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________________ ८।२२ ] अष्टमोऽध्यायः [ ४५ विशेष-मूलप्रकृतियों का जो उत्कृष्ट स्थिति बन्ध कहा है, उसके अधिकारी मिथ्यादृष्टि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ही कहे हैं, तो भी पांचवें कर्मग्रन्थ में उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्टस्थिति बन्ध और उनके अधिकारी बताए हैं। अविरय सम्मोतित्थं, पाहार दुगामराउ य पमत्ते । मिच्छाविट्ठी बन्धइ जिठिइ सेस पयडीणं ॥ ४२ ॥ अर्थ-जिन नामकम का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अविरति सम्यग्दृष्टि तथा प्राहारकद्विक और देवायुष्य का प्रमत्तसंयत, शेष ११६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वी को होता है। यह सामान्यापेक्षा गुणस्थानक विषयी है। सूत्राथ में मूल पाठ कर्मों की ३०-७०-२० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बताई है, किन्तु उत्तरप्रकृतियों का स्थिति बन्ध ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, तथा अन्तरायकर्म की पाँच को छोड़कर शेष उत्तरप्रकृतियों का स्थिति बन्ध भिन्न-भिन्न है। कर्मप्रकृति ग्रन्थ में स्थिति बन्धाधिकार ८ द्वारों सहित [गाथा ६८ से] विशेष विस्तारपूर्वक समझाया है। पांचवें कर्मग्रन्थ में [गाथा २६ से] इसी विषय का संक्षेप में वर्णन है। जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के अधिकारी गणस्थानक और गति की अपेक्षा कौन-कौन और कैसं अवस्था में उन प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, उसको समझाया है। विशेष जिज्ञासुमों को उक्त कथन देखने चाहिए। मूलसूत्रकार ने तो वेदनीयकर्म की जघन्यस्थिति बारह मुहूर्त की कही है। वह सकषायी जीव की अपेक्षा समझनी चाहिए। यथा मुतु प्रकषाय ठिइ बार मुहूत्त वे अणिए । कर्मग्रन्थगाथा ॥२७॥ काषायिक परिणामों की तरतमता की अपेक्षा मध्यम स्थिति असंख्यात प्रकार की है ।। ८-१५ से ८-२१ तक ।। * रसबन्धस्य व्याख्या* 卐 मूलसूत्रम् विपाकोऽनुभावः ॥८-२२ ॥ * सुबोधिका टीका * कर्मणो विपाकमनुभावः (रसयुक्तोभोगः) कथ्यते । निखिलप्रकृतीनां फलम् अर्थात्-विपाकोदयः सोऽनुभावोऽस्ति । विविधप्रकारो भोगः सो विपाकः । स विपाकस्तत्प्रकारेण तथाऽन्यप्रकारेणाऽपि भवति ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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