SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८।१२ ] अष्टमोऽध्यायः [ ३७ * स दशक * त्रस दशक नामकर्म नीचे प्रमाणे हैं * सदशक-(१) सनामकर्म, (२) बादरनामकर्म, (३) पर्याप्तनामकर्म, (४) प्रत्येकनामकर्म, (५) स्थिरनामकर्म, (६) शुभनामकम, (७) सोभाग्यनामकर्म, (८) सुस्वरनामकर्म, (६) प्रादेयनामकर्म, तथा (१०) यश, कीत्तिनामकर्म । इस तरह त्रस दशक नाम कहे जाते हैं। [१] सनामकर्म-जिससे जीव-प्रात्मा इच्छा होते हुए एक स्थान से अन्य-दूसरे स्थान में जा सके, वह 'वसनामकर्म' है। बेइन्द्रियादि जीवों के प्रसनामकर्म का उदय होता है। यद्यपि वायुकाय और तेउकाय के जीव अन्य-दूसरे स्थान में जा सकते हैं, किन्तु उसमें उनकी इच्छा कारण नहीं है, परन्तु स्वाभाविक रीत्या गति होती है। इससे उनको इस कर्म का उदय नहीं होता। [२] बादरनामकर्म-जिससे जीव-प्रात्मा को बादर (स्थूल) देह-शरीर प्राप्त हो वह बादरनामकर्म कहा जाता है । [३] पर्याप्तनामकर्म-जिससे जीव-प्रात्मा की स्वप्रायोग्य समस्त पर्याप्तियां पूर्ण हों, वह पर्याप्तनामकर्म कहा जाता है। पर्याप्ति यानी पुद्गल के उपचय से उत्पन्न हुई उन-उन पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन में कारणभूत शक्ति विशेष । वे पर्याप्तियां छह हैं। जिनके नाम नीचे प्रमाणे हैं । (१) आहारपर्याप्ति, (२) शरीरपर्याप्ति, (३) इन्द्रियपर्याप्ति, (४) श्वासोश्वासपर्याप्ति, (५) भाषापर्याप्ति तथा (६) मनः पर्याप्ति । * जीव-आत्मा, जिस शक्ति से बाह्य पुद्गलों के आहार को ग्रहण करके उन पुद्गलों को खल (-मल) तथा रस रूप में जो परिणमावे वह शक्ति 'पाहारपर्याप्ति' कही जाती है। * रस रूप में हुए पाहार को रुधिरादि धातु रूप में परिणमावने की जो शक्ति, वह 'शरीरपर्याप्ति' कही जाती है। * धातु रूप में परिणमेल आहार को इन्द्रियों के रूप में परिणमावने की जो शक्ति, वह 'इन्द्रियपर्याप्ति' कही जाती है । * जो शक्ति से श्वासोश्वास प्रायोग्य वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके श्वासोश्वास रूपे परिणमावी वो ही पुद्गलों के पालम्बन से वे पुद्गलों को जो छोड़ दे, वह शक्ति 'श्वासोश्वासपर्याप्ति' कही जाती है।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy