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४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ८१ (३) प्राभिनिवेशिक-अभिनिवेश अर्थात् कदाग्रह-पकड़। यथावस्थित तत्त्वों को जानते हुए भी अभिमान-अहंकार आदि के कारण असत्य सिद्धान्त को पकड़ रखने वाले जीव के जो तत्त्वों के प्रति प्रश्रद्धा होती है, वह प्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। इसमें अभिमान-अहंकार की मुख्यता है। असत्य सिद्धान्त पर अभिनिवेश-पकड़ अभिमान-अहंकार का ही प्रताप है। अभिग्रह और अभिनिवेश इन दोनों शब्दों का अर्थ पकड़ है। इसलिए शब्दार्थ की दृष्टि से दोनों का अर्थ एक ही है। ऐसा होते हुए भी दोनों में पकड़ के हेतु में भेद होने से अर्थ का भेद पड़ता है।
आभिगृहिक मिथ्यात्व में विपरीत समझने से पकड़ है; जबकि प्राभिनिवेशिक में अन्दर से (हृदय में) सत्य हकीकत को समझते हुए भी 'मेरा माना हुआ अर्थात् मेरा कहा हुआ मैं कैसे बदल हूँ” इत्यादि अभिमान-अहंकार के प्रताप से अपनी असत्य-झठी मान्यता की पकड़ है तथा अन्य आभिगृहिक में समस्त तत्त्वों के प्रति विपरीत मान्यता होती है, जबकि प्राभिनिवेशिक में किसी एकाध तत्त्व में से किसी एक विषय में विपरीत मान्यता होती है।
आभिगहिक मिथ्यात्व श्री जैनदर्शन के अलावा बौद्धदर्शन आदि किसी एक दर्शन के आग्रह वाले को होता है, जबकि प्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व श्री जैनदर्शन को प्राप्त किये हुए को होता है। जैसे जमाली।
(४) सांशयिक-सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वरदेव के कहे हुए 'जीवादि तत्त्व सत्य हैं कि नहीं? ऐसी शंका ही सांशयिक मिथ्यात्व है। यहां पर सर्वज्ञविभु श्री जिनेश्वरदेव पर अविश्वास यही मुख्य कारण है। सर्वज्ञविभु श्रीजिनेश्वरदेव पर सम्पूर्ण विश्वास नहीं होने के कारण उनके वचनों की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में भी संशय होता है। यह सांशयिक मिथ्यात्व है।
(५) अनाभोगिक-अनाभोग यानी अज्ञानता। अज्ञानता के कारण तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा अर्थात् श्रद्धा का अभाव अथवा विपरीत श्रद्धा, वह अनाभोगिक मिथ्यात्व है। यहाँ पर समझने की शक्ति का अभाव ही मुख्य कारण है।
__यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय जीव आदि के तथा किसी भी एक विषय में अनाभोग के कारण विपरीत श्रद्धा रखने वाले साधु के अथवा श्रावक के होता है ।
अनाभोग के कारण विपरीत श्रद्धा रखने वाले को जो कोई समझावे तो वह अपनी भूल सुधारता है। कारण कि, वह आग्रहरहित होता है ।
अन्य-दूसरे को समझाने पर भी समझाने वाले की दलील इत्यादि उसको सत्य नहीं प्रतीत हो तो उसे विपरीत श्रद्धा भी हो सकती है। किन्तु समझाने वाले का तर्क-दलील इत्यादि सत्य है, ऐसा जानने के बाद वह अपनी भूल अवश्य स्वीकार कर लेता है। यहाँ पर अश्रद्धा के दो अर्थ हैं(१) विपरीत श्रद्धा, और (२) श्रद्धा का अभाव ।
उसमें प्रथम तीन मिथ्यात्वों में विपरीत श्रद्धा रूप अश्रद्धा है। चौथे मिथ्यात्व में मिश्रभाव है। अर्थात्-श्रद्धा का बिल्कुल अभाव नहीं है, तथा सम्पूर्ण श्रद्धा भी नहीं है। इसमें विपरीत श्रद्धा का बिल्कुल अभाव है। पांचवें मिथ्यात्व में एकेन्द्रिय इत्यादि जीवों के श्रद्धा के प्रभावरूप मिथ्यात्व है।