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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ८।२-३ इग चउपणति गुणेसु, चउतिदुइगपञ्चरो बन्धो ॥५२॥ अर्थ-एक मिथ्यात्वगुणस्थान में चारों बन्धहेतु होते हैं। सास्वादनगुणस्थान से देशविरति पर्यन्त चार गुणस्थान में तीन बन्धहेतु हैं। तथा ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त एक बन्धहेतु है।
सारांश-सूक्ष्मदृष्टि से बन्ध के कषाय और योग, ये दो ही कारण हैं, तथा प्रास्रव के और बन्ध के कारण समान होते हुए भी सामान्य अभ्यासी की सुगमता के लिए यहाँ पर बन्ध के कारण पाँच कहे हैं। तथा आस्रव के और बन्ध के हेतु भिन्न-भिन्न बताये हैं। प्रास्रव के कारणों के क्रम में कोई खास कारण नहीं है। बन्ध के कारणों के क्रम, कारणों के विनाश की अपेक्षा से हैं ॥ ८-१।।
* बन्धस्य व्याख्या *
+ मूलसूत्रम्सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते ॥८-२॥
___स बन्धः ॥८-३॥
* सुबोधिका टीका * कषायवान् भवतीति हेतुना जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् गृह णाति । कर्मयोग्यान् इति अष्टविधपुद्गलग्रहणकर्मशरीरग्रहणयोग्यान् इत्यर्थः । नामप्रत्ययाः सर्वतो योग्यविशेषाद् इति वक्ष्यते ।। ८-२ ।।
जीवद्वारा पुद्गलानां यद्ग्रहणं स बन्धो भवति ।। ८-३॥
* सूत्रार्थ-कषाय के सम्बन्ध से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है ।। ८-२ ॥ कार्मण शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने को बन्ध कहते हैं ।। ८-३ ।।
विवेचनामृत ॥ कषाय के कारण जीव कर्म के योग्य अर्थात् कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। ग्रहण किये हुए पुद्गलों को प्रात्मा में दुग्ध-दूध में जल-पानी की माफिक एकमेक करता है । (२)
__ यही कर्म का बन्ध है। अर्थात् कार्मण वर्गणा के कर्म के योग्य पुद्गलों को आत्मा के साथ क्षीर-नीर की तरह या लोह-अग्नि की भाँति एकमेक रूप जो सम्बन्ध वह बन्ध है। (३)