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३२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ८।१२ * जिस कर्म के उदय से पूर्वे ग्रहण किये हुए औदारिक शरीर के पुद्गलों की साय नूतन ग्रहण कराते ऐसे औदारिक शरीर योग्य पुदगलों का जत-काष्ठवत एकमेक संयोग होता है. वह प्रौदारिक बन्धन नामकर्म है। इसी तरह अन्य वैक्रिय, आहारक, तैजस तथा कार्मण बन्धन नामकर्म में भी समझना।
[६] संघातननामकर्म-प्रौदारिकादिक शरीर योग्य पुद्गलों का संग्रहीत करने वाली सत्ता को संघातननामकर्म कहते हैं। संघात यानी पिंड रूप में संघटित करना। संघात के भी शरीरनामकर्म की अपेक्षा पाँच भेद हैं। औदारिक, वैक्रिय, पाहारक, तैजस और कार्मरण ।
* जिस कर्म के उदय से जसे दंताली से तृण-घास एकत्रित होता है तथा उसको दबाकर छोटा ढगला बनाता है, वैसे ही जीव-प्रात्मा द्वारा औदारिक शरीर के पुद्गल पिण्डरूप में संघटित होते हैं, वह प्रौदारिक संघात नामकर्म है। इसी तरह अन्य संघात के सम्बन्ध में भी जान लेना।
[७] संहनन नामकर्म-हड्डी की विशिष्ट रूप से रचना विशेष को संहनन कहते हैं।
संहनन यानी शरीर में अस्थियों की विशिष्ट रचना। संहनन को चालू भाषा में संघयण की बावा कहने में आती है।
संहनन के छह प्रकार हैं-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कोलिका और सेवार्त।
(१) वज्रऋषभनाराच- इस शब्द में वज्र, ऋषभ और नाराच ये तीन शब्द हैं। वज्र का अर्थ है कीली, ऋषभ का अर्थ है पाटा तथा नाराच का अर्थ है विशिष्ट प्रकार का बन्धन, जिसको शास्त्र में कहते हैं मर्कटबन्ध।
दो अस्थि-हड्डियों के ऊपर कीलिका होती है, अर्थात् तीसरी अस्थि पाटी की माफिक वींटायेला होता है। इन तीनों पर कीली की माफिक ये तीन अस्थि-हड्डियों को भेदकर के चौथी अस्थि रही हुई है। इस प्रकार के अतिशय दृढ़-मजबूत संहनन की रचना वह वज्रऋषभनाराच संहनन (संघयण) है।
(२) ऋषभनाराच-जिसमें दो अस्थि-परस्पर मर्कटबन्ध से बँधाये हुए हों, इन दो अस्थियों पर तीसरी अस्थि-हाड का पाटा की भांति वींटायेल हो, किन्तु इन तीन पर कोली की भाँति चौथी अस्थि नहीं हो। इस प्रकार का संहनन-संघयण ऋषभनाराच है ।
अर्थात् जिसमें नाराच और ऋषभ हो किन्तु वज्र नहीं हो वह ऋषभनाराच संहनन (संघयण) कहलाता है।
(३) नाराच-जिसमें मात्र दो अस्थियां मर्कटबन्ध से बाँधे हों वह नाराच संहनन है।
अर्थात्-जिसमें वज्र और ऋषभ नहीं हो, मात्र नाराच ही हो, वह नाराच संहनन (संघयण) कहा जाता है।