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________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ७५ * सर्वसामान्या द्वितीया भावना * ॐ मूलसूत्रम् दुःखमेव वा ॥ ७-५॥ * सुबोधिका टीका * यथा हिंसादिषु विषयेषु दुःखमेव भावयेत् तथैव तेषां हेतु विषयेऽपि नैव दुःखरूपत्वेऽपि चिन्तनीयम् । यथा ममाप्रियं दुःखमेवं सर्वसत्त्वानामिति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान् । यथा मम मिथ्याभ्याख्येनाभ्याख्यातस्य तीव्र दुःखं भूतपूर्वं भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति अनृतवचनाद् व्युपरमः श्रेयान् । यथा ममेष्टद्रव्य वियोगे दुःखं भूतपूर्वं भवति च तथा सर्वसत्त्वानामिति स्तेयाद् व्युपरम: तथा रागद्वेषात्मकत्वात् मैथुनं दुःखमेव । स्यादेतत् स्पर्शनसुखमिति तच्च न। कुतः ? व्याधिप्रतिकारत्वात् कण्डूपरिगतवच्चाब्रह्मव्याधिप्रतिकारत्वात् सुखे ह्यस्मिन् सुखाभिमानो मूढस्य । तद्यथा तीव्रया त्वक् शोणितमांसानुगतया कण्ड्वा परिगतात्मा काष्ठशकललोष्ठशर्करानखशुक्तिभिर्विच्छिन्नगात्रो रुधिराः कण्डूयमानो दुःखमेव सुखमिति मन्यते । तद्वत् मैथुनोपसेवी अपि इति, अतः मैथुनाद् व्युपरमः श्रेयान् । तथा परिग्रहवानप्राप्तप्राप्तनष्टेषु कांक्षारक्षणशोकोद्भवं दुःखमेव प्राप्नोति इति परिग्रहाद् व्युपरमः इति श्रेयान् भवति । एवं हिंसादिकपञ्चसु कर्मषु सततं दुःखमनुभवतो भावयतो व्रती व्रते स्थैर्यमनुभवति ।। ७-५॥ * सूत्रार्थ-उक्त पांचों ही पाप इस लोक और परलोक दोनों ही जगह दुःख के कारण हैं ।। ७-५॥ की विवेचनामृत 'हिंसादि पाप दुःखरूप ही हैं' इस तरह विचारना। अर्थात्-हिंसादिक प्रवृत्ति से दुःख ही दुःख समझना चाहिए। जैसे-अपने पर किये हुए हिंसा तथा असत्यादि दुष्ट प्रयोगों से दु:ख क्लेशादि उत्पन्न होता है, वैसे ही समस्त प्राणियों को दुःखरूप जानकरके हिंसादिक प्रवृत्ति का त्याग करें। * प्रश्न-हिंसा प्रादि के समान मैथुन इन्द्रियों को दुःखदायी नहीं है ? उसके द्वारा इन्द्रियों को सुख होता है ? उत्तर-इस तरह सोचना उचित नहीं है अर्थात् अनुचित है। कारण कि, जैसे-दाद या खुजली की खुजलाहट को खुजलाते समय रोग वाले रोगी को अच्छा लगता है, किन्तु अन्त में
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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