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४२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ८।१५-१६ उदय तथा उदीरणा की अपेक्षा नामकर्म की ६७ प्रकृतियां गिनने में आती होने से १२२ भेद होते हैं।
बन्ध की अपेक्षा सम्यक्त्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय ये दो प्रकृतियाँ निकल जाने से १२० भेद होते हैं।
इस विषय में विशेष स्पष्टीकरण के लिए प्रथमकर्मग्रन्थ देखने की आवश्यकता है ।
उपर्युक्त प्रकृतियों के बन्ध को 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं। इसे कर्मग्रन्थ में अनेक प्रकार से समझाया गया है।
जैसे-पहले कर्मग्रन्थ में प्रकृतियों के स्वरूप तथा दूसरे, तीसरे और चौथे कर्मग्रन्थ में मुख्यपने प्रकृति बन्ध का ही वर्णन पाता है। बाद में पांचवें कर्मग्रन्थ में ध्रुवबन्ध्यादि तथा भूयस्कारादिरूप से वर्णन किया है। पंचम कर्मग्रन्थ की तेईसवीं गाथा में कहा है कि
एगावहिये भूयो एगाह ऊरणगमि अप्पतरो।
तम्मतोऽवठ्ठियो पढमे . समए अवतव्वो ॥२३॥ एक आदि प्रकृति का अधिक बन्ध भूयस्कार कहलाता है। वैसे ही तीन बन्ध को अल्पतर कहते हैं तथा समको अवस्थित कहते हैं और प्रबन्धक हो के फिर से बांधे वह प्रथम समय अव्यक्त बन्ध है। जैसे = गाथा २२ ।
मूल पाठ प्रकृतियों के बन्ध स्थान ४ हैं। ८-७-६-१ के तीन भूयस्कार होते हैं। अव्यक्त बन्ध नहीं है।
विशेष-जिज्ञासुमों को उक्त ग्रन्थ की वृत्ति-टीका या भाषान्तर देखना चाहिए। वहां पर उत्तरप्रकृतियों का सविस्तार वर्णन है ।। ८-१४ ॥
* स्थितिबन्धस्य वर्णनम् * ॐ मूलसूत्राणिप्रावितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत् सागरोपमकोटीकोटयः
परा स्थितिः ॥ ८-१५॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ ८-१६ ॥
नाम-गोत्रयोविंशतिः ॥ ८-१७ ॥ त्रयस्त्रिशत् सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥ ८-१८ ।। अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ ८-१६ ॥