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________________ ७।६४ ] सप्तमोऽध्यायः (२) द्रव्य विशेष-देय चीज-वस्तु योग्य गुणवाली होनी चाहिए, जिससे लेने वाले पात्र को जोवन-यात्रा में पोषकरूप होकर गुण-विकास को प्राप्त करने वाली हो। अन्न, पान, वस्त्र, पात्र इत्यादि श्रेष्ठ द्रव्यों का दान करना चाहिए। वह द्रव्य विशेष कहा जाता है। (३) दाता को विशेषता-दान को ग्रहण करने वाले पुरुष पर श्रद्धा होनी चाहिए। उसकी तरफ तिरस्कार या असूया (गुणों में दोष दृष्टि) के भाव नहीं हों और त्याग के पश्चात् शोक तथा विषाद नहीं हो। आदरपूर्वक दान देने की इच्छा करते हुए उससे प्रतियोग या किसी प्रकार के फल की आकांक्षा नहीं रखे। अर्थात्-दाता प्रसन्नचित्त, पादर, हर्ष, शुभाशय इन चार गुणों से युक्त और विषाद, संसार सुख की अभिलाषा-इच्छा, माया और निदान इन चार दोषों से रहित होना चाहिए। १. प्रसन्नचित्त-जब साधु इत्यादि अपने गृह-घर पर पधारें तब मैं पुण्यशाली-भाग्यशाली हूँ, जो तपस्वी मेरे गृह-घर पर पधारे हैं। इस तरह विचारे और प्रसन्न होवे। परन्तु यह तो नित्य हमारे गृह-घर पर आते हैं, वारंवार आते हैं, ऐसा विचार करके कंटाली न जाय । २. प्रादर-बढ़ते हुए आनन्द-हर्ष से पधारो! पधारो! अमुक वस्तु का जोग है, अमुक वस्तु का लाभ दीजिए। यो प्रादरपूर्वक दान दें। ३. साधु को देखकर के या साधु कोई चीज-वस्तु मांगे तब हर्ष पावे। वस्तु का दान देते हुए भी हर्ष पावे। वस्तु वहोराने के बाद भी अनुमोदना करे। आम दान देते पहिले, देते समय तथा देने के बाद भी हर्ष-आनन्द पावे । ४. शुभाशय-अपनी आत्मा का भव-संसार से निस्तार करने के प्राशय से दान देवे । ५. विषाद का प्रभाव-दान देने के बाद मैंने क्या दिया? इस तरह पश्चात्ताप नहीं करे, किन्तु व्रती (तपस्वी) के उपयोग में प्रा जाय यही मेरा है। मेरी चीज-वस्तु तपस्वी के पात्र में गई, यही मेरा अहोभाग्य है। इस तरह अनुमोदना करे। ___[उक्त प्रसन्नचित्त में कहे हुए इन चार गुणों में से हर्ष गुण प्रा जाय तो विषाद दोष दूर हो जाता है।] ६. संसार के सुख की इच्छा का प्रभाव-दान देकर के उसके फलरूप में कोई भी भवसंसार सुख की अभिलाषा-इच्छा नहीं रखे। [उक्त कहे हुए चार गुणों में से जो शुभाशय आ जाय तो संसार सुख की अभिलाषा-इच्छा तथा निदान ये दो दोष दूर हो जाते हैं ।]
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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