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सप्तमोऽध्यायः
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* प्रश्न-जीवों को, प्राणियों को दुःख देना कष्ट पहुँचाना या उनका वध करना यह हिंसा
का अर्थ स्पष्ट रूप से सुप्रसिद्ध है, तो फिर उसमें प्रमत्तयोग का प्रक्षेप क्यों
किया?
उत्तर-जगत् में जब तक मनुष्य-समाज के संस्कार, विचार और वर्तन ये तीनों उच्च कोटि के नहीं होते, तब तक पशु तथा पक्षी इत्यादि अन्य प्राणियों में और मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं है । वे हिंसा के स्वरूप को बिना समझे-विचारे हिंसा को हिंसा नहीं मान करके उस प्रवृत्ति में तत्पर मग्नलीन रहते हैं। यह मनुष्य समाज की प्रारम्भिक प्राथमिक दशा है जब उत्तरावस्था के सन्मुख होके विचार श्रेणो में प्रारूढ़ होता है, उस समय वह अपने विचारों का मन्थन करता हुआ पूर्व संस्कार और अहिंसा की नूतन भावना से टकराता है। अर्थात् एक तरफ हिंसावृत्ति तथा दूसरी तरफ हिंसा निषेध विषयक अनेक प्रकार के प्रश्न उठते हैं। * प्रश्न-पाँच इन्द्रियादि दश प्रकार के द्रव्य प्रारण हैं। ये प्राण प्रात्मा से भिन्न-जुदे हैं।
__ इन प्राणों के वियोग से जोव-यात्मा का विनाश नहीं होता है। तो फिर
प्राणों के वियोग में अधर्म-पाप क्यों लगता है ? उत्तर-प्राणों के वियोग से जीव-आत्मा का विनाश नहीं होता है, किन्तु जीव-प्रात्मा को दुःख अवश्य होता है। इसलिए ही प्राणों के वियोग से आत्मा को अधर्म-पाप लगता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्राण-वियोग अधर्म-पाप अथवा हिंसा है ऐसा नहीं, किन्तु अन्य को दुःख देना भी अधर्म-हिंसा है।
____ मुख्य हिंसा भी यही है। शास्त्रीय भाषा में जो कहें तो अन्य-दूसरे को दुःख देना यह निश्चय हिसा है और प्राणवियोग यह व्यवहार हिसा है। व्यवहार हिंसा निश्चय हिंसा का कारण है, इसलिए उससे पाप लगता है। इसे ही अन्य शब्दों में कहें तो दुःख देना यह भाव हिंसा है और प्राणों का वियोग यह द्रव्यहिंसा है।
* अन्य अपेक्षा द्रव्य-भाव हिंसा नीचे प्रमाणे हैं
आत्मा के अनन्तज्ञानादि गुण भावप्राण हैं। विषय और कषाय इत्यादि प्रमाद से आत्मा के गुणों का घात भी हिंसा है। आत्मा के गुणों का घात भावहिंसा है। आत्मा के गुणों के घात रूप भावहिंसा की अपेक्षा द्रव्यगुणों का घात सो द्रव्यहिंसा है। यहाँ पर भावहिंसा मुख्य है। इन दोनों प्रकार की हिंसा के स्वभावहिंसा और परभावहिंसा ऐसे दो भेद हैं।
अपनी आत्मा के गुणों का घात यह स्वभावहिंसा है और पर की आत्मा के गुणों के घात में निमित्त बनना यह परभावहिंसा है। विष-जहर इत्यादिक से अपने द्रव्य प्राणों का घात यह स्वद्रयहिंसा है तथा पर के द्रव्य प्राणों का घात करना यह परद्रयहिंसा है।
ॐ परद्रव्य हिंसा के तीन भेद नीचे प्रमाणे हैं
अन्य-दूसरे के द्रव्य प्राणों के घातरूप हिंसा को अन्य रीति से विचार करते हुए हिंसा के द्रव्य, भाव तथा द्रव्य-भाव ऐसे तीन भेद हैं
(१) केवल प्राणव्यपरोपण-प्राणवध यह द्रव्यहिंसा है । (२) केवल प्रमत्तयोग-असावधानी यह भावहिंसा है। (३) प्रमाद और प्राणवियोग इन दोनों का समयोग यह द्रव्यभाव हिंसा है।