SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5 मूलश्लोक ( १०६ ) प्रतिपरिचितेष्ववज्ञा, नवे भवेत् प्रीतिरिति हि जनवादः । चिरतरशरीरनाशे, नवतरलाभे च कि भीरुः ।। १७ ।। अर्थ - लोक - विश्व में तो यह माना गया है कि प्रतिपरिचय अवज्ञा का कारण है और नये में प्रीति होती है तो तुझे प्रतिप्राचीन प्रतिपरिचित ऐसी पुद्गल देह का वियोग कराने वाली तथा नव-नवीन रूप प्राप्त कराने वाली ऐसी मृत्यु का भय क्यों हो ? प्रर्थात् - यह जीर्णदेह अवज्ञा की पात्र है, इसके विसर्जन का समय एवं नूतन देह - शरीर की प्राप्ति का काल आनन्द का अवसर है, भय का नहीं ।। १७ ।। 5 मूलश्लोक स्वर्गादेत्य पवित्रनिर्मल - कुले, दत्वा भक्तिविधायिनां बहुविधं भोक्त्वा भोगमहर्निशं परकृतं स्थित्वा क्षरणं पात्रं वेशविसर्जनामिव मृति, सन्तो लभन्ते स्वतः ॥ १८ ॥ संस्मर्यमाणा वाञ्छानुरूपं जनैः । धनम् ॥ मण्डले । अर्थ- सत्पुरुष स्वर्ग से पवित्र निर्मल कुल में आते हैं और लाखों लोग उनका स्मरण करते हैं । वे सेवकजनों को बहुविध इच्छित वस्तु तथा धन देते हैं । अहर्निश भोगों का उपभोग करते हैं । इस तरह भूमण्डल पर जो अल्प समय रहकर नट की तरह वेश विसर्जन करता है, वह स्वयं देह शरीर का विसर्जन कर परम शान्ति प्राप्त करता है । सारांश-जिस तरह नाटक का प्रारम्भ होता है, बाद में नाटक पूर्ण होने पर नाटक करने वाला वेश परिवर्तन कर अपना पूर्व वेष धारण करता है, उसी तरह यह महान् श्रात्मा मनुष्यादि चार गतियों का नृत्य पूर्ण होने पर मनुष्य-जन्म के वेश का परित्याग कर ( मूलस्वरूप अरूपी भाव को प्राप्त करने हेतु ) स्वयं मृत्यु- मरण को महामहोत्सव रूप स्वीकृत करता है ।। १८ ।।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy