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श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रे
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(३६३) कुवादिशतानाम् । शेषानभिगृहीतम् । यथोक्ताया विरतेर्विपरीताविरतिः । प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरो योगदुष्प्रणिधानं चैष प्रमादः । कषाया मोहनी वक्ष्यन्ते ।
योगस्त्रिविधः पूर्वोक्तः । एषां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन् सति नियतमुत्तरेषां भावः । उत्तरोत्तरभावे तु पूर्वेषामनियमः इति ।। ८-१ ॥
* सूत्रार्थ - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग ये पाँच बन्ध के कारण हैं ।। ८१ ।
5 विवेचनामृत 5
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच कर्मबन्ध के हेतु कारण हैं । बन्ध यानी कार्मरण वर्गरणा के पुद्गलों का श्रात्मप्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की भाँति गाढ़
सम्बन्ध ।
बन्ध का स्वरूप आगे दूसरे सूत्र में कहेंगे । प्रस्तुत प्रथम सूत्र में उसके हेतुनों का निर्देश है । शास्त्रग्रन्थों में कर्मबन्ध हेतुत्रों की संख्या के सम्बन्ध में तीन परम्पराएँ प्रचलित हैं । उनमें एक परम्परा वाले कषाय और योग दो को ही कर्मबन्ध का हेतु मानते हैं । इसका निर्देश श्रीपंचसंग्रह की मलयागिरि टीकादिक ग्रन्थों में है । दूसरी परम्परा षशितिनामकचतुर्थ कर्मग्रन्थ की गाथा ५० तथा पंच संग्रह द्वा० ४ गाथा० १ इत्यादि ग्रन्थकारों की है । वे मिथ्यात्व, श्रविरति, कषाय और योग इन चार को कर्मबन्ध का हेतु मानते हैं । तथा तीसरी परम्परा सूत्रकार की है जो मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँचों को कर्मबन्ध का हेतु मानते हैं ।
ये मन्तव्य केवल नाम तथा संख्या मात्र से भिन्न स्वरूपी हैं । वास्तविक तत्त्वदृष्टि से उनका अवलोकन किया जाए तो उन भेदों में कुछ भी भिन्नता नहीं है। कारण कि प्रमाद एक प्रकार का असंयम है जिसका अविरति अथवा कषाय में अन्तर्भाव हो जाता है ।
इस तरह की सूक्ष्मदृष्टि से आगे और भी देखा जाए तो मिथ्यात्व तथा प्रविरति कषाय से जुदे नहीं हो सकते । वे वस्तुतः कषाय के ही अन्तर्गत हैं । इस तरह के अभिप्राय से पाँचवें कर्मग्रन्थ की ९६ वीं गाथा में दो ही ( कषाय, योग ) बन्ध हेतु माने हैं । तथा उनको विस्तारपूर्वक समझने के लिए ग्रन्थकारों ने प्रत्येक कर्म के भिन्न-भिन्न बन्ध हेतु बताए हैं। जैसे कि, पूर्व अध्याय ६ सूत्र ११ से २६ या कर्मग्रन्थ ( पहला ) गाथा ५४ से ६१ आदि ग्रन्थों में है ।
कोई भी बँधा हुआ कर्म अधिक से अधिक चार ( प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश) अंशों में विभाजित होता है जिसका वर्णन वर्तमान अध्याय के सूत्र ४ में है । तथा उनके कारण कषाय और योग दो ही कहे हैं । जैसे पंचम कर्मग्रन्थ में कहा है कि - ' जोग पर्याड पदेस, ठिप्रणुभाग कषाया' ।। ६६ ॥