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( ११० ) मरणं मंगलं तच्च, बोधि - भाव - समन्वितम् ।
दर्शन - ज्ञान - चारित्र - शुद्धानां वीतरागिणाम् ॥ १७ ॥
* अर्थ-मंगल मरण वही है, जो बोधिभाव से युक्त है। यह मरण दर्शनज्ञान-चारित्र से शुद्ध वीतरागियों को प्राप्त होता है ॥ १७ ॥
जातो यश्चात्र संसारे, मृत्युस्तस्य सुनिश्चितम् ।
अतो भीतिः कथं मृत्योः, देहो नश्यति नैव सः ॥ १८ ॥ * अर्थ-संसार में जिसका जन्म हुमा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर उस मृत्यु से क्या भय ! इसमें तो केवल देह नष्ट होता है, प्रात्मा नहीं ।। १८ ॥
कृमिभिः संकुलो देहः, रोग-सन्ताप-कारकः ।
क्षीयतेऽनुपलं नित्यं, मोहं नैव वृथा कृथाः ॥ १६ ॥ * अर्थ-कृमियों से युक्त यह शरीर रोगों एवं दुःखों का कारक है। यह तो प्रति क्षण क्षीण-जर्जर होता जा रहा है। इसलिए इसका मोह व्यर्थ है ।। १६ ।।
प्रात्मा नो जायते चात्र, नैव बालो युवा तथा ।
नैव वृद्धोऽप्यशक्तोऽसौ, तस्मान् मृत्युञ्जयी सदा ॥ २० ॥ * अर्थ-प्रात्मा तो यहाँ कभी शिशु, बालक, युवा, वृद्ध, अशक्त आदि होता नहीं है, अतः वह तो सदैव मृत्युजयी है ।। २० ।।
माया मोहं च संत्यज्य, स्वात्मरूपं विचार्य वै।
श्रीजिनोक्तौ च सत् श्रद्धा, कुर्वन् मृत्युञ्जयो सदा ॥ २१ ॥ * अर्थ-प्रतः माया-मोह का त्याग कर निश्चय रूप से अपने स्वरूप का विचार करो। श्रीजिनेश्वर भगवन्तों द्वारा निर्दिष्ट सम्यश्रद्धा से अनुपम मृत्युञ्जयी होता है ।। २२ ।।
प्रात्मन् ! अनित्योऽयं देहस् त्वशुची रोग-मन्दिरम् ।
शुद्धौ यत्ने कृते शश्वत्, सर्वदा मलिनायते ॥ २२ ॥ * अर्थ-हे आत्मन् ! यह शरीर तो अनित्य, अपवित्र एवं रोगों का घर है । शुद्धता का यत्न करने पर भी यह तो मलिन ही बना रहता है ।। २२ ।।