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जननान् मरणं जातं, निश्चितं यस्य पूर्वतः।
कः शोकस्तत्र को मोहो, वृथा का परिदेवना ॥ २३ ॥ * अर्थ-पहले से ही जन्म के कारण जिसका मरण निश्चित है तो इसके लिए क्या शोक करना और क्या मोह करना। इसके लिए विलाप करना व्यर्थ है ॥ २३ ॥
संरुध्य ममतावतम्, समता सूत्रमास्थितः ।
मृत्युमहोत्सवे हर्षन्, सत्यं मृत्युञ्जयी सदा ॥ २४ ॥ * अर्थ-ममता के आवेगों को रोककर समता के सूत्रों में स्थित हो जाम्रो । मृत्युञ्जयी तो मृत्यु के अवसर को सहर्ष सदा महोत्सव ही मानता है ।। २४ ।।
राग - द्वषवशीभूतो, जीवो दुःखति श्रितः । __क्रूरकर्माश्रितो लोके, कथं शान्ति समाश्रयेत् ॥ २५ ॥
* अर्थ-राग-द्वेष के वशीभूत यह जीव दुःख-परम्परा में पड़ता है। यह संसार तो क्रूर कर्मों का घर है। यहाँ शान्ति कैसे मिल सकती है ।। २५ ॥
प्रतिकूलेऽनुकूले वा, सुन्दरेऽसुन्दरेऽपि च ।
राग-द्वषो न मे किञ्चित्, जायतां हे जिनेश्वरः ॥ २६ ॥ * अर्थ-हे जिनेश्वर देव ! प्रतिकूल, अनुकूल, सुन्दर, प्रसुन्दर पदार्थों एवं अवसरों के प्रति मेरे मन में किञ्चित् भी राग-द्वेष नहीं हो ।। २६ ॥
मनो मे जायतां स्वच्छं, पवित्रं दोषवजितम ।
सर्वेषामात्म - तुष्टानां, दर्शनं स्यात् प्रशान्तये ॥ २७ ॥
* अर्थ-मेरा मन स्वच्छ, पवित्र एवं दोषों से रहित हो। मेरी भावना है कि मैं सभी प्रात्मतुष्टों का अपनी मनःशान्ति के लिए दर्शन करूं ।। २७ ॥
जानन्नहं सदा लोके, प्रात्मनो देह - भिन्नताम् ।
उद्देश्यं निर्मलं मोक्षं, चिन्तयामि मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥ * अर्थ-मैं हमेशा यह जानता हूँ कि लोक में प्रात्मा और शरीर दोनों भिन्न हैं। आत्मा का उद्देश्य निर्मल मोक्ष है। यही बार-बार मेरे चिन्तन का विषय रहता है ।। २८ ।।