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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ८।१२ ___ * भाषाप्रायोग्यवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में परिणमावी, उन्हीं पुद्गलों के पालम्बन से उन पुद्गलों को छोड़ देना, वह 'भाषापर्याप्ति' कही जाती है ।
* मनप्रायोग्य वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मन रूप में परिणमावी वो ही पुद्गलों के पालम्बन से उन पुद्गलों को छोड़ देने की जो शक्ति वह 'मनःपर्याप्ति' कही जाती है।
विशेष-एकेन्द्रिय जीव-प्रात्माओं को प्रथम की प्राहासदिक चार पर्याप्तियाँ होती हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव-प्रात्माओं को आहारादिक छहों पर्याप्तियाँ होती हैं तथा शेष सभी (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, और असंज्ञी पंचेन्द्रिय) जीवों-प्रात्मानों के मनःपर्याप्ति बिना पांचों पर्याप्तियाँ होती हैं।
प्रत्येक जीव-प्रात्मा अपने उत्पत्ति स्थान में आने के साथ ही स्वप्रायोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ कर देता है। उसमें जिन जीवों के पर्याप्त नामकर्म का उदय हो, वे ही जीव यथायोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर सकते हैं। जिसके अपर्याप्त नामकर्म का उदय हो, वह जीव-आत्मा स्वप्रायोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मृत्यु-मरण पाता है। अपर्याप्त नामकर्म स्थावर दशक में पायेगा।
[४] प्रत्येक शरीर-जिससे जीव-प्रात्मा को स्वतन्त्र एक देह-शरीर प्राप्त हो, वह 'प्रत्येक शरीर नामकर्म' कहा जाता है।
(५) स्थिर - जिससे देह-शरीर के दाँत, अस्थि इत्यादि अवयव निश्चल बनें, वह 'स्थिर नामकर्म' कहा जाता है।
[६] शुभ-जिससे नाभि से ऊपर के शुभ अवयव प्राप्त हों वह 'शुभनामकर्म' कहा जाता है। नाभि से ऊपर के अवयव शुभ गिनाते हैं ।
[७] सुभग-जिससे जीव-आत्मा उपकार नहीं करने पर भी सर्व को प्रिय बनता है, वह 'सुभगनामकर्म' कहा जाता है ।
_ [८] सुस्वर-जिससे जीव-प्रात्मा को मधुर स्वर प्राप्त हो, वह 'सुस्वर नामकर्म' कहा जाता है।
[६] प्रादेय --जिससे जीव-आत्मा का वचन जो उपादेय बनता है, दर्शनमात्र से जो सत्कार-सन्मान होता है, वह 'प्रादेय नामकर्म' कहा जाता है ।
[१०] यश-जिससे जीव-आत्मा को यश-कीत्ति-ख्याति मिलती है, वह 'यशनामकर्म' कहा जाता है। इस तरह त्रसदशक को जानना ।
* स्थावर दशक-त्रस दशक में प्रसादि का जो अर्थ है, उससे विपरीत अर्थ क्रमशः स्थावर आदि का है। जैसे कि त्रस के अर्थ से स्थावर का अर्थ विपरीत है। बादर के अर्थ से सूक्ष्म का अर्थ भी विपरीत है। स्थावर दशक के क्रमश: नाम नीचे प्रमाणे हैं