________________
सप्तमोऽध्यायः
[ ४१
* चार शिक्षाक्त * (8) काल-समय की मर्यादा करके अधर्म प्रवृत्ति से निवृत्त होकर उतने समय तक धर्मप्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करे उसको सामायिक व्रत कहते हैं ।
(१०) अष्टमी तथा चतुर्दशी इत्यादि पर्व तिथियों में उपवास करके धर्म जागरण करे, इसको पौषषोपवास व्रत कहते हैं ।
(११) जिसमें बहुत अधर्म अथवा प्रारम्भ-समारम्भ ऐसे आहार-विहार अर्थात् भोगोपभोग की वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग करके न्यूनारंभ वस्तुओं की जो मर्यादा करे, उसे भोगोपभोगपरिमाण व्रत कहते हैं।
(१२) शुद्धभावपूर्वक तथा शक्ति अनुसार सुपात्र को दान देना उसे प्रतिथि संविभाग व्रत
कहते हैं।
* अगारी व्रती के लिए इन पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत कुल मिलाकर बारह अणुव्रत का निर्देश किया।
दिग्विरति आदि सात व्रतों का स्वरूप तथा फल संक्षेप में नीचे प्रमाणे है
(६) दिगविरति गुणवत-पूर्वादि चार दिशा, चार विदिशा, ऊर्ध्व और अधो दिशा मिलाकर कुल दस दिशायें हैं। पूर्वादिक दश दिशाओं में अमुक हद तक जाना, उसके बाहर न जाना। इस तरह सब दिशाओं में गमन परिमारण का नियम करना, वह दिगविरति है । जैसे-किसी भी दिशा में दस किलोमीटर से दूर नहीं जाना, या अमुक-अमुक दिशा में अमुक-अमुक देश से बाहर नहीं जाना। आम इच्छा प्रमाणे दिशा सम्बन्धी विरति करनी वह दिग्विरति है। इस व्रत में दिशा का परिमाण निश्चित हो जाने से इस व्रत को दिक्परिमाण व्रत भी कहने में पाता है।
इस व्रत का फल-दिग्विरति व्रत के अनेक फल हैं। उनमें मुख्य दो फल हैं
(१) अपनी धारी हुई दिशा के बाहर होने वाली समस्त प्रकार की हिंसा का त्याग होता है। स्वयं नहीं जाय, स्वयं हिंसा नहीं करे, तथा स्वयं किसी को प्रेरणा नहीं करे तो भी जो दिशा की मर्यादा का नियम नहीं किया हो तो वहाँ पर होने वाली समस्त प्रकार की हिंसा का पाप लगता है, क्योंकि नियम नहीं करने से वहाँ हिंसा का अनुमोदन रहा हुआ है ।
(२) लोभ मर्यादित बनता है। मर्यादा-हद का नियमन होने के बाद, उस मर्यादित-हद के बाहर चाहे जितना लाभ होने वाला हो तो भी वहाँ जा सकते नहीं। नियमन के बाद उसका बराबर पालन करने से ही लोभ धीरे-धीरे अवश्य घट जाता है। अनेक प्रकार के प्रलोभनों के सामने टिकने का सात्त्विक बल मिल जाता है।
(७) देशविरति (देशावगाशिक) गुणवत-दिग्विरति व्रत में गमन की जो मर्यादा-हद निश्चित की हो, उसमें भी प्रतिदिन यथायोग्य अमुक देश को (विभाग को) संक्षेप करना, वह देशविरति है। अर्थात्-देश (अमुक विभाग) सम्बन्धी जो विरति वह देशविरति कही जाती