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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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* ज्ञानावरणप्रकृतीनां पञ्च भेदाः *
卐 मूलसूत्रम्
मत्यादीनाम् ॥ ८-७॥
* सुबोधिका टीका * तेषामष्टानां प्रकृतिबन्धानामेकैकस्यानुक्रमात् पञ्च, नव, द्वि, अष्टाविंशतिः, चत्वारः, द्विचत्वारिंशत्, द्विः तथा पञ्चेति भेदाः यथाक्रमं प्रत्येतव्यम् । इत उत्तरंयद् वक्ष्यामः । तद्यथा-मतिज्ञानादीनां पञ्च भेदाः भवन्ति ।। ८-७ ।।
* सूत्रार्थ-उपर्युक्त पाठ प्रकार के प्रकृतिबन्ध के क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और पाँच उत्तरभेद हैं ।। ८-६ ॥ .
मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पांच ज्ञानावरण कर्म के भेद हैं ।। ८-७ ।।
विवेचनामृत * प्रकृतिभेद के उत्तर भेदों की संख्या-ज्ञानावरणादिक पाठ मूल प्रकृतियों के अनुक्रम से ५, ६, २, २८, ४, ४२, २ और ५ भेद हैं। सब मिलकर ६७ भेद होते हैं ।। ८-६ ।।
* ज्ञानावरण प्रकृति के पांच भेद–मति इत्यादि पांच ज्ञान के पाँच प्रावरण ज्ञानावरण के पाँच भेद हैं। अर्थात मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण तथा केवलज्ञानावरण, ये ज्ञानावरण के पांच भेद हैं ।
उनमें(१) मतिज्ञान को रोकने वाली मतिज्ञानावरण प्रकृति है । (२) श्रुतज्ञान को रोकने वाली श्रुतज्ञानावरण प्रकृति है । (३) अवधिज्ञान को रोकने वाली अवधि ज्ञानावरण प्रकृति है। (४) मनःपर्यवज्ञान को रोकने वाली मनःपर्यवज्ञानावरण प्रकृति है। (५) तथा केवलज्ञान को रोकने वाली केवलज्ञानावरण प्रकृति है।
विशेष—प्रत्येक ज्ञान का आवरण यानी आच्छादन करने का जो स्वभाव उसको ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। उसके स्थूलदृष्टि से मुख्य पाँच भेद बताए हैं ।
विशेषरूप में पहले 'कर्मविपाक' ग्रन्थ में गाथा ४ से ८ तक इनके उत्तर भेदों का सविस्तार वर्णन है। इस ग्रन्थ में भी मतिज्ञानादिक पांच ज्ञान का स्वरूप प्रथम अध्याय के नवे सूत्र से विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।। ८-७ ।।