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________________ ७।२६ ] सप्तमोऽध्यायः उपवासादि यदपि क्रियन्ते प्रमादादिदोषपरिहारार्थञ्च रत्नत्रयाराधनार्थं क्रियन्ते । अतः पर्वणि उपवासकैरप्रमत्ततया सोत्साहेन क्रियानुष्ठानं विधातव्यम् । प्रमादारुचिना वा विधिभंगेनांशतः भंग जायते। तेनैव पञ्चातिचाराः पौषधोपवासातिचाराः भवन्ति ।। ७-२६ ॥ * सूत्रार्थ-अनदेखी और अप्रमाणित भूमि पर मल-मूत्रादि का परित्याग, अनदेखी तथा अप्रमाजित वस्तु का आदान-निक्षेप, अनदेखी और अप्रमार्जित शय्या तथा प्रासन इत्यादि का उपयोग, अनादर-व्रतपालन में भक्ति का प्रभाव और स्मृत्यनुपस्थापन, ये पाँच पौषधोपवास व्रत के अतिचार हैं ॥ ७-२६ ।। विवेचनामृत ॥ ___ अप्रतिवेक्षित तथा अप्रमार्जित स्थल में (१) उत्सर्ग (२) (उक्त) पादाननिक्षेप, (३) संस्तारोपक्रम, (४) अनादर और (५) स्मृत्यनुपस्थापन ये पाँच पौषधवत के अतिचार हैं। अर्थात्-अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाणित-उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित-आदाननिक्षेप, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-संस्तारोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थापन ये पांच पौषधोपवास (पौषध) व्रत के अतिचार हैं। दशम पोषध व्रत के पाँच अतिचारों का संक्षिप्त वर्णन नीचे प्रमाणे है (१) अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-उत्सर्ग-प्रप्रत्यवेक्षित यानी दृष्टि से बिल्कुल जोहे बिना अर्थात् दृष्टि से बरावर देखे भाले बिना। अप्रमाजित यानी चरवला आदि से बिल्कुल के बरावर प्रमार्जन बिना । उत्सर्ग यानी त्याग करना। भूमि को दृष्टि से जोहे-देखे बिना और चरवला आदि से प्रमाजित किये बिना के बरोबर प्रमार्जन बिना मल-मूत्र का त्याग करना। (२) अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित-मादाननिक्षेप-आदान यानी लेना। निक्षेप यानी रखना। दृष्टि से देखे-जोहे बिना और चरवला आदि से प्रमाजित किये बिना वस्तु लेनी और रखनी। (३) अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाजित-संस्तारोपक्रमण-संस्तार यानी संथारा (बिछौना), पासनादि (विछाना) सोने का और पाथरने के साधन । उपक्रमण यानी पाथरना। दृष्टि से देखे-जोहे बिना के बराबर प्रमाा बिना संथारा, आसनादि पाथरना । (४) अनादर-पौषध में उत्साह नहीं रखना। जैसे-तैसे अनादर से पौषध पूर्ण करना । (५) स्मत्यनुपस्थापन- 'स्वयं पौषध में है' यह भूल जाना तथा पौषध की विधियाँ याद नहीं रखना इत्यादि । ये पांच पौषधोपवास (पौषघ) व्रत के अतिचार जानना ।। (७-२६)
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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