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________________ ७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ४५ यदि चौविहार उपवास करने में आये तो सर्वथा त्याग तथा तिविहार उपवास, प्रायम्बिल इत्यादि करने में आ जाए तो वह देश से त्याग होता है। पौषध ग्रहण करने वाले को अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्वतिथि में पौषध का नियम ग्रहण करना चाहिए । प्रत्येक पर्वतिथि में पौषध नहीं हो सके तो एक वर्ष में अमुक पाँच-दश-वीश पौषध करने का नियम अवश्य करना चाहिए। फल-इस पौषधोपवास व्रत से श्रमण-मुनि-साधु व्रत का अभ्यास होता है व करने की शक्ति पाती है. देह-शरीर पर का ममत्व भाव कम होता है, तथा प्रात्मा में पौषध से शा होती है। (११) उपभोग-परिभोग परिमाण (शिक्षाव्रत तीसरा)- एक ही बार भोगने में आए ऐसी वस्तु का उपयोग वह उपभोग है। जैसे कि, पुण्य वगैरह। या जिस वस्तु का देह-शरीर के अन्दर उपयोग वह उपभोग है। जैसे कि, आहारादिक। बारम्बार भोगने में आए देह-शरीर के बाहर भोग सके ऐसी वस्तु का उपयोग वह उपभोग है। जैसे कि, वस्त्रादिक । अर्थात्-जिसमें उपभोग और परिभोग व्रत का उपयोग करने में आ जाए, वह उपभोग-परिभोग परिमारण व्रत कहने में आता है। यह शब्द का शब्दार्थ है। इसका भावार्थ नीचे प्रमाणे है अतिसावद्य वस्तुओं का त्याग तथा अल्प सावद्य वस्तुप्रों का उपभोग परिमाण से जो करना, वह उपभोग-परिभोग परिमारण है । इस व्रत का नियम दो प्रकार से करने में आता है। एक आहार-भोजन सम्बन्धी तथा दूसरा धंधा-व्यापार सम्बन्धी है। पाहार में-बावीस प्रकार के अभक्ष्य, बत्तीस प्रकार के अनन्तकाय, रात्रिभोजन, चलित रस, तथा सचित्त वस्तुओं का त्याग होना चाहिए। क्योंकि इन वस्तुओं के उपयोग से अतिदोषअति पाप लगता है। इन वस्तुओं का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता हो, तो सकारण जिसका उपयोग करना पड़ता हो, उसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का अवश्य त्याग करना चाहिए। तथा इसके सिवाय अल्पवाली वस्तुओं में भी जिनका उपयोग नहीं करने का हो उनका तो अवश्य ही त्याग करना चाहिए, जिससे निरर्थक पाप-दोष से बच जाते हैं । 'सच्चित्त-दव्व-विगइ०' इन चौदह नियमों को ग्रहण करने से बिना उपयोग की वस्तुओं का त्याग और अमुक वस्तुओं का भी परिमारण सरलता से हो सकता है । इन नियमों के पालन से निरर्थक पापों से बचने के साथ-साथ अभ्यन्तर दृष्टि से कैसा सुन्दर जीवन बनता है, इससे आध्यात्मिक तथा शारीरिक कसे लाभ आदि मिलते हैं, यह तो उक्त नियमों का पालन करने वाला ही समझ सकता है-अनुभव कर सकता है । __व्यापार-धंधे में पन्द्रह प्रकार के कर्मादान का त्याग करना चाहिए। समस्त का त्याग नहीं हो सके तो प्रमुक जो जरूरी नहीं है, उनका तो अवश्य त्याग करना चाहिए। फल-इस उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत से जीवन में सादगी और त्याग पाता है। इस व्रत से आध्यात्मिक दृष्टि से लाभ के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक इत्यादि दृष्टि से भी लाभ होता है।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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