामाकतण्डुलमात्रोऽयमात्माऽङ्ग ष्ठपर्वप्रमाणोऽयं आत्मा आदित्यवर्णो निःक्रियइत्येवमाद्यमभूतोद्भावनम् । अर्थान्तरं यो गां ब्रवीत्यश्वमश्वं च गौरिति । गति हिंसापारुष्यपैशुन्यादियुक्त वचः सत्यमपि गर्हितमनृतमेव भवति इति । विद्यमान प्रशंसेति सत्यस्य द्वयाथौं । अतः अत्र असत् शब्देनापि अविद्यमानताऽप्रशस्तता च द्वौ अपि प्रथौं ग्राह्यौ ।। ७-६ ।।
* सूत्रार्थ-सद्भाव का प्रतिषेध करने वाले, भिन्न अर्थ को सूचित करने वाले तथा निन्द्यवचनों को असत्य समझना चाहिए। अर्थात्-प्रसत्य बोलने को अनृत कहते हैं ।। ७-६ ।।
ॐ विवेचनामृत प्रमाद से असत् अर्थात् अयथार्थ-झूठ बोलना, वह 'असत्य' कहा जाता है। असत् पद सद्भाव निषेधक है। इसलिए सूत्रकार ने भी असत्य कथन को ही असत्य कहा है। तो भी उसमें असत्य चिन्तवन, असत्य कथन, असत्य आचरण इत्यादि असत्य दोषों का समावेश होता है। प्रमत्तयोग वालों को ही असत्य दोष सम्भवित है। अप्रमत्त योगी को असत्य दोष का स्पर्श भी नहीं है।
असत्य दोष को मुख्यतः दो विभागों में विभाजित किया जाता है
(१) अस्तित्व अर्थात् सद्भाव रूप होते हुए भी वस्तु-पदार्थ का निषेध करना या उसकी अन्यथा रूप से प्ररूपणा करना ।
(२) सत्य बोलते हुए भी यदि किसी को दुःख या दुर्भाव होता हो तो वह भी असत्य
ही है।
असत्य के त्यागी अर्थात् सत्य व्रतधारी को ऐसा होना चाहिए कि वे (१) प्रमत्त योग का त्याग करें। (२) मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को एकता रूप से साधे । (३) सत्य भी यदि दुर्भावपूर्ण और अप्रियजनक हो तो उसका कथन तथा चिन्तवन नहीं करें।