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________________ ८६ ] अष्टमोऽध्यायः * आत्मा में चौथा गुण 'स्वभावरमरणतारूप अनन्त चारित्र' है । आत्मा में केवल स्वभाव में अर्थात् अपने ही भाव में रमणता करने का गुण होते हुए भी मोहनीय कर्म से इस गुण का अभिभव हो गया है। अर्थात्-आत्मा भौतिक वस्तु प्राप्त करने की रुचि रखता है, उसका संग्रह करता है, उस पर राग-द्वेष करता है, इस प्रकार परभाव में रमता है। * आत्मा का पांचवां गुण 'अक्षयस्थिति है। इस गुण के प्रभाव से प्रात्मा का न जन्म है, न जरा है, न मृत्यु-मरण है। ऐसा होते हुए भी प्रायुष्य-कर्म के कारण प्रात्मा को जन्म-मरण करने पड़ते हैं। * आत्मा का छठा गुण 'प्ररूपीपना' है। आत्मा में यह गुण होने से इसका न कोई रूप है, न रस है, न गन्ध है, न स्पर्श है। ऐसा होते हुए भी अभी अपन शरीरधारी हैं। इसके कृष्ण, श्वेत इत्यादि रूप तथा मनुष्यादि गति, यश, अपयश, सुस्वर एवं दुःस्वर इत्यादि जो विकार दिखाई देते हैं, वे छठी नामकर्म प्रकृति के कारण हैं । * आत्मा का सातवाँ गुण 'प्रगुरुलघुता' का है। इस गुण से आत्मा उच्च नहीं है तथा नीच भी नहीं है; तो भी अमुक व्यक्ति उच्च कुल में जन्मा है तथा अमुक व्यक्ति नीच कुल में जन्मा है। इस तरह जो उच्चकुल या नीच कुल की व्यवहार होता है, वह सातवीं गोत्र कर्मप्रकृति के कारण है। आत्मा का आठवाँ गुण 'अनन्तवीर्यपना' है। इस गुण से प्रात्मा में अतुल, अनंत शक्ति है। किन्तु अभी इस अतुल सामर्थ्य का अनुभव नहीं होता है क्योंकि अन्तराय कर्मप्रकृति से इस शक्ति का अभिभव हो रहा है। इस तरह इन अष्ट-पाठ कर्मों का क्रमशः आत्मा के आठ गुणों को दबाकर उसमें विकृति लाने का स्वभाव है। कर्म अनेक स्वभावी हैं तो भी संक्षेप दृष्टि से उनके आठ विभाग करके बताये गये हैं। मध्य मार्गवर्ती विस्तृत रुचि जिज्ञासुओं के लिए उन आठ प्रकृतियों के भेदों की संख्या तथा नाम का निर्देश आगे के सूत्र से करते हैं, जो उत्तर प्रकृति के नाम से विख्यात-प्रसिद्ध हैं । 'कर्म विपाक' नामक पहले कर्मग्रन्थ में इन उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन है ।। (८-५) .. प्रकृतिबन्धस्योत्तरभेदानां संख्याः * ॐ मूलसूत्रम्पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-चतु-द्वि-चत्वारिंशद-द्वि-पञ्चभेदाः यथाक्रमम् ॥८-६॥
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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