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अष्टमोऽध्यायः
(२) अविरति--दोषों से विराम नहीं होना अर्थात्-विरति का अभाव वह अविरति । हिंसा आदि पापों से जो निवृत्ति वह विरति है। हिंसा आदि पापों से अनिवृत्ति यह अविरति है।
(३) प्रमाद-आत्मविस्मरण या अच्छे कार्यों में अनादर, कर्तव्याकर्त्तव्य के लिए असावधान । अर्थात्-भूल जाना, धार्मिक अनुष्ठानों में उत्साह का अभाव, आर्तध्यान, रौद्रध्यान (अशुभ विचार) तथा इससे होती प्रवृत्ति प्रादि प्रमाद है।
शास्त्रग्रन्थों में मद्य (मद अथवा मादक प्राहार), विषय (इन्द्रिय के स्पर्शादि पाँच विषय), कषाय (क्रोधादिक चार), निद्रा, तथा विकथा (स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, तथा राज कथा ये चार) इस तरह पाँच प्रकार के प्रमाद कहे हैं। इसके सम्बन्ध में शास्त्रीय गाथा नीचे प्रमाणे है
मज्जं विषय-कषाया, निद्दा विकहा य पञ्चमी भणिया ।
ए ए पञ्च पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥१॥ प्रकारान्तर से आठ प्रकार के भी प्रमाद कहने में आए हैं। देखिए
अन्नाणं संसपो चेव, मिच्छानाणं तहेव य । रागो दोसो मइन्भंसो, धम्ममि य प्रणायरो ॥१॥ जोगाणं दुप्परिणहाणं, पमानो अट्टहा भवे ।
संसारुत्तारकामेणं, सव्वहा वज्जिअव्वनो ॥ २॥ अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिभ्रंश, धर्म में अनादर तथा योगों के दुष्प्रणिधान (अयोग्य प्रवृत्ति) ये आठ प्रकार के प्रमाद हैं ।
(४) कषाय -समभाव की मर्यादा का उल्लंघन । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। उनका विशेष वर्णन इस आठवें अध्याय के दसवें सूत्र में पायेगा।
(५) योग-मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्ति । अर्थात्-मन, वचन प्रौर काय ये तीन प्रकार के योग हैं।
विशेष-छठे अध्याय में वर्णन किए हुए बन्धहेतुनों में और प्रस्तुत बन्धहेतुओं में विशेषता यह है कि, वे प्रत्येक कर्म की विशेषता रूप मुख्य बन्धहेतु हैं। पूर्ववर्ती बन्धहेतुओं के अस्तित्व में उत्तरवर्ती बन्धहेतु अवश्य होते हैं। जैसे-मिथ्यात्व के रहते हुए शेष अविरत्यादि चारों की अस्तिता अवश्यमेव होती है। तथा अविरति के रहने पर प्रमादादि तीनों बन्धहेतु अवश्य होते हैं। किन्तु मिथ्यात्व का नियम नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व केवल पहले गुणस्थानक में ही अविरति के साथ रहता है। परन्तु द्वितीयादि चार गुणस्थानकों में उसका अभाव है। इसी तरह उत्तरवर्ती बन्धहेतुओं के साथ पूर्ववर्ती बन्धहेतुओं का नियम नहीं है। वे मिथ्यात्वादि की अस्तिता में होते हैं, अन्यथा नहीं होते। यथा चतुर्थ कर्मग्रन्थ में कहा है कि