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________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७२ (४) न्यास-अपहार-न्यास यानी ठापण पूर्वे न्यास-थापण रूपे रखे हुए धन-पैसा आदि जब लेने को प्रा जावे, तब 'हमको नहीं दिये हैं' ऐसा कहकर के थापणा का अपहार करना यानी अस्वीकार करना। वह न्यास अपहार है। यह चोरी का ही एक प्रकार होते हुए भी यह चोरी असत्य बोल करके की गई होने से, इसमें असत्य की मुख्यता होने से उसका असत्य में ही समावेश किया है। (५) कट-साक्षी–कोर्ट आदि के प्रसंग में किसी व्यक्ति की असत्य-झठी साक्षी पूरनी। असत्य साक्षी से अन्य-दूसरे के पाप को भी पुष्टि मिलती होने से कूटसाक्षी असत्य को उपचार के चार असत्य से पृथग् गिना है । असत्य के अनेक प्रकार हैं। उनमें इन पाँच प्रकार के असत्य से प्राध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से अधिक ही नुकसान होता है। इसलिए गृहस्थ को इन स्थल पाँच असत्य का अवश्य ही त्याग करना चाहिए । ___ इन पाँचों असत्यों से कितनी ही बार अपने और पर के प्राण जाने का भी प्रसंग उपस्थित हो जाय, परस्पर वैमनस्य पैदा हो जाय, तथा लोक में भी अपने प्रति अविश्वास पैदा हो जाय, तो अनेक नुकसान हो जाने से परिणाम में व्यवहार बिगड़ता है। तथा इसी से अपने धर्म को भी हानि पहुंचती है। किसी का जीव बचाने के लिये कभी असत्य बोलना पड़े तो उसका इस नियम में समावेश नहीं होता है। कारण कि वह वास्तविक असत्य नहीं है। फल-इससे जनता-लोकों को भी अपने प्रति विश्वास पैदा होता है तथा असत्य के योग से होते हुए क्लेश-कंकास, मारामारी एवं दुश्मनावट-शत्रुतादिक अनेक अनर्थों से बच जाते हैं । (३) स्थूलप्रवत्तादान विरमण- यह तीसरा व्रत है, जिसको व्यवहार में चोरी कहने में आता है। जैसे खीसा कापना, दाणचोरी इत्यादि स्थल चोरी का त्याग करना। (चलते हुए या बैठे हुए रास्ते में से पत्थर पाषाण तथा तृण-घास आदि लेना पड़े इत्यादि सूक्ष्म चोरी का त्याग होता नहीं है)। फल-चोरी करने वाला व्यक्ति भले बाहर से जैसे-तैसे वर्तता हो तो भी अन्तर में फफड़ता है, अति दुःखी है। इसलिए यह व्रत स्वीकारने वाला और पालन करने वाला निर्भय रहता है तथा लोकापवाद, अपकोत्ति तथा राजदंड इत्यादि अनेक अनर्थों से बच जाता है एवं सुरक्षित रहता है । (४) स्थूलमैथुनविरमरण-स्व-पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्त्री के साथ अथवा परस्त्री (कुमारिका, विधवा, वेश्या आदि) के साथ मैथुन का त्याग करना। फल- इस व्रत से अपना जीवन सदाचारी बनता है। परस्त्रीगमन के महान् पाप से और इससे उत्पन्न होते हुए लोकापवाद तथा प्राणनाशभय इत्यादि अनेक अनर्थों से बच जाते हैं ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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