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सप्तमोऽध्यायः
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प्रत्येक समय केवल प्रवृत्त्यात्मक (ईर्यासमिति से यावत् करुणा) भावनायें साधक रूप नहीं हो सकतीं, अहिंसादिक व्रतों को स्थिर रखने के लिए किसी समय माध्यस्थ भावना भी उपयोगी है । अविनीत, अयोग्यपात्र, या जड़ संस्कार जिनमें सद्वस्तु ग्रहण करने की योग्यता नहीं हैं, ऐसे पात्रों में माध्यस्थ भावना है। क्योंकि, सर्वथा शून्य हृदयवाला काष्ठ अथवा चित्र के तुल्य, उपदेशादिक ग्रहण-धारण करने में असमर्थ है। ऐसे जीव-यात्मानों को उपदेश देने से वक्ता के हितोपदेश को सफलता नहीं मिलती, इसलिए उन पर उदासीनता, मध्यस्थता या तटस्थ बुद्धि रखना ही
श्रेष्ठ है।
इस माध्यस्थ भावना के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-जो प्राणी अविनीत होने से हितोपदेश का श्रवण नहीं करे, कदाचित् श्रवण करे तो भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देवे, अपने से शक्य होते हुए भी उपदेश को अंशमात्र भी अमल में नहीं लावे । ऐसे जीव-प्राणी के प्रति उपेक्षा भावना भानी, अर्थात् उसके प्रति द्वेषभाव किए बिना ही उपदेश देना छोड़ देना चाहिए। क्योंकि, जो ऐसे जीव-प्राणी के प्रति माध्यस्थ्य भावना नहीं रखने में आ जाए तो साधक के हितोपदेश का प्रयत्न निष्फल बन जाता है, तथा साधक के मन में कदाचित् उसके प्रति द्वेषभाव जगे, ऐसी भी सम्भावना लगती है। और आगे बढ़ करके एक-दूसरे को क्लेश-कंकाश और वैमनस्य भी उत्पन्न होता है। अतः साधक को दीर्घ विचार करके उपेक्षा भावना के योग्य जीवों पर उपेक्षा भावना का प्रयोग अवश्य ही करना चाहिए। अन्यथा दोनों को आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से नुकसान होना सम्भव है। इस भावना से अविनीत इत्यादि के प्रति द्वेषभाव नहीं होता है, यह उत्तम लाभ है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य ये चारों भावनाएँ शुभ हैं। अर्थात्-'उपेक्षा भावना' भी शुभ है।
योग्य स्थान पर उपेक्षा भावना के प्रयोग से नुकसान नहीं, किन्तु लाभ है। जैसे-नूतन कर्मबन्ध नहीं होता है तथा निर्जरा आदि का लाभ होता है। तदुपरान्त यह जीव उपेक्षा भावना के योग्य है कि नहीं? यह भी बदष्टि से विचार करना चाहिए। अन्यथा उपेक्षा भावना के अयोग्य जीव-प्राणी पर उपेक्षा भावना करने से अपने को आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से अति नुकसान होता है ।। ७-६ ।।
* महाव्रतानां स्थिरताकृते अन्यविचारणा के 卐 मूलसूत्रम्जगत् काय-स्वभावौ च संवेग-वैराग्यार्थम् ॥ ७-७॥
* सुबोधिका टीका * संवेगवैराग्यार्थम् जगत्कायस्वभावी भावयेच्च । तत्र जगत्स्वभावो द्रव्याणामनाद्यादिमत्परिणामयुक्ताः प्रादुर्भावतिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशाः ।
कायस्वभावोऽनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारताऽशुचित्वमिति । एवं हि भावयतस्तस्य संवेगो वैराग्यं च भवति । तत्र च संवेगः जगभीरुत्वमारम्भ-परिग्रहेषु