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________________ ७।१६ ] सप्तमोऽध्यायः [ ४३ अनर्थदण्ड के मुख्य चार भेद हैं (१) अपध्यान-यानी दुर्ध्यान-अशुभ विचार । जैसे-शत्रु मर जाए तो अच्छा, अमुक नृपति-राजा ने अमुक राजा को जीत लिया वह अच्छा हुआ, अमुक देश के लोग मारने योग्य ही हैं इत्यादि प्रात्मा के अशुभ विचार अपध्यान हैं। ऐसे अशुभ विचारों से अपने कार्य की कोई सिद्धि नहीं हो सकती है। ऐसे विचारों से निरर्थक पाप का बन्ध होता है। इसलिए अपध्यान नहीं करना चाहिए। (२) पापकर्मोपदेश-संग्राम यानी लड़ाई करनी चाहिए, हिंसादिक कार्यों-कतलखाना तथा मत्स्योद्योग इत्यादिक का फैलावा होना चाहिए, वस्त्र-कपड़ा आदि की मिलें चलनी चाहिए, अनेक प्रकार के कारखाने सर्वत्र होने चाहिए, एरोप्लेन-स्टीमर-रेलगाड़ियाँ, मोटर प्रादि साधनों में अभिवृद्धि होनी चाहिए, बिजली उत्पन्न करनी चाहिए, खेती करनी तथा करानी चाहिए, सांसारिक समस्त प्रारम्भ-समारम्भादिक प्रवृत्तियों में भाग लेना चाहिए तथा अठारह पापस्थानों को भी सेवना चाहिए; इत्यादि पाप कार्यों का उपदेश यह पापकर्म का उपदेश कहा जाता है । (३) हिंसकार्पण-जो वस्तु पर को देने से हिंसा होती है वह वस्तु अन्य को दूसरे को देनी वह हिंसकार्पण है। जैसे-हथियार, विष (जहर) तथा अग्नि इत्यादि । [दाक्षिण्य के कारण पापकर्म का उपदेश करने का प्रसंग आ जाए और हिंसा भी हो जाए ऐसी वस्तु देनी पड़े, इसलिए नियम में इस पूरती छूट रखनी पड़ती हो तो भी बने वहाँ तक उस छूट का उपयोग नहीं करना पड़े, इसलिए उसका ध्यान रखना चाहिए।] (४) प्रमादाचरण-नृत्य, नाटक तथा सिनेमा का निरीक्षण करना, कुतूहल से गीत-गान सुनना, कामशास्त्र का वांचन करना, स्त्रीकथा-भक्तकथा-देशकथा-राजकथा इन चार की विकथाएँ करनी, तालाब आदि में स्नान करना, वृक्ष की शाखा के हिंडोला इत्यादि पर झूलना, कुत्ताकूकड़ादिक प्राणियों को परस्पर लड़ाना, वनस्पति को खोदना तथा उस पर चलना, कारण बिना वृक्ष के पत्र, पुष्प-फूल तथा डाली आदि छेदना, अन्य मार्ग-रास्ता होते हुए भी वनस्पति वा निगोद राशि पर चलना, दूध-दही-घत-तेल इत्यादिक के भाजन-वासणों को उघाड़ा रखना, कीडी-मक्खीमच्छर-मांकड़ तथा देड़का इत्यादिक मारना, कार्य हो जाने पर भी सिगड़ी-चूल्हा-बत्ती-नल तथा पंखा आदि चालू रखना, जोये बिना छाणां-लाकड़ा-कोलसा-धान्य-अनाज तथा पानी प्रादि का उपयोग करना, निष्ठुर और मर्मवचन बोलना, खड़खड़ाट पेट भरके हँसना, निंदा करनी, द्यूतादि सप्त' व्यसन सेवना, बॉक्सिग-(मल्लयुद्ध) इत्यादि रम्मतें रमनी-देखनी, कोमेन्ट्री सुननी, इत्यादि प्रमादाचरण हैं। तदुपरान्त प्राज के रेडियो, अखबार-छापा, नोवेल, नाटक, सिनेमा, क्लब तथा होटल ए भी व्यसन आत्मा को दुर्गति के मार्ग पर ले जाते हैं । १. द्यूतं च मांसं च सुराच वेश्या, पापद्धिः चोरी परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके, घोतिघोर नरकं नयन्ति ॥१॥ अर्थ -जुगार, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री-सेवन, ये सप्त व्यसन दारुण नरक में ले जाते हैं । (१)
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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