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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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जहाँ पर प्रमाद के योग से प्राणवियोग होता है वहाँ पर द्रव्य और भाव, उभयस्वरूप हिंसा है। जहाँ प्रमाद नहीं है तो भी प्राणवियोग हो जाता है, वहाँ पर केवल द्रव्यहिंसा है। जहाँ पर प्राणवियोग नहीं है किन्तु प्रमाद है, वहाँ पर केवल भावहिंसा है। प्रमाद-असावधानी यह भावहिंसा है। अतः अहिंसा के पालन के लिए साधक को सदा अप्रमत्त अर्थात् सावधान रहना चाहिए । ॐ प्रश्न-उपर्युक्त तीन प्रकार की हिंसा में कौनसे-कौनसे जीवों को कौनसी-कौनसी हिंसा
सम्भवती है ? उत्तर-जब कोई जीव प्राणवध करने का प्रयत्न करें, किन्तु उसमें निष्फल हो जाय तब मात्र भावहिंसा होती है। जैसे कोई शिकारी मृग-हरिण को ताक करके बाण मारता है किन्तु मृग-हरिण को बाण नहीं लगने से वह बच जाता है। इसलिए यहाँ द्रव्यप्राण का वियोग नहीं होने से द्रव्यहिंसा नहीं है, किन्तु प्रमाद-जीव रक्षा के परिणाम का अभाव होने से भाव हिंसा है । इस तरह अन्धेरे में रज्जु-रस्सी को सर्प मान मारने का प्रयत्न करने में मात्र भाव हिंसा होती है। इन दोनों दृष्टान्तों में हिंसा के लिए काया से प्रयत्न किया, परन्तु निष्फलता मिलने से, विचारने से मात्र भाव हिंसा हुई। जब कोई क्रोधावेश में प्राकर अन्य-दूसरे को चुभे ऐसे हिंसात्मक वचन बोलते हैं, मृत्यु-मरण के लिए शाप देते हैं, तब भी भाव हिंसा होती है। अब भी आगे बढ़कर विचार करें तो ज्ञात होगा कि हिंसा के लिए कायिक प्रयत्न और वचन प्रयोग बिना केवल मन में हिंसा के विचार से भाव हिंसा होती है। जैसे कि तंदुल मत्स्य। यह मत्स्य तंदुल (चोखा का) दाणा जितना होता है, इसलिए उसे तंदुल मत्स्य कहने में आता है। वह महामत्स्य के आँख की पाँपण में उत्पन्न होता है। जब महामच्छ कितनेक मत्स्यों को निगल जाता है, तब उसके साथ अल्प पानी भी उसके मुख में आ जाता है। इस जल-पानी को अपने मुख में से वह बाहर निकालता है तब पानी के साथ दांतों की पोलाण में रहे हुए कितनेक छोटे-छोटे मत्स्य भी बाहर निकल जाते हैं। यह देखकर तन्दुल मत्स्य विचार करता है कि-जो मैं महामत्स्य होऊँ तो एक भी मत्स्य को इस तरह मुख में से निकलने न दूं। इतना ही नहीं किन्तु सभी मत्स्यों का भक्षण कर जाऊँ। हिंसा के ऐसे अति भयंकर अध्यवसाय से वह सतत भावहिंसा किया करता है, तथा सिर्फ अन्तर्मुहूर्त जितने आयुष्य काल में सातवीं नरकभूमि का आयुष्य बाँधता है।
हिंसा के लिए काया से प्रयत्न नहीं करे, वचन से नहीं बोले तथा मन में विचारणा नहीं करे, तो भी जो जीव-आत्मा में जीवरक्षा के परिणाम नहीं हो तो भी भावहिंसा होती है। जीवरक्षा के परिणामरहित समस्त जीव सदा भावहिंसा का पाप बाँधते हैं ।
(२) जीवरक्षा के परिणाम से रहित जब जीव-आत्मा प्राणियों का वध करता है, तब वह द्रव्य-भाव हिंसा करता है। गृहस्थावास में रहा हुआ साधक हिंसा की सूक्ष्म व्याख्या को समझता है और हिंसा से सर्वथा निवृत्त हो जाने की तीव्र इच्छा रखता है, तो भी सयोगों के विपरीतपने से हिंसा से सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकता। जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य हिंसा द्रव्यहिंसा है । इस तरह संसार में रहे हुए मनुष्यों में तीन प्रकार की हिंसा सम्भवती है।
(३) संसार का त्याग करके जिसने पारमेश्वरी-भागवती प्रव्रज्या-दीक्षा प्राप्त की है, ऐसे अप्रमत्त मुनिराज से संयोगवशात् हो जाती हिंसा वह द्रव्यहिंसा है। जैसे-अप्रमत्त भाव से युगप्रमाण दृष्टि रखकर विहार कर रहे मुनिराज के पांव नीचे अकस्मात् कोई जीव आ जाए और