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________________ ४८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७१७ संलेखनाव्रते समाधेः प्रधानता। अतः अस्य नाम समाधिमरणमेव । व्रतोऽयं सम्पूर्णव्रतानां फलस्वरूपं भवति । प्रतः पाराधनीयम् । सूत्रकारेणास्य कृते जोषिता शब्दस्य प्रयोगः कृतः। अर्थात् अयं व्रतः प्रीतिपूर्वकं सेवनीयम् । मरणकाले दुष्काले वा कालदोषेन शरीस्वीयं क्षीणं भवति तदा आत्मनः संल्लेखनं कृत्वा सविधि समाधिपूर्वकं वा श्रीअरिहन्तादिपञ्चपरमेष्ठिगुणान् स्मृत्वा प्राणान् त्यजेत् । इदमेव समाधिमरणं भवति । अत्र पृथक्त्वेन निर्देशानाक्षयं यदस्य वैशिष्टयौं प्रकाशितं भवेत् । तथा च समाधिमरणं अगारीश्रावकाः एव नैव कुर्वन्ति अपि तु अनगारिणः अपि कुर्वन्तीति ।। ७-१७ ।। * सूत्रार्थ-श्रावक मारणान्तिकी संलेखना करने वाला होता है ।। ७-१७ ।। ॐ विवेचनामृत 5 व्रती (गृहस्थ या साधु) मरण के अन्त में संलेखना करते हैं। संलेखना यानी देह-शरीर और कषायों को कृश करने वाला तपविशेष । कषायों का अन्त करने के लिए देह-शरीर के पौष्टिक कारणों को दूर करता हुआ केवल उसके निर्वाह हेतु अल्पोदन (अल्पाहार) या काल, संगठन की दुर्बलता तथा उपसर्गादिक दोष जानकर अल्प आहार या चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम भक्त इत्यादि द्वारा आत्मा को नियम में लेकर के संयम में प्राप्त हो तथा उत्तम व्रत सम्पन्न हो, उसको 'संलेखना व्रत' कहते हैं। यह व्रत देह-शरीर के अन्त समय तक ग्रहण करने योग्य होने से इसको मारणान्तिकी संलेखना भी कहते हैं। प्रशन-पान-खादिम-स्वादिम रूप चारों आहारों को त्याग कर जीवनपर्यन्त भावना तथा अनुप्रेक्षा में तत्पर ऐसे संलेखना सेवी उत्तम अर्थ के आराधक होते हैं। इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि-दुष्काल, देह-शरीर निर्बलता, रोग तथा उपसर्ग प्रादि के कारण सद्धर्म का पालन नहीं हो सके तो, अथवा मृत्यु-मरण नजदीक हो तो, तब व्रती को ऊनोदरी, उपवास, छठ तथा अट्ठम आदि तप द्वारा काया और कषायों को कृश करके (गृहस्थ श्रावक हो तो पंच महाव्रतों को स्वीकार करने पूर्वक) जीवन-पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग अवश्य करना चाहिए। इस तरह जीवन के अन्तिम समय तक मन में मैत्री इत्यादि अनित्यादिक भावनाएँ भानी चाहिए। स्वीकारे हए व्रतों का स्मरण करना चाहिए। प्रार्तध्यान तथा रौद्रध्यान का त्याग करके अपने मन को स्वस्थ-समाधियुक्त रखना चाहिए। इस तरह करने से व्रती अन्तिम समय में अति सुन्दर ऐसे मोक्ष की आराधना कर लेते हैं। * प्रश्न संलेखनाव्रती अनशनादि द्वारा शरीर का अन्त करता है, इसलिए वह आत्मघात हुआ है, यह स्वहिंसा है इसलिए इसे त्यागधर्म (व्रत) कैसे कह सकते हैं ?
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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