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भोगायतने देहे वं, जीवो दुःखर्तात श्रितः । संत्रस्तो बहुधा घातैः, प्राप्तो मृत्युमहार्णवः ॥ ५ ॥
* श्रर्थ-भोगोपभोग से युक्त इस शरीर के श्राश्रित जीव दुःखों को प्राप्त करता रहता है । फिर अनेक घात-प्रतिघातों से श्राहत मृत्युरूप महासमुद्र में विलीन हो जाता है ॥ ५ ॥
श्रतीते बहुधा जाता, मृत्युर्मे च पुनः पुनः । किन्त्वद्यापि नो जातो, मृत्युञ्जय-महोत्सवः ॥ ६ ॥ * अर्थ - पुरातन काल से ही मेरी मृत्यु अनेक बार हुई है । मेरा मृत्युञ्जय महोत्सव नहीं हुआ है ।। ६ ॥
जीवनस्य प्रतिच्छाया, मृत्युरस्ति न संशयः । मरणं मे मंगलं भूयात्, भक्त्या दानमहोत्सवः ॥ ७ ॥
किन्तु आज तक
अर्थ - जीवन की प्रतिच्छाया मृत्यु है । इसमें कोई संशय नहीं है । लेकिन मेरी भावना है कि भक्ति एवं दान महोत्सव से मण्डित मेरी मृत्यु मंगलमय हो ॥ ७ ॥
जैनदर्शन - सिद्धान्तः,
प्रथितोऽस्ति महीतले । निगोदस्तु बुधैः प्रोक्तः, गर्भावस्थानमात्मनः ॥ ८ ॥ अर्थ- गर्भावस्था में श्रात्मा की निगोद अवस्था ज्ञानियों जैन सिद्धान्त पृथ्वीमण्डल में प्रसिद्ध है ॥ ८ ॥
कही है ।
* श्रर्थ - श्रव्यवहार संकुल निगोद अनादि कहा गया है । पर निगोद भी नष्ट होता है । इसलिए धीर पुरुष कभी है ।। १० ।।
गर्भावस्था यथा लोके, बाल्य-यौवन- वार्धकम् । तथैव जैन - सिद्धान्ते, निगोदो गर्भकोदितः ॥ & ॥
* अर्थ-संसार में गर्भावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था और बुढ़ापा वर्णित है, वैसे ही जैनदर्शन में निगोद की गर्भ उत्पत्ति बतायी है ।। ६ ।।
अव्यवहार राशिस्तु, निगोदोऽनादि - रुच्यते ।
निगोदकर्मणां नाशे, धीरो नैव प्रमाद्यति ।। १० ।।
यह
कर्मों के नष्ट होने
प्रमाद नहीं करता