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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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७।१३
(४) सर्दी की ऋतु में ठण्डी सहन नहीं होने से तृण-घास तथा अग्नि आदि की अपेक्षा रहे। वे नहीं मिले तो प्रायः असमाधि भी हो। परिणामस्वरूप कदाचित् व्रतों का भंग भी हो।
(५) चोलपट्टा आदि नहीं रखने से लोक में श्री जैनशासन-जैनधर्म की निन्दा-हीलना हो। इससे अज्ञान जीवों को बोधि दुर्लभ हो जाय। इसमें निमित्त श्रमरण-साधु बनने से साधु को अशुभ कर्म का बन्ध हो। आम अपनी कक्षा मुजब पात्रादिक नहीं रखने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । (७-१२)
* व्रती-व्याख्या * के मूलसूत्रम्
निःशल्यो व्रती ॥७-१३ ॥
* सुबोधिका टीका * शल्यशब्दस्यार्थः कण्टक: भवति । तथा च कण्टकमिव हृदये शण्णाति तत्शल्यम् । माया निदान मिथ्यादर्शनशल्य स्त्रिभिर्वियुक्तो निःशल्यो व्रती भवति । व्रतान्यस्य सन्तीति व्रती। तदेवं निःशल्यो व्रतवान् व्रती भवतीति ।। ७-१३ ॥
* सूत्रार्थ-मायाशल्य, निदान शल्य तथा मिथ्यादर्शन शल्य से जो रहित है, वही 'व्रती' है। अर्थात् शल्य से जो रहित हो वह व्रती कहा जाता है ।। ७-१३ ।।
5 विवेचनामृत शल्य से रहित तथा अहिंसादि व्रत सहित जो हो, वह व्रती है।
यद्यपि व्रती शब्द से ही व्रत जिसके हो वह व्रती कहा जाता है। इस तरह समझ सकते हैं, किन्तु यहाँ पर व्रती की व्याख्या के लिए विशिष्ट सूत्र की रचना इसलिए की है कि केवल व्रत होने मात्र से व्रती नहीं कह सकते हैं, किन्तु शल्य रहित भी होना चाहिए। अहिंसा तथा सत्यादिक व्रत ग्रहणमात्र से ही व्रती नहीं हो सकता। व्रती होने की योग्यता के लिए सबसे पहली बात कौनसी है उसी को प्रस्तुत सूत्र द्वारा ग्रन्थकार प्रकाशित करते हैं
"निःशल्यो वती" यहाँ पर व्रती की व्याख्या में अङ्गाङ्गी भाव समाया हुआ है। व्रती अङ्गी है, तथा निःशल्यता अङ्ग है। जैसे अङ्ग-अवयव बिना अङ्गी अवयवी नहीं हो सकता, उसी प्रकार निःशल्यता बिना व्रती नहीं हो सकता। .
यहाँ निःशल्यता की अर्थात् शल्य के अभाव की मुख्यता है। व्रतयुक्त होते हुए भी निःशल्यता न हो तो व्रती नहीं कहा जाता है। मायाशल्यादि तीनों प्रकार के शल्यों से जो रहित है, वही यथार्थ रूप से व्रतों का पालन कर सकता है। शल्य रहते हुए व्रत के पालन में एकाग्र नहीं हो सकता है। क्रमशः दोनों के दृष्टान्त नीचे प्रमाणे हैं।