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________________ ८।२३ ] अष्टमोऽध्यायः [ ४७ अर्थात् - जिस कर्म का जो नाम है उस नाम प्रमाणे उस कर्म का विपाक फल मिलता है, जैसे (१) ज्ञानावरणकर्म का फल ज्ञान का प्रभाव है । (२) दर्शनावरणकर्म का फल दर्शन का ( सामान्य ज्ञान का ) प्रभाव है । (३) वेदनीयकर्म का फल सुख या दुःख है । ( ४ ) मोहनीयकर्म का फल तत्त्वों पर श्रद्धा का प्रभाव तथा विरति का प्रभाव आदि है । (५) आयुष्य कर्म का फल नरकगति श्रादि के जोवन की प्राप्ति है । (६) नामकर्म का फल देह शरीर आदि की प्राप्ति आदि है । (७) गोत्रकर्म का फल उच्चगोत्र में या नीचगोत्र में जन्म-प्राप्ति है । (८) अन्तरायकर्म का फल दानादि का प्रभाव है । * उपमा द्वारा आठों कर्मों के विपाक का वर्णन • उपमा द्वारा आठों कर्मों के विपाक का क्रमशः वर्णन नीचे प्रमाणे है - [१] ज्ञानावरण कर्म - प्राँख पर बँधी हुई पट्टी के समान है । जैसे प्रांख पर पट्टी बाँधने से कोई चीज वस्तु दिखाई नहीं देती है, उसी प्रकार जीव आत्मा के ज्ञानरूपी नेत्र पर ज्ञानावरण कर्म रूपी पट्टी आ जाने से जीव- श्रात्मा जान सकता नहीं है । तथा जैसे-जैसे पट्टी मोटी होती है वैसे-वैसे कम दिखता है, और जैसे-जैसे पट्टी पतली होती है वैसे-वैसे अधिक दिखता है । उसी तरह ज्ञानावरण का प्रावरण जब अधिक होता है तब ज्ञान कम दिखाता है, और जब ज्ञानावरण का आवरण कम होता है तब ज्ञान अधिक दिखाता है । जीव आत्मा कभी भी सर्वथा ज्ञानरहित होता नहीं है । जैसे- श्राकाश में चाहे कितने ही बादल होत्रें, तो भी सूर्य का प्रकाश रहता ही है, वैसे ही जीव-श्रात्मा को अल्पज्ञान अवश्य होता [२] दर्शनावरण - दर्शनावरणीय कर्म प्रतिहार ( द्वारपाल ) के समान है । जैसे- द्वारपाल राजसभा में प्राते हुए व्यक्ति को यदि रोके रखे तो उस व्यक्ति को राजा के दर्शन नहीं होते, वैसे ही दर्शनावरण से जीव-नात्मा वस्तु को देख नहीं सकता है । अर्थात् - वह सामान्य बोध रूप ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है । [३] वेदनीय - वेदनीयकर्म मधुलिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार के समान है, कारण कि उसे चाटते समय प्रथम तो स्वाद लगता है, किन्तु परिणाम में जीभ कटने पर दुःख पीड़ा होती है; वैसे हो यह वेदनीयकर्म दुःख- पीड़ा का अनुभव कराता है । एवं उससे होता हुआ सुख का अनुभव भी परिणामे दु:ख पीड़ा देने वाला ही होता है ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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