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सप्तमोऽध्यायः (५) स्थलपरिग्रह विरमण-घन-रोकड़ नाणां, सोना-रूपा आदि के दागीना, गह-घर, दुकान तथा राच-राचीला इत्यादि प्रत्येक का अमुक-अमुक प्रमाण से अधिक का त्याग, या रोकड़ नाणां इत्यादि सभी भेली करके अमुक मिल्कियत से अधिक मिल्कियत का त्याग करना।
फल-इस त्याग से प्रात्मा में सन्तोष आता है तथा अपना जीवन स्वस्थ बनता है। मन भी चिन्तामों से मुक्त हो जाता है । * महावत-अणुव्रत में अन्य विशेषता
महाव्रत में तथा अणुव्रत में अन्य विशेषताएँ नीचे प्रमाणे हैं
(१) पांचों प्राणातिपातादि विरमण महावत साधु को साथ में क्रमशः स्वीकार करने का होता है जबकि गृहस्थ तो अणुव्रतों में अपनी अनुकूलता प्रमाणे एक, दो इत्यादि अणुव्रत भी स्वीकार कर सकते हैं।
(२) पंचमहाव्रतों में मन, वचन और काया से करना, कराना और अनुमोदना इन तीन कोटियों से पाप का त्याग करने में आता है। हिंसा इत्यादि मन से करना नहीं, वचन से करना नहीं तथा काया से भी करना नहीं। इस तरह मन इत्यादिक तीन से कराना भी नहीं, अन्य करता हो तो उनकी अनुमोदना भी करना नहीं। आम किसी प्रकार के अपवाद बिना पंच महाव्रतों का स्वीकार होता है।
अणुव्रतों में तो पापों को मन, वचन और काया से करने का और कराने का त्याग होता है किन्तु अनुमोदना का त्याग होता नहीं। इसमें भी गृहस्थ को संक्षेप करना हो अर्थात् छूट लेनी हो तो ले भी सकते हैं। किन्तु साधुओं को तो पंचमहाव्रत में किसी प्रकार की छूट मिल सकती नहीं। कारण कि --त्रिविधे प्रतिज्ञा का परिपालन करना पड़ता ही है।
* हिंसादि पापों को एकदेश निवृत्ति अणुव्रत कैसे है ? इसके कारण नीचे प्रमाणे हैं
(१) अणु यानी छोटा व्रत, वह अणुव्रत है। महाव्रतों की अपेक्षा छोटे होने से उन्हें अणुव्रत कहा जाता है।
(२) गुणों की अपेक्षा भी साधुओं से गृहस्थ अणु यानी छोटे हैं। इसलिए भी उनके व्रत अणुव्रत हैं।
(३) धर्मोपदेश में महाव्रतों के उपदेश के बाद अणुव्रत का उपदेश देने में आता है। इसलिए महाव्रतों के बाद उपदिष्ट होने के कारण भी वे व्रत अणुव्रत हैं ।
तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत भी अर्थ की दृष्टि से अणुव्रत हैं। आगम में प्रथम के पांच व्रतों के लिए ही अणुव्रत शब्द का प्रयोग पाता है अतः अणुव्रत शब्द से प्रथम के हिंसादिक पाँच व्रत ही जानना ॥ (७-२)