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अष्टमोऽध्यायः
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* जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा को पाँच इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय) की प्राप्ति हो, वह पंचेन्द्रियजातिनामकर्म है । जैसे- नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव ।
[३] शरीरनामकर्म - संसारी जीव आत्मा को रहने का आधार विशेष । उसके पाँच भेद हैं- प्रदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ।
* जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा श्रदारिक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहरण करके दारिक शरीर रूप में परिणमावे, वह मौदारिकशरीरनामकर्म है ।
* जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा वैक्रिय शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय शरीर रूप में परिणमावे, वह वैक्रियशरीरनामकर्म है ।
* जिस कर्म के उदय से जीव- श्रात्मा श्राहारक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके आहारक शरीर रूप में परिणमावे वह श्राहारकशरीरनामकर्म है ।
* जिस कर्म के उदय से जीव म्रात्मा तैजस शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके तेजस शरीर रूप में परिणमावे, वह तैजसशरीरनामकर्म है ।
* जिस कर्म के उदय से जीव आत्मा कार्मण शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके कार्मण शरीर रूप में परिणमावे, वह कार्मणशरीर नामकर्म है ।
[४] अंगोपांग नामकर्म - शरीरगत अवयव विशेष अंगोपांग अंगोपांग शब्द में अंग और उपांग दो शब्द हैं। हाथ, पाँव प्रादि शरीर के अंग है, तथा अंगुली प्रादि उपांग हैं अर्थात् अंगों के अंग हैं। अंगोपांग तीन प्रकार के हैं। श्रदारिक, वैक्रिय तथा आहारक ।
* जिस कर्म के उदय से प्रदारिक शरीर रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल प्रौदारिक शरीर के अंग तथा उपांग रूप में परिणमे, वह श्रदारिक अंगोपांग नामकर्म है ।
* जिस कर्म के उदय से वैक्रिय शरीर रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल वैक्रियशरीर के अंग तथा उपांग रूप में परिणमे, वह वैक्रिय अंगोपांग नामकर्म है ।
* जिस कर्म के उदय से श्राहारक शरीर रूप में ग्रहण किये हुए पुद्गल प्राहारक शरीर के अंग तथा उपांग रूप में परिणमें, वह श्राहारक अंगोपांग नामकर्म है ।
विशेष – प्रदारिकादि शरीर पाँच होते हुए भी अंगोपांग प्रारम्भ के तीन शरीरों में है । अन्तिम तैजस और कार्मरणशरीर के अंगोपांग नहीं होते हैं ।
[५] बन्धननामकर्म - प्रौदारिक शरीर योग्य पुद्गलों का परस्पर योग सम्बन्ध कराने वाले बन्धन हैं । बन्धन यानी जतु-काष्ठ की भाँति एकमेक संयोग । बन्धन के पाँच भेद हैं । दारिक, वैक्रिय, श्राहारक, तैजस और कार्मण ।