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________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१६ (१२) अतिथि संविभाग (शिक्षाव्रत चौथा)-तिथि तथा पर्व इत्यादि व्यवहार का व्यवहार जिन्होंने त्याग दिया है, ऐसे श्रमण-भिक्षु हैं। प्रस्तुत में श्रावक धर्म का अधिकार होने से विशिष्ट रूप में श्रीवीतराग प्रणीत चारित्र धर्म की आराधना करने वाला समझना चाहिए। अतिथि का यानी साधुओं का संविभाग अर्थात् उनको संयम में आवश्यक आहार, पानी तथा वस्त्र, पात्र इत्यादि भक्ति से प्रदान करना। साधु-साध्वियों को न्याय से प्राप्त की हुई वस्तु का दान करना चाहिए, वह भी विधिपूर्वक ; देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और कल्पनीय के उपयोगपूर्वक अवश्य करना चाहिए। (१) देश-इस देश में अमुक वस्तु सुलभ है कि नहीं? इत्यादिक विचार करके दुर्लभ वस्तु अधिक प्रमाण में लेनी इत्यादि । (२) सुकाल है कि दुष्काल है ? इत्यादि विचार करना। दुष्काल हो और अपने को सुलभ हो तो अपने अधिक प्रमाण में वहोराने का लाभ लेना। कौनसे काल में कैसी वस्तु की अधिक आवश्यकता है ? वर्तमान काल में कौनसी वस्तु सुलभ वा दुर्लभ है, इत्यादि विचार करके उसी प्रमाण में वहोराना चाहिए । (३) श्रद्धा-विशुद्ध अध्यवसाय से वस्तु देनी। देना पड़ता है, इसलिए देता हूँ ऐसी बुद्धि नहीं रखनी, किन्तु वस्तु देना यही मेरा कर्तव्य है, उनका अपने पर महान् उपकार है। यही मार्ग-रास्ते जाने का है, उनको देने से अपन भी उसी मार्गे-रास्ते जाने के लिए समर्थ बन सकेंगे, इतना ही नहीं किन्तु अपने अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि विशुद्ध भावना से अपनी आत्मा पवित्र होती है। (४) सत्कार-प्रादर भाव से देना, निमन्त्रण करना, अचानक अपने गृह-घर में पधारें तो खबर पड़ते ही सामने जाना, वहोराने के बाद अल्य-पर्यन्त पीछे जाना, इत्यादि सत्कारपूर्वक दान देना-वहोराना। (५) क्रम-कल्पनीय सर्वोत्तम-श्रेष्ठ वस्तु पहले देनी, पीछे सामान्य वस्तु देनी अथवा दुर्लभ वस्तु के लिए जरूरी प्रथम निमन्त्रण करना। पीछे अन्य-दूसरी वस्तुओं का निमन्त्रण करना। या जिस देश में जो क्रम होता है उस क्रमपूर्वक वहोराने का लाभ लेना। (६) कल्पनीय-आधाकर्म इत्यादि दोषों से रहित तथा उपकार इत्यादि गुणों से युक्त वस्तु कल्पनीय है। वर्तमान काल में चौविहार या तिविहार उपवास से दिवस का पौषध करके, दूसरे दिन एकासणा करना। श्रमण-मुनि जो वस्तु वहोरे वह वस्तु वापरनी, वह 'अतिथिसंविभाग व्रत' कहने में आता है। इस प्रकार का नियम लेना। वर्ष में दो तीन-चार यों जितने दिन अतिथि संविभाग व्रत करना हो, उतने दिन की संख्या नक्की कर लेनी चाहिए । फल-इस व्रत के सेवन से दानधर्म की आराधना होती है। श्रमण-श्रमणी (साधु-साध्वी) के प्रति प्रम-बहुमान तथा भक्ति में अभिवृद्धि होती है। साधु-साध्वियों को दान देकर के चारित्रसंयम की अनुमोदना द्वारा संयम धर्म का फल पाता है।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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